कथा-कुसुम
चेतावनी
“अरे… डराओ मत, यह झोपड़-पट्टी नहीं है, जो तुम्हारे उफान और गर्जना से थर्रा जाएगी। यहाँ सिर्फ मेरा साम्राज्य है। विकास हूँ मैं, हा..हा..हा तुम्हारी तरह रेत पर इतराता नहीं। मैं अत्याधुनिक तकनीकों से दुनिया को सजाना जानता हूँ।”
“तुम विकास हो या सर्वनाश? ज़रा सोचो, जिसने अपने रक्त से संतान की तरह तुमको सिंचित किया, लायक बनाया। तुम्हारी खुशियों के लिए हमेशा कुर्बानियाँ देती रही। उसके बदले तुमने उसकी आज़ादी छीन ली। अपनी सुख-सुविधाओं के लिए उनका मनमाना शोषण किया। अरे तुम्हें फुर्सत कहाँ उनके तन-मन के छालों को पढ़ने की। सूखकर उनके पेट-पीठ एक हो गये हैं। दिन-रात अपनी उपलब्धियाँ, मीडिया में गिनाकर अपने को धन्य समझ रहे हो। धन्य तो तब होते जब जन्म देने वाली की पीड़ा समझते। तुम तो आस्तीन का सांप निकले।”
“वाह! किसकी बात कर रहे हैं आप? दिखता नहीं, मैं अहिर्निश लोगों की सुख-सुविधा मुहैया कराने में ही लगा रहता हूँ।” विकास जोर-जोर से गरजने लगा।
“सुनो ध्यान से, मैं उन नदियों की बात कर रहा हूँ, जो तुम्हारे दिल की धड़कन हैं। जो तुम्हारे शरीर में रक्त बनकर बह रहा है। पता है तुम्हें तुमने उनका साँस लेना दूभर कर दिया है। तुम्हारी उपलब्धियाँ ये गगनचुंबी इमारतें, हाइवेजेज, मेट्रो, बड़े-बड़े जहाजों, हवाईअड्डों ने नदियों के जीवन को तबाह कर दिया है।”
अभी तक मैं तुम्हारी हरकतें मूक दर्शक की तरह देखता आ रहा हूँ। पर इतना समझ लो जिस अत्याधुनिक विकास के झंडे तले तुम अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर रहे हो, उसको ध्वस्त करने में मुझे पल भर भी नहीं लगेगा। क्या समझ रहे हो उसे तुम? वो अनाथ हैं या अबला?”
“बहुत बक-बक सुन ली। तुम्हारे सीने में इतना दर्द क्यों है? कौन लगते हो उसके?”
“सुनना चाहते हो तो सुनो। सभी नदियाँ अपने दुखड़े लेकर नित्य मेरे पास आती है और मुझसे लिपटकर रोने लगती हैं। उनके आँसू मुझे देखे नहीं जाते। मैं उनका पिता, ‘समुद्र’ अभी जिंदा हूँ। जीते जी मैं तुम्हारे दिल की धड़कनों को हरगिज़ बंद नहीं होने दूँगा।” अट्टहास करता हुआ समुद्र आगे बढ़ गया।
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नया महाकाव्य
पति का मूड अनुकूल देख मैंने बातें छेड़ दीं। “अजी जब भी मैं सीता और गीता के बारे में सोंचती हूँ तो कई सवाल एक साथ मन को कचोटने लगती हैं। हमने उनके लालन-पालन में कोई कसर नहीं छोड़ी। कोई भेद–भाव नहीं किया। अच्छे संस्कार दिए। शहर के नामी स्कूल-कॉलेज में दाखिला दिलवाया। फिर भी दोनों बहनों में ज़मीन-आसमान का अंतर है?
सीता ऑफिस से थक कर आती है, फिर भी सभी के कमरे जाकर हाल–चाल पूछती है। सभी की ज़रूरतों का ध्यान रखती है। वहीं गीता सुबह से शाम तक दोस्तों के साथ शराब-सिगरेट में धुत्त रहती है। मैं माँ हूँ। एक बार मुझे पलटकर भी नहीं देखती। बताइए इसी दिन के लिए इतनी तपस्या की हमने! क्या कमी रह गयी मुझसे, जो ऐसा दिन देखना पड़ रहा है।”
कहने को अभी बचा ही था पर आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बहने लगी।
“अरे गीता–गीता, रटते–रटते अपनी जिंदगी नरक बना ली है तुमने। देखो चालीस की उम्र में ही तुम्हारे सारे बाल सफेद हो गये। आँखों के नीचे काले गड्ढे दिखने लगे हैं। रो-धोकर आपना शेष जीवन बर्बाद करने पर क्यों तुली हो? भगवान ने जो दिया, उसी को लेकर चलना सीखो। क़लम उठाओ, लिख डालो अपनी सारी वेदना। रचो एक नया महाकाव्य।” अपनी बाँहों में समेटते हुए पति मुझसे बोले।
आज जब डाकिये के हाथ से मुझे ‘नया महाकाव्य’ का पहला संस्करण प्राप्त हुआ तो मृतप्राय जीवन एकाएक सार्थक लगने लगा। गहन अंधकार को चिरता हुआ एक प्रकाश पुंज सामने साकार हो उठा।
– मिन्नी मिश्रा