कथा-कुसुम
चीनी और मुस्कान
सुमेधा का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। आज फिर चीनी का डिब्बा ख़ाली! अभी चार दिन पहले ही तो भरा था। भुनभुनाते हुए वह नीचे की अल्मारी से बड़े डिब्बे को निकालकर स्लेब के ऊपर रख; डिब्बा भरने लगी। रोज़मर्रा इस्तेमाल के लिए वह चीनी का छोटा डिब्बा स्लैब के ऊपर रखती है। उस छोटे डिब्बे को भरने का काम भी बहुत बड़ा लगता है सुमेधा को। वह मन ही मन वासु पर क्रोधित हो रही थी। “यह काम और किसी का हो ही नहीं सकता! सुबह काम शुरू करने से पहले जब तक दोनों माँ बेटियों के हलक से चाय न उतरे, हाथ काम के लिए उठते ही नहीं! चाय पियें, कोई बात नहीं! पर एक कप में 4-5 चम्मच चीनी! यह तो अब बर्दाश्त के बाहर हो रहा था। चाय में चीनी नहीं, चीनी में चाय हो गयी। सौ रूपए महीना तो इसकी चाय की चीनी के ही हो गए।” सुमेधा का बड़बड़ाना जारी रहा।
सुमेधा ने तय कर लिया कि कल से चाय की पूछेगी ही नहीं। हाँ, ये ही ठीक रहेगा। अपनी चाय का कप हाथ में लिए वह सोफ़े पर आ बैठी कि पुनः विचार उसका मन खटखटाने लगे, “पायल यहाँ से सीधे स्कूल जाती है। घर से चाय पीकर नहीं आती! भूखे पेट जायेगी क्या बच्ची स्कूल?” सुमेधा का जी बर्फ़ की तरह पिघलने लगा। क्या करूँ फिर? जब भी जीवन के किसी मोड़ पर कोई परेशानी हुई, माँ के अनुभवों से सही दिशा मिल ही जाती है। उसने अपनी माँ को फ़ोन लगाया। कुछ अपनी कही, कुछ उनकी सुनी। फिर माँ से चीनी की चोरी की बात भी कही और कुछ उपाय बताने की दरकार की।
माँ ने सुझाया कि ‘ऊपर का डिब्बा और छोटा कर दो, जिसमें बस एक दिन की ही चीनी आए।’ उपाय सही-सा लगा सुमेधा को। “हाँ, इससे चीनी के प्रयोग पर भी नकेल कस जायेगी और पायल को भी बिना चाय के स्कूल नहीं जाना पड़ेगा।” यह सब ज़िन्दगी के अनुभवों का ही तक़ाज़ा है, जो मम्मी के पास उसकी हर समस्या का समाधान होता है। कुछ दिन यूँ ही आराम से चलता रहा।
आज जैसे ही सुमेधा चाय बनाकर रसोई से निकली, दबी-दबी सी ध्वनि में दोनों माँ-बेटी के स्वर उसके कानों में पड़े। उस के क़दम वहीं ठिठक गये और वह फ्रिज़ की आड़ में रुक गयी।
“हाँ, चाहिए।” पायल ने कहा और फिर बड़े कनस्तर के खुलने की आवाज़! चाय के कप्स को वहीं डाइनिंग टेबल पर रख; वह वापस मुड़ी और देखा, बड़े कनस्तर में से चीनी के चम्मच भर-भर के पायल चाय में डाल रही थी, एक-दो-तीन-चार!
बस, अब उससे रुका न गया। वासु यह क्या? वासु और पायल हक्की-बक्की। थर्रायी आवाज़ मे बोली, “न, कुछ नहीं भाभी।” अब सुमेधा का गुस्सा सातवें आसमान पर जा चुका था। “तुम्हें अगर अंदर से कुछ चाहिए तो मुझसे पूछो, अपने आप कैसे ले सकती हो?” गुस्से में भुनभुनाती सुमेधा अपनी और विशाल की चाय लेकर कमरे में चली गयी। बाद में आकर उसने वासु को आज के खाने का काम भी बताया पर मन ही मन सोचा कि बस, अब बहुत हुआ! अब इसे निकालना ही पड़ेगा! वाक़ई चोरी तो ना-क़ाबिले-माफ़ी है। चोरी और झूठ मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा!
सुमेधा का मन बेचैन-सा होने लगा। क्या वासु को काम से निकालना सही सज़ा होगी? ‘सिंगल पेरेंट’ है। मेहनत कर के बेटी को पढ़ा रही है। फिर माँ है। अब माँ से बच्चों के लिए जो हो पाता है, वह करती ही है। उस दिन पायल के मन की इच्छा पूरी करने का उसके पास बस यही उपाय रहा होगा! सुमेधा को अब यह चोरी नहीं लगी बल्कि इसमें उसे एक मजबूर माँ की ममता दिखाई दी। उसने चीनी का बड़ा डिब्बा भर कर स्लैब पर रखा और अगली सुबह की प्रतीक्षा करने लगी।
कल से पायल मेरे घर से बिना गिल्ट के अपनी मनपसंद चार चम्मच चीनी वाली चाय पी के ही स्कूल जायेगी। और सुमेधा के मन से जैसे कोई भारी बोझ हट गया।
शायद यह निर्णय बहुतों को ठीक न लगे पर सुमेधा के चेहरे पर एक माँ-सी मधुर मुस्कान थी।
– पुष्पनीर