कथा-कुसुम
चले नीड़ की ओर
टी.वी. पर महामारी के चलते लाॅक डाउन की घोषणा सुनते ही सीमा का चेहरा उतर गया। दो साल के लंबे इंतजार के बाद अब तो फैसले की घड़ी आई थी पर वह भी न जाने कब तक के लिए टल गयी। मन शंका-कुशंका के बीच झूलने लगा। चार साल उसके खुशहाल परिवार में सुमन के आने से उठा भूकंप अभी तक थमा नहीं था। सुमन की नियुक्ति उसके पति रमन के ऑफिस में ही हुई थी। जवान तो थी ही साथ ही खूबसूरत भी।
रमन का घर पर भी देर रात सुमन से बातें करना, उसके साथ बाहर जाना उसे पसंद नहीं था। ऐसा नहीं कि उसके ऑफिस में और लड़कियाँ नहीं थी, उनके साथ बातें करने में सीमा को कोई परेशानी नहीं थी पर सुमन के साथ उसका बढ़ता लगाव इस ईर्ष्या को जन्म दे रहा था। इसी बात को लेकर सीमा और रमन के बीच हमेशा वाद-विवाद होता था। रमन जितनी सफाई देता, सीमा का शक उतना ही बढ़ता जाता। फिर कुछ विघ्नसंतोषियों ने सीमा के शक पर अपनी बातों से आग में घी का काम किया। रमन हमेशा समझाता कि उन दोनों के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है, तुम बेकार ही शक करती हो। आखिर दो साल की तकरार के बाद सीमा ने रमन से अलग होने का फैसला कर लिया और अपनी माँ के यहाँ आ गयी। सीमा का बुझा चेहरा देख माँ ने पूछा-
“क्या हुआ? परेशान लग रही हो, तबियत तो ठीक है।”
“हाँ माँ, देखो न लग रहा था इस बार तलाक का फैसला हो ही जाएगा पर लाॅक डाउन ने सब गुड़ गोबर कर दिया।”
सीमा को सांत्वना देते हुए, “बेटा जो भी होता है, अच्छे के लिए होता है।”
“तलाक होना या टलना मेरे लिए तो दोनों ही बुरा है, इसमें अच्छा क्या होगा!”
“सीमा रमन का फोन आया था, कह रहा था तुम उसका फोन नहीं उठा रही हो।”
“अब क्या बात करना, अब तो सारी बातें खत्म हो गयीं।”
“फिर भी एक बार बात तो कर लो, वह कहना क्या चाहता है! वह अभी भी तुम्हारा पति है।”
“ठीक है करती हूँ।”
उत्सुकता से, “क्या कहा रमन ने?”
“विनती कर रहा था कि इन लाॅक डाउन के समय में वह बच्चों के साथ रहना चाहता है पता नहीं फिर समय मिले या नहीं। कह रहा था पत्नी के नाते न सही एक दोस्त के नाते तो आ जाओ।”
माँ की आँखों में उम्मीद की किरण जाग उठी।
“उसकी बात मान लो बेटा, चली जाओ, फिर थोड़े दिन की ही तो बात है।”
“अब क्या रखा है मेरे लिए वहाँ।”
“अपने लिए न सही, बच्चों की खातिर चली जाओ। बच्चों को भी तो पिता का साथ चाहिए। और फिर बच्चों पर जितना हक तुम्हारा है, उतना ही रमन का भी है।”
बच्चे भी जिद करने लगे-
“प्लीज मम्मी चलो न, बस थोड़े ही दिन की तो बात है और स्कूल भी बंद हैं।”
वह बच्चों के साथ बेमन से रमन के यहाँ आ गयी।
घर साफ-सुथरा, खाने की वस्तुओं से भरा किसी भी चीज़ की कमी नहीं थी। रमन भी काफी बदल चुका था। जैसा वह चाहती थी, वैसा ही बन गया था। घर के कामों में बराबरी से सहयोग करता। बच्चों को पढ़ाना, उनके साथ खेलना, उनसे ढेर सारी बातें करना। बच्चों के चेहरों पर भी वह लम्बे समय बाद खुशी देख रही थी। पर रमन और उसके बीच बातें हाँ और हूँ तक ही सीमित थीं। रमन का व्यवहार उससे दोस्त जैसा ही था, कभी भी उसे पत्नी की नजर से नहीं देखा। पेशी के दौरान उसके वकील ने रमन पर कैसे-कैसे आरोप लगाये पर रमन ने कभी भी उस पर कोई आरोप नहीं लगाया। उसके इस बदले रूप से कहीं न कहीं सीमा के मन में जमी बर्फ पिघलने लगी थी।
उसे आये हुए पन्द्रह दिन हो गये थे पर इतने दिनों में सुमन का न ही फोन आया और न ही उसने रमन को सुमन से बात करते देखा, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसका शक सचमुच बेबुनियाद था। पर अब इससे क्या फर्क पड़ता है।
फिर भी मन में उधेड़बुन तो चल ही रही थी। मौका मिलते ही उसने रमन के फोन से सुमन के बारे में जानना चाहा पर रमन की फ्रेंडलिस्ट में सुमन का नाम ही नहीं था और न ही उसके फोन कॉल्स की कोई डिटेल थी। तो क्या सुमन!!!
बर्फ का पिघलना जारी था। अब उसके और रमन के बीच हल्की-फुल्की बातें भी होने लगी थीं। लाॅक डाउन खत्म होने का समय करीब आ रहा था साथ ही सुमन की बेचैनी बढ़ रही थी। काश लाॅक डाउन कुछ दिन और बढ़ जाता। इस बार घर से जाते हुए सीमा खुश नहीं थी। रमन ने भी वादे के मुताबिक रोकने की कोई कोशिश नहीं की। पिछली बार जब वह इस घर से निकली थी तो एक बार भी मुड़कर नहीं देखा था। पर इस बार ……..पता नहीं किस आशा से एक बार मुड़कर देखा।
आज उसे माँ के यहाँ आये दो दिन हो गये पर मन उदास है बार-बार फोन चैक करती है ठीक तो है। जानती है रमन फोन नहीं करेगा फिर भी इंतजार
स्कीन पर रमन का नंबर चमकते ही अविलंब फोन उठाया। हैलो के साथ खामोशी।
“बच्चे आपको बहुत याद कर रहे हैं।” सीमा ने बात शुरू की।
“और तुम?” रमन के इस प्रश्न से वह चौंक उठी लेकिन कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर की खामोशी के बाद रमन ने कहा “सीमा शाम को तुम और बच्चे तैयार रहना मैं लेने आ रहा हूँ।”
– मधु जैन