धारावाहिक
‘चमत्कार’ एकांकी संग्रह की संवेदनागत विशेषताएँ
प्रकृति चित्रण
मानव प्रकृति की गोद में उत्पन्न होता है। उसका पालन-पोषण और जीवन का अन्त भी उसी में होता है। साहित्य के साथ प्रकृति का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। एकांकीकार ने प्रकृति चित्रण इस प्रकार दिखाया है-”काल की गति बड़ी कराल है। जहाँ मंगल था, उसमें फलदार पेड़ लगाए गए। फूलों की लताएँ धीरे-धीरे चारों ओर फैल गईं। नाना प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी वृक्षों के फल खाने लगे, सांझ-सवेरे प्रसन्न होकर कलरव करने लगे। मोर निर्भय होकर वृक्षों पर बैठने लगे। बसन्त ऋतु की बहार आई और फूल खिलने लगे, कोयल कूकने लगी। वन्य जन्तु भी गुरूकुल के आस-पास निर्भर होकर रात्रि में विचरण करने लगे। गुरूकुल की सुरक्षा के लिए चारों ओर खाई खोदकर कांटेदार झाडि़यों की बाड़ लगाई गई थी। अतः गुरूकुल का वातावरण बड़ा शांत और रमणीय हो गया।“2 इसी प्रकार का प्रकृति चित्रण महर्षि विश्वामित्र के आश्रम का है। ”महर्षि विश्वामित्र का सिद्धाश्रम प्रकृति की गोद में स्थित है। चारों दिशाओं में शांति का वातावरण है। हिरणों का झुण्ड इधर-उधर दौड़ता हुआ दिखाई पड़ता है। पक्षी समुदाय कलरव सुनाई पड़ता है। शीतल, मन्द और सुगन्ध पवन बह रहा है। यज्ञ की सुगन्ध सर्वत्र फैल रही है।“1
पर्यावरण संरक्षण
शुद्ध जल, शुद्ध वायु और पवित्र वातावरण जीवन के लिए आवश्यक है। वातावरण के दूषित होने पर जीवन दुःखमय और रोगग्रस्त हो जाता है। पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण आवश्यक है। प्राचीन काल से ही ऋषि मुनि और सज्जन व्यक्ति पर्यावरण का संरक्षण करते आ रहे हैं। वृक्षों में पीपल का बहुत महत्त्व है। ”भगवान श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में वृक्षाणां अश्वत्थ अर्थात् वृक्षों में मैं पीपल हूँ कहा है। हम दोनों एक रूप हैं। इसलिए लोग हमें बड़-पीपल कहते हैं।“2
वर्तमान समय में सारे भूमण्डल पर पर्यावरण प्रदूषण की समस्या बनी हुई है। जिसके कारण ऋतुओं का सन्तुलन बिगड़ रहा है और धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है। ”न जल है, न वृक्ष है। न कोई हरियाली है। धरती और आसमान दोनों प्रदूषित हो गये हैं।“3 कोयल अपने मन की व्यथा इस प्रकार कहती है- ”मैं बागों की रानी हूँ। मेरी कुहू-कुहू की मधुर ध्वनि सुनकर लोग प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। बाग और वन ही नहीं रहे। मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ।“4
जल की उपयोगिता का चित्रण
जल ही जीवन है यह कहावत बहुत पुरानी है। बिना जल के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज न जाने कितना पानी हम बर्बाद करते हैं, दूषित करते हैं। इस धरती से दिन-प्रतिदिन जल कम होता जा रहा है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले समय में जो विश्वयुद्ध होगा वह जल के लिए होगा। ‘उजड़ती दुनिया’ एकांकी में पेड़-पौधों के माध्यम से इस बात को चित्रित किया गया है।
”पीपल- बड़दादा! ये नदी कभी बारह महीने बहती थी। अब बिल्कुल सूख गई है। अब हम क्या करें? जल ही तो जीवन है।
सभापति- पीपल भाई! तुम सच कहते हो। नदी में अब नीर नहीं है। कैसे जीवित रहेंगे? हमारी जड़े सूख गई हैं।“1
आधुनिक विज्ञान और तकनीकी के कारण पेड़-पौधे ही त्रस्त नहीं है, बल्कि पशु-पक्षी भी दुःखी है। क्योंकि तकनीकी के कारण पानी के तालाबों की जगह बड़ी-बड़ी फैक्टरियाँ बन गई हैं। हिरण अपनी व्यथा इस प्रकार प्रस्तुत करता है- ”वनराज! कहाँ जाएँ? क्या करें? जंगल तो है ही नहीं। क्या खाएँ? कहाँ भागें? खाने को चारा नहीं। पीने को पानी नहीं, छिपने को ठोर नहीं। अब तो यहाँ से चले जाना है। सभापति जी, ये जल के प्राणी मगरमच्छ और कछुआ अपना दुःख आपको बताना चाहते हैं। इनकी भी सुन लो। मछलियाँ तो बिना जल के रह नहीं सकती।“2
भ्रूण हत्या का विरोध
वर्तमान समय में पढ़े-लिखे लोग गर्भ में ही बच्ची को मरवा देते हैं। भारत में लड़कियों की संख्या कम होने के कारण विश्व सिर झुका हुआ है। ‘उजड़ती दुनिया’ एकांकी में चम्पा के माध्यम से भ्रूण हत्या पर कटाक्ष किया गया है- ”बावली तू तो दहेज की बलि की बात करती है। कन्या को तो पेट में ही मार दिया जाता है। ऐसा भ्रूण हत्या का पाप कर्म सुना ही नहीं जाता था। नारी-जाति भी इस समय समाज में उजड़ती जा रही है। कहने को तो लोग कहते हैं कि लड़का-लड़की में कोई अन्तर नहीं है। उसे तो भगवान की इस सुन्दर दुनिया को देखने का अवसर ही नहीं दिया जाता। वो माँ है या डायन है, डाॅक्टर है या नर पिशाच जो अपनी कोख से उत्पन्न होने वाली कन्या का स्वयं वध करवाती हैं। यह मानवता है कि दानवता।“1
आज कुछ पैसों की खातिर डाॅक्टर लड़कियों की कब्र पेट में ही खोद देते हैं। आजकल अल्ट्रासाउन्ड मशीनें बन गई हैं कि डाॅक्टर गर्भवती महिला का भ्रूण परीक्षण करके बता देते हैं कि यह लड़की है या लड़का। कमला के माध्यम से इस बात को इस प्रकार कहा गया है- ”डाॅक्टर ऐसा आॅपरेशन करता है या दवा देता है, जिससे वह गर्भस्थ शिशु तड़प-तड़प कर मर जाता है। अमेरिका के इस कुकर्म की फिल्म भी ली गई है।“2 आजकल भ्रूण हत्या गैर कानूनी है और भ्रूण हत्या करवाने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही भी की जाती है। इसके कारण ”भारत के कई राज्यों में लिंग अनुपात गिर रहा है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की संख्या कम हो रही है।“1
भारतीय संस्कृति का चित्रण
भारतीय संस्कृति अपने आप में इतनी महत्त्वपूर्ण है कि विदेशी भी इसका अनुसरण कर रहे हैं। स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती ने ”वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए गुरूकुल ओमपुरा की स्थापना की।“2 पर्व और त्यौहार भी हमारी संस्कृति के परिचायक हैं। सावन मास में महिलाएँ तीज के पर्व पर झूला डालकर जो गीत गाती हैं वह हमारी संस्कृति का परिचायक है।
”नीम की निम्बोली पाकी सामण कदनै आवेगा, आवेगा भी आवेगा। मेरी माँ का जाया आवेगा।“3 इस गीत में लोक संस्कृति की झलक मिलती है। भारतीय संस्कृति में स्त्री को माँ स्वरूप माना गया है। क्योंकि पुत्र कपुत्र हो सकता है माता कदापि कुमाता नहीं हो सकती।
दान पुण्य करना भी भारतीय संस्कृति में महत्त्वपूर्ण है। अपने गुरूजनों एवं बड़ों के प्रति श्रद्धा का भाव रखना भी भारतीय संस्कृति हैं। अतिथियों का स्वागत संस्कार भी भारतीय संस्कृति है। श्रीकृष्ण के पास जब ब्राह्मण आता है तो श्रीकृष्ण उनका सत्कार करते हैं। ”पहले इनके भोजन, स्नान आदि का महलों में प्रबन्ध करो। तत्पश्चात् बातचीत होगी।“4
गुरू-शिष्य परम्परा का चित्रण
गुरू शिष्य परम्परा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। क्योंकि गुरू के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता और बिना ज्ञान के मुक्ति प्राप्त नहीं होती। इसलिए कहा भी गया है-
गुरू ब्रह्मा गुरूर्विष्णु, गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः।।1
कबीरदास जी ने भी कहा है-
गुरू बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिना मिलै न मोष।
गुरू बिन लखै न सत्य को, गुरू बिन मिटै न दोष।।2
गुरू की हर बात को शिष्य सर्वोपरि मानता है। अहिंसक कहता है, ”हिंसा करना मेरा स्वभाव हो गया है। यह गुरू का अभिशाप है।“3 गुरू अपने शिष्य के ज्ञान रूपी नेत्र खोलता है। ”गुरू चिन्हों-गुरू चिन्ह पुरोहित, गुरूमुख धर्म बखांणी।“4 गुरू के वचन सदा धर्म की ओर ले जाते हैं। जाम्भोजी महाराज सद्गुरू के बारे में बताते हुए कहते हैं कि, ”उसकी अनुभूति सद्गुरू की कृपा और परमेश्वर की अनुकम्पा से होती है।“5
शिष्य भी अपने गुरू जी की सेवा में अपना सब कुछ समर्पित कर देते थे। उनके आदेशों का पालन निष्ठापूर्वक किया करते थे। ताड़का को मारने से पहले श्रीराम विश्वामित्र से आज्ञा लेते हैं। ”गुरूदेव! आपकी क्या आज्ञा है? पहले इसके हाथ, पैर, नाक, कान काटकर विकलांग बना दूं या इसको यमलोक दर्शन करा दूँ?“1
”गुरू जी को भी संतान की तरह शिष्य और शिष्याएँ प्यारे होते हैं।“2 गुरू हमेशा अपने शिष्य के अज्ञान को दूर करता है और उसके कल्याण एवं मोक्ष की कामना करता है।
पशु-पक्षियों के प्रति संवेदना
आधुनिक विज्ञान और तकनीकी की आंधी के कारण पेड़-पौधे समाप्त हो रहे हैं। पेड़-पौधों के समाप्त होने के कारण पशु-पक्षियों पर इसका प्रभाव पड़ रहा है। पशु आपस में वार्तालाप करते हुए अपनी भावनाओं को प्रकट करते हैं।
”ऊँट- वनराज! हम तो घट रहे हैं। हमारा चारा तो वृक्ष थे। अब वे नहीं रहे। अब इस मशीनी युग में हमारी कोई कद्र नहीं है।
सिंह- भाई हिरण! तुम तो बड़ी तेजी से दौड़ते हो। हवा से पत्तों के हिलने पर ही तुम हवा हो जाते थे। आज खुले मैदान में कैसे खड़े हो?
हिरण- वनराज! कहाँ जाएँ? क्या करें? जंगल तो हंै ही नहीं। क्या खाएँ, कहाँ भागें? खाने को चारा नहीं। पीने को पानी नहीं, छिपने को ठोर नहीं।“3
आधुनिक जीवन शैली का चित्रण
आज मशीनी युग के कारण मनुष्य ही नहीं धरती भी रो रही है।
धरती अपनी व्यथा इस प्रकार कहती है। ”विज्ञान और तकनीकी के बल पर मानव मेरे स्वरूप को विकृत कर रहा है। मैं वसुन्धरा हूँ। मेरे भीतर वनस्पतियाँ और सोना-चाँदी नाना प्रकार के धन छिपे हुए हैं। मानव इतना लोभी हो गया है कि अपनी धरती माँ के सौंदर्य से ही खिलवाड़ कर रहा है।“1 आज की नारी भी आधुनिक जीवन शैली में अपना वास्तविक रूप भूल गयी है। ”पश्चिमी सभ्यता के मायाजाल की चमक-दमक मंे अपना असली स्वरूप भूल रही है।“2 आजकल इस भौतिकवादी कलयुग में परिस्थितियाँ बदल गई हैं। जिस कारण स्त्री-पुरुष सभी पर आधुनिक जीवन शैली का रंग चढ़ा हुआ है।
सामाजिक चित्रण
समाज व्यक्तियों का समूह है। व्यक्ति समाज के बिना नहीं रह सकता। सज्जन लोग समाज का हित चाहते हैं, जबकि दुर्जन समाज की हानि करते हैं। इस बात को स्वामी ब्रह्मानन्द मास्टर रण सिंह से कहते हैं, ”उत्सव की सफलता के लिए उपद्रवी और विषधारी कंटकों से सचेत रहना।“3 आज भी भारतीय समाज की दशा बड़ी दयनीय है। भारतीय समाज में अनेक कुप्रथाओं का बोल-बाला है। ”पर्दाप्रथा, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह आदि तो समस्यायें इस देश की हैं। सबसे बड़ी समस्या लड़की के विवाह में सौदेबाजी की है। इसे दूसरे शब्दों में दहेज की मांग कहा जाता है, जिसे बुजुर्ग दहेज कहते हैं।“1 भारतीय समाज में तंत्र-मंत्र और जादू-टोनों के साथ बहुत अन्धविश्वास फैला हुआ है। श्री जाम्भोजी महाराज के माता-पिता आपस में इस विषय पर बात करते हैं।
”माता हाँसा देवी- गाँव की स्त्रियाँ आपस में बतला रही थी कि लोहट जी तन्त्र-मन्त्र क्यों नहीं कराते? टोने-टोटके समाज में होते ही रहते हैं।
श्री लोहट जी- जादू तन्त्र-मन्त्र, झाड़ फूँक लोग करते हैं।
माता हाँसा देवी- लोग अपनी सन्तान की भलाई के लिए, देवी-देवताओं को पूजते हैं, पितरों को मानते हैं, दान-पुण्य करते हैं। आप कुछ नहीं करते।“2 इसी प्रकार आगे-
”श्री लोहट जी- स्त्रियों की बातों में विश्वास न करो, वे तो अन्धविश्वास के मकड़ जाल मंे और ढोंगियों के चक्कर में आकर फँसी रहती हैं।
श्रीमती हंसा देवी- फिर लोग नगर खेड़ा और कुल देवताओं में क्यों विश्वास करते हैं?“3 शकुन-अपशकुन की भी भारतीय समाज में मान्यता रही है। श्री लोहट जी इस प्रकार कहते हैं- ”बादल गरज रहे हैं, आकाश में बिजली चमक रही है। खेतों में मोर नाच रहे हैं। शुभ शकुन हैं।”4 समाज में भ्रष्टाचार के कारण अन्याय और शोषण जन्म लेता है।
गृहस्थाश्रम का चित्रण
गृहस्थाश्रम स्त्री और पुरुष के जीवन का मूल आधार है। ”गृहस्थाश्रम का मूलाधार नारी जाति है। नारी को ही गृह लक्ष्मी कहा जाता है। कहा भी जाता है- धरनि बिन धर भूत का डेरा।“1 इसी प्रकार आगे कमला और यशोदा जो वार्तालाप करती है-
”कमला- ताई! नारी के लिए गृहस्थ का निर्वाह करना बड़ा कठिन है।
यशोदा- बेटी कमला! नारी गृहस्थाश्रम का मूलाधार है। गृहस्थाश्रम एक बाग के समान है। जहाँ कोयल कुहू कुहू करके निरन्तर कूजती है, पपीहा पीहू-पीहू करता है, मोर निडर होकर नाचते हैं, जहाँ शीतल मंद-समीर सदा बहता है।
कमला- ताई! गृहस्थ में जहाँ फूल हैं, वहाँ काँटे भी हैं।
सरला- मुंशी प्रेमचंद ने अपनी एक रचना में लिखा है, धरनी बिन घर भूत का डेरा। संस्कृत में भी कहा गया है- न गृहम् गृहमिथ्यादुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
यशोदा- माँ इसका अर्थ बताओ।
कमल- सुनो, अम्मा, घर को घर नहीं कहते, जहाँ गृहिणी रहती है, वह घर कहलाता है।“2 इसी प्रकार यशोदा भी कहती है- ”नारी ही गृहस्थाश्रम का
मूलाधार है।“3
एक सच्चा गृहस्थ हमेशा पुण्य कर्म करता है। इस बात को माता हाँसा देवी इस प्रकार कहती है- ”इनमें कौन सी नई बात है यह तो पीपासर का हर गृहस्थ करता है। पुण्य दान करना तो गृहस्थी का कत्र्तव्य है।“1
दार्शनिकता
दूसरे देशों के विद्वान भारत को दार्शनिकों का देश कहते हैं। दर्शन का शाब्दिक अर्थ है- देखना। हिन्दी विश्वकोश के अनुसार- ”जिसके द्वारा यथार्थ तत्त्व का ज्ञान होता है, उसे दर्शन कहते हैं।“2 जीवन और दर्शन का बड़ा निकट का सम्बन्ध है। दर्शन ही हमें जीव, जगत्, माया, मोक्ष आदि स्वरूप का दर्शन कराता है और संसार के बन्धन से मुक्ति का मार्ग दर्शाता है। स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती ने अपने ग्रंथ ‘ब्रह्मानन्द पचासा’ मंे दर्शन का अर्थ सरल किया है-
दर्शन का अर्थ देखना, सरल अर्थ समझाया।
दुःख क्या कहाँ से आया, सुख क्या मिलना।।3
संत ब्रह्मानन्द सरस्वती शंकर के अद्वैत-वेदांत के अवलम्बी होते हुए भी भारतीय दर्शन से परिचित थे। उन्होंने ब्रह्म, जीव, जगत्, माया, मोक्ष के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। वह संन्यासी व वैष्णव को दर्शन की बातें बड़े सरल शब्दों मंे समझते थे।
”गोविन्ददास- जिस प्रकार भगवान भाव के भूखे हैं, उसी प्रकार सभी प्राणियों में भगवान का प्रेम भाव रहता है।
परमानन्द- आत्मा सो परमात्मा। सभी प्राणियों में एक ही आत्मा है, जो भगवान का अंश है।
स्वामी ब्रह्मानन्द- वेद में कहा गया है- जहाँ एकत्व है, जहाँ न मोह है और न शोक। वह अद्वैतावस्था है।“1
स्वामी ब्रह्मानन्द जी के अनुसार ब्रह्म साकार और निराकार दोनों रूपों में है।
‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में कहा गया है कि हे अर्जुन! यह जीव आत्मा मेरा ही अंश है और यह सनातन है- ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।“2
”यह मानव शरीर पाँच तत्त्वों से निर्मित एक ध्वज है। ओउम् ब्राह्मण्ड का स्वर है, जो परमात्मा स्वरूप है। मुझे स्मरण आता है कि गीता में ओंकार भगवान का स्वरूप है।“3
वृक्षों की महत्ता का चित्रण
वृक्षों को धरती का शृंगार कहा जाता है। वृक्ष हमें आॅक्सीजन देते हैं, सर्दी-गर्मी को कम करते हैं, उनसे लकड़ी मिलती है। वे अनेक प्रकार के फल प्रदान करते हैं। गर्मियों, मानवों, पशु-पक्षियों के लिए ठण्डी छाया देते हैं। वृक्ष पर्यावरण संरक्षण में बहुत महत्त्व देते हैं। बिना वृक्षों के पशु-पक्षियों और मानव जाति को अनेक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। आज धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है। पक्षियों और वनस्पतियों की अनेक जातियाँ लुप्त हो गई हैं। ‘उजड़ती दुनिया’ एकांकी में यह समस्त दिखाई पड़ता है।
”आम- बड़दादा! हमारे बहुत बुरे दिन आ गए हैं। वसन्त ऋतु में मैं बौराता था और चारों तरफ सुगन्ध फैली थी। कोयल मेरे ऊपर कुहू-कुहू का मधुर राग अलापती थी। फल तो दूर की बात अब तो बौर भी नहीं आता। आम फिर बौरा गए। अब कौन कहेगा?
पलाश- ग्रीष्म ऋतु में जंगल में मेरी लालिमा दूर से ही दिखाई पड़ती थी। अब वह ललिमा एक सपना हो गई है।
सभापति- पादप बन्धुओं! धरती माता पर हमारी संख्या दिन प्रतिदिन घट रही है। वह दिन दूर नहीं, जब हमारी दुनिया उजड़ जाएगी।1 इसी प्रकार आगे-”वृक्ष विहीन निर्जल स्थान पर गर्म-गर्म लुएं चल रही हैं। सभी पशु बेहाल हैं। उनकी आँखों से आंसू बह रहे हैं। इस संकट काल में स्वाभाविक वैरभाव को भूलकर वे सब एकत्रित होकर संकट के निवारण पर विचार करते हैं।“2
पेड़-पौधों के बिना पक्षी भी अपना जीवन बड़े कष्ट में व्यतीत कर रहे हैं। क्योंकि जिन वृक्षों पर वे अपना घोंसला बना कर रहते थे, अब वे विलुप्त हो गये हैं। पक्षी जिन वृक्षों से फल खाते थे, अब वे नहीं रहे। इस प्रकार बिना वृक्षों के मनुष्य ही नहीं अन्य जीव-जन्तुओं का बुरा हाल है। तोता अपनी व्यथा इस प्रकार कहता है- ”वृक्षों के फल से ही मेरा जीवन चलता है। फलदार वृक्ष नहीं रहे। इसलिए मेरी दुनिया वीरान हो गयी है।“1 इसी प्रकार चिडि़या भी अपना दुःख व्यक्त करती है- ”खाद्य पदार्थ भी जहरीले हो गए हैं। बिना पेड़ों के घोंसले कहाँ बनाएँ?“
– डाॅ. मुकेश कुमार