घर वापसी
ग्रामीण अंचल में मै पैदा हुआ, पला बढा फिर भगवान की कृपा से उद्योगपति बन गया। शहर में बहुत आलीशान कोठी, वाहन, सुख सुविधाओं के सभी साधन मौजूद थे पर मन उदास, बेचैन और खोया-खोया रहता था। गाँव छोड़े लगभग तीस साल हो चुके थे। एक दिन मैं कार से कहीं जा रहा था। शहर पीछे छूट गया था और सड़क के किनारों पर खेत नजर आ रहे थे। अचानक एक खेत में दो-तीन बैलगाड़ियाँ, कुछ महिलाएँ, बच्चे, पुरुष नजर आये। शायद कोई बंजारा घुमंतु परिवार था। मेरी निगाह उनकी बैलगाड़ी के नीचे खड़े एक सुंदर पिल्ले पर पड़ी। गाड़ी रोक कर मैं उस पिल्ले को देखने लगा। इसके सुंदर कद, काठी, रंग, खड़े कान देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ। गाड़ी से उतरकर मैं बैलगाड़ी के पास पहुंचा तथा वहाँ बैठे बुजुर्ग से उस पिल्ले के बारे में पूछने लगा। बुजुर्ग ने बताया कि हमारे परिवारों में मनुष्य के साथ-साथ कुत्तों को भी परिवार का सदस्य माना जाता है। मैंने पूछा, “क्या आप अपना पिल्ला मुझे देंगे?” मैं आपको बड़ी राशि दूँगा। आपकी तुलना में मैं इसे अधिक आराम से रखूंगा तथा इसके लिए सब सुख-सुविधाएँ जुटा दूँगा।”
बुजुर्ग ने धनराशि के लालच में हाँ कर दी और मैं उस पिल्ले को कार में बिठाकर कोठी पर ले आया। एक बड़ा-सा एयर कंडीशनर लगा हुआ कमरा उसके लिए निश्चित कर दिया। उसका खाना बनाने के लिए एक नौकर रख दिया गया। उसको सुबह-शाम घुमाने के लिए भी एक नौकर नियुक्त कर दिया गया। इतनी सुविधाओं के बावजूद पिल्ला कुछ दिनों के बाद बीमार हो गया। उसने खाना-पीना छोड़ दिया, कभी-कभार रोने लगा और मेरे डांटने पर चुप हो जाता। मेरे परिवार के अन्य सदस्यों का पिल्ले की तरफ अधिक आकर्षण नहीं था। सभी अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने में व्यस्त थे क्योंकि मेरा बचपन गाँव में बीता था, अतः मुझे उस पिल्ले से लगाव था। उसको शारीरिक रूप से कमजोर देखकर मुझे चिंता होने लगी। मुझे इस बात का अहंकार था कि मैं बंजारों की तुलना में इस पिल्ले को अधिक सुख सुविधाएँ दे सकता था और खुश रख सकता था। पर यह विचार गलत साबित हो रहा था। मैं उस पिल्ले को कार में बिठाकर पुनः शहर से बाहर पहुंचा, जहाँ बंजारा परिवार रूका हुआ था।
ज्यों ही मैंने कार का दरवाजा खोला, वह कार से नीचे कूदकर बैलगाड़ी की तरफ तेजी से भागा। उन सब लोगों के चारों तरफ चक्कर लगाने लगा। भोंकने लगा। छोटे बच्चों के हाथों को चाटने लगा और बच्चों के हाथ की डाली हुई सूखी रोटी खाने लगा। मैं खड़ा-खड़ा यह सब देख रहा था। मैंने सोचा भरपूर गर्मी में भी वह पिल्ला टूटी हुई बैलगाड़ी के नीचे मिट्टी में बैठकर सुकून महसूस कर रहा था। मैं उस बुजुर्ग को धन्यवाद देकर पुन: अपनी कोठी पर आ गया।
अगले दिन सुबह मैंने बस पकड़ी और अपने पैतृक गाँव, अपनों से मिलने चल पड़ा।
वृद्धाश्रम
गुप्ता जी पर भगवान की बड़ी कृपा थी। वे दस की सोचते तो ईश्वर उन्हें सौ देता। गुप्ता जी धनी भी थे और बुद्धिमान भी। अपने पैसों का सदुपयोग करने के लिये तत्पर रहते थे। सहयोग राशि और दान वग़ैरह देने में उनकी बड़ी रूचि रहती थी। घर पर आये हुए किसी भी शख़्स की मदद करने को तत्पर रहते थे। उनके घर से कोई भी ख़ाली हाथ नहीं लौटता था। छोटे क़स्बे में रहते थे इसलिये उनके बारे में सभी लोगों को जानकारी थी। एक बार कुछ समाजसेवी गुप्ता जी से उस क़स्बे में वृद्धाश्रम खोलने के लिये सहयोग राशि लेने आये। गुप्ता जी ने उनका आदर सत्कार तो किया पर सहयोग राशि देने से स्पष्ट रूप से मना कर दिया। इस बात पर गुप्ता जी में तथा समाजसेवियों में तर्क-वितर्क शुरू हो गया। गुप्ता जी ने कहा कि वे वृद्धाश्रम खोलने के लिये सहयोग राशि देकर बहुत बड़ा पाप नहीं कर सकते। समाज-सेवियों ने तर्क किया कि वृद्धाश्रम के लिये सहयोग राशि देना पाप कैसे हो सकता है! लोग अनाथ-आश्रम भी तो खोलते हैं तथा उसके लिये सहयोग राशि प्रदान करते हैं। गुप्ता जी ने बड़ी तार्किक बात कही। वे बोले, “अनाथ वो हैं, जिसका इस दुनिया में कोई नहीं है, जिसे घर की छत नसीब नहीं है तथा जो सड़क पर है। परन्तु वृद्ध वह है, जिसका पूरा परिवार है, जिसके पास स्वयं की मेहनत से बनाई हुई छत है। आप वृद्धाश्रम खोलकर युवा पीढ़ी को एक ग़लत रास्ता दिखा रहे हैं। आप उन्हें वृद्धों से छुटकारा पाने के लिये एक स्थान उपलब्ध करवा रहे हैं। जैसे ही कोई वृद्धाश्रम खुलता है अधिकांश युवाओं को अपने माँ-बाप बोझ लगने लगते हैं। उनको एक ऐसा स्थान मिल जाता है, जिससे वे इस बोझ से छुटकारा पा सकते हैं। मैं इस पाप के लिये एक रूपया भी नहीं दूँगा। मैं आपसे भी अनुरोध करूँगा कि आप उस घर का पूर्णत: सामाजिक बहिष्कार करें, जिस घर के बुज़ुर्गों को वृद्धाश्रम में भेजा जाता है। उनका सम्मान नहीं किया जाता है।” सभी लोग गुप्ता जी की बात को समझ गये। आज उस क़स्बे में वृद्धाश्रम तो नहीं है परन्तु वृद्धों के प्रति सम्मान ज़रूर है।
– अरुण कुमार गौड़