विमर्श
ग्लोबल गाँव के देवता: एक संघर्ष
– प्रज्योत पांडुरंग गावकर
भारोपिय परिवार में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। उसी तरह यहाँ अनेक जन-समुदाय निवास करते हैं, जिनकी अपनी संस्कृति भी अलग-थलग है। जो उनके स्वतंत्र अस्तित्व का बोध कराती है। इस विभिन्न भाषी देश पर अनेकों राजाओं के साथ-साथ अंग्रेजों ने भी राज्य किया। एक समय तक भारत गुलामी की ज़ंजीरों में फँसा हुआ था। किन्तु एक सत्य यह भी है कि पूरी तरह भारत को गुलाम बनाने के बाद भी अंग्रेज भारतीय आदिवासियों पर अपना अधिकार स्थापित कर उन्हें गुलाम बनाने में असफल रहे। इन आदिवासियों को जनजाति, वनवासी, गिरिजन आदि नामों से जाना जाता हैं। जंगलों में रहनेवाले इन आदिवासियों का दर्द यह है कि अतीत में कभी इनके सवालों के जवाब ही नहीं दिए गये। यह समाज सदा वंचित रहा। जंगलों में रहनेवाली इस जनजाति पर जो साहित्य लिखा गया, वह आदिवासी साहित्य कहा गया। इसी आदिवासी साहित्य को आदिम समूह की मुक्ति का साहित्य भी कहा जाता है, जिसमें आदिवासियों की त्रासद गाथाएँ हैं।
रमणिका गुप्ता आदिवासी की परिभाषा इस प्रकार देती हैं- “विशिष्ट पर्यावरण में रहने वाला, विशिष्ट भाषा बोलने वाला, विशिष्ट जीवन पद्धति तथा परम्पराओं से सजे और सदियों से जंगलों, पहाड़ों में जीवन यापन करते हुए अपने धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों को संभाल कर रखने वाला मानव समूह।”1
इन्हीं आदिवासियों को लेकर महादेव जी कहते हैं-
“और ग़लती से तुम अगर हो पैदा
जंगल में
तो तुम कहलाओगे
आदिवासी-वनवासी-गिरिजन
वगैरह-वगैरह
आदमी तो कम से कम
कहलाओगे नही ही”[2]
जल, जंगल और ज़मीन के संसाधनों पर अपना अधिकार स्थापित करने वाले इस समाज को आज एक वैश्विक आयाम मिल चुका है। यह समाज अपने अस्थित्व की लड़ाई हमेशा अकेला ही लड़ता रहा है। रणेंद्र कृत ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में हम आदिवासियों के इसी संघर्ष को देखते हैं। यह कथा झारखंड के असुर जनजाति के संघर्ष की गाथा है। असुर आदिवासी जाति का ही एक वर्ग है, जो अपने अस्तित्व के लिए ग्लोबाल गाँव के देवता अर्थात वेदांग, सिण्डालको, टाटा से लड़ रहे हैं। रणेंद्र जी इन असुरों के संदर्भ में उपन्यास में रुमझुम असुर के माध्यम से कहते है- “ॠगवेद के प्रारंभ के लगभग डेढ़ सौ श्लोकों में असुर देवताओं के रुप में हैं। मित्र, वरुण, अग्नि, रुद्र सभी असुर ही पुकारे जा रहे हैं। बाद में यह अर्थ बदलने लगता है और असुर दानव के रुप में पुकारे जाने लगते हैं।”3
इसी तरह लेखक असुरों के संबंध में हमारी धारणा को भी बदल देते है- “अब जाकर ध्यान आया कि एतवारी ने इस सुदर्शन व्यक्ति का नाम लालचन असुर बताया था। सुना तो था कि यह इलाका असुरों का है, किन्तु असुरों के बारे में मेरी धारणा थी कि ख़ूब लम्बे-चौड़े, काले-कलूटे, भयानक, दाँत-वाँत निकले हुए लोग होंगे। लेकिन लालचन को देखकर सब उलट-पुलट हो रहा था। बचपन की सारी कहानियाँ उलटी घूम रही थीं।”4
भूमंडलीकरण के दौर में विकास के नाम पर जो परिवर्तन किया गया, उसमें जंगलों की कटाई, नदियों की दिशा बदलना, खनिज के नाम पर प्रकृति का दोहरा दोहन आदि कुछ तेज गति से हुआ। कंपनियों की आपसी टकराहटों के कारण उनमें प्रतियोगिताएँ शुरू हुई। आगे बढ़ने की होड़ में विकास के नाम पर जल, जंगल, ज़मीन आदि का ह्रास किया जाने लगा, जिसमें उद्योगपतियों को राजनेताओं का साथ मिला। इस तथाकथित विकास का परिणाम अगर सबसे ज्यादा किसी पर हुआ तो वह आदिवासी समाज पर। उन्हें विस्थापन के गहरे संकट का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं, जहाँ इन आदिवासियों ने विरोध दर्शाया, वहाँ इन्हें असहिष्णु, बर्बर कहकर इनकी निर्मम हत्याएँ की गयी। व्यवस्थित योजनाएँ बनाकर उनका शोषण किया गया। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ के संदर्भ में आदिवासियों की इस दास्तान के बारे में अल्पना सिंह का
अभिमत है, ” ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास में भूमंडलीकरण के दौर में आदिवासियों की तबाही, बरबादी, लूट, बेदखली आदि का चित्रण हुआ है।”5
यह उपन्यास आदिवासियों के शोषण तथा अमानविय कृत्य की कथा हमारे सामने रख देता है। ग्लोबल गाँव के इन देवताओं के शोषण के विरोध में रुमझुम, लालचन, कनाड़ी नवयुवक संघ, डॉ. रामकुमार तथा शिक्षक आंदोलन करते नजर आते हैं। किन्तु असुरों को गिरफ्तार कर
लिया जाता है। उपन्यास में आया शिवदास बाबा लड़कियों के लिए आदिवासी आश्रम बनाकर उनका देहिक शोषण करता है। देखा जाए तो इन असुरों का चारों ओर से शोषण हो रहा है। प्रशासन के साथ यहाँ की पुलिस भी मिली हुई है, जो सत्ता का दुरूपयोग कर किस तरह आदिवासियों को नक्सली करार दे रही है। इसका चित्रण उपन्यास में मिलता है। “इस बार हर हाल में गिरफ़्तारी से बचना है। इस बार नक्सली वाला केस
ठोंकेगा थाना।”6
जहाँ आदिवासी अपने हक़ के लिए लड़ाई भी नहीं लड़ सकते और अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाली इस असुर जाति को नक्सलवादी कहकर पूंजीपति और उद्योगपति लोग उन पर गोलियाँ चलवाते हैं और समाचार पत्र में प्रकाशित किया जाता है- “हाँ, तीसरे पेज पर दो कॉलम का समाचार छपा था कि पाथरपाठ में हुए पुलिस मुठभेड़ में छह नक्सली मारे गये। मारे गये नक्सलियों में कुख्यात एरिया कमांडर बालचन भी शामिल। फिर बालचन के नृशंस कारनामों का विवरण। किसी एस.पी. दरोगा की हत्याओं और किन-किन बैंक डकैतियों में वह शामिल रहा था। एकदम आँखों देखा विवरण। अंत में इस बात का भी उल्लेख था कि भागते समय नक्सली लाशें उठा ले गये। पुलिस फोर्स लाशों की तलाश कर रही है।”7
ग्लोबल गाँव के देवता आदिवासियों की ज़मीनें, पहाड़ हथियाने की नीतियाँ बनाते रहते हैं। आज इंसान-इंसान का ही दुश्मन बन गया है, जिसे रणेंद्र जी उपन्यास में बताते हुए कहते हैं- “राज्य-राष्ट्र अपने को सुरक्षित रखने के लिए इंसानों को इंसानों के द्वारा ही नाश करवाता है। बज़ाप्ता इसके लिए अरबों-खरबों के बजट बनते हैं। ज़्यादा से ज़्यादा इंसान जल्दी से जल्दी मारे जा सके, इसके लिए शोध होता है। पूरे जीव जगत में ऐसे कम ही लोग होंगे, जो अपनी ही प्रजाति से अपनी भूख मिटाते हों। किन्तु राज्य-राष्ट्र ने आदमी को ही आदमख़ोर बना दिया है। वह भी बिना किसी अपराधबोध के। यही इसकी ख़ासियत हैं।”8
‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास में आदिवासियों के लिए बनाई जाने वाली योजनाओं को भी बताया गया है। योजनाओं के नाम पर किस तरह इन्हें ठगा जा रहा है इसकी पोल लेखक ने जगह-जगह खोल दी है। बरसाती आलू की योजना के अंतर्गत “जो आदिम जाति, परिवार जितना खेती करना चाहे उतना बीज दिया जा सकता था।”9
एक साल सरकारी बीज से खेती कर आलू बेचकर जो पैसा आयेगा, वह कॉपरेटिव बैंक में डाल देगी और उन्हीं पैसों से अगले साल आलू लगाना है। लेकिन योजना की शर्त यह थी कि आप बीच में अपना पैसा नहीं निकाल सकते थे। वहीं लेखक बताते हैं कि “कल वहीं से बॉक्साइट निकालना पड़ गया तो? सारा पैसा पानी में।”10
जब यही लोग इंदिरा आवास योजना का लाभ उठाना चाहते थे, तब हाकिम लोग उनकी बातों पर हँसने लगते थे। सरकार एक तरफ से विकास के बड़े-बड़े दावे एवं घोषणाएँ करती है, नारे देती है, वहीं दूसरी ओर सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मिलकर विकास के नाम पर इतना शोषण करती है कि “इस पाठ पर जीना बहुत कठिन है, मास्टर साब! किन्तु मौत बड़ी आसान है…देखिएगा कि मक्का की एक बरसाती फ़सल के सहारे जिंदगी कितनी कठिन हो जाती है। मजूरी और जंगल का अगर सहारा नहीं हो तो लोग फिर आसाम-भूटान निकल जाएँ। लेकिन एक तरफ़ इन खानों ने मजूरी दी तो दूसरी तरफ़ बरबादी के सरंजाम भी खड़े किये।”11
इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने विकास के नाम पर संसाधनों का भरपूर दोहन किया और बदले में बड़े-बड़े गड्ढे पाथरपाट औरे भौरापाट जैसे अनेकों गाँवों में छोड़ दिये। बरसात में गढ्ढ़ों में भरा दूषित पानी बीमारियों को जन्म देने लगा। सरकार ने यहाँ के आदिवासियों के लिए विकास इतना किया कि “हमारे होश में चार दर्ज से ज़्यादा नयी उमर के लड़के माथा बुख़ार-सेरेब्रल मलेरिया से मरे हैं। बूढ़े बुजुर्गों की तो गिनती ही नहीं।”12
उपन्यास में प्राय: शिक्षा व्यवस्था में भी सरकार ने आदिवासियों के लिए काफी विकास किया है। पाथरपाट के लगभग सौ से भी ज्यादा असुरों के घरों को उजाड़ कर पाथरपाट के स्कूल का निर्माण किया गया। किन्तु पिछले तीस वर्षों में एक भी आदिम जाति के बच्चे को स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया। इसका कारण यह कदापि नहीं है कि उनमें पढ़ने की इच्छा नहीं। रुमझुम, सुनिल, सोमा, ललिता, भीखा आदि लोग गाँव
में उच्च शिक्षित हैं। भौरपाट के स्कूल में दस प्रतिशत बच्चियाँ ही उरांव-खडिया, खेरवार परिवार की हैं। उनको प्रवेश भी इसी कारण मिला हुआ है कि स्कूल में उनकी जाति के टीचर्स हैं। “भौंरापाट स्कूल आदिम जाति परिवार की बच्चियों के लिए खोला गया था। किन्तु उसमें पढ़नेवाली असुर-बिरिजिया बच्चियों की संख्या दस प्रतिशत से ज़्यादा नहीं थी। ज़्यादातर बच्चियाँ हेडमिस्ट्रेस और टीचर्स के गाँव
की और उनकी ही जाति, उराँव-खड़िया, खेरवार परिवार की थीं।”13
भूमंडलीकरण के नाम पर सरकारें पूंजीपति वर्ग और व्यापार संगटनों के साथ मिलकर आदिवासी वर्ग का शोषण करती हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ सरकार के साथ जोड़तोड़ कर इन आदिवासियों की खनिज संपदा अर्थात जंगल, ज़मीनों पर ज़बरदस्ती कब्जा करती हैं। सराकर और कंपनियों के आदिवासियों पर किये जाने वाले शोषण का फायदा गाँव का साहूकार तथा पूंजीपति वर्ग अच्छी तरह उठाना जानता है। ‘ग्लोबल गाँव के
देवता’ के असुर समाज का इतना शोषण हो चुका है कि ग़रीबी और भूख ने इस समूदाय को चारों और से घेरा हुआ हैं। स्थिति इतनी बदतर है कि “ज्यादातर घरों में दाल-भात सब्ज़ी भी पर्व-त्यौहार का भोजन है।”14
लड़कियाँ ज़मीनदार, खदानों के मालिक, नौकरशाहों, ठेकेदारों आदि की रखैलों के रूप में इनके हाथों का खिलौना बन चुकी हैं। रुमझुम इस बात पर चिंता तथा इनकी विवशता व्यक्त करते हुए बताता है कि “लेकिन रुमझुम ने बताया कि यह शिक़ायत नहीं थी, बल्कि विलाप था। भूख और ग़रीबी ने अंदर से इतना खोखला और लाचार कर दिया है कि सामाजिक व्यवस्था भरभरा गयी है। अखड़ा में बैगा-पाहन-पुजार और गाँव के बड़े-बूढ़ों की बात का वज़न दिन पर दिन घटता जा रहा है। ठीक ही बात है कि घर में तीन-चार माह से ज़्यादा का अनाज नहीं हो तो कौन बेटों को गाँव छोड़ने और बेटियों को डेरों में काम के बहाने रखनी बनने से रोक सकता है।”15
भौंरापाट के सभी निवासियों की हालत यही है। ग़रीबी और भूख ने उन्हें तन बेचने के लिए इतना मजबूर कर दिया है कि अपने कुल की मर्यादा और लोक लाज को यहाँ के लोगों ने त्याग दिया है। उपन्यास में प्रयुक्त गीत शिकायत नहीं विलाप करता है। वह अंदर से टूटा असुर समाज ग़रीबी के कारण ग़लत रास्ते पर चल रहा है। इस बात का दस्तावेज है-
“काठी बेचे गेले असुरिन,
बाँस बेचे गेले गे,
मेठ संगे नजर मिलयले,
मुंशी संग लासा लगयले गे,
कचिया लोभे कुला डूबाले,
रूपया लोभे जात डूबाले गे।”16
बाज़ारवाद ने किशन कन्हैया पांडे, शिवदास बाबा, गोनू सिंह जैसे चरित्रों को पनाह दी है। यह लोग असुर जाति पर हो रहे शोषण का फायदा उठाना भलिभाँति जानते हैं। आदिवासियों की ज़मीन-जायदाद, उनकी स्त्रियों और लड़कियों पर अपना अधिकार जमाकर उनका यौन शोषण करना तथा ग्लोबल गाँव के देवताओं को लड़कियाँ सप्लाई करना इनका प्रमुख कार्य बन चुका है। धर्म के ये ठेकेदार असुर जाति को हर प्रकार से लूटते रहते हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मिलकर अपना स्वार्थ पूरा करते है- “शिवदास बाबा और विधायक जी का यह सोचना था कि
वेदांग जैसी बड़ी कंपनी इस इलाक़े में केवल कँटिले तार की बाड़-बन्दी करने नहीं आयी है। उसे अपनी फैक्टरी के लिए कोयलबीघा अंचल में कई सौ एकड़ ज़मीन चाहिए।
एम. पी. साहब ने दिल्ली में ही सेटिंग कर ली थी। वही छोटे काम के बहाने, इलाक़े को जानने समझने जीतने का त्रिसूजी फॉर्मूला समझाकर ले आये थे। अब बाबाजी और विधायकजी के शेयर की सौदेबाजी होनी थी।”17
समाज कल्याण के नाम पर आज भी शिवदास बाबा जैसे अनेकों लोग आदिवासियों को ठग रहे हैं। उनकी पहुँच दूर-दूर तक होने के बावजूद भी अपनी जान दाँव पर लगाकर असुर समाज की तरह ही कहीं से कोई पक्ष आंदोलन कर धर्म के इन ढोंगी ठेकेदारों का विरोध कर रहा है।
‘ग्लोबल गाँव के देवता’ की कथा असुर जनजाति की आह भरी शोक-संतप्त कथा से आरंभ होती है और अंत भी इसी प्रकार होता है। समूह में रहने वाले ये आदिवासी अपने सारे दुख-सुख भी एक साथ झेलते हैं। इनकी एकता ग्लोबल गाँव के देवताओं को पसंद नहीं आती। वह उनका हर तरह के हथकंडे अपनाकर शोषण करते रहते हैं। फिर भी यह नहीं कह सकते कि भौरापाट के असुरों की लोकतंत्र में आस्था नहीं है। रुमझुम के द्वारा प्रधानमंत्री को लिखा गया ख़त आदिवासियों की भयावह त्रासदी की हकीक़त बताता है। इन आदिवासियों को दिखावे का लोकतंत्र नहीं चाहिए। एक तरफ लोकतांत्रिक सरकार उन्हीं की ज़मीनों से खनिज निकालकर शहरों को बसा रही है, वहीं दूसरी तरफ आदिवासियों को दोयम दर्जे का मजदूर बनाकर रख दिया है।
ग़रीबी, भूख और बीमारियों ने उन्हें चारों और से घेर लिया हैं। रुमझुम सरकार को लिखता है, “लेकिन बीसवीं सदी की हार हमारी असुर जाति की अपने पूरे इतिहास में सबसे बड़ी हार थी। इस बार कथा-कहानी वाले सिंगबोंगा ने नहीं, टाटा जैसी कंपनियों ने हमारा नाश किया। उनकी फैक्टरियों में बना लोहा, कुदाल, खुरपी, गैंता, खन्ती सुदूर हाटों तक पहुँच गये। हमारे गलाये लोहे के औज़ारों की पूछ ख़त्म हो गयी। लोहा गलाने का हज़ारों-हज़ार साल का हमारा हुनर धीरे-धीरे ख़त्म हो गया।”18 विकास के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उनका अस्तित्व मिटा रही हैं, “महोदय, शायद आपको पता हो कि हम असुर अब सिर्फ़ आठ-नौ हज़ार ही बचे हैं। हम ख़त्म नहीं होना चाहते। भेड़िया अभ्यारण्य से कीमती भेड़िये ज़रूर बच जाएँगे श्रीमान्। किन्तु हमारी जाति नष्ट हो जाएगी।”19
दुनिया के साथ चलने के लिए हमें विकास की ज़रूरत है लेकिन ऐसा विकास नहीं, जो हज़ारों घरों को उजाड़कर किया गया हो। आज जंगल के दावेदार कहे जाने वाले आदिवासियों को नक्सलवादी करार देकर गोलियों से मार दिया जा रहा है। इस कारण यह समाज अपना जीवन डरकर जी रहा है। वह अपनों से नहीं बाहरी लोगों से त्रस्त है। उपन्यास में प्रयुक्त रुमझुम का गीत आदिवासी समाज की पीड़ा को व्यक्त करता हैं-
“…हमारी रात
भरपूर काली रात होने का
आश्वासन हमें दे रही
उदास हवाएँ
दूर कहीं विलाप कर रहीं
एक ज़ख़्मी हिरण
अपने पीछे आते हुए
शिकारी की आवाज़ सुनकर
अपने आप को
अपनी पूर्ण मृत्यु के लिए
तैयार कर रहा है
अपनी पूर्ण मृत्यु…”20
‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में प्राय: असुर जाति का अंत भी उसी प्रकार होते दिखाया है, जैसे पौराणिक कथाओं में देवताओं के द्वारा छल-कपट से असुरों का होता आया है। “दस-बारह फीट लम्बे। दाँत-वाँत बाहर। हाथों में तरह-तरह के हथियार। नरभक्षी, शिवभक्त-शक्तिशाली। किन्तु अंत में मारे जानेवाले। सारे देवासुर संग्रामों का लास्ट सीन पहले से फिक्स्ड।”21
उपर्युक्त विवेचन के पश्चात कहा जा सकता है कि विकास के नाम पर सरकार, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और पूंजीपति वर्ग देशवासियों (आदिवासियों) का तो नहीं कहा जा सकता लेकिन अपना विकास अच्छी तरह से कर रही है। प्रकृति का विनाश किया जा रहा है साथ ही हमारी अस्मिता, हमारी संस्कृति का भी विनाश हो रहा है। जंगल, पहाड़, नदी को अस्मिता मानने वाले आदिवासियों का जंगलों की अंधाधुंध कटाई, उत्खनन, उत्सर्जन के कारण आज जीवन ख़तरे में है। सरकार, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इन भोले-भाले आदिवासियों को सपने दिखाकर अपना स्वार्थ पूरा कर रही है। आदिवासी इस बात का आंदोलन कर विरोध करते हैं तब उन्हें नक्सलवादी घोषित कर मार दिया जाता हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आज आदिवासी समाज नष्ट होते मानवीय मूल्यों और मानवतावाद के कारण अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए नक्सलवादी बनने पर मजबूर है।
संदर्भ ग्रंथ-
1. रमणिका गुप्ता, आदिवासी कौन?, रमणिका फाउंडेशन, राधा कृष्ण प्रकाशन प्रा. लि. नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृ.- 26
2. सं. रमणिका गुप्ता, आदिवासी स्वर और नई शताब्दी, पृ.- 49
3. रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता, पृ.- 98
4. वही, पृ.- 11
5. सं. डॉ. गीता वर्मा, डॉ. रवि कुमार गोंड़, वर्तमान समय में आदिवासी समाज, पृ.- 153
6. रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता, पृ.- 80
7. वही, पृ.- 88
8. वही, पृ.- 92-93
9. वही, पृ.- 95
10. वही, पृ.- 95-96
11. वही, पृ.- 12-13
12. वही, पृ.- 62
13. वही, पृ.- 20
14. वही, पृ.- 17
15. वही, पृ.- 39
16. वही, पृ.- 38
17. वही, पृ.- 88
18. वही, पृ.- 83
19. वही, पृ.- 84
20. वही, पृ.- 90-91
21. वही, पृ.- 17
– प्रज्योत पांडुरंग गावकर