विमर्श
गुलज़ार और समानांतर सिनेमा
– सपना
‘समानांतर सिनेमा’ साहित्यिक भाषा के इस बड़े- से शब्द को आसान भाषा में कुछ यूँ समझा जा सकता है कि लीक या बनी-बनाई परंपरा से हटकर जिन विषयों या फिर कथानकों पर जो फ़िल्में बनायी गयीं, उसे ‘समानांतर सिनेमा’ कहा गया। सिनेमा के शुरूआती दौर में दर्शकों तक जो कहानियाँ पहुँच रहीं थीं, वे मुख्यतः मनोरंजन और धार्मिक आस्थाओं को ध्यान में रखकर बड़े पर्दे पर उतारी जा रही थीं। साथ ही यह कहानियाँ सिनेमा के उद्देश्य को फलीभूत भी कर ही रही थीं परन्तु इसी बीच कुछ निर्देशकों को सिनेमा का यह दायरा काफ़ी सीमित लगने लगा। उन्हें अहसास हुआ कि सिनेमा का काम केवल मनोरंजन करना भर नहीं है| समाज को सिनेमा के माध्यम से उसी की समस्याओं से अवगत किया जा सकता है, जिसके चलते ‘समान्तर सिनेमा’ ने यह काम बखूबी किया। “चालू सिनेमा से अलग भी सिनेमा की एक दुनिया है, जो सपनों के जाल में हमें भरमाती नहीं, बल्कि जीवन और समाज की जटिलताओं के यथार्थ का हमें साक्षात्कार कराती है। सिनेमा की इस दूसरी दुनिया के निर्माताओं में थे सत्यजीत राय और ऋत्विक घटक। उनके समानांतर और लगभग सहयात्री हैं मृणाल सेन। भारत में कला फ़िल्म की शुरुआत बंगला फ़िल्म ‘पाथेर पांचाली’ (1955) से मानी जाती है, जिसके निर्देशक सत्यजीत राय थे। इसी तरह हिंदी में समानांतर सिनेमा की शुरुआत ‘भुवन सोम’ (1969) से मानी जाती है, जिसका निर्देशन मृणाल सेन ने किया था|”1
हिंदी सिनेमा में समानांतर सिनेमा की नींव ‘भुवन सोम’ के रूप में मृणाल सेन के हाथों रखी गयी। यह माना जाता है कि समूचे हिंदी सिनेमा के इतिहास में मृणाल सेन ही हैं, जो भुवन सोम बनाकर समानांतर सिनेमा का सुंदर आगाज़ करते हैं। “हिंदी सिनेमा के पूरी तरह से हॉलीवुड की फिल्मों की नक़ल बन जाने की प्रवृति पर ‘भुवनशोम’ के आगमन ने रोक लगा दी। सन 1968 में ‘भुवनशोम’ बनाकर मृणाल सेन ने भारतीय सिनेमा में एक नए आन्दोलन का शुभारम्भ व्यावसायिक सिनेमा के ढांचे में रहकर ही अच्छी फ़िल्में बनाने की संभावनाएँ तलाशते थे।”2 मौटे तौर पर देखा जाए तो यह माना जाएगा कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में सत्तर का दशक एक ऐसा महत्वपूर्ण समय रहा है, जिसमें सामानांतर सिनेमा के माध्यम से यह सिद्ध किया गया कि विशेष तौर पर मनोरंजन केन्द्रित और व्यवसाय केन्द्रित सिनेमा से हटकर भी सिनेमा कितना महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली है। “हिंदी फिल्मों के लम्बे इतिहास में सत्तर का दशक विविध धाराओं की महत्वपूर्ण फिल्मों के लिए जाना जायेगा। फ़िल्म इस उद्देश्य से भी बनाई जा सकती है कि व्यावसायिक लाभ प्राथमिक शर्त न हो।”3
सिनेमा इतिहास में समानान्तर सिनेमा के जन्म और अवसान के बीच की अवधि बहुत लम्बी नहीं थी। केवल दो दशकों तक अस्तित्व में रहने वाले इस सिनेमा ने समाज को खूब झकझोरा परन्तु मनोरंजन की दुनिया इस पर हावी हो गयी। यूँ तो आज भी इस धारा का सिनेमा ख़ूब बनता है परन्तु वह एक नए रूप के साथ पेश किया जाता है या कहा जा सकता है कि दर्शक की रूचि को मद्देनजर रखते हुए इस सिनेमा की प्रकृति में कुछ फेर-बदल किये जाते हैं। सिनेमा की इस धारा की यात्रा के आरंभ को इस तरह भी जाना सकता है, “सिनेमा की इस सामानांतर धारा का उद्भव वैसे तो 60 के दशक के आख़िर में मृणाल सेन की फ़िल्म ‘भुवनशोम’ के निर्माण और प्रदर्शन से हुआ लेकिन इसके लिए ज़मीन सवाक फिल्मों के आगमन के कुछ ही समय बाद तैयार होनी शुरू हो गयी थी। दरअसल मूक फिल्मों के दौर से निकलने के बाद बोलती फिल्मों के शुरूआती दौर में तो वैसी ही फ़िल्में बनी, जो विशुद्ध रूप से जनता का मनोरंजन करने वाली थीं। इन फिल्मों पर पारसी थियेटर और धार्मिक आख्यानों का प्रभाव था लेकिन जल्द ही कुछ फिल्मकारों को यह भी लगने लगा कि सिनेमा जैसे विराट माध्यम का लक्ष्य सिर्फ़ मनोरंजन नहीं होना चाहिए बल्कि इसके ज़रिये समाज की समस्याओं को भी सामने लाना चाहिए और फिर बहुत जल्द ऐसी भी फ़िल्में बनने लगीं, जिनका कथानक सामाजिक समस्याओं और जीवन यथार्थ के इर्द-गिर्द रचा गया था। ‘मजदूर’ (1934), ‘अछूत कन्या’ (1936), ‘औरत’ (1940), ‘रोटी’ (1942), ‘अछूत’ (1940), ‘धरती के लाल’ (1946) और ‘नीच नगर’ (1946) जैसी आरंभिक दौर की कुछेक फ़िल्में ऐसी ही थीं। आज़ादी के बाद 50 के दशक में ऐसी फिल्मों की संख्या में ज़रूर इजाफा हुआ, जिनका मुख्य स्वर सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ था।”4
अपने शुरूआती दौर से दो दशकों तक यह सिनेमा खूब रचा बसा भारतीय समाज के मन-मष्तिष्क पर लेकिन धीरे-धीरे बाजारवाद ने इस सिनेमा को प्रभावित करना शुरू कर दिया। उसका सबसे प्रमुख कारण ‘दर्शक’ रहा क्योंकि इस सिनेमा को वह दर्शक संख्या नहीं मिल सकी जो चालू सिनेमा के पास रही है शुरू से। एक विशेष बुद्धिजीवी वर्ग ही इस सिनेमा को दर्शक के रूप में मिला। एक थका हारा मजदूर व्यक्ति यदि किसी तरह की जुगत के बाद सिनेमा की ओर बढ़ता है तो उसका प्रथम उद्देश्य ही मनोरंजन होता है इस दृष्टि से भी समानांतर सिनेमा सब तक पहुँचने वाला सिनेमा नहीं बन सका। “बीसवीं सदी का आखिरी दशक कला फिल्मों के अवसान का समय रहा। दो दशक तक सिनेमा की जिस सामानांतर धारा ने अपनी यथार्थवादी और नवयथार्थवादी फिल्मों से सिनेमा के रुपहले पर्दे पर हलचल मचाई थी, उन फिल्मों का बनना कम होने लगा। जो फिल्मकार और कलाकार अपनी पहचान समानान्तर सिनेमा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में रखते थे, वे मुख्यधारा के सिनेमा में अपनी पहचान बनाने लगे। कला और व्यावसायिक फिल्मों का फर्क मिटने लगा। सदी खत्म होते-होते कला फ़िल्में बननी लगभग बंद ही हो गयीं।”5
समानांतर सिनेमा के आने और जाने के बीच एक बेहद सुखद बात के तौर पर गुलज़ार का आना हिंदी सिनेमा जगत में मील का पत्थर साबित हुआ। जैसे कि भारतीय सिनेमा में समानांतर और मनोरंजन सिनेमा के बीच की खाई को पाटने के लिए ही गुलज़ार का आगमन हुआ हो। गुलज़ार नाम से विख्यात ‘सम्पूर्ण सिंह कालरा’ का जन्म अविभाजित भारत के झेलम जिला पंजाब के दीना गाँव में, जो अब पकिस्तान में है, 18 अगस्त 1938 को हुआ।6
1961 से अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत करने वाले गुलज़ार मूल रूल से एक साहित्यिक व्यक्तित्व हैं और यही कारण है कि वे समानांतर सिनेमा को पर्दे पर बखूबी उतार देते हैं। विभाजन और विस्थापन की त्रासदियों को झेलने वाले गुलज़ार ने जीवन संघर्ष को इतने क़रीब से देखा है, जो उनकी साहित्यिक और सिनेमाई दोनों रचनाओं में स्पष्ट नज़र आता है। इसी कारण उनकी फिल्मों में समाज में व्याप्त बुराइयों का यथार्थ चित्रण स्पष्ट दिखाई देता है। “समानांतर फिल्मों के आरंभिक दौर में सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, विमल राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद, गुरु दत्त, वी. शांताराम आदि फ़िल्म निर्देशक थे। इसे निःसंदेह भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। इस दौर की फिल्मों ने प्राय: उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियों को अपनी रचनाओं का आधार बनाया, जिसके चलते साहित्य की तरह फिल्मों ने भी समाज का यथार्थ पेश कर अपना राजनीतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व निभाया।”7 इसी आधार पर समाज के यथार्थ को विशुद्ध रूप से गुलज़ार ने अपनी फिल्मों के माध्यम से दर्शक वर्ग तक पहुँचाया है।
मनोरंजन और कला सिनेमा के मध्य गुलज़ार एक ऐसे सेतु का काम करते हैं, जो सिनेमा की दोनों ही धाराओं को आपस में जोड़े रखती है। जहाँ गुलज़ार की फिल्मों में भ्रष्टाचार, पथ-भ्रष्ट युवा पीढ़ी, आतंकवाद जैसी सामाजिक बुराइयाँ देखने को मिलती हैं, वहीं दूसरी ओर गुलज़ार अपनी फिल्मों के माध्यम से बाल मनोविज्ञान, स्त्री- पुरुष संबंधों की संजीदगी के साथ-साथ मूक-बधिर व्यक्ति के जीवन की समस्याओं को बड़े पर्दे पर बहुत सहजता से पेश कर देते हैं। सामाजिक, राजनैतिक यथार्थ को समानांतर सिनेमा की तर्ज पर दर्शाने वाले गुलज़ार सिनेमा के महत्वपूर्ण बिन्दु ‘मनोरंजन’ का साथ भी नहीं छोड़ते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक फ़िल्म में मुख्य रूप से तमाम समस्याओं को प्रस्तुत करते हुए गुलज़ार की हर फ़िल्म में एक प्रेम कथा गौण रूप से चलती रहती है। साथ ही इनकी फिल्मों में गीतों की अधिकता के चलते मनोरंजन की सभी कसौटियों पर गुलज़ार खरे उतरते हैं।
गुलज़ार की तमाम फ़िल्में ‘मेरे अपने’ (1971), ‘परिचय’ (1972), ‘कोशिश’ (1972), ‘अचानक’ (1973), ‘खुशबू’ (1974), ‘आंधी’ (1975), ‘मौसम’ (1976), ‘किनारा’ (1977), ‘किताब’ (1978), ‘अंगूर’ (1980), ‘नमकीन’ (1981), ‘मीरा’ (1981), ‘इजाज़त’ (1986), ‘लेकिन’ (1990), ‘लिबास’ (1993), ‘माचिस’ (1996), ‘हु तु तु’ (1999) आदि के द्वारा गुलज़ार ने समाज में व्याप्त किसी न किसी समस्या के यथार्थ रूप को बहुत संजीदगी से दर्शाया है। जहाँ एक ओर फ़िल्म ‘मेरे अपने’ के माध्यम से देश में व्याप्त राजनैतिक भ्रष्टाचार के कारण पथ-भ्रष्ट होती युवा पीढ़ी को दिखाया गया है तो वहीं इसी फ़िल्म में राजनीतिक पार्टियों द्वारा देश की युवा पीढ़ी को अपने फायदे के लिए किया जाने वाला ग़लत इस्तेमाल भी दिखाया है। कोशिश फ़िल्म में चाहे मूक-बधिरों की समस्या हो या परिचय, किताब और मासूम जैसी फिल्मों के माध्यम से बाल बालमनोविज्ञान की बात हो, गुलज़ार जीवन की प्रत्येक बारीकी को पर्दे पर दर्शाने में सिद्धहस्त हैं।
अपने गीतों के माध्यम से भी गुलज़ार मनोरंजन और कला सिनेमा के मध्य किसी कड़ी-से प्रतीत होते हैं। एक तरफ़ फ़िल्म ‘मेरे अपने’ के एक प्रसिद्ध गीत के माध्यम से गुलज़ार ने बेरोज़गारी जैसी समस्या को उजागर किया है- “हालचाल ठीक ठाक है/सब कुछ ठीक ठाक है/ बी.ए किया है, एम.ए किया है/लगता है वो भी अवेई किया है/ काम नहीं है वरना यहाँ/ आपकी दुआ से सब ठीक ठाक है/ हाल चाल ठीक ठाक है”8 तो वहीं दूसरी तरफ़ मनोरंजन के क्षेत्र में गुलज़ार प्रेम गीत लिखते हैं। साथ ही ‘लकड़ी की काठी’ जैसा प्रसिद्ध गीत लिखकर बच्चों का मनोरंजन करते हैं।
गुलज़ार एक ही समय में अपनी फिल्मों, गीतों के माध्यम से समाज की समस्याओं को भी दर्शाते रहे। साथ ही मनोरंजन के लिए लिखते रहे। उदाहरण के तौर पर वर्ष 1999 में गुलज़ार निर्देशित फ़िल्म ‘हु तु तु’ के एक दृश्य में ‘भाऊ’ नामक किरदार राजनीति पर व्यंग कसते हुए कहता है- “सिर्फ पोलिटीशियन रिटायर नहीं होते जब तक वो मरते नहीं या मार नहीं दिए जाते।”9 फिर आगे इसी फ़िल्म का गीत है- “घपला है- घपला है जी घपला है/आटे में घपला, बाटे में घपला/ रेल में घपला, तेल में घपला”10 तो दूसरी तरफ इसी फ़िल्म का एक ओर गीत है- “छई छप छई छपाक छई/ आती हुई लहरों पे जाती हुई लड़की”11 ऐसा प्रेम गीत है, जो आज भी एफ़.एम के कुछ स्टेशन्स पर सुनाई देता है।
वस्तुतः गुलज़ार सिनेमा की किसी एक धारा को पकड़कर नहीं बैठे। समानांतर सिनेमा के साथ-साथ सिनेमा की दुनिया में आने वाले गुलज़ार ये भली-भांति जानते हैं कि किसी भी बात को किस तरह कहा जाए कि वह सामने वाले पर गहरा असर छोड़े। उनका यही अनूठा ढंग उनके बाकी सबसे अलग और विशेष बना देता है। मनोरंजन के चलते हुए सामजिक समस्याओं को प्रस्तुत कर देने की कला के गुलज़ार धनी हैं। समानांतर सिनेमा की जब भी बात की जाएगी और गुलज़ार का ज़िक्र न किया जाये ऐसा संभव नहीं जबकि गुलज़ार को पूरी तरह से समानांतर सिनेमा की धारा का निर्देशक कह देना बिलकुल उचित नहीं। सत्तर के दशक के आरंभिक चरण में जब सिनेमा के कई बड़े दिग्गज निर्देशकों ने कला सिनेमा की जड़ों को पर्दे पर उतार दिया था, वहीं लगभग सत्तर के अंतिम दशक में गुलज़ार इस क्षेत्र में आते ही दर्शकों और श्रोताओं के बीच अपने शुरूआती गीतों से ही सबके पसंदीदा हो जाते हैं| एक गीतकार के तौर पर कुछ बाद में, परन्तु निर्देशन के क्षेत्र में क़दम रखते ही ‘कला सिनेमा’ की झलक देने वाले गुलज़ार को लोकप्रिय और समानांतर सिनेमा के बीच का सेतु कहा जाये तो किसी भी दृष्टि से अनुचित न होगा।
सन्दर्भ सूची-
1. Hindisamay.com, समानांतर सिनेमा के सारथी, कृपाशंकर चौबे
2. भारतीय सिने-सिद्धांत, डॉ. अनुपम ओझा, पृष्ठ संख्या- 90
3. Jansatta.com, अशोक भौमिक, 18 अगस्त, 2017
4. राम मुरारी, समांनातर सिनेमा का उद्भव, विकास और अवसान, समसामयिक सृजन, अक्टूबर-मार्च, 2012-2013
5. वही
6. www.wikipedia.com
7. Jansatta.com, अशोक भौमिक, 18 अगस्त, 2017
8. गुलज़ार, फ़िल्म मेरे अपने, 1971
9. गुलज़ार, फ़िल्म हु तु तु, 1999
10. वही
11. वही
– सपना