विमर्श
गुलेरी जी की कहानियाँ और उनका लोक जीवनात्मक आधार
– डॉ. विजय कुमार पुरी
7 जुलाई, 1883 को जन्मे श्री चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। गुलेरी जी बहुभाषाविद् थे, उनका पांडित्य असाधारण था। संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, मराठी, लेटिन, अंग्रेजी आदि भाषाओं पर उनका विशेषाधिकार तो था ही, साथ ही मनोविज्ञान, दर्शन, पुरातत्व, इतिहास, संगीत आदि के क्षेत्र में भी उनका कोई सानी नहीं था। विषम परिस्थितियों में भी वे उदार ही रहते थे। सन् 1900 से लेकर जीवन पर्यन्त सरस्वती, इन्दु, वेश्योपकारक, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, मर्यादा, भारत मित्र, समालोचक आदि पत्रिकाओं में उनके लेख, निबंध, टिप्पणियाँ, कविताएँ, कहानियाँ आदि प्रकाशित होती रही हैं। यद्यपि उन्होंने भिन्न-भिन्न विधाओं में लेखन किया है, किंतु सर्वाधिक प्रसिद्धि उन्हें कहानीकार के रूप ही मिली है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि आम जनमानस कहानी पढ़ना ही अधिक पसन्द करता है, जबकि अन्य साहित्य आम आदमी के क्षेत्र से बाहर है। सम्यक अनुशीलन का प्रयास तो सभी करते हैं जबकि क्षेत्र विशेष में दक्षता रखने वाले उस विधा विशेष की समग्र चीरफाड़ कर उसके गुण-अवगुण पाठकों/अध्येताओं के समक्ष रखते हैं।
गुलेरी जी की कहानियाँ उन्हें हिन्दी साहित्य का ही नहीं, विश्व कहानी साहित्य में अमर कथाकार बना गयीं। उन्होंने कितनी कहानियाँ लिखीं हैं? इस सन्दर्भ में विद्वान एकमत नहीं हैं। ‘सुखमय जीवन’, ‘बुद्धू का काँटा’, ‘उसने कहा था’ के अलावा ‘पनघट’, ‘हीरे का हीरा’ भी गुलेरी की कहानियों के रूप में चर्चित होते रहे हैं। इसके अतिरिक्त डॉ. विद्याधर गुलेरी ने ‘दही की हंडिया’ और ‘भूखे का संघर्ष’ भी उनकी रचित बताई हैं, पर साथ ही उन्होंने इन्हें अनुपलब्ध भी कह दिया है।
‘पनघट’ शीर्षक कहानी के सन्दर्भ में डॉ. पीयूष गुलेरी ने कहा है, “हाँ, उनकी एक अप्राप्य कहानी ‘पनघट’ की चर्चा काशी के पँ. राम लाल जी शास्त्री ने अवश्य की परन्तु वह उपलब्ध न हो सकी। उनका कहना है कि उन्होंने गुलेरी जी की ‘पनघट’ कहानी की पांडुलिपी भी देखी थी। परन्तु गुलेरी जी के देहांत के बाद उनके काग़ज़ पत्र इधर-उधर हो गये। बाद में ‘गुलेरी जी की अमर कहानियाँ’ के सम्पादन के समय उनके सुपुत्रों योगेश्वर गुलेरी और शक्ति धर गुलेरी के उसे ढूँढने के सब प्रयत्न विफल हुए।” इसी कहानी के सन्दर्भ में डॉ. मनोहर लाल ने भी श्री राम लाल शास्त्री से पत्र व्यवहार किया था। उनका हवाला देकर मनोहर लाल ने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ‘पनघट’ का प्रसङ्ग उठाया तो विद्याधर ने ‘आजकल’ पत्रिका में लिखा- “पनघट ‘बुद्धू का काँटा’ का हिस्सा न होकर स्वतन्त्र कथा है, जिसे राजकमल प्रकाशन से ही प्रकाशित गुलेरी ग्रन्थावली में समाविष्ट किया जा सकेगा।” अर्थात ‘बुद्धू का कांटा’ में वर्णित पनघट प्रसङ्ग से भी इसे जोड़ा जाता रहा है। इस कहानी का अस्तित्व रहस्यमयी कन्दराओं में भटक रहा है।
‘हीरे का हीरा’ कहानी के सन्दर्भ में डॉ. मनोहर लाल ने ‘उसने कहा था तथा अन्य कहानियाँ’ में लिखा है- “‘हीरे का हीरा’ गुलेरी जी की चौथी कहानी है, उसकी खोज डॉ. छोटा राम कुम्हार ने सन् 1980-81 ईस्वी में गुलेरी जी के भाई पं. जगद्धर गुलेरी के घर उपलब्ध गुलेरी जी के कागज-पत्रों में से की थी।——-पत्रों के साथ ‘हीरे का हीरा’ कहानी भी मैंने सारिका को दी थी। सारिका सम्पादक ने कहा था कि दस्तावेज विशेषांक में छापेंगे, लेकिन न सारिका का वह अंक निकला और न ही गुलेरी जी से सम्बंधित किसी सामग्री के साथ वह अधूरी कहानी सारिका में छपी।” यद्यपि 1994 में श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को समर्पित रचना पत्रिका के गुलेरी विशेषांक में ‘हीरे का हीरा’ अपूर्ण कहानी को डॉ. सुशील कुमार फुल्ल ने पूरा करके प्रकाशित किया था। इसी तरह फुल्ल साहब द्वारा पूर्ण की गयी कहानी 6 सितम्बर 1987 को जनसत्ता में प्रथमतः प्रकाशित हुई थी और नवनीत पत्रिका ने भी इसे प्रकाशित किया था। हिन्दी साहित्य के सुबोध इतिहास के परिशिष्ट तथा इंटरनेट में गुलेरी जी से सम्बन्धित सामग्री में भी इस कहानी को देखा जा सकता है। ‘हीरे का हीरा’ कहानी में गुलेरी जी ‘उसने कहा था’ कहानी के प्लाट को आगे बढ़ाते हुए दिखाई देते हैं। फर्क यही है कि फ्रांस बेल्जियम की जगह युद्धभूमि चीन वर्णित है। पात्र अम्माँ, गुलाबदेई, हीरे (लहना सिंह) का पुत्र हीरा ही वर्णित हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या ‘हीरे का हीरा’ को उनकी चौथी कहानी माना जाए? जैसा कि प्रेमचन्द के अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ तथा जयशंकर प्रसाद के अपूर्ण उपन्यास ‘इरावती’ को उन्हीं द्वारा रचित माना जाता है। अतः ‘हीरे का हीरा’ गुलेरी जी की चौथी कहानी माननी ही चाहिए।
किसी भी रचनाकार की रचनाओं में लोकजीवन को समेटे हुए कई पहलू आ जाते हैं। सहृदय, भावुक और कल्पनाशील होने के कारण रचनाकार जगत की अनुभूतियों को अपनी सम्वेदनाओं में समा लेता है। जिन घटनाओं से अन्य सामाजिक प्राणी कुछ क्षण ही द्रवित होते हैं, उन्हीं घटनाओं से साहित्यकार का मन तब तक उद्वेलित रहता है, जब तक वह उन घटनाओं को ताने-बाने में न बुन दे। अतः समाज की प्रत्येक हलचल साहित्य में समाहित होना अचम्भे की बात नहीं। इसी हलचल में लोकसंस्कृति और लोकजीवन के कई चित्र उन्हीं की भाषा में रचनाओं में आ जाते हैं।
‘हीरे का हीरा’ कहानी का आरम्भ ही हमें हमारी लोक संस्कृति के दर्शन करवा जाता है- “आज सवेरे ही से गुलाबदेई काम में लगी हुई है। उसने अपने मिट्टी के घर के आँगन को गोबर से लीपा है, उस पर पीसे चावल से मंडन मांडे हैं। घर की देहली पर उसी चावल के आटे से लीके खेंची हैं और उन पर अक्षत और बिल्ब पत्र रखे हैं। दूब की नौ डालियाँ चुनकर कुलदेवी बनाई है और एक हरे पते के दोने में चावल भरकर उसे अंदर के घर में भीत के सहारे एक लकड़ी के देहरे में रखा है।” अर्थात इस तरह का पूजा विधान हिमाचल के अधिकांश घरों में देखा जा सकता है। मन्नत पूरी होने पर कुलजा पूजन भी अवश्य किया जाता है। पुराने समय में बकरा भी काटा जाता रहा है। स्थानीय हिमाचली कांगडी बोली में इसे जातर कहते हैं। ‘जातर’ के अवसर पर वर या वधू पक्ष के लोग अपने ग्रामवासियों, भाई-बान्धवों के साथ ढोल बाजे सहित देवस्थल की और प्रस्थान करते हैं। गाँव की सोहागिन एवम् वरिष्ठ महिला चलीठा लेकर आगे-आगे चलती हुई गोलाकार में अलपना लगाती है तथा कोई अन्य कन्या या सोहागिन लाल रंग के रोलिये से गोलाकार अलपने में बिंदु लगाती है। यूँ तो ऐसी जातरें (देवयात्राएँ) पूरा वर्ष चलती रहती हैं, किंतु नवसम्वतसर के प्रारंभ में इनकी अधिकता देखने में आती है। इस सन्दर्भ में वर्ष का प्रारम्भिक चैत्र मास विशेष रूप से शुभ माना जाता है। उपरोक्त सभी विवरण ‘बुद्धू का कांटा’ कहानी में स्थल-स्थल पर उनकी भाषा में सम्पुष्ट हुए हैं- “रघुनाथ का हृदय धुएँ से घुट रहा था। विवाह के आते अवसर को वह उसी भाव से देख रहा था, जैसे चैत्र कृष्ण में बकरा आने वाले नवरात्रों को देखता है।” कई बार हिमाचली लोकजीवन में विवाहित होने वाले युवक को व्यंजनात्मक भाषा में ‘बलिया दा बकरु’ से भी अभिहित किया जाता है।
आज के युग में लड़का-लड़की विवाह पूर्व एक-दूसरे को देख लेते हैं, किंतु पुरातन काल में जब बच्चों के विवाह सम्बंध माँ-बाप द्वारा ही निर्धारित किए जाते थे तो ग्रामीण क्षेत्रों में विवाह वेदी में मुँह दिखाई रस्म प्रचलित थी, बल्कि आज भी है। विवाह की इस रीति-परम्परा के दर्शन ‘बुद्धू का कांटा’ कहानी में हो जाते हैं- “कन्यादान के पहले और पीछे वर-कन्या को, ऊपर एक दुशाला डालकर एक-दूसरे का मुँह दिखाया जाता है। उस समय दूल्हा-दुल्हन जैसा व्यवहार करते हैं। उससे ही उनके भविष्य, दाम्पत्य सुख का थर्मामीटर मानने वाली स्त्रियाँ बहुत ध्यान से उस समय के दोनों के आकार-विकार को याद रखती हैं।” हिमाचली संस्कृति में इस लोकरीति को मुँहदृष्टा कहा जाता है।
‘उसने कहा था’ कहानी में अमृतसर के बाजार का वर्णन करते हुए गुलेरी जी ने इक्के गाड़ी वालों के मुँह से जो वाक्यांश कहलवाये हैं, वे भी लोक आस्था का स्वरूप कहे जा सकते हैं। भीड़ भरे बाजार में बुजुर्ग महिलाओं के न हटने पर- “हट जा जीणे जोगिये, हट जा कर्मा वालिये, हट जा पुतरां प्यारिये” भाषायी आधार पर लोकरीतियों को पुष्ट करते हैं। इसी तरह लोकजीवन में झाड़-फूंक, जंतर-मंतर, कोजागर पुर्णिमा, संयुक्त कुटुंब प्रणाली, विवाह पूर्व जन्मकुंडली-टेवे मिलान में जोड़-तोड़, ममता स्वरूप दूध पिलाने के बाद बच्चों को धूल की चुटकी चटाना, बुरी नजर से बचाने के लिए काला टिक लगाना आदि कई लोकरीति के प्रसङ्ग गुलेरी जी की कहानियों में भरे पड़े हैं।
गुलेरी जी की कहानियों में जो लोकजीवनात्मक आधार सुदृढ़ता से अभिव्यंजित हुए हैं, वह कहानीकार की सिद्धहस्तता और कलात्मक कुशलता के परिचायक ही नहीं, बल्कि उनकी रग-रग में रंजित लोकसंस्कृति के सच्चे स्वरूप का भी दिग्दर्शन करवाते हैं। गुलेरी जनजीवन की व्यथा-कथाओं को निकट से जानते थे और उन मुलभूत समस्याओं और कुरीतियों पर उन्होंने वैसी ही कल-कल निनादिनी जनभाषा में साध-साध कर व्यंग्य बाण मारे हैं। वास्तव में गुलेरी जी समाज में क्रांतिकारी परिवर्तनों के हामी थे। उन्हें शत शत नमन।
– डॉ. विजय कुमार पुरी