विमर्श
गाँधी और स्त्री विचारधारा
– अनिता यादव
स्त्री समाज में सदैव चर्चा का विषय रही है। इस लेख में गाँधीजी की स्त्री विचारधारा को केंद्र में रखकर कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर विचार किया गया है। एक बार गाँधीजी ने कहा था– “जीवन में जो कुछ पवित्र और धार्मिक है, स्त्रियाँ उसकी विशेषताएँ हैं।” अर्थात गाँधीजी मानते थे कि संस्कार, परंपरा और जीवन की वाहिका स्त्री है। स्वयं का मूल्यांकन करते हुए गाँधीजी कहते थे कि परिवार और समाज की धुरी स्त्री है इसीलिए उसके उत्तरदायित्व पुरुष से अधिक है। कार्य की जितनी अधिकता है, उतनी ही सहनशीलता है। इन्हीं कारणों से कस्तूरबा का वह सम्मान करते थे।
गाँधीजी शिक्षा को स्त्री के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे। इन्हीं कारणों से वह कस्तूरबा को पढ़ाना चाहते थे। तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा बहुत सोचनीय थी। शिक्षा, ग़रीबी, पराधीनता के माहौल में पर्दा प्रथा, सती प्रथा जैसी कुरीतियाँ समाज में व्याप्त थीं। गाँधीजी ने स्वयं इन कुप्रथाओं को झेला था। वे कहते थे कि घर के बड़े-बूढ़ों के सामने पत्नी की तरफ देख तक नहीं सकते थे, बातें तो वहाँ कैसे हो सकती थी। गाँधीजी का यह कथन आज भी लागू होता है, जिस कारण से स्त्री का विकास बाधित रहा है। यह तो एक कुप्रथा का चित्र गाँधीजी ने किया है, जिसका वर्तमान रूप आज भी विद्यमान है।
उनका मानना है कि स्त्री स्वाधीनता का सबसे बड़ा रोड़ा पुरुष है। जब तक पुरुष का व्यवहार नहीं बदलेगा तब तक स्त्री की पराधीनता चलती रहेगी। यह एक मानसिकता है, जिसे शिक्षा के माध्यम से बदला जा सकता है। समाज में ऐसी अनेक कुरीतियाँ हैं, जो स्त्री शिक्षा में बाधा उत्पन्न करती हैं। पहले उन कुरीतियों जैसे- बाल विवाह, सती प्रथा, पर्दा प्रथा को समाप्त करना चाहिए। स्त्री की संवेदनशीलता के कारण उसे कमज़ोर और उपेक्षित किया जाना न्याय संगत नहीं है। जैसे पुरुष अपने क्षेत्र में सर्वोपरि हैं वैसे ही स्त्री भी अपने क्षेत्र में सर्वोपरि है।
स्त्री की आज़ादी का प्रश्न आज भी उतना ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है, जितना गाँधी के समय। समय की नब्ज़ टटोलकर ही गाँधीजी ने स्त्री को सर्वोपरि करने का मुद्दा उठाया था। पुरुष स्वयं के विषय में सोचता है, स्त्री के विषय में कम सोचता है। स्त्री उत्थान के लिए स्त्री को स्वयं उठना होगा। यह गाँधीजी का मत था। स्वयं अपना मूल्यांकन करते हुए वह कहते हैं कि मेरा प्रेम विषय से दूषित न होता तो आज वह (कस्तूरबा) विदुषी स्त्री होती। इसीलिए अपने एक लेख में गाँधीजी स्त्रियों के श्रृंगार का विरोध करते हुए स्त्री को स्वयं उठने के लिए कहते हैं। उनका मानना था कि पुरुष सत्ता; स्त्री को जितना स्वतंत्र करेगी उससे कहीं ज्यादा स्वयं स्त्री को उठना होगा। पहला परिवर्तन स्वयं स्त्री के भीतर आना चाहिए। वह कहते हैं “यदि आप (स्त्री) संसार के कार्यों में हाथ बँटाना चाहती हैं तो पुरुष को प्रसन्न करने के लिए श्रृंगार करने से आपको इंकार कर देना चाहिए। यदि मैं स्त्री होता तो पुरुष के इस दावे के विरुद्ध विद्रोह कर देता कि स्त्री का जन्म कि पुरुष का खिलौना मात्र बनने के लिए हुआ है।”
तत्कालीन समाज में इतना पुरज़ोर विरोध और इतनी सशक्त भाषा में कहना गाँधी के लिए ही संभव था। अंग्रेजों से आजादी तो मिल गई पर नारी कि स्वयं जकड़न और पुरुष सत्तात्मक पराधीनता से स्त्री आज भी जकड़ी हुई है। स्त्री के लिए अबला शब्द के प्रयोग का सदा विरोध करने वाले गाँधीजी स्त्री की स्वतंत्रता और समानता के पक्षधर रहे हैं। अपनी स्त्री विषयक स्वतंत्र विचारधारा के कारण ही गाँधी जी की आदर्श मीराबाई रही है। मीराबाई के संदर्भ में वह कहते हैं कि हमें मीराबाई जैसी हजारों स्त्रियों की आवश्यकता है, जो भारत के आदि स्त्री समाज को शिक्षित और जागृत कर सके। गांधीजी ने अपने भाषणों और लेखों में अनेक बार मीराबाई का उल्लेख किया है और उन्हें महान सत्याग्रही माना है। वह कहते हैं कि मीराबाई ने राणा कुंभा के साथ जो सहयोग किया, उसमें द्वेष नहीं था। राणा कुंभा द्वारा किए गए कठोर दंड उसने प्रेम पूर्वक स्वीकार किए हमारे असहयोग का मूल मंत्र भी प्रेम ही है।” यहाँ हम देखते हैं कि गाँधीजी मीराबाई से प्रेरणा लेकर चलते हैं।
एक सच्चा पुरुष अपने मार्ग के लिए स्त्री का आदर्श स्वीकार कर वह हर युग में वरण करने योग्य होना चाहिए। मीराबाई को अपना आदर्श बनाकर गाँधीजी स्त्री स्वतंत्रा उसके विद्रोह, उसकी सत्य निष्ठा, उसके स्वतंत्र अस्तित्व के पक्षधर का रूप प्रस्तुत करते हैं। महात्मा गाँधी की स्त्री विषयक विचारधारा आधुनिकता की परिचायक है। वह पुरुष सत्तात्मक रूढ़ियों के विरोधी रहे हैं। स्त्री की स्वतंत्रता चेतना और जागरूकता को महत्वपूर्ण मानते हैं। उनका कहना था कि जब पत्नी अपने को ग़लत न समझे और जब उसका उद्देश्य अधिक ऊंचा हो तब उसे पूरा अधिकार है कि वह अपने मन का रास्ता अख्तियार कर ले और नम्रता से परिणाम का सामना करें। महात्मा गाँधी स्त्री की हर समस्या जैसे- सती प्रथा, पर्दा प्रथा आदि पर विचार रखते हैं पर उसके शारीरिक शोषण पर वह मौन दिखते हैं। इसके साथ ही बाल विधवा विवाह का समर्थन करना परंतु विधवा विवाह पर चुप रह जाना उनके सामने कई प्रश्न खड़े करता है। वस्तुतः गाँधीजी के जो स्त्री विषयक विचार हैं, वह स्वतंत्रता आंदोलन और कस्तूरबा के संदर्भ में हैं इसलिए स्त्री विषयक कई प्रश्न उनसे छूट जाते हैं पर उनका स्त्री विषयक आधुनिक दृष्टिकोण निःसंदेह अनुकरणीय है।
– अनिता यादव