विमर्श
ग़ज़ल का सामाजिक सरोकार
– डॉ. काकोली गोराई
हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह हिन्दी साहित्य की एक सशक्त और अत्यन्त लोकप्रिय काव्य विधा है। आज हिन्दी साहित्य की बहुआयामी काव्य धाराओं में गीत, नवगीत, ग़ज़ल, दोहा, क्षणिका, हाइकू आदि धाराएँ बहुत पठित एवं बहुचर्चित हो रही हैं। इन सभी विधाओं में ग़ज़ल ही एक ऐसी विधा है, जिसने जनमानस को अत्यधिक प्रभावित किया है।
ग़ज़ल अरबी शब्द है। ग़ज़ल शब्द ‘गिजाल’ से बना है। ग़ज़ल अरबी साहित्य की प्रमुख विधा है, जो अरबी, फ़ारसी, ईरानी से होते हुए उर्दू में फिर हिन्दी तक पहुँची है। सही अर्थों में माना जाए तो ग़ज़ल अरबी जुब़ान का शब्द है, जिसका अर्थ औरतों के बारे में बातें करना या औरतों की बातें करना है। ग़ज़ल उर्दू शायरी का महत्वपूर्ण काव्य रूप है। गूढ़ तथा सूक्ष्म विषय को कम से कम शब्दों में काव्यात्मकता तथा शिल्पगत शर्तों को पूरा करती हुई रचना को ग़ज़ल कहा जा सकता है। ग़ज़ल विधा के पक्ष में यह दलील भी दी जाती है कि वह मानव संवेदनाओं एवं चेतना को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इतना ही नहीं, ग़ज़ल एक ऐसी विधा है, जिसमें विषयगत विविधता और व्यापकता की संभावना हमेशा बनी रहती है तथा तत्वज्ञान, मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मताएँ, आध्यात्मिकता जैसे तत्व भी ग़ज़ल के विषय हो सकते हैं। आम जीवन से इसका जुड़ाव इस विधा की विशिष्ट उपलब्धि है।
ग़ज़ल की प्रकृति को भौतिकवाद की कसौटी पर कसा या परखा नहीं जा सकता। संवेदनात्मक और तर्कबुद्धिपरक के परस्पर निकट लाने का प्रयास तो किया जा सकता है। यही कारण है कि ग़ज़ल का आलोचना पक्ष वैचारिक कारकों से विभाजित है। ग़ज़ल के अपने दर्शन और यथार्थ सम्प्रेषण की अपनी कलात्मक विशेषताएँ हैं। फ़िराक गोरखपुरी ग़ज़ल के विषय में लिखते हैं, “ग़ज़ल के शेरों का विषय सीमित नहीं होता। फिर भी उसमें मुख्यता करुणा, प्रेम और समर्पण के ही भाव प्रदर्शित किए जाते हैं। ग़ज़ल में चूंकि एक ही शेर में पूरी बात कह देनी होती है, इसलिए प्रतीकात्मकता का बहुत सहारा लिया जाता है। गौरतलब है कि एक-एक शब्द, विभिन्न परिस्थितियों में असंख्य वस्तुओं का प्रतीक हो सकता है, इसलिए एक ही शेर, प्रतीक रूप में आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और व्यावहारिक जीवन में एक-सा लागू हो सकता है। इसी आधार पर दार्शनिक तथ्यों को कविता के साथ सामने लाने में ग़ज़ल की परंपरा-सी बन गयी है।” फ़िराक गोरखपुरी ने जिस ग़ज़ल के प्रति अपनी बेबाक राय प्रस्तुत की है, वह दौर ग़ज़ल का था। फ़िराक गोरखपुरी ने ‘उर्दू कविता’ पुस्तक में ग़ज़ल पर विस्तार से लिखा है- “ग़ज़ल के अच्छे शेर व्यापक होते हैं। उनकी पहुँच बहुत दूर तक होती है। ग़ज़ल का हर शेर अपनी दुनिया आप बनाता है। उसमें ऐसा जादू होता है कि जीवन की अनेक परिस्थितियों का अनेक प्रयोगों में, अनेक अवसरों पर, अनेक पारस्परिक संबंधों और व्यवहारों पर लागू होता है।”
अनेक विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से गजल को परिभाषित किया है। हिन्दी ग़ज़ल को परिभाषित करते हुए डॉ. कुँअर बेचैन लिखते हैं, “ग़ज़ल रेगिस्तान के प्यासे होंठों पर उतरती हुई शीतल तरंग की उमंग है। ग़ज़ल घने अंधकार में टहलती हुई चिंगारी है। ग़ज़ल नींद से पहले का सपना है। ग़ज़ल जागरण के बाद का उल्लास है। ग़ज़ल गुलाबी पाँखुरी के मंच पर बैठी हुई ख़ुशबू का मौन स्पर्श है।” गोपाल दास नीरज के अनुसार, “ग़ज़ल न तो प्रकृति की कविता है न अध्यात्म की, वह हमारे उसी जीवन की कविता है, जिसे हम सचमुच जीते हैं।” माजदा असद जी के अनुसार, “साहित्य और समाज में ग़ज़ल का वही स्थान है, जो किसी भरे-पूरे घर में एक अलबेली सुन्दरी का होता है। उसके चाहने वालों में बड़े-बूढ़े, औरत-मर्द, सूफ़ी, योग्य और अयोग्य, ज्ञानी और अज्ञानी सभी होते हैं। कुछ उसके अल्हड़पन के दिलदार हैं तो कुछ उसकी शोखियों पर मरते हैं, कुछ उसकी गंभीरता, धीरता और रख-रखाव पर आसक्त हैं तो कुछ उसके हाव-भाव और चाल-चोंचले पर नाक-भौं चढ़ाते हैं।”
कुल मिलाकर ग़ज़ल एक सुसंस्कृत और सुसभ्य विधा है। विद्वानों, आलोचकों और शायरों ने अपने-अपने लेखकीय अनुभवों कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किये हैं। हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल की परंपरा का प्रारम्भ, आदिकाल के प्रख्यात कवि अमीर खुसरो से माना जाता है। अमीर खुसरो की रचनाओं में पहेलियाँ, मुकरियाँ, ग़ज़ल आदि प्रमुख हैं। हिन्दी ग़ज़लों के विकास में अमीर खुसरो की विशेष भूमिका रही है। खुसरों के बाद ग़ज़ल कबीर के यहाँ मिलती है।
आधुनिक युग में भारतेन्दु, निराला, प्रसाद, हरिऔध ने ग़ज़लें लिखीं। साठ के दशक से ग़ज़ल में बदलाव आया और वो समाज से जुड़ने लगी। इसी समय ग़ज़ल के क्षेत्र में दुष्यंत कुमार (1933-1975) का आगमन होता है, जिससे ग़ज़ल के क्षेत्र में बदलाव आता है। दुष्यन्त कुमार समकालीन हिन्दी कविता के एक ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने कविता, गीति नाट्य, उपन्यास आदि सभी विधाओं पर लिखा है। उनकी ग़ज़लों ने हिन्दी ग़ज़ल को नया आयाम दिया। उनकी हर ग़ज़ल आम आदमी की ग़ज़ल बन गयी है, जिसमें चित्रित है- आम आदमी का संघर्ष, जीवनादर्श, राजनैतिक विडम्बनाएँ और विसंगतियाँ। दुष्यंत कुमार की पीड़ा उनकी ग़ज़लों में है-
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
कायदे-कानून समझाने लगे हैं
अब नयी तहजीब़ के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं
इस प्रकार की यथार्थ ग़ज़लों से दुष्यंत कुमार ने आम जनता का दिल जीत लिया। एक आम आदमी की ज़ुबान बनकर दुष्यन्त ने जिस पीड़ा को कलमबद्ध किया, वह कोई आसान काम नहीं था। उनकी ग़ज़लें पढ़कर ऐसा लगता है कि वो हिन्दी से कहीं ज़्यादा हिन्दुस्तान की ग़ज़लें हैं। देश और समाज की हर समस्या पर उनकी निगाह थी। उनका सारा संघर्ष उनकी शायरी में प्रतिबिंबित हुआ है-
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गये
कहीं पे शाम सिराहने लगा के बैठ गये
दुष्यन्त कुमार हिन्दी कवियों में एक ऐसा नाम है, जिसे हिन्दी ग़ज़ल का प्रवर्तक माना जाता है। उनके बाद हिन्दी ग़ज़ल को नई ऊँचाइयाँ प्रदान करने में शमशेर बहादुर सिंह, अदम गोंडवी, कुंवर बेचैन, त्रिलोचन, निदा फ़ाजली, सूर्य भानु गुप्त, बाल स्वरूप राही, माधव कौशिक, जानकी बल्लभ शास्त्री, डॉ. महेन्द्र अग्रवाल, नीरज, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव आदि प्रमुख हस्ताक्षर हैं। इन ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल को समझने और उसे पाठकों के मध्य रोचक बनाने का प्रमुख कार्य किया है, ग़ज़ल की दशा और दिशा बदलने में अपूर्व योगदान दिया है। हिन्दी ग़ज़लों को नवीनता और दृष्टि प्रदान करते हुए डॉ. महेन्द्र अग्रवाल शेर कहते हैं-
हुई उर्दू की मैं, क़ानून अरबी
मुझे ज़िन्दा रखेगी सिर्फ हिन्दी
आधुनिक हिन्दी ग़ज़लें मनोरंजन या भोग-विलास का साधन नहीं है, यह आमजन की आत्माभिव्यक्ति का सहज साधन है। वर्तमान समय में वैश्वीकरण, बाज़ारवाद और उपभोगवाद के कारण समाज संकुचित हो गया है। कम्प्यूटर और इंटरनेट ने मानव की बाह्य गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया है। दोस्ती, रिश्ते-नाते जिस प्रकार प्यार व अपनापन खोते जा रहे हैं, वह पीड़ादायक स्थिति है। इस चिन्ताजनक स्थिति में ग़ज़लकारों की ग़ज़लों ने सदैव अपनी दृष्टि के दायरे में लिया है-
मैं महकती हुई मिट्टी हूँ किसी आँगन की
मुझको दीवीर बनाने पे तुली है दुनिया। (कुंवर बेचैन)
चाँद को छू के चले आए है विज्ञान के पंख
देखना ये है कि इंसानियत कहाँ तक पहुंची ( नीरज)
हिन्दी ग़ज़ल न सिर्फ लचीली है, बल्कि इसमें समय के सापेक्ष नवीनता, प्रयोगवादी और प्रगतिवादी होने की प्रेरणा भी है। आज ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल की परम्परा को न केवल आगे बढ़ाया, बल्कि ग़ज़लों द्वारा युगीन यथार्थ का बोध भी करया।
साहित्य, सामाजिक सरोकारों का ही प्रतिफल है। ‘सामाजिक’ का अर्थ- समाज से जुड़ा होना है। ‘सरोकार’ का अर्थ- प्रयोजन, वास्ता, पहलु, संदर्भ, आयाम, सम्बन्ध तथा परिणाम आदि से है। प्रत्येक साहित्यकार समाज का एक अंग है। समाज की परिस्थितियों के साथ उसका भावात्मक सरोकार होता है। साहित्यकार समाज के प्रति जितना अधिक संवेदनशील होता है, उसका सामाजिक सरोकार उतना ही गहरा होता है। समाज और साहित्य का मौलिक सम्बन्ध है। साहित्य जब-जब सामाजिक संदर्भों से जुड़ता है, समाज के सरोकारों का सच्चा विश्लेषण करता है, वह जनमानस के लिए प्रेरणादायी बनता है। सामाजिक सरोकार का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि सामाजिक संदर्भ से किसी वस्तु का आकलन किया जाता है।
हिन्दी ग़ज़ल को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने के क्रान्तिकारी कार्य का सूत्रपात सम्भवतः दुष्यन्त कुमार ने ही किया। दुष्यन्त कुमार के बाद तो जैसे हिन्दी ग़ज़ल को एक नई दिशा मिल गयी। आजकल हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में तो बड़ी भीड़ है। इन ग़ज़लकारों में शायद ही कोई ऐसा ग़ज़लकार होगा, जिसने अपनी ग़ज़ल में सामाजिक सरोकारों को अभिव्यक्त न किया हो।
दरअसल हिन्दी ग़ज़ल का चेहरा सामाजिक सरोकारों से ही बनता है। इन सरोकारों में घर-परिवार, रिश्ते-नाते, शोषण, ग़रीबी ही नहीं, त्रासद-विसंगतियाँ, राजनीतिक-छल, आतंक और पर्यावरण पर आसन्न संकट जैसे कितने ही मुद्दे शामिल दिखाई देते हैं। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र शायद ही बचा हो, जहाँ हिन्दी ग़ज़लकारों की दृष्टि न गयी हो। हिन्दी ग़ज़ल ने अपने सामाजिक सरोकारों की प्रतिबद्धता के चलते ही समाज के साथ संवाद की स्थिति को निरंतर सुदृढ़ किया है, वह समाज की पीड़ा और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनी है। हिन्दी ग़ज़ल समय के साथ चलने वाली विधा है और इसीलिए सामाजिक सरोकारों का अनुभव कराती है।
ग़ज़ल के शब्द-भाव, माधुर्य, सरसता, कल्पनाशीलता जीवन के कठिन व मधुर दोनों पक्षों को सतरंगी प्रकाश से आन्दोलित करता रहता है। लोक जगत में ग़ज़ल को प्रारम्भ से आज तक प्रमुखता, अनिवार्यता से स्वीकारा जाता रहा है।
संदर्भ सूची-
1. गगनांचल, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, आज़ाद भवन, नई दिल्ली- 110002
2. हरिगंधा, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकुला- 134113
3. सप्तसिन्धु, हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला- 134113
4. वागर्थ, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता- 700017
5. शोध प्रबन्ध, हिन्दी गज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार, सोनिया राठी, जैन विश्वविद्यालय, बेंगलोर, जर्नल- ‘IJHR’( खंड-3, अंक-3, मई- 2017, ISSN 2455–2232)
– डॉ. काकोली गोराई