विमर्श
गहरे मानवीय सरोकारों की कविता रचता कवि: कुमार अम्बुज
– मीना बुद्धिराजा
कविता के लिए निरंतर कठिन होते समय और मानवीय संवेदना के अनुर्वर होते परिदृश्य में भी आज अगर कविता लिखी जा रही है तो यह हमारे लिए बहुत बड़ी आश्वस्ति है। कविता अंतत: स्मृतियों, उम्मीदों और संवेदनाओं की मृत्यु से मुठभेड़ करती है। अपने समय के सच की सबसे विश्वसनीय अभिव्यक्ति कविता में ही संभव है, जो तमाम विषमताओं, अन्याय और क्रूरता के बीच संघर्ष और प्रतिरोध की पक्षधर होकर भी मानवता के स्वप्न को बचा लेती है। समकालीन कविता का सृजन आज तीन-चार पीढ़ियाँ एक साथ मिलकर कर रही हैं, जिसमें सब का सह-अस्तित्व सम्मिलित है। इसका कारण है आज के परिवेश और जीवन का जटिल और बहुआयामी यथार्थ, जो हमारे आसपास जीवित और स्पंदित है। हमारे दौर का सबसे बड़ा संकट यह है कि अभूतपूर्व पैमाने पर निर्ममता और नृंशसताएँ हमारे चारों और है लेकिन हम उन्हें एक सामान्य सच मानकर संवेदनशून्यता में जी रहे हैं। बाहरी व्यवस्था कैसे हमारी अंतश्चेतना पर अपना शिकंजा कसती जाती है, इसमें मनुष्य के अस्तित्व की बुनियादी अंसगतियों, विरोधाभासों, आत्मवंचना और अनसुनी आवाज़ों को सुनना और रचना हमारे समय की कविता का केंन्द्रीय मुद्दा है। कविता का सारा मोर्चा मानवता के पक्ष में विस्मृति, शोषण और अन्याय के खिलाफ है और वह वर्तमान के आधारभूत सच को उजागर करने का नैतिक साहस करती है। जीवन की निकटता ही कवि और पाठक को एक-दूसरे के पास लाती है। यहाँ कवि भाषा में दुनिया के बारे में नहीं बल्कि दुनिया में अपने होने को रखता है। एक कविता को अपने समय में किसी गवाही के रूप में पढ़ना एक बुनियादी तथा जरूरी सामाजिक जवाबदेही की ओर भी जाना है-
मुझे जीवित लोगों से मिलना है
मुझे सिर्फ नक्शे में नहीं
पृथ्वी के एक सचमुच हिस्से में रहना है।
यहीं
इसी बिंदु पर होना है निर्णय
मेरे जीवन का!
इस जनतांत्रिक स्वर के साथ हिंदी कविता में बीसवीं सदी के नवें दशक से लेकर समकालीन कविता के परिदृश्य में कुमार अम्बुज पर्याप्त चर्चित, सर्वस्वीकृत और हमारे समय के सार्थक हस्तक्षेप कवि हैं।
अपने पाँचों महत्वपूर्ण कविता संग्रह किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण और अमीरी रेखा के साथ ही ‘इच्छाएँ’ शीर्षक प्रसिद्ध कहानी संग्रह के साथ ‘थलचर’ जैसे वैचारिक गद्य के इलाके में भी उनकी उपस्थिति निर्विवाद एक सशक्त रचनाकार के रूप में बहुत आश्वस्त करती है। आधुनिक हिंदी कविता के लिए बहुत से प्रतिष्ठित सम्मानों के साथ उनकी प्रसिद्ध कविताओं के भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं, जो उनकी प्रखर वैचारिक दृष्टि के साथ ही सृजनशीलता में संवेदनात्मक व्यापकता का प्रमाण है। मानवीय सरोकारों से जुड़ा प्रत्येक विषय उनकी कविताओं में जीवंत हो उठता है। वास्तव में उनकी कविता अंतर्वस्तु और यथार्थ के आपसी सबंधों को एक आत्मीय भाषा में स्वरूप देती है। उनकी सजग संवेदना साधारण वस्तुओं और विषयों में भी समय की विराटता को दर्ज़ करती है, जो उनकी विशिष्टता है-
ये सिर्फ किवाड़ नहीं हैं
ये जब खुलते हैं
एक पूरी दुनिया
हमारी तरफ खुलती है।
कुमार अम्बुज की सभी कविताओं में एक ऐसी असाधारण ताज़गी और सहजता है, जिसमें कृत्रिम बौद्धिक वैचारिकता की अनुपस्थिति है, जो उन्हें समकालीन कवियों में अलग पहचान देती है। उनमें साधारण वस्तुएँ और स्थितियाँ इतने गहरे लगाव और अभिव्यक्ति के संयम के साथ प्रस्तुत होती हैं कि उनमें मानवीय सबंधों और सच्चाईयों की सूक्ष्म अनुगूंज सुनाई देती है। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में उन्होनें कहा है- “एक सवाल की तरह और फिर एक विवाद की तरह कुछ चीज़ें हमेशा संवाद में बनी रहती हैं। रचनाशीलता में मौलिकता एक तरह का मिथ है। मौलिकता एक अवस्थिति भर है, जिसमें आपको एक दी हुई दुनिया का अतिक्रमण करना है। मै और मेरी रचना उतनी ही मौलिक है, जितना इस संसार में मेरा अस्तित्व मौलिक है। मेरी मौलिकता पूरे जड़-चेतन से सापेक्ष है निरपेक्ष नहीं। …जैसे मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है।”
कुमार अम्बुज की कविता में हमारे समय का छिपा हुआ हिस्सा और अँधकार ही सतह पर आता है। ताकत के प्रति एक आसक्ति भाव और अन्याय को विस्मृत करने की स्थिति जिसमें स्मृतिहीनता के सामने हथियार डालना ही अब व्यक्ति की और सामूहिक अभिशप्त नियति है। ये कविताएँ जिन जटिल मानवीय संदर्भों में इन प्रश्नों को उठाती हैं, वो पाठक की चेतना को झकझोरते हैं। इन कविताओं को पढ़ते वक्त कई बार हम स्तब्ध हो सकते हैं, जो व्यवस्था के हिंसक परिवेश और अन्याय के प्रति आक्रोशित तथा क्षुब्ध करती हैं लेकिन ज्यों ही क्रूरता के किनारे पहुंचकर मनुष्य पशु में परिवर्तित होने लगता है तो ये कविताएँ जैसे चीख-चीख कर याद दिलाने लगती है कि हिंसा प्रतिहिंसा का उत्तर नहीं है। इसलिये उनके कवि व्यक्तित्व और दृष्टि में एक जागरूक सयंम भी है, जो संजीदगी से इस परिघटना को देखती है-
सब अपनी-अपनी तरह से कर रहे होंगे क्रूरता
और सभी में गौरव भाव होगा
वह संस्कृति की तरह आएगा
उसका कोई विरोधी न होगा
एक गहरी मानवीय उष्मा से भरी उनकी कविता में सहज करुणा एक दीर्घ आलाप की तरह समकालीन सरोकारों को विस्तृत कैनवास देती है। यह दृष्टि उन्हें कविता में साधारण जन के साथ अदृश्य रूप से जोड़ती है। प्रतिरोध के नए औजार गढ़ते हुए उन्हें एक विलक्षण लेकिन प्रतिबद्ध कवि की पहचान देती है। उनकी कविता सक्रिय और सकर्मक प्रतिरोध की रचनात्मक कार्यवाही है। इनमे मनुष्यता, राजनीति, व्यवस्था, समाज, श्रमिक, किसान, स्त्री, मध्यवर्ग, प्रकृति, करुणा वैश्विकता, बाज़ार, प्रेम, अपमान, उम्मीद और जीवन का अंधेरा पक्ष भी है, जो अनुभवों की आग में तपा है, जो भाषा और शिल्प की सादगी में होकर भी दुर्लभ है और विस्मित करने वाला है। हमारे समूचे समय के चिंतन, सृजन और समाज को जिन अदृश्य ज़ंज़ीरों ने बाँध रखा है, उनको काटकर आज़ाद जगह बनाने का जो उपक्रम कुमार अम्बुज की कविताएँ करती हैं, उनमे कोई असंभव, हास्यास्पद, आशावाद या कथित क्रांतिकारिता नहीं है लेकिन अन्याय का प्रखर विरोध है और अपने समय का मुकम्मल खाका भी। क्योंकिं कविता स्वप्न देखती है तो पूरा करने की उम्मीद भी जरूर। मनुष्यता के लिए निर्णायक पक्ष लेने के लिए प्रतिबद्ध इन कविताओं में हमारे समय की पुनर्परिभाषाएँ है, साहसिक आत्मालोचन भी और प्रवंचनाओं के प्रति प्रखर विरोध भी है। वस्तुत: ये कविताएँ इस जटिल यथार्थ और समय की गवाही को कलात्मकता में रूपातंरित कर कविता में जीवन के बुनियादी सच को सामने ला देती हैं। इस निर्मम परिवेश में अपने दुख, क्रोध, निराशा, पश्चाताप, अपराधबोध तथा आत्मसंलाप में कवि उस अंतरंग सच को ही पाना चाहता है, जो आज की साधारण मानवीय और सामूहिक त्रासद नियति है–
तुम्हें यह देखने के लिए जीवित रहना पड़ सकता है
कि सिर्फ अपनी जान बचाने की खातिर
तुम कितनी तरह का जीवन जी सकते हो।
जब बाज़ारवाद की आँधी में शब्दों के मायने खत्म किये जा रहे हों तब बुनियादी मानवता और अपनी भाषा को बचाने के लिए कवि की चिंता वाज़िब है। अपने एक वक्तव्य में कुमार अंबुज ने कहा भी है- “मैं आधा अधूरा जैसा भी हूँ, एक कवि हूँ और बीत रही एक सदी का गवाह हूँ। मेरे सामने हत्याएँ की गयी हैं। मेरे सामने ही एक आदमी भूख से मरा है। एक स्त्री मेरी आँखों के सामने बेइज़्ज़त की गयी। फुटपाथ पर कितने लोगों ने शीत भरे जीवन की रातें बिताई हैं। मैं चश्मदीद गवाह हूँ। मुझे गवाही देनी होगी। इस गवाही से बचा नहीं जा सकता। इसी मायने में किसी कवि के लिए और किसी समाज के लिए कविता का रकबा महत्वपूर्ण है। कविता में लिखे शब्द एक साक्षी के बयान हैं। इन बयानों से कवि के अंतस का और अपने समय के हालात का दूर तक पता चलता है। समाज के पाप और अपराध, एक कवि के लिए पश्चाताप, क्रोध, संताप और वेदना के कारण हैं। वह एक यूटोपिया का निर्माण भी है, जिसकी संभावना को असंभव नहीं कहा जा सकता।”
कोई है जो माँजता है दिन-रात मुझे
चमकाता हुआ रोम-रोम
रगड़ता
ईँट के टुकड़े जैसे विचार कई
इतिहास की राख से
माँजता है कोई
इस तरह कविता में अपने समय को दर्ज़ करना अनिवार्य है, जिससे कविता में प्रतिरोध व प्रतिवाद की समझ बनती है। कविता न्याय, लोकतांत्रिकता, समानता का पक्ष और सांप्रदायिकता, पूंजीवाद, उपभोक्तावाद, आर्थिक साम्राज्यवाद के खिलाफ जिस अर्थ को संप्रेषित करती हैं उससे एक समकालीन समझ का निर्माण होता है। वस्तुत: कुमार अम्बुज की कविता का मुख्य स्वर प्रतिरोध का है। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी भ्रष्टताओं, विद्रूपताओं की यथास्थिति का वह दृढ़ता से सामना करती है लेकिन वह यथार्थ को जनसामान्य के कोण से उठाती है। एक ऐसे समय में जब सच, स्मृति और संवेदनाओं को जबरन नष्ट किया जा रहा है। ऐसे यूटोपिया विहीन समय में जब अतिशय सूचनाएँ, उपभोग, सनसनी और विस्मृति की दुनिया में ये तमाम सवाल नए संदर्भों और असुविधाजनक तरीके के कवि के सामने आते हैं तो भयावह टूटन, यंत्रणा और अकेलेपन में जो कविताएँ लिखीं वे बेहद सजीव होकर पूरे वेग के साथ पाठक के पास भी लौटती हैं और कवि की निजी पीड़ा का अतिक्रमण कर जाती हैं। जीवन का वह पक्ष, जिसे जानने का साधारण मनुष्य को अधिकार नहीं है, उसमें अवसाद और आत्मनिरीक्षण के मिले-जुले स्वर कुमार अम्बुज की विशिष्टता हैं। उनकी कविताओं में जो एक ठोस और सजीव बुनियादी यथार्थ है, उसमें लोगों के दुखों और खुशियों का फैसला होता है-
इधर का जीवन हो गया है कुछ ऐसा
कि हर पंद्रह मिनट बाद
टटोलकर ढूँढनी होती है जीवन की धड़कन।
कुमार अंबुज की कविता की जड़ें, उनके समय-संदर्भों से गहरे जुड़ी हुईं हैं, जो उनकी अलग पहचान है। एक ऐसे वक्त में जब वर्चस्व, मुनाफे और बाज़ार की संस्कृति ने पूरी दुनिया में सत्ताओं का चरित्र एक जैसा ही बना दिया है। कविता का एक स्वप्न यह भी होता है कि अतिवादी स्थितियों के बीच एक ऐसा दुर्निवार और सघन प्रतिसंसार खड़ा कर दे, जिसकी शिद्दत को पाठक भी महसूस कर सके। जब शोषित-पीडित की संवेदना और प्रतिरोध की शक्ति बनकर उनकी कविता के रूप में शब्द अपनी उस सत्ता में दिखाई देते हैं, जो इस नई अमानवीय सभ्यता के सामने एक प्रतिसंसार की रचना करते हैं। कवि की यह स्वीकारोक्ति ह्रदयविदारक है क्योंकि यह एक ऐसी दुनिया के समर्थन में है, जो बहुत पहले ही खो चुकी है। आज के निर्मम और क्रूर समय में जब प्रेम की संवेदना ही संकट ग्रस्त है तब कुमार अंबुज लिखते हैं-
इन दिनों प्रेम करना
शताब्दी का सबसे कठिन काम है।
लेकिन प्रकृति ने जिस कोमल संवेदनाओं से स्त्री का निर्माण किया है, वह पुरुष के भीतर खंडित और टूटे- फूटे मनुष्य की मरम्मत कर उनके खुरदरेपन को अपने प्रेम से संवार सकती हैं। स्त्री की आत्मगरिमा और उसके अदम्य धैर्य के प्रति भी कवि की दृष्टि स्पंदनशील है। ‘खाना बनाती स्त्रियाँ’ और ‘एक स्त्री पर कीजिए विश्वास’ ऐसी ही विशिष्ट कविताएँ हैं, जिनके केंद्र में स्त्री की व्यथाएँ कई तरीके से दिखाई देती हैं। समस्याओं के फेर में पड़ना, स्त्री की सामूहिक नियति है लेकिन संताप की दारुण स्थितियों में एक स्त्री का स्वर समूची स्त्री जाति का स्वर बन जाता है और कविता आगे बढ़ती हुई स्त्री की पीड़ा को रचते हुए भी उसका अतिक्रमण कर जाती है-
जब ढह रही हों आस्थाएँ
जब भटक रहे हों रास्ता
तो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
वह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभव
अपने अँधेरों में से निकालकर देगी वही एक कंदील।
एक बड़े कवि और रचनाकार के भीतर के रहस्य कभी समाप्त नहीं होते और वह हर बार अपनी रचना-प्रक्रिया में नये रूप में बार-बार लौटता है और अलग तथा आगे की यात्रा करता है। विस्मृति के विरूद्ध कविता उसकी रचनाओं में हमेशा स्पंदित रहती है। यहीं से गुजरते हुए उसे पता लगता है कि मनुष्य की यातना का अंत कहीं नहीं है लेकिन उस अन्याय को जानना और प्रतिरोध के लिए तैयार करने का काम भी कविता ही करती है। इस दृष्टि से कुमार अंबुज की बहुत-सी कविताएँ जैसे- एक राजनीतिक प्रलाप, तानाशाह की पत्रकार वार्ता, नागरिक पराभव, चँदेरी, कोई है माँजता हुआ मुझे, बहुरूपिया, पिता का चेहरा, बाज़ार, अवसाद में एक दिन मैं, माईग्रेन, संभावना, आदर्शविहीन समय में, चुप्पी में आवाज़, ज़ंजीरें, डर, चोट, बहस की ढलान पर, अनंतिम, मेरा प्रिय कवि, आत्मकथ्य की सुरंग में से, अन्याय, परचम, अंत का जीवन जैसी रचनाएँ गहन अनुभुति और संवेदनात्मक यथार्थ के स्तर पर नये अर्थों में कविता का पाठ तैयार करती हैं। जब निरर्थक शोर इतना है कि जैसे समय घूर रहा हो तब अपने समय के संत्रास और ना-उम्मीदी से संघर्ष करते हुए भी सृजन के स्वप्न में कवि की आस्था बहुत गहरी है-
इतने खतरे हैं इतना है उन्माद
नहीं कह सकता कब तक खड़ा रहूँगा
सह सकूँगा कितने वार
और कब गिर जाऊँगा समय की छाती पर
कोई नहीं कह सकता
कि फिर से नहीं उठ पड़ूँगा मैं।
यहाँ कवि अपने नितांत निजी अनुभवों, जायज़ों, संशयों, अवसादों और पराजयों तक जाता है, जहाँ कुमार अंबुज का मानना है कि कविता अपने समाज, समय और जीवन से संपृक्त कलाजन्य कार्यवाही है। वह अंतिम उम्मीद है क्योंकि वह हस्तक्षेप कर सकती है और दर्शन, मृत्यु, अवसाद, राजनीति, मानवीय संबंध, सामाजिक मुश्किलों, निराशा और जीवन के सुख-दुख के विशाल रकबे में अपनी जरूरी भूमिका का निर्वहन करती है। यथार्थ से मुठभेड़ करने और किसी बदलाव की भूमिका में वह जरूरी उत्प्रेरक का काम कर सकती है। कविता में अपने समय की चुनौतियों को दर्ज़ करना एक लंबी प्रक्रिया है, कठिन है, बेचैनी से भरी है लेकिन दुर्दम्य रूप से आकर्षक है। इसमें शिल्प कथ्य को वहन करने के लिए कविता का एक जरूरी हिस्सा है लेकिन रूप या शिल्प का अतिरिक्त आग्रह कविता को चमकदार भले बना दे, उसे वस्तुत: कमजोर कर देता है। इसके लिए कुमार अम्बुज ने धीरे-धीरे एक ऐसी भाषा और शिल्प अर्जित कर लिया है, जिसमें नितांत अनायास और किफायतशारी से बहुत जरूरी बातें कहते हुए विस्तार को निभा ले जाते हैं। इसलिए उनकी कविताएँ हमारे समय में नागरिक होने के साथ उसके संघर्ष, चेतना और व्यथा को गहरे काव्यात्मक आशयों के साथ विमर्श का विषय बनाती है-
सोचो तो आदमी के जीवन में रखा ही क्या है आखिर
वह मरता तो है ही एक दिन
लेकिन दिक्कत यहाँ से शुरु होती है कि उसे हमेशा
उस एक दिन से पहले ही मार दिया जाता है यह कह कर
कि आदमी के जीवन में रखा ही क्या है।
आज के इस जटिल समय में केंद्र में होने की छटपटाहट के बीच उपेक्षित और हाशिये पर रहने वाले साधारण व्यक्ति का रूदन है। एक औसत भारतीय नागरिक के रूप में हम जिन विसंगतियों और अंतर्विरोधों के बीच रहने के अभ्यस्त हैं और बहुत-सी समस्याएँ पहाड़ की तरह झेलना सामूहिक नियति है। ये कविताएँ मूल्यहीन व्यवस्था और लोकतंत्र में आम आदमी की तरफ से बहुत-से असुविधाजनक सवालों को उठाते हुए अन्याय, शोषण और क्रूरता को बहुत ही सादगी और संजीदगी से बिना किसी शोर और दिखावे के पाठकों के सामने लाती है। इन कविताओं का पाठ अपनी निरंतरता में जिस अर्थ को व्यंजित करता है, वह प्रतिबद्ध और नैतिक रूप से जिम्मेदार कवि की ही आवाज़ है, जो अपने वक्त के पेचीदा सवालों को सहज भाषा में रखते उन तमाम संदर्भों तक पहुँचती है, जो हमारे निर्मम परिवेश का कठोर सच है। यह कविता चीज़ों को उसके वास्तविक रूप में पकड़ती है, जो आज के चुनौतीपूर्ण यथार्थ की ठोस ज़मीन पर खड़ी है, जिनमें वे सभी सच्चाईयाँ हैं, जो अंतर्विरोधों और द्वंद्वों से नियंत्रित हैं लेकिन कवि का संघर्ष और राजनीतिक स्वर स्पष्ट है। जिस अराजक और असहनशील समय में जो बिल्कुल हमारे सामने घट रहा है, तमाम तरह के सामाजिक-राजनीतिक अपघातों और विषमताओं के बीच इस कविता के केंद्र में वह साधारण व्यक्ति ही है जो आसपास है और जो आधुनिक मनुष्य का सबसे बड़ा संकट है। कवि की प्रखर वैचारिक संवेदना में इस कठिन समय की बहुआयामिता को भेदने की प्रखर दृष्टि और स्पष्ट भाषिक संरचना है। यहाँ मनुष्यता को बचाने का जोखिम सबसे ज्यादा है और इस अर्थ में अंबुज की कविताएँ प्रतिरोध की मुद्रा में मौलिक रचनाशीलता का दुर्लभ उदाहरण हैं क्योंकि न्याय की पुकार में लगाई गयी सबसे पहली आवाज़ हिंसकों द्वारा सबसे पहले शिनाख्त की जाती है-
जब कोई शक्तिशाली या अमीर या सत्ताधारी
लगाता है न्याय की गुहार तो दरअसल वह
एक वृहत, ग्लोबल और विराट अन्याय के लिए ही
याचिका लगा रहा होता है।
एक प्रतिबद्ध, ईमानदार और मानवीय सरोकारों के लिए सजग कवि का यह तेवर कुमार अंबुज की बिल्कुल नई कविताओं में भी विद्यमान है। इन कविताओं में कवि जीवन से संलग्न अपने अस्तित्व के होने को अनुभव करता है और आसपास की घटनाओं से, दृश्यों से उसका गहरा संबध है। हिंदी के वरिष्ठ कवि ‘विष्णु खरे’ ने कुमार अंबुज के लिए जो वक्तव्य लिखा है, वह उनकी काव्य-यात्रा का गहन गंभीर परिचय और जरुरी विश्लेषण भी है–
“कुमार अबुंज की ये कविताएँ भारतीय राजनीति, भारतीय समाज और उसमें भारतीय व्यक्ति के साँसत-भरे वजूद की अभिव्यक्ति हैं। इनमें कोई आसान फार्मूले, गुर या हल नहीं हैं- इनके केंद्र में करुणा, फिक्र और लगाव है, जिनसे हिंदुस्तानी आदमी के पक्ष की कविता बनती है। 1990 के बाद कुमार अंबुज की कविता भाषा, शैली और विषय-वस्तु के स्तर पर इतना लंबा डग भरती है कि उसे क्वाटंम जम्प ही कहा जा सकता है। उनकी कविताओं में इस देश की राजनीति, समाज और उसके करोड़ों मजलूम नागरिकों के संकटग्रस्त अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। वे सच्चे अर्थों में जनपक्ष, जनवाद और जन-प्रतिबद्धता की रचनाएँ हैं। जनधर्मिता की वेदी पर वे ब्रह्मांड और मानव अस्तित्व के कई अप्रमेय आयामों और शंकाओं की संकीर्ण बलि भी नहीं देती। यह वह कविता है जिसका दृष्टि संपन्न कला-शिल्प हर स्थावर-जंगम को कविता में बदल देने का सामर्थय रखता है। कुमार अम्बुज हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं जो स्वंय पर एक वस्तुनिष्ठ संयम और अपनी निर्मिति और अंतिम परिणाम पर एक जिम्मेदार गुणवत्ता दृष्टि रखते हैं। उनकी रचनाओं में एक नैनो-सघनता एक ठोसपन है। अभिव्यक्ति और भाषा को लेकर ऐसा आत्मानुशासन जो दरअसल एक बहुआयामी नैतिकता और प्रतिबद्धता से उपजता है और आज सर्वव्याप्त हर तरह की नैतिक, बौद्धिक तथा सृजनपरक काहिली, कुपात्रता और दारिद्रय के विरुद्ध है। हिंदी कविता में ही नहीं अन्य सारी विधाओं में दुष्प्राप्य होता जा रहा है। अम्बुज की उपस्थिति मात्र एक उत्कृष्ट सृजनशीलता की ही नहीं सख्त पारसाई की भी है। कुमार अंबुज की ये कविताएँ हिंदी कविता की ताकत का सबूत हैं और इक्कीसवीं सदी में हिंदी की उत्तरोत्तर प्रौढ़ता का पूर्व संकेत हैं।”
कुमार अम्बुज कविता हिंदी कविता को अचीन्ही कोमलता, संवेदनहीनता और इस आदर्शविहीन समय की निर्मनुष्यता के उस सबसे अंतिम पायदान तक ले गए हैं जहाँ यह दुनिया मेज पर जैसे किसी पूंजीपति उद्योगपति के अधखाये हुए फल की तरह है। पूँजी और बाज़ार के विशाल जबड़े में कराहती इस सभ्यता की त्रासदी को कुमार अम्बुज ने अपनी संवेदना के बारीक स्कैनर से चित्रित किया है, जो मौलिक और दुर्लभ है। समकालीन समाज, जीवन और राजनीति पर उनकी पकड़ बहुत गहरी है और उनकी कविता-दृष्टि में गहरी मानवीयता है, जो सामाजिक न्याय को केंद्रीय प्रश्न के रूप में स्वीकार करती है। उनकी काव्य-संरचना में जो वैचारिक तैयारी है, उसमें कल्पना से अधिक संघर्ष और स्वप्न शीलता का महत्व है। कुमार अम्बुज की कविता तमाम उपभोक्तावादी शक्तियों से उत्पन्न विस्मयपूर्ण असमानता और अन्याय के विरुद्ध अपनी नैतिक, प्रतिबद्ध और गहरी मानवीय पक्षधरता के साथ आज के निर्मम समय में सशक्त प्रतिरोध की उपस्थिति हैं, जब कलावादी गलियारों में टहलना लगभग अपराध है।
– मीना बुद्धिराजा