धारावाहिक
गवाक्ष – 9
सत्यनिधि के पास से लौटकर कॉस्मॉस कुछ अनमना सा हो गया था, संवेदनाओं के ज्वार बढ़ते ही जा रहे थे।उसके संवेदनशील मन में सागर की उत्तंग लहरों जैसी संवेदनाएं आलोड़ित हो रही थीं।जानने और समझने के बीच पृथ्वी-वासियों के इस वृत्ताकार मकड़जाल में वह फँसता ही जा रहा था। गवाक्ष में जब कभी पृथ्वी एवं यहाँ के निवासियों की चर्चाएं होतीं ,पृथ्वी का चित्र कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता मानो पृथ्वी कारागार है और यदि कोई दूत अपनी समय-सीमा में अपना कार्य पूर्ण नहीं कर पाता तब उसको एक वर्ष तक पृथ्वी पर रहने का दंड दिया जा सकता है।
इस समय अपने यान के समीप वृक्ष की टहनी पर बैठे-बैठे वह सोच रहा था ‘पृथ्वी इतनी बुरी भी नहीं !यमराज आवश्यकतानुसार अपने मानसपुत्र ‘कॉस्मॉस’ तैयार कर लेते हैं, उनकी क्या कम अपेक्षाएँ रहती हैं?एक प्रकार से तो यमराज ही सभी कॉस्मॉस के पिता हुए , किन्तु वे उन्हें एक पत्थर की भाँति कठोर बनाते हैं।उनका कार्य ही कुछ ऐसा है किन्तु वे मानस-पुत्रों का उपयोग ही तो कर रहे हैं ! क्या गवाक्ष में राजनीति खेली जा रही है?
कॉस्मॉस को पुन: मंत्री जी की स्मृति हो आई। वे अपने बारे में बताते हुए आज के राजनीतिज्ञ वातावरण पर आ गए थे। उनके मुख से उनकी पीड़ा एक झरने की भाँति झरने लगी थी; “आज राजनीति का घिनौना रूप विस्तृत हो चुका है,यह घरों की चाहरदीवारी लांघकर आँगन में अपने पौधे लगाने लगी है, रिश्तों को बींधने लगी है ।यह राम अथवा चाणक्य की राजनीति नहीं है जो समर्थ विचारक थे ,समर्थ राजनीतिज्ञ थे ,यह महाभारत की राजनीति है। इसके घिनौने रूप से घर-घर की संवेदनाएँ जड़ होती जा रही हैं। उन्होंने कहा; “पीड़ा होती है जब हम दुनिया भर में ‘स्कैंडल्स’ होने की बातें सुनते हैं। मनुष्य के जन्म पर राजनीति ,मृत्यु पर भी राजनीति की रोटियाँ सेकना, यह सब कष्ट देता है।”
कॉस्मॉस ने महसूस किया कि उसकी पलकें भीगने लगीं थीं ,उसने उन्हें बंद कर लिया और फिर से मंत्री जी के कथन का अर्थ तलाशने का प्रयत्न करने लगा।
यकायक कॉस्मॉस को एक झटका लगा। वह मंत्री सत्यव्रत जी के ज्ञान पर लट्टू हुआ जा रहा था लेकिन उन्होंने कहा था, “नहीं, मैं ज्ञानी नहीं –ज्ञानी एक और महापुरुष हैं जो आजकल अपने जीवन के संपूर्ण ज्ञान को समेटकर पृथ्वीवासियों में बाँटकर जाना चाहते हैं। मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ । जब हमें यह ज्ञात है कि एक समय सबको यह दुनिया त्यागकर जाना है तब अपने अनुभवों को अपनी आने वाली पीढ़ी को सौंपना बहुत आवश्यक है ।जिस अनुभव को वर्तमान पीढ़ी के बच्चे अपने जीवन का लंबा समय व्यतीत हो जाने पर प्राप्त करते हैं, यदि अपने बुज़ुर्गों का अनुभव ले सकें तब वे जीवन में कितने समृद्ध हो सकते हैं !” उन्होंने अपने दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जोड़े थे तथा एक गंभीर निश्वांस ली थी।
“पीड़ा की बात यह है कि आज की पीढ़ी को अपने बुज़ुर्गों से उनके अनुभव का संचित ज्ञान प्राप्त करने में कोई रूचि नहीं है ,उन पर विदेशी भूत इस कदर सवार होकर ता-थैया करता है कि उन्हें बुज़ुर्ग मूर्ख लगने लगे हैं । किन्तु बुज़ुर्ग अपना कर्तव्य पूर्ण करने से पीछे नहीं हटेंगे —हाँ,कष्टप्रद यह होगा कि जब तक ये पीढ़ी चेतेगी तब तक देरी हो जाएगी —“उनका स्वर भर्रा गया था। संभवत:उन्हें अपने यौवनावस्था के दिनों की स्मृति हो आई थी।
“वो कौन हैं ,क्या आप मुझे उनका नाम बता सकते हैं?” कॉस्मॉस ने प्रार्थना की ।
“हाँ, बता सकता हूँ शर्त यह है कि अभी तुम उनके कार्य में व्यवधान नहीं डालोगे ।वे आजकल एक पुस्तक-लेखन में वयस्त हैं, अभी उन्हें परेशान करना ठीक नहीं होगा। ” ” जी, अभी नहीं जाऊँगा लेकिन—- ” वह चुप हो गया
“जाओगे अवश्य ?”मंत्री जी ने मुस्कुराकर कहा था।
” जाना चाहिए न?”कॉस्मॉस ने मंत्री जी से ही पूछ लिया था।
“हाँ,उनका व्यक्तित्व इतना शानदार है कि उनसे मिलना,उनके विचारों को जानना सौभाग्य है, बस उनके लेखन में कोई विघ्नरूप न हो” मंत्री जी ने कॉस्मॉस को सचेत कर दिया था ।
कुछ देर के मानस-मंथन के पश्चात उन्होंने कॉस्मॉस को अपने उन गुरु के बारे में बहुत सी बातें बता दीं ,एक बार पुन:उसे उनके कार्य में विघ्न-रूप न होने के लिए सचेत कर दिया।
कॉस्मॉस इसी पशोपेश में था कि अभी वह प्रो. सत्यविद्य के पास जाए अथवा नहीं और जाए भी तो कैसे कि उनके लेखन में विध्न न हो !वह पृथ्वी से निरंतर कुछ न कुछ सीख रहा था। उसने जो अच्छी बातें सीखी थीं,उनमें यह भी था कि आपके उठने-बैठने ,वार्तालाप के शिष्टाचार से आपका व्यक्तित्व निखरता है।उसके सजीव होते मस्तिष्क ने कई बार इस बारे में चिंतन किया कि वह क्यों धरतीवासियों की संवेदनाओं के अनुसार परिवर्तित होता जा रहा है?परन्तु उसे कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ था।इस बार पृथ्वी पर आकर अजीब से संवेदन में जी रहा था वह !अचानक उसकी दृष्टि एक श्वेत रंग के चार-पहिया वाहन पर पड़ी ,जिसने उसे आकर्षित किया और वह उस वाहन के पीछे अपने अदृश्य रूप में चल दिया। एक लंबे-चौड़े अहाते में जाकर सफेद गाड़ी रुकी और दो श्वेत वस्त्रधारी मनुष्य उस में से एक महिला को निकालकर एक लंबी सी चार पहियों वाली गाड़ी में लिटाकर ले जाने लगे।
” लो स्ट्रेचर आ गया ,हम अस्पताल पहुँच गए हैं अक्षरा ”
कॉस्मॉस के कान खुले, दो नवीन शब्द थे ‘स्ट्रेचर’जिसे महिला के साथ वाली उसीकी हमउम्र महिला के मुख से सुना था। दूसरा अस्पताल! जिसके भीतर उस महिला को ले जाया जा रहा था । यह एक बहुत बड़ी कई मंज़िला साफ़-सुथरी इमारत थी जिसमें बहुत से लोग विभिन्न प्रकार के वस्त्र धारण किए हुए कार्य में संलग्न दिखाई दे रहे थे। अधिकांश कर्मचारी अपने वस्त्रों पर श्वेत कोट धारण किए हुए थे।कॉस्मॉस वातावरण को समझने का प्रयास करने लगा।
स्ट्रेचर पर जाने वाली महिला का नाम कॉस्मॉस ने अक्षरा सुना था लेकिन जब उसको एक बड़े से कक्ष के द्वार पर पहुंचाकर दूसरी महिला उसका नाम लिखवाने आई तब उसने एक काँच की खिड़की के पीछे बैठी महिला को लिखवाया –सत्याक्षरा !
‘अरे!’ कॉस्मॉस चहक उठा। उसे विश्वास नहीं हो रहा था ,वह तो उत्सुकतावश उस श्वेत चार पहियों के वाहन के पीछे चला आया था।यहाँ भी वही नाम टकराया जिसकी खोज में वह भटक रहा था।फिर यह सोचकर उसका मुह लटक गया कि उसे कितने ‘सत्य’ क्यों न मिल जाएं ,जब तक उसका लक्ष्य पूर्ण नहीं होता तब तक उसे इसी प्रकार भटकना है!
पीड़ा से कराहती सत्याक्षरा यानि अक्षरा को एक ऊँचे स्थान पर बैठा दिया गया । अक्षरा के भीतर शिशु की हलचल से सुखद उमंग भरा मातृत्व छलक रहा था । इस अलौकिक संवेदन से उसके मुख पर लालिमा की छटा छा गई थी ।लगभग 25 /26 वर्षीय यौवन व सौंदर्य से परिपूर्ण अक्षरा (सत्याक्षरा)के मुख व शरीर पर इस समय पीड़ा की सलवटें जहाँ-तहाँ बिखरी हुई थीं जिन्हें समेटने के प्रयास में वह कराहटों से उस कक्ष में कुछ इस प्रकार भौंचक हो अपने चारों ओर के वातावरण को तोलने का , कुछ तलाशने का प्रयास करने लगी मानो कोई मासूम बच्चा अचानक किसी मेले में अपनी माँ से बिछड़ गया हो। उसने अपनी सखी शुभ्रा का हाथ अपने हाथ से भींचकर पकड़ रखा था जैसे अकेली रह जाने पर उसे कोई निगल जाएगा।
प्रसव वेदना बढ़ती जा रही थी, अक्षरा के वेदना पूर्ण अंगों से मातृत्व प्राप्त करने की अनुभूति के उत्साह को देखकर उसकी सखी शुभ्रा के मुख पर भी नन्ही सी मुस्कान थिरक उठी। माँ बनने के समय माँ व शिशु के मध्य के बंधन के समान समीप व प्रगाढ़ अन्य कोई रिश्ता नहीं होता ।शुभ्रा उसकी मानसिक व शारीरिक स्थिति को भली प्रकार समझ रही थी। गर्भ की पीड़ा से कराहती अपनी सखी के सिर को अपने वक्षस्थल से सटाए शुभ्रा एक हाथ से उसका सिर सहला रही थी तो दूसरे हाथ को गोल घेरे के समान उसने उसे घेर रखा था।
रिश्तों की हथेली पर
उगते हुए सूरज से
रिश्ते कितने अपने
कितने हैं गैरों के!
कैसे होते हैं रिश्ते! ऐसे रिश्ते जिनमें न कोई रक्त का रिश्ता था ,न कोई जाति का,न कोई बिरादरी का और न ही कोई शहर या गाँव का । बस एक रिश्ता था ,मानवता का-मित्रता का जिसे दोनों न जाने कबसे निभा रही थीं। कितना सघन रिश्ता! कितना अपना रिश्त !
इसी समय कमरे के द्वार से मुह-नाक पर कपडे की पट्टी चिपकाए दो सायों ने भीतर प्रवेश किया। सत्याक्षरा की साँसों की गति बढ़ गई।सायों ने आगे बढ़कर उसे बिस्तरनुमा ऊँचे स्थान पर लिटा दिया, कमर के नीचे के भाग में पीछे की ओर से नुकीली सूईं से कोई तरल पदार्थ उसके शरीर में प्रविष्ट करा दिया गया, शनै:शनै: उसके नेत्र मुंदने लगे। रोशनी के बावजूद भी कक्ष में अन्धकार भरने लगा। यह उसे क्या हो रहा था? यकायक एक फुसफुसाहट सी उसके कानों में तैरने लगी —शीतल पवन के झौंके सी गुनगुनी फुसफुसाहट, उसके कान उस प्यारी सी गूँज को कैद करने की होड़ में तत्पर हुए। कोमल,मधुर शब्दों में कोई उसे पुकार रहा था। यह उसे क्या हो रहा था,कोमल,मधुर फुसफुसाहट उसके भीतर गुनगुनाने लगी –
“सत्याक्षरा” फुसफुसाहट उसके भीतर उतरी। एक बार नहीं कई-कई बार! धीरे-धीरे वह फुसफुसाहट तब्दील होने लगी-
माँ
माँ! एक ऐसा मधुर शब्द
जिसे किसी और संबोधन की
ज़रुरत ही नहीं होती!
अपने नाम के स्थान पर अब उसे केवल मधुर शब्द ‘माँ’ सुनाई दे रहा था। काँपते हाथों से उभरे पेट को सहलाते हुए अपने कान उस मीठे स्वर की ओर लगा दिए।अर्धनिमित आँखों से उसने चारों ओर देखा ,शुभ्रा कहाँ चली गई? कुछ भी न था केवल ‘माँ’ के सुरीले कोमल स्वर के अतिरिक्त !एक मीठी सी लरज से उसके मुख पर मुस्कराहट की एक लहर पसर गई, वह भूलने लगी कि उस कक्ष में कोई और भी था। जीवन का अमूल्य क्षण जी रही थी वह! प्रसव पीड़ा नेत्रों की कोरों से उसके गालों पर फिसलने लगी।
‘माँ——माँ—–‘जैसे किसी ने उस पर जादू कर दिया हो।
“कौन हो? सामने आओ ”
“मैं हूँ ”
“मेरे समक्ष आओ न” कराहते हुए उसने कहा ।
” तुम्हारे समक्ष? तुम किसे देखना चाहती हो?”
“अपने कोमल शिशु-पुष्प को —“पीड़ा दबाते हुए उसने कहा और मौन हो सामने घूरने लगी।
रहस्य उसकी बुद्धि से परे था, पशोपेश में थी वह,इतनी कि कुछ देर के लिए अपनी पीड़ा भूलकर वह चौकन्नी होकर उस ओर टकटकी लगाकर देखती रही। कक्ष एक मधुर आलोक से भरने लगा। जूही,गुलाब,रातरानी –मिली-जुली सुगंधों में कच्चे दूध की गंध की महक उसके नथुनों में भर उठी। उसने महसूस किया उसका वक्षस्थल कच्चे दूध से भर उठा है, उस दूध की तरल सुगंध उसके नथुनों में समाने लगी। दर्शन-शास्त्र की पी.एचडी की छात्रा सत्याक्षरा वात्सल्य की गरिमामयी गहन,मधुर संवेदना में डुबकियाँ लगाने लगी थी। उसके समक्ष एक सुंदर,सुकोमल पुष्प था। पीड़ा भूल गई थी वह और अपनी आँखों को मलकर उस पुष्प को देखकर उसमें तल्लीन हो गई थी।उसने अपनी आँखें मलीं और पुष्प पर गड़ा दीं। अरे! पुष्प में शिशु का चेहरा! चेहरा मुस्कुरा रहा था। उसे लगा उसका शिशु उसके समक्ष नमूदार हो गया है। उसने अपने काँपते हाथों को शिशु की ओर बढ़ाया और आलिंगन में समेटने का प्रयास किया।
“मैं तो यहाँ हूँ माँ, तुम्हारे गर्भ में”कोमल स्वर ने उसकी तन्द्रा तोड़ी, अक्षरा ने अपने उभरे हुए पेट को सहलाया।
यह कौन था? सुन्दर,सुकोमल,मुस्कुराता हुआ! वह पशोपेश में पड़ गई, उसके चेहरे पर निराशा पसरने लगी।
“मैं तुम्हारे गर्भ में हूँ माँ, अभी तुम मुझे अपने आलिंगन में कैसे ले सकती हो?”
” तुम मेरे शिशु हो न? मेरे शिशु पुष्प?” अक्षरा के मुख से ममता झरकर शरीर के एक-एक तंतु में अपने शिशु के सामीप्य का आनंद प्रवाहित कर रही थी। सत्याक्षरा अर्थात अक्षरा के समक्ष कुछ चेहरे अचानक ही गड्मड करने लगे जिन्हें उसने एक झटका देकर हठपूर्वक अपनी दृष्टि से हटा दिया तथा स्वर की ओर ध्यान लगा दिया।
” बच्चे! मेरे पास आओ,अपनी माँ की बाहों में” उसने अपनी बाहें बढ़ाकर शिशु को आलिंगन में भरने का प्रयास किया।
” मैं तुम्हारा शिशु नहीं ,मैं तुम्हारे शिशु की प्रतिछाया मात्र हूँ।” सामने वाले पुष्प में से अक्षरा को एक लरजता सा क्षीण स्वर सुनाई दिया।
“तो! तुम यहाँ क्या करने आए हो?” प्रसव-पीड़ा पुन: बढ़ चली।
सामने वाला पुष्प कुछ कहते -कहते थम सा गया। फिर उसे कहना ही पड़ा –
“मैं तुम्हें ले जाने के लिए आया हूँ । ”
‘मुझे ले जाने, पर कहाँ? तुम इतने कोमल नन्हे-मुन्ने से, तुम मुझे ले जाओगे ! बताओ तो कैसे?” उसके स्वर में माँ की ममता हिलोर बनकर लहराने लगी। तरल मुस्कान होठों पर थिरक उठी।
“क्या तुम मेरा वास्तविक रूप देखना चाहोगी?” इस बार कोमल स्वर का स्थान गंभीर स्वर ने ले लिया था।
अक्षरा ने धीमे से ‘हाँ’में अपनी गर्दन हिला दी।
आखिर यह है कौन ? वह पीड़ा में भी पशोपेश की स्थिति में आ गई। पल भर में एक हल्की सी आवाज़ के साथ एक अजनबी साया उसके समक्ष था जिसके हाथ में एक पारदर्शी काँच का समय-यंत्र था जिसे उसने अक्षरा के समक्ष पड़ी मेज़ पर स्थापित कर दिया। अक्षरा को उसका होना कचोटने लगा। उसने अक्षरा के पशोपेश में पड़े भर्मित मन व असमंजस का निवारण करने का प्रयास किया-
“मैं मृत्युदूत हूँ, इस धरती पर तुम्हारा समय समाप्त हो गया है, मैं तुम्हें ले जाने आया हूँ।”
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– डॉ. प्रणव भारती