धारावाहिक
गवाक्ष – 7
सत्यनिधि ने मुस्कुराकर अपनी बात आगे बढ़ाई।
“पहले समय में कला सीखने की आज्ञा तो मिलती नहीं थी, गुरु भी अपनी कला को गूढ़ विद्या की भाँति अपने तक ही सीमित रखना चाहते थे। इसीलिए इनके घराने बन गए थे लेकिन यह सब बाद में बताउंगी।”
“ये घराने क्या हुए? क्या घर से बने हैं?” कॉस्मॉस अपनी बुद्धि प्रयुक्त करने का प्रयत्न कर रहा था।
सत्यनिधि को उसकी जानने की उत्सुकता अच्छी लगी।
“हाँ, जैसे जैसे नृत्य -कला का विकास हुआ, वैसे -वैसे वह भौगोलिक रूप से विभिन्न घरानों में यानि विभिन्न स्थानों में बंट गई। मैंने तुम्हें बताया था न शास्त्रीय नृत्य व संगीत ‘गुरु-शिष्य’ परंपरा के अंतर्गत समाहित हैं।”
“तो बहुत से घराने हैं?”
“हाँ, विभिन्न स्थानों के अनुसार घरानों का विभाजन किया गया है।ये शास्त्रीय शैली के अंतर्गत आते हैं उन्हीं के अनुसार नृत्य-शैलियों के नाम रखे गए हैं; भरतनाट्यम, कत्थक, मणिपुरी, कुचिपुड़ी! पता है लोक-नृत्य व लोक-संगीत का भी बहुत प्रचलन है, उसमें — ”
“आपका घराना कौन सा है और आपकी नृत्य-शैली का क्या नाम है?”
” हम उत्तर भारत के निवासी हैं, उत्तर भारत में प्रचलित शास्त्रीय नृत्य कत्थक मेरे नृत्य की शैली है और मेरा नृत्य व संगीत ‘बनारस’ घराने का है। ”
” आपके नृत्य की क्या विशेषता है?”
” कत्थक कथा कहने से जुड़ा है। इसमें नृत्य के माध्यम से कलाकार किसी कथा यानि कहानी को प्रदर्शित करते हैं।”
“आप तो कह रही थीं आपके यहाँ नृत्य व संगीत को अच्छा नहीं माना जाता था?” उसने सत्यनिधि की दुखती रग पर हाथ रख दिया।
सत्यनिधि ने एक निश्वांस ली मानो उसके ह्रदय के फफोले फूट रहे हों।
“मेरे विवाह को वर्षों बीत गए परन्तु मैं संतान-सुख न पा सकी। मेरा सारा समय व्यर्थ जाता, मैं भोजन बनाती, घर के काम करती पर मेरे नेत्र आँसुओं से भरे रहते।एकाकीपन मुझे कचोटता था, मेरा चेहरा मुरझाया रहता। मेरे पति मेरी पीड़ा को समझते थे, उन्होंने मुझे मशहूर शायर जौक साहब का यह शेर सुनाया;
‘राहत सुखन से नाम क़यामत तलक है जौक ,
औलाद से तो है यही दो पुश्त ,चार पुश्त।’
यानि मनुष्य को संतान से अधिक समय तक वह चीज़ सुकून देती है जिससे उसे आनंद की प्राप्ति होती है।
“मैं भाग्यशाली थी कि मुझे बहुत अच्छे गुरु मिल गए थे, मेरे गुरु जी मुझे यहीं हवेली में नृत्य व संगीत की शिक्षा देने के लिए आने लगे। मेरी लगन देखकर उन्हें बहुत प्रसन्नता व संतोष हुआ।”
वे कहते थे, “सत्यनिधि ! बेटी ,हमारे जीवन में बहुत दोराहे, चौराहे आते हैं, वे हमें कई विकल्प देते हैं किन्तु उनमें भटकाव भी होता है किन्तु यदि हम अपने जीवन के दोराहे अथवा चौराहे पर स्वयं अपनी राह चुनकर एक संकल्प स्वयं से कर लें तब हमारे ध्येय की प्राप्ति सुनिश्चित है।”
” आपने संकल्प लिया और इतनी साधना की?”
“कॉस्मॉस! साधना तथा अभ्यास गुरु की कृपा से होते हैं। मैं वर्षों तक उनके आशीष से अभ्यास करती रही। गुरु जी ने मुझे साधना का महत्व समझाया, क्रमश:मेरे साथ आसपास के और लोग भी जुड़ने लगे।”
” मैंने तो सुना था सेवा करना अच्छी बात है, आप तो साधना की बात कर रही हैं?”
” मनुष्य के जीवन में साधना तथा सेवा दोनों आवश्यक हैं लेकिन यदि हम किसी चीज़ का अभ्यास न करें तो सब व्यर्थ हो जाता है। दूसरों की सेवा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी साधना करना। लेकिन इसके लिए भी कृपा की आवश्यकता होती है न?”
” फिर आपको अपनी नृत्य-अकादमी के लिए यह स्थान खरीदना पड़ा? मैंने तो सुना है पृथ्वी पर बहुत मँहगाई है? बहुत धन था आपके पास?”
“कहाँ की ईंट, कहाँ का रोड़ा” कॉस्मॉस तुम भी किसी एक विषय से दूसरे पर कूद जाते हो” निधि ने मुस्कुराकर उसे उपालंभ दिया।
” नहीं, न मेरे पास इतना धन था, न ही मैंने यह स्थान खरीदा था, यह हमारे पुरखों की हवेली है। इतना बड़ा,अच्छा, खुला हुआ स्थान ! गुरु जी के आदेश से यहाँ ‘नृत्य-संगीत विद्यालय’ खुल गया, इसमें कई उच्च स्तर के गुरु प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए आने लगे। गुरु जी नहीं चाहते थे कि उनके नाम से विद्यालय की स्थापना हो परन्तु वे ही तो हमारे मार्ग-दर्शक व प्रणेता थे अत: हमने उन्हें कठिनाई से मनाया ,उनका नाम शाश्वत था।”
“क्यों?”
“क्योंकि कोई भी महान व्यक्ति अपनी महानता का ढिढोरा नहीं पीटता,वह बस निर्विकार भाव से सेवा करता है, अपने अर्जित गुणों को शिष्यों को देकर इस दुनिया से जाना चाहता है।”
“इसीलिए आपकी अकादमी का नाम ‘शाश्वत कला अकादमी है?” वह जैसे बहुत समझदार हो गया था।
“चार वर्ष पूर्व मेरे गुरु जी ने देह त्याग दी, हम उन्हीं के मार्ग-दर्शन पर चल रहे हैं। उनके आशीष से ही आज यह विद्यालय बहुत बड़ी ‘अकादमी’ बन गया है।”
सुन्न सा बैठा था कॉस्मॉस ! पृथ्वी -जगत के बारे में नई जानकारियाँ उसे रोचकता का अहसास करा रही थीं। वह आकाश मार्ग पर चक्कर काट रहा है किन्तु पृथ्वी के वासी किस प्रकार से अपने ही वृत्ताकार में घूम रहे हैं।
“इस प्रकार आपकी साधना पूरी हुई?” इस बार उसने बहुत देर पश्चात मुँह खोला।
“अरे! साधना की कोई सीमा नहीं है। यह ऎसी प्रक्रिया है जिसके लिए स्वयं को निरंतर केंद्रित करना होता है। दो-चार राग गुनगुनाने अथवा थोड़े-बहुत हाथ-पैर मारने से कोई नृत्य व संगीत में प्रवीण नहीं होता। ये आध्यात्मिक विकास की बातें हैं इनकी जब तक निरंतर साधना न की जाए तब तक इनका परिणाम वही होता है जो कच्चे मिट्टी के बर्तन का। जब तक मिट्टी का बर्तन पूरी प्रकार से पककर पक्का न हो जाए, वह थोड़ा सा पानी डालते ही टूट जाता है। इसी प्रकार कलाओं को भी निरंतर साधना की भट्टी में पकाने की आवश्यकता होती है। इसके लिए आत्मकेंद्रित होना बहुत आवश्यक है।”
“परन्तु क्या आत्मकेंद्रित हो पाता है मन?”
“कठिन अवश्य है किन्तु किसी भी काम को बारम्बार करने से वह काम ‘कार्य’ में परिवर्तित हो पूजा बनता है। प्रारंभ में इसमें उकताहट भी होती है किन्तु कहते हैं न,’करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ‘ किसी कार्य को बार-बार करने से मूर्ख भी बुद्धिशाली हो जाता है।जब चेतना विस्तृत होती है तभी प्रत्येक कण केंद्रित होता है,उसके पश्चात ही दिव्यता का उदय होता है।”
“तो इसके लिए निरंतर जागृत होकर साधना करनी पड़ती है !”
“हाँ, इसके बिना सफलता कैसे प्राप्त हो सकती है?”
” सफलता? सफलता क्या है?” क्षण भर में चुटकी बजाते हुए वह पुन: बोला,”अरे! मैं जानता हूँ,जैसे मैं अपने स्वामी का आदेश पूर्ण कर पाता तब कार्य में सफल हो पाता, वही सफलता होती है न ? आदेश पूर्ण न कर पाने के कारण मैं दंडित भी हो रहा हूँ !”उसके नेत्र भर आए।
कॉस्मॉस के इस बचपने से सत्यनिधि के चेहरे पर मुस्कुराहट पसर गई। उसे प्रत्येक बात में उत्सुकता दिखाने वाला, यह बालक सा लगने वाला कॉस्मॉस बहुत प्यारा सा लगने लगा था। अपनी बातों को उसके साथ बाँटना उसे सुख दे रहा था।
‘क्या दूसरे ग्रह के ऐसे वासी जो धरती के लोगों के प्राण हरकर ले जाते हों,इतने प्यारे हो सकते है?’ निधि ने सोचा।
“सफलता दर्पण की भाँति है, जैसे दर्पण टुकड़ों में बंट जाने के पश्चात भी अपने प्रतिबिम्बन की योग्यता नहीं छोड़ता उसी प्रकार सफलता इतनी आसानी से प्राप्त नहीं होती और जब हो जाती है तब जीवन में स्थाई स्थान बना लेती है।”
“मेरे साथ ऐसा क्यों नहीं होता?” वह उदास था।
“क्योंकि तुम अपनी सफलता के प्रति जागरूक नहीं रह पाए।”
” तो क्या प्रत्येक कलाकार को इतना जागरूक रहना पड़ता है?’
“प्रत्येक कलाकार को नहीं,सबको, जागरूकता की आवश्यकता सबको होती है, चाहे वह रसोईघर का काम हो, चाहे गाड़ी चलाना हो या फिर कला की कोई विधा क्यों न हो, कोई भी काम जब तक तपकर नहीं किया जाए तब तक उसमें कुशलता कैसे प्राप्त हो सकती है? हर कार्य के लिए साधना करनी पड़ती है, साधना यानि स्वयं को साध लेना, स्वयं को तैयार करना” उसने प्यार से समझाते हुए उत्तर दिया।
“पर, मैंने सुना है तप और साधना तो ऋषि-मुनि पहाड़ों ,गुफाओं और कंदराओं में करते हैं।”
“तुम तो मस्तिष्क का कचूमर बना देते हो, तप और साधना के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं होता, किसी भी कार्य को तल्लीनता और लगन से कहीं पर भी किया जा सकता है, गुफाओं तथा कंदराओं की न तो आवश्यकता होती है और न ही सबके लिए यह संभव होता है। आध्यात्मिक अथवा सांसारिक कोई भी क्षेत्र क्यों न हो जब व्यक्ति उसमें स्वयं को साध लेता है, तभी प्रवीणता प्राप्त कर पाता है।”
कॉस्मॉस का मानो इन बातों से पेट ही नहीं भर रहा था, वह यह भी भूलता जा रहा था कि उसका कार्य अधूरा है। कितनी नवीन बातों, सूचनाओं का भंडार है यह पृथ्वी !
” मैं किसी तपस्वी अथवा साधु की बात नहीं कर रही हूँ, मैं अपने जैसे एक आम व्यक्ति की बात कर रही हूँ। सबको अपनी इन्द्रियों को आवश्यकतानुसार प्रयोग में लेने के लिए साधना करनी पड़ती है। पता है ,साधना यानि स्वयं को स्वतंत्र महसूस करना। जब तक हम अपने भीतर से स्वयं को स्वतंत्र महसूस नहीं करते तब तक घुटन में रहते हैं। जब तक मैंने अपने नृत्य व संगीत की साधना नहीं की थी तब तक मैं बहुत विचलित रहती थी। स्वयं को साधकर ही हम बंधनों से मुक्त हो पाते हैं। जब हम अपनी इन्द्रियों को साध लेते हैं तब हम तप की अवस्था में आ जाते हैं।”
“ये तप” कॉस्मॉस की बात मुख के भीतर ही रह गई ।
“तप यानि तापना, गर्म करना,माँजना। जानते हो सोना क्या होता है?
” हाँ,खूब चमकीला, सूर्य की लालिमा व पीत वर्ण मिला जुला !”
“अरे! कैसे जानते हो?”
” सारी बातें आपकी पृथ्वी से ही तो सीख रहा हूँ। एक बालक जो मेरा मित्र बन गया था उसकी माँ को आभूषण पहनने का और पहनने से भी अधिक अपनी सखियों में प्रदर्शन करने का बहुत लोभ था। वह अपने उस पति से प्रतिदिन कुछ न कुछ सोने और हीरे के आभूषणों की मांग करती रहती थी जो स्वयं अधिकांशत: विदेश में रहता था,लालची था और धर्म-गुरु बनकर लोगों को लूटता रहता था।”
“पहले अपनी बात समझा दूँ तुम्हें फिर तुम्हारी बात सुनूंगी। सोने के बारे में, मैं तुम्हें बता रही थी जैसे सोने को अग्नि में तपाकर चमकाया जाता है; तभी वह चमकता है, उसी प्रकार जब हम अपनी चिंतन की अग्नि में साधना की समिधा से अपनी इन्द्रियों को तपाते हैं, तभी हमारे मन में निखारआता है। हमारा व्यक्तित्व कुंदन(सोना) बन जाता है परन्तु यदि हममें ‘अहं’ का समावेश हो जाता है तब हमारी साधना व तप व्यर्थ हो जाती है। जब तप हमें व्यर्थ के अभिमान से मुक्त करता है तब हम तपस्वी बन जाते हैं। हम सरल,सहज बनकर जीवन की अनंतता को पहचान लेते हैं।”
कॉस्मॉस को सत्यनिधि की बातें सुनने में आनंद आ रहा था परन्तु उसे अब कुछ ऊब होने लगी थी। उसके समक्ष सुन्दरी नृत्यांगना का सुन्दर नृत्य घूमने लगा।
“ ऐसे अरुचि से साधना या तप नहीं होते, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है कॉस्मॉस; अरुचि के किनारे को पार करने के पश्चात ही वास्तविक मार्ग ज्ञात होता है। अच्छा! नृत्य करोगे मेरे साथ?” नृत्यांगना ने सोचा इस कॉस्मॉस को अपने साथ नृत्य कराकर देखे।
उसने सोचा था संभवत:कॉस्मॉस शरमा जाएगा लेकिन वह उसके कहने से खिल उठा, “चलो तो खड़े हो जाओ और मेरे साथ नृत्य शुरू करो।”
रिकॉर्डर का बटन दबा दिया गया, सत्यनिधि ने नटराज व शारदा माँ की प्रतिमाओं के समक्ष वंदन किया और कॉस्मॉस की ओर देखकर मुस्कुराकर दी जो उठकर उसके पास आकर उसके जैसे ही प्रणाम करने की चेष्टा कर रहा था। वातावरण में संगीत की स्वर-लहरी बिखरने लगी और नृत्यांगना के कदम धीमे-धीमे उठते हुए लय के साथ बद्ध होने लगे। कुछेक पलों में वह संगीत के लय -ताल में खोने लगी, ‘तिगदा दिग दिग थेई’ के साथ उसने चक्कर काटने शुरू कर दिए थे। कॉस्मॉस भी लट्टू की भाँति घूमने लगा था। कितना आनंद आ रहा था! वह सब भूलता जा रहा था, कौन है? कहाँ है? कहाँ से आया है?’ थेई’ के साथ वह नृत्यांगना की देखादेखी अपना पाँव ज़मीन पर बजाने लगा। ओह! पाँव की थाप कितनी मधुर थी! वह प्रफुल्लित हो उठा और चक्कर पर चक्कर काटता रहा। उसे पता भी नहीं चला कब सत्यनिधि अपना नृत्य समाप्त कर चुकी थी,संगीत बंद हो चुका था, वह लगातार घूमे जा रहा था।
अचानक सत्यनिधि खिलखिलाकर हँसी,”समझ में आया समाधि किसे कहते हैं ? तुम समाधि में चले गए थे। न किसी बात का ज्ञान,न चिंता ,न सोच —-बस तल्लीन ! इसी को कहते हैं समाधि! समाधि आनंद है , परम आनंद! अब बताओ क्या तुम्हें किसी वन, पर्वत या कन्दरा में जाने की आवश्यकता है?” सत्यनिधि ने कॉस्मॉस को व्यवहारिक रूप में समाधि का अर्थ समझा दिया था।
‘प्राणी माँ के गर्भ से जन्म लेता है किन्तु अपना समय पूर्ण करके न जाने कहाँ चला जाता है? चलो, एक महत्वपूर्ण सूचना तो प्राप्त हुई कि तुम जैसे दूत संसार में हमें लेने आते हैं किन्तु यह तो बताओ हमें यहाँ से कहाँ ले जाया जाता है? तुम्हें तो यह ज्ञात होगा?” सत्यनिधि ने कॉस्मॉस के मुख पर प्रश्नवाचक दृष्टि गड़ा दी।
“ऊँहूँ! मुझे केवल गवाक्ष तक का मार्ग ज्ञात है, इसके आगे कुछ नहीं मालूम, मेरा कार्य केवल आज्ञा पालन करना है; शेष कुछ नहीं।”
“ऐसा कैसे हो सकता है? तुम भी तो वहीँ रहते हो।” उसके मुख पर अविश्वास पसर गया।
“मैं सच कह रहा हूँ, बाई गॉड, मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं है।” उसने अपनी ठोड़ी के नीचे गर्दन की त्वचा को चूंटी में भरकर कहा।
“अरे ! यह कहाँ से सीखे?” सत्यनिधि ने हँसकर पूछा।
“एक बच्चे को लेने गया था, उसी से सीखा। बहुत प्यारा बच्चा था। मेरी मित्रता हो गई थी उससे।” बच्चे का चेहरा कॉस्मॉस की आँखों में नाचने लगा।
“और तुम उसके प्राण ले गए? कैसे कठोर हो तुम!”
“कहाँ ले जा पाया! तभी तो भटक रहा हूँ। इतने सारे सत्य मिले किन्तु मैं अभी तक एक को भी नहीं ले जा पाया।”उसने अपने माथे पर छलक आई पसीने की बूंदे हाथ से पोंछ डालीं। इस बार पृथ्वी पर आकर थकान,पसीना! ये सब उसके लिए नवीन अनुभव थे।
“गत वर्ष जब पृथ्वी पर आया था तब मुझे ज्ञात हुआ कि मनुष्य के मन में कोमल संवेदनाएं होती हैं जो उसके रिश्तों को जीवित रखती हैं। हमारे गवाक्ष से बिलकुल उल्टा हिसाब-किताब है पृथ्वी पर! पृथ्वी पर संवेदनाओं को संभाले रखने की बात की जाती है तो गवाक्ष में प्रशिक्षण दिया जाता है कि हमारे लिए संवेदनाओं का दूर-दूर तक कोई संबंध ही नहीं होना चाहिए। पृथ्वी पर आकर मेरे भीतर संवेदनाओं की कोमलता उगने लगी।”
“एक प्रकार से तो यह अच्छा है न?”
“अच्छा है किन्तु हमारे व्यवसाय में संवेदनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है न ! यदि हम संवेदनशील हो गए तो अपना कर्तव्य कैसे पूर्ण करेंगे?”
“अच्छा है न, संवेदनाविहीन मनुष्य का होना मनुष्यत्त्व का अपमान है।”
“किन्तु हम मनुष्य हैं कहाँ? जो आपके लिए वरदान है, वही हमारे लिए विष-पान है। जैसे ही हमारे भीतर संवेदनाएं फूटने लगती हैं हम अपने गवाक्ष से दूर होते जाते हैं, वहाँ की दृष्टि में बेचारे हो जाते हैं।”
“तो क्या गवाक्ष का जीवन भी पृथ्वी की भाँति ही चलता है?” गवाक्ष की जीवन-शैली के बारे में जानने में निधि की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।
“नहीं ,पृथ्वी सी संवेदना वहाँ नहीं होतीं। वहाँ एक मौन पसरा रहता है। मैं अपने कार्य में असफल हुआ तब मुझे ज्ञात हुआ जिसको मेरे स्वामी दंड कहते हैं, वह तो वास्तव में पुरस्कार है ।”
“कौन सा पुरस्कार?”
“यही, पृथ्वी पर रहने का, आनंद करने का” वह जैसे दिल खोलकर हँसा।
“तो पृथ्वी पर तुम्हें आनंद आ रहा है? हमने तो सुना है स्वर्ग में बहुत आनंद है। इसीलिए सब स्वर्ग जाने की आकांक्षा रखते हैं !” निधि ने कॉस्मॉस को प्रश्नों के कटघरे में ला खड़ा किया। शायद यह ऊपर की कुछ बात बता ही दे।
“लेकिन स्वर्ग देखा किसने है? मैंने तो नहीं। मुझे तो आपकी धरती पर ही वह आनंद स्वर्ग लगा जिसका अनुभव मुझे नृत्य के समय हुआ।“
“यह तो बहुत समझदारी की बात की तुमने!” नृत्यांगना ने प्रसन्नता से कॉस्मॉस को मानो शाबाशी दे डाली।
“मैं जानता हूँ मनुष्य पंच तत्वों से मिलकर बना है और अंत में उन्हीं में मिल जाता है परन्तु ये पंच तत्व हैं कौन कौन से?” कॉस्मॉस बहुत जिज्ञासु था, पृथ्वी की समस्त जानकारी हासिल करना चाहता था।
“तुम तो मुझे बताते नहीं! और….”
“लेकिन मैं सचमुच गवाक्ष के अतिरिक्त कुछ नहीं जानता, “उसने निधि की बात बीच में काटकर भोलेपन से कहा।
“अर्थात वहाँ के निवासी भी हमारी भाँति अज्ञात वृत्त में गोल-गोल घूम रहे हैं?”
“नहीं,नहीं! वहाँ नीरव शान्ति में स्वामी सब लोगों को कार्य पर लगाए रखते हैं। किसी के पास यह सब सोचने का मस्तिष्क नहीं है।”
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– डॉ. प्रणव भारती