धारावाहिक
गवाक्ष – 6
युवक ने आगे बढ़कर माँ शारदा व नटराज के बीच अपना समय-यंत्र स्थापित कर दिया ।
” यह समय यंत्र है । जब इसे स्थापित कर दिया जाता है तब उस व्यक्ति के पास उतना ही समय रह जाता है जितनी देर में इस यंत्र की रेती ऊपर से नीचे के भाग में आती है । मैंने इसे स्थापित कर दिया है।अब आपके पास अधिक समय नहीं हैं । आप मेरे साथ चलने के लिए तैयार हो जाइए।”
“तुम जो भी हो ,मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती।मेरे विद्यालय को , मेरे छात्र-छात्राओं को अभी मेरी बहुत आवश्यकता है।मेरी साधना अभी शेष है। अपनी साधना को हमें सौ प्रतिशत देना होता है ,साधना को बीच में छोड़ देने से उसका महत्व समाप्त हो जाता है।”
“परन्तु मेरे स्वामी की आज्ञा —??”उसने संक्षिप्त में ‘गवाक्ष’ तथा स्वामी की आज्ञा पालन करने की समस्त कथा सुना दी ।
” मैं अपने कर्तव्य से बँधा हुआ हूँ ,अपने स्वामी की आज्ञा न पालन करने का दुःसाहस नहीं कर सकता।पहले ही मैं दंड पा रहा हूँ ।”
“तुम जो भी हो अपने स्वामी से जाकर मेरी अधूरी साधना की बात बता दो।मैं जानती हूँ वे मेरी स्थिति समझ जाएंगे —और अब मुझे क्षमा करो ,साधना करने दो मुझे,समय आने पर चली जाऊँगी ।”
‘कमाल की स्त्री है!अपने आने और जाने का समय भी स्वयं सुनिश्चित करने का दावा कर रही है !’ दूत ने उसकी ओर ताका फिर समय-यंत्र पर दृष्टि डाली जिसकी काफी सारी रेती नीचे के भाग में आ चुकी थी।
” अब जाओ —” निधि ने द्वार की ओर इंगित किया । ”
“जब आपके पास तक आया ही हूँ तब कम से कम नृत्य व संगीत के बारे में कुछ जान तो लूँ ।”उसने रूँआसे स्वर में अपने यंत्र को देखते हुए कहा ।
” मैं जानती हूँ एक न एक दिन मुझे जाना ही है लेकिन साधना बीच में छोड़कर जाने पर ईश्वर भी प्रसन्न नहीं होंगे।तुम अपना कार्य अधूरा छोड़कर जाते हो तो दंडित होते हो न ,उसी प्रकार मैं भी अपनी साधना अधूरी छोड़ दूंगी तो दंडित की जाऊँगी न? ” उसने भोले कॉस्मॉस की संवेदनाओं पर चोट की ।
” एक बात बताओ ,तुम ज्योति बिंदु बने क्यों झूम रहे थे ?”
” अच्छा लग रहा था –” कॉस्मॉस ने सीधा सा उत्तर दिया ।
समय-यंत्र की सारी रेती नीचे आ चुकी थी।
” क्यों अच्छा लग रहा था ?”
संभवत: कॉस्मॉस को इसका कोई उत्तर नहीं सूझा ,अत: वह मौन बना रहा ।
“मैं बताती हूँ,अच्छा इसलिए लग रहा था कि कला आनन्ददायिनी है ,यह वह साधना है जो आत्मा से परमात्मा को जोड़ती है इसीलिए उससे अपरिचित होते हुए भी तुम्हें उसमें आनंद प्राप्त हो रहा था । मैं इस कला की साधिका हूँ , तुमने मेरे आनंद में विघ्न डाला,यह पाप है।
लीजिए अब पाप-पुण्य की परिभाषा जाननी होगी।उसने बहुत से पृथ्वीवासियों से ‘पाप -पुण्य’ शब्द सुने थे परन्तु अभी तक किसीसे चर्चा नहीं हुई थी। बेचारे कॉस्मॉस को कुछ सूझ नहीं रहा था । वह बस सोच रहा था उसे ही इस प्रकार के लोग क्यों मिलते हैं जो जीवन की गति जानते,समझते हैं,मृत्यु की शाश्वतता से परिचित हैं ,उससे भयभीत भी नहीं हैं फिर भी उसके साथ चलना नहीं चाहते । सचमुच उसने साधना भंग करने का अपराध किया था? इस पृथ्वीलोक पर पाप-पुण्य की परिभाषा भी कुछ भिन्न है जिसे वह नहीं समझ पा रहा है !
“यह कला आखिर है क्या?”
“तुमने मेरा बहुत समय नष्ट कर दिया है फिर भी सुनो —” सत्यनिधि ने कॉस्मॉस के चेहरे पर दृष्टिपात किया ,उसके नेत्रों में उत्सुकता देखकर वह मुस्कुराई —
” जानते हो प्रकृति क्या है?”निधि ने आगे बढ़कर कक्ष के झरोखे के पट खोल दिए।शीतल पवन की मृदु छुअन से कॉस्मॉस सिहर उठा । बाहर वृक्ष पर पक्षियों के झुण्ड चहचहा रहे थे,प्रकृति की मनमोहिनी छटा ने निधी के मुख पर स्निग्ध आनंद की लहर फैला दी ।
“वृक्षों के पत्तों से लहलहाती सरसराहट,खुले आकाश में बादलों का इधर से उधर तैरना ,पशुओं के रंभाने की आवाज़ें इन सबमें तुम्हें संगीत सुनाई दे रहा है?”
” कुछ आवाज़ें तो सुनाई देती हैं —“कॉस्मॉस ने उत्तर दिया ।
‘यह सब तो वह सदा से सुनता ही आया है ,इसमें नया क्या है?’उसने मन में सोचा।
” आपको इनमें संगीत सुनाई देता है?”उसने आश्चर्य से पूछा ।
“केवल सुनाई ही नहीं देता ,भीतर महसूस होता है। “नृत्यांगना ने अपने ह्रदय पर हाथ रखकर नेत्र मूँद लिए थे।वह किसी अलौकिक आनंद में मग्न हो गई थी ।
” अच्छा –क्या तुम्हें सामने के वृक्ष पर बैठे पक्षियों का कलरव सुनाई नहीं दे रहा है?”
“हूँ—बाहर की सभी आवाज़ें सुनाई दे रही हैं।मैंने बताया था आपको ।”
“ध्यान से सुनो ,इनमें तुम्हें संगीत सुनाई देगा !” निधी ने नेत्र मूंदे हुए ही कहा ।
कॉस्मॉस ‘संगीत’ को कान लगाकर सुनने लगा।जैसे किसी भारी वस्तु को उचकने के लिए स्वयं को तैयार कर रहा हो ।
” म्युज़िक यानि संगीत सुनने के लिए इतना ज़ोर लगाने की आवश्यकता नहीं होती”सत्यनिधि उसके संगीत सुनने के प्रयत्न को देखकर एक बच्चे की भाँति मासूमियत से खिलखिला उठी ।
“किसी झरने के ढलान पर से फिसलते जल की भाँति वह अपने आप ही नैसर्गिक रूप में आत्मा में उतरता चला जाता है,वह हमें बाँध लेता है ,एक मोहपाश में ,एक कोमल अहसास में ,एक प्रेम-जाल में ,एक स्निग्धता में ।”नेत्र मूंदे हुए कला -सुन्दरी ने कहा ,वह कहीं खो गई थी।
” आपने कुछ और भी कहा था —कुछ म्यू –क्या उसका अर्थ संगीत ही है?” कॉस्मॉस ने झिझकते हुए पूछा ।
” हाँ,बिलकुल,संगीत ही म्युज़िक है ।संगीत हिन्दी का शब्द है तो म्युज़िक ग्रीक भाषा के ‘मौसिकी’ शब्द से निकला है।मौसिकी का अर्थ होता है ‘गीत को सुव्यवस्थित रूप में लयबद्ध करना’ पहले मनुष्य ने प्रकृति में भरे हुए संगीत को समझा ,उसके पश्चात उसे सुव्यवस्थित रूप दिया ,लयबद्ध किया ।”
” इसे लयबद्ध भी किया जाता है?” वह तो ‘गवाक्ष’ में ऎसी ध्वनियाँ सदा से सुनता आया है । कितनी नई मनोरंजक बातें पता चलती हैं ,इसीलिए वह कभी-कभी अपने दंड को भूलकर इन बातों में खो जाता है।
“एक बात बताइए ,इस सबके पीछे कोई बात अथवा कोई कहानी अवश्य होगी ! ” दूत की उत्सुकता चरम-सीमा पर थी ।
” हाँ,वो तो है —-तुम जानते हो कॉस्मॉस हमारे भारत में आध्यात्म सर्वोपरि है ।”
“आध्यात्म —-अब यह क्या है?” दूत उलझता जा रहा था ।
” अध्यात्म यानि स्वयं को जानने का प्रयास,यह एक मौलिक चिंतन है। इसे जानने,समझने के लिए हमें हमारे वेद-पुराण मार्ग-दर्शन देते हैं।इस बारे में हमारे मनीषियों व चिंतकों की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं।कुछ मानते हैं जब किसी ने ईश्वर को देखा नहीं है तब उनके बारे में जो कथाएँ चर्चित हैं,वे केवल काल्पनिक हैं ?अर्थात वे कपोल-कल्पित हैं ।”
“कपोल-कल्पित”—-कॉस्मॉस व्यग्रता छिपाने में असमर्थ था । भूल गया था वह यहाँ क्यों आया था।कितनी नई बातें!
उसका मुख आश्चर्य से खुला था और वह टकटकी लगाए सुन्दरी नृत्यांगना सत्यनिधी की बातों में निमग्न हो गया था।
” हाँ,इसका अर्थ है अपने आप कल्पना करके गढ़ी गई कहानियाँ —किसी ने भी ब्रह्मा,विष्णु,महेश को नहीं देखा है किन्तु उनके बारे में बहुत सी कहानियाँ ,बातें जानने में आती हैं।राम,कृष्ण,ईसा,नानक आदि ने धरती पर महापुरुषों के रूप में जन्म लिया। उन्हें उस समय के लोगों ने देखा ,उस समय उनके विचारों के बारे में लिखा गया। कुछ बातें एक मुख से दूसरों के पास पहुंची ,फिर आगे और फिर आगे ।जितने लोगों के पास बातें पहुंचीं ,उनमें उनके विचार व कल्पनाएं भी जुड़ती चली गईं । इस प्रकार समाज में भिन्न भिन्न प्रकार से कथाओं का विस्तार होता चला गया ।”
” यहाँ इतने सारे मंदिर हैं,किसी ने देखा ही नहीं है भगवानों को तो उनकी तस्वीरें कैसे बनीं?” कॉस्मॉस की रूचि बढ़ती जा रही थी ।
” मैंने बताया न ,कल्पना से हमने उनकी तस्वीरें गढ़ लीं,उनके सुन्दर आकार बना लिए और उन्हें मंदिरों में प्रतिष्ठित करके उनकी अर्चना ,वंदना करने लगे ।ये तस्वीरें व मूर्तियाँ प्रतीक हैं जिनको वास्तव में प्रेरणा प्राप्त करने के लिए बनाया गया होगा परन्तु बाद में ऐसे वर्ग की स्थापना हुई जिसने प्रेरणा लेने के स्थान पर पाखंड व अन्धविश्वास फ़ैलाने प्रारंभ कर दिए जिससे समाज में शान्ति व व्यवस्था के स्थान पर भय,अहं व पाखंडों के कारण बँटवारे होने लगे और फिर अव्यवस्था फैलने लगी।”निधि कुछ रुकी फिर उसने कॉस्मॉस को उदाहरण देकर समझाने की चेष्टा की।
“जैसे — अभी धरती पर तुमसे कोई परिचित नहीं हैं , तुम्हें कोई नहीं जानता । मैं यदि किसीको तुम्हारे बारे में बताऊँगी तो वे तुम्हारी कल्पना ही करेंगे न ? बस वे अपनी अपनी कल्पना व सोच के अनुसार तुम्हारी तस्वीर या मूर्ति बना लेंगे और तुम धरती पर विख्यात हो जाओगे ।”
” न–न –आप ऐसे बिलकुल मत करियेगा । मैं तो वैसे ही पीड़ित हूँ ,अपना सौंपा गया कार्य ही पूर्ण नहीं कर पाता । यदि मेरे स्वामी को ज्ञात हो गया तब न जाने मेरे साथ क्या किया जाएगा!!”कॉस्मॉस घबरा गया ।
” चिंता मत करो,मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी । मुझे अच्छा लग रहा है तुम नए ज्ञान के प्रति उत्सुक हो ।”
“अच्छा ! संगीत व नृत्य-कला के पीछे भी कोई कहानी है क्या?कॉस्मॉस अब निश्चिन्त हो गया था, उसे सत्यनिधि से वार्तालाप करने में आनंद आ रहा था ।
” हाँ,है तो परन्तु इसमें सत्य कितना है ,यह नहीं कह सकती।”
” मुझे उससे कोई अंतर नहीं पड़ता । बस आप मुझे कहानी सुनाइए।” वह बच्चों की भाँति मचलने लगा।उसे देखकर सत्यनिधि के मुख पर कोमल मुस्कुराहट पसर गई ।
” सुनो –युगों में सदा परिवर्तन होता रहा है , परिवर्तन के दौरान कुछ बातें पुरानी रह जाती हैं तो कुछ नवीन जुड़ जाती हैं । एक बार युग के परिवर्तन-काल में समाज में असभ्यता तथा अशिष्टता फैलने लगी । लोग लालच तथा लालसा में फँसने लगे,क्रोध और ईर्ष्या का पारावार न था।भली व बुरी आत्माओं ने अपने-अपने झुण्ड बना लिए, कोई किसी की बात सुनने के लिए तत्पर न था । मनुष्य में ‘अहं’ सर्वोपरि हो गया । स्वर्ग में सिंहासन पर बैठे इन्द्र घबरा गए । उन्होंने अपने अन्य देवताओं से मिलकर मंत्रणा की ,सब ब्रह्मा के पास गए और उनसे विनती की कि इस वैमनस्य को रोकने के लिए धरतीवासियों को कोई खिलौना दिया जाए जो न केवल देखा जा सके किन्तु सुना भी जा सके जिससे धरती पर विकृति फ़ैलाने वालों का ध्यान दूसरी ओर आकर्षित हो और लोग अपने अहं तथा बुरी आदतों को छोड़कर सकारात्मक कार्यों में संलग्न हो सकें।इस प्रकार सभी देवी-देवताओं ने मिलकर यह सुनिश्चित किया कि नृत्य व संगीत की स्वर्गिक कलाएं धरती पर प्रेषित की जाएं जिससे धरती पर मानवता के शिष्ट संस्कार सिंचित हो सकें । इसके लिए ऐसे उच्च दिव्य गुणों वाले व्यक्तियों की आवश्यकता थी जो सही प्रकार से ,सही समय पर ,सही लोगों के माध्यम से इस कला का प्रचार,प्रसार कर सकें।इस महत्वपूर्ण कार्य का भार विद्वान ,विवेकी नारद जी को सौंपा गया। ”
” नारद जी —-वो चोटी वाले ,जो अपने हाथ में कुछ तंबूरा सा पकडे रहते हैं —?” कॉस्मॉस उत्साह से फड़कने लगा ।
” तुम जानते हो उन्हें ?—और सब देवी-देवताओं को भी ?” सत्यनिधि के नेत्रों में चमक भर उठी । संभव है उसे भी कुछ ऐसा जानने को मिले जिसे कोई दूसरा न जान पाया हो ।वह उत्फ़ुल हो उठी , कैसी लालसाएं रहती हैं मनुष्य के भीतर !
“अधिक तो नहीं,एक बार अपने स्वामी के साथ उनके निवास पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ था।”उसने धीरे से उत्तर दिया ।
“कैसा है उनका निवास ?”निधी के स्वर में से उत्सुकता छलक उठी ।
” उनका निवास एक आश्रम है,जिसमें सुन्दर ,शीतल पवन के झौंके लहराते हैं,वाद्य-यंत्रों का गुंजन होता रहता है ,श्लोकों की पावन ऋचाएँ गूंजती रहती हैं —” वह जैसे कल्पना लोक में खो गया था लेकिन पल भर में उससे बाहर निकल आया ।
“यही तो प्राकृतिक संगीत है,तुम तो पहले से ही इसका आस्वादन कर चुके हो, आगे बताओ —“उसके नेत्रों में चमक तेज़ होने लगी थी।”
“अब –बस –इससे अधिक कुछ नहीं जानता । आप अपनी बात पूरी करिए।”
” ठीक है,तुम मुझे बताना नहीं चाहते ?”
” नहीं,ऐसा कुछ नहीं है —मैं तो एक अदना सा सेवक हूँ।मुझे सभी स्थानों पर जाने की आज्ञा तो नहीं हो सकती न ?” उसके स्वरों में पीड़ा थी।
” मुझे क्षमा करना यदि मैंने तुम्हारा ह्रदय दुखाया हो “निधी को वास्तव में दुःखथा, बेचारा ! इतना कठिन कार्य संभालता है फिर भी उसकी स्थिति धरती के किसी निम्नवर्गीय प्राणी से अधिक अच्छी नहीं थी ।
“इस भौतिक संसार में इस कला का यह परिचय केवल प्रथम चरण ही था। अभी इसमें बहुत कुछ संलग्न करने की आवश्यकता थी, पारंपरिक शैक्षणिकता का सम्मिश्रण होना आवश्यक था।शास्त्रीय संगीत केवल मनोरंजन की कला नहीं है , यह नैतिकता )आचार व आध्यात्मिकता का समन्वय( है अत:इसमें कुछ पूर्वप्रेक्षित योग्यताओं का होना अपेक्षित है। ”
” तो इस कला का शिक्षण कैसे लिया जा सकता है?”
“इस शैक्षणिक कला में गुरु-शिष्य परंपरा है तथा इसके मूल सिद्धांत गुरु,विनय एवं साधना हैं।समझ गए ? इसका शिक्षण गुरु से लिया जा सकता है।”
” परंपरा तो सदा रहती हैं न ?” कॉस्मॉस परंपरा से भी परिचित था ।
” समयानुसार परंपराओं में बदलाव भी आता रहता है।संगीत कला व नृत्य कला को सर्वोच्च कोटि का ज्ञान माना गया है । यह पारंपरिक शैक्षणिक व्यवस्था अन्नत काल से गुरु के द्वारा शिष्य को प्राप्त होती रही है । ”
” हूँ–यह तो हुई गुरु जी की बात ,अब आगे”—
” गुरु से किसी भी विषय में शिक्षण प्राप्त करने के लिए शिष्य का विनम्र होना आवश्यक है ।वही शिष्य सही अर्थों में कुछ सीख सकता है जो अपने गुरु को सम्मान देता है अर्थात विनम्र होता है।शास्त्रीय संगीत व नृत्य ऎसी प्रार्थना,वंदना, साधना है जो जीवन की प्रगति में, जीवन -स्तर में अलौकिकता को समाविष्ट करती है जिसमें कलाकार एवं दर्शक अथवा श्रोता दोनों एकरस हो जाते हैं अर्थात इतने तल्लीन हो जाते हैं कि दोनों में एकाकार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।यदि कलाकार में अभिमान का प्रवेश हो जाए तब वह वास्तविक कला से दूर हो जाता है। किसी भी शिष्य का वास्तविक आभूषण उसकी विनम्रता है । संगीत हो अथवा नृत्य शिष्य को किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम स्वयं को विनम्रता के सांचे में ढालना आवश्यक है।”
” —और साधना ,वही न जो आप कर रही थीं ?”
” हाँ,वही—वास्तव में साधना के लिए दो स्तरों का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है।
उत्पत्ति का ज्ञान अर्थात किसी भी राग अथवा स्वर का उदगम का स्त्रोत जानना ,उसके पश्चात उसका तन्मयता से अभ्यास करना । घंटों अभ्यास किए बिना विद्यार्थी प्रवीणता प्राप्त नहीं कर सकता।जानते हो ,प्रत्येक कला किसी न किसी सौंदर्य-बोध से जुड़ी रहती है ।”
” सौंदर्य-बोध अर्थात सुंदरता —??”
“पुरातन लेखों में मुख्य रूप से कला के लिए नौ भावों का उल्लेख किया गया है।ये भाव रसों के रूप में प्रदर्शित होते हैं।”
“रस—? आपकी पृथ्वी पर तो पीने वाला रस मिलता है ! ”
सत्यनिधि को कॉस्मॉस के भोलेपन पर बरबस ही हंसी आ गई ।
” बुद्धू हो तुम ,ये रस भाव के होते हैं ।इनको भावों के अनुसार विभक्त किया गया है।सभी राग ध्वनिक चक्र पर आधारित हैं । संगीत के इन दिव्य गुणों,लक्षणों को ‘नाद सिद्ध’में सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रस्तुत किया गया है । ”
” ये सब मेरी बुद्धि से परे हैं ,कितना कठिन है न ? ”
” नहीं ,कठिन नहीं है –बस केवल ज्ञान-अर्जन की ललक होनी आवश्यक है ,फिर अभ्यास —जानते हो, कुछ राग चमत्कारिक रूप से प्रभावशाली होते हैं।यह सर्वविदित है कि बादशाह अकबर के नवरत्नों में से श्रेष्ठ संगीतज्ञ तानसेन दीपक राग गाकर दीपक जला देते थे तथा उनके मेघ-मल्हार राग गाने से आकाश में मेघ घिर आते थे जिनसे वर्षा होने लगती थी।”
कॉस्मॉस को आनंद भी आ रहा था और वह परेशान भी हो रहा था।कैसी है यह पृथ्वी !जिसके पास जाता है ,वह अपना ही राग अलापने लगता है। कुछ नई बातें जानने में उसे बहुत आनंद आता है लेकिन कुछ बातें तो उसके पल्ले ही नहीं पड़तीं। अपने स्वामी के द्वारा दंडित किए जाने के भय से वह घबरा भी रहा था किन्तु नई बात जानने का आकर्षण उसे उसी स्थान पर जमे रहने के लिए बाध्य भी करता था ।
“सभी तो इतने मनोयोग से साधना नहीं करते न ?आप जो कर रही हैं उसके पीछे कुछ कारण है क्या?
“सबसे बड़ा कारण तो मेरा कला के प्रति अनुराग,मेरा शौक,मेरी उमंग हैं लेकिन आवश्यक नहीं होता कि हमें शौक पूरे करने का अवसर प्राप्त हो ही जाए!”
“क्यों? आप धरती पर कितने स्वतंत्र हैं ,अपने मन के अनुसार खाते -पीते हैं,कहीं आते-जाते हैं फिर आपको अपने शौक पूरे करने का अवसर क्यों प्राप्त होता?”
” क्योंकि हमें इतनी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है जितनी तुम्हें दिखाई देती है । मैं भी पहले आम जीवन जी रही थी । एक मध्यमवर्गीय जीवन! !” सत्यनिधि ने एक गहरी श्वांस ली।
” मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी,बी.ए इसलिए किया कि अच्छा घर -बार मिल सके । संगीत में गहन रूचि होते हुए भी मुह पर पट्टी चिपकाए चुपचाप विवाह के मंडप में जा बैठी और पति के घर आ गई। ”
‘तो ससुराल में हो?” वह कुछ ऐसे मुस्कुराया जैसे किसी मित्र को छेड़ रहा हो ।
“हाँ,हम जैसी मध्यम वर्ग की लड़कियों का ससुराल की रसोईघर की चौखट में रहना उनका सौभाग्य माना जाता है । ”
“रसोईघर यानि किचन के अंदर –? बाहर आने पर कुछ पाबंदी होती है क्या?” वह इसी प्रकार की छुटपुटी बालसुलभ चंचल बातें पूछता रहा ।
” तुम मेरा समय नष्ट मत करो ,चुपचाप सुनते रहो।”
” लेकिन मेरी समझ में जो बात न आए ,वह तो पूछनी चाहिए न ?”
सत्यनिधि ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया । वह आगे बोली —
” भारत में लगभग सौ वर्ष पूर्व गाना-नाचना अच्छा नहीं समझा जाता था यह मिरासियों या कोठेवालियों का काम समझा जाता था।”
“ये मिरासी और कोठेवाली क्या होते हैं?” कॉस्मॉस को यहाँ की भाषा के व्याकरण का भी थोड़ा-बहुत ज्ञान हो गया था किन्तु—फिर भी बहुत सी बातें उसकी समझ में नहीं आती थीं ।
“यह एक भिन्न वर्ग है,अब वर्ग का अर्थ पूछोगे ! जैसे –जातियों का वर्ग,अध्यापकों का वर्ग,शिष्यों का वर्ग अर्थात एक समान या एक से कार्य में लगे हुए लोग— अब अपने मस्तिष्क का प्रयोग करो और सुनो । ”
कॉस्मॉस ने चुपचाप अपनी ग्रीवा हिला दी जैसे वह बहुत कुछ समझ रहा हो ,फिर रहा नहीं गया —
“आपको भी संगीत व नृत्य सीखने की आज्ञा नहीं थी न ,फिर आप कैसे इस कला में प्रवीण हो गईं?आप क्या छिपकर इस कला का अभ्यास करती हैं?”
” तुम बहुत चंचल हो ,चुप नहीं रह सकते न ?बीच-बीच में टपकते रहोगे तो कुछ नहीं बताउंगी ।”
” नहीं ,अब चुप रहूंगा ,लेकिन जब बात समझ में न आए तो आपको बताना चाहिए न —” उसने एक बालक की भाँति मुह फुलाया और अपने होठों पर उँगली रखकर बैठ गया ।
…………..क्रमशः…………………..
– डॉ. प्रणव भारती