धारावाहिक
गवाक्ष – 5
इस संवेदनशील दूत की यही समस्या है ।इसमें कॉस्मॉस से अधिक धरतीवासियों के गुण भरने शुरू हो गए हैं ।इसी कारण यह दंड का भागी बनता है। क्या करे? सब अपनी-अपनी आदतों से लाचार रह जाते हैं ।
“तुम्हारे यंत्र की रेती तो न जाने कबकी नीचे पहुँच चुकी ,अब?” सत्यव्रत जी ने दूत का ध्यान समय-यंत्र की ओर इंगित किया फिर न जाने किस मनोदशा में बोल उठे;
“वास्तव में राजनीति में प्रवेश करने से पूर्व प्रत्याशी को आत्मकेंद्रित होने का प्रयास करना चाहिए । यदि चिंतन करें ,बिना किसीको दोष दिए ,बिना किसी का प्रभाव अपने ऊपर ओढ़े हुए अपना कार्य करें तब ही हमारा आत्मकेन्दीकरण हमें दर्शन की ओर ले जाएगा और हम स्वयं से ही सही मार्ग-दर्शन प्राप्त कर सकेंगे ।”
दूत निराश लग रहा था।उसे अपने ऊपर क्रोध भी आ रहा था। उसके बहुत से साथी कितने चतुर व बुद्धिमान हैं ,वे बिना किसीकी बातों में आए अपना कार्य शीघ्र पूर्ण कर लेते हैं ,कुछ ही उस जैसे हैं जो कार्य पूर्ण नहीं कर पाते व बार-बार दंड पाते हैं। वह निराश होकर उठने लगा —
” आपसे बहुत कुछ सीखा ,अब आज्ञा दीजिए।”दूत ने मंत्री जी के समक्ष अपने हाथ जोड़ दिए ।
” अब क्या करोगे?” मंत्री जी को भी दूत आकर्षित कर रहा था । इतने लंबे समय तक वह उनकी बातें सुनता रहा था ,यह प्रशंसनीय था।
“मेरे पास ‘सत्य’ नाम की एक लंबी सूची है ,अब दूसरे किसी सत्य को खोजना होगा ।”उसने अपने हाथ में पकड़ी अपनी डायरी दिखाई और अपना ‘समय-यंत्र’ उठाने के लिए आगे बढ़ा ।
“अगर कोई भी ‘सत्य’ तुम्हारे साथ जाने के लिए तैयार न हुआ तो?” मंत्री सत्यव्रत जी ने पूछा ।
“तब फिर से वर्ष भर दंड भुगतना होगा । ”
“अच्छा !यदि मैं तुम्हारे साथ चलने के लिए तैयार हो जाऊं तब?”
” तब मुझे अपने इस ‘समय-यंत्र’ को पुन:स्थापित करना होगा ।” दूत की बांछें खिल गईं।वह हाथ में पकड़े यंत्र को मेज़ पर रखने लगा जो उसने अभी उठा लिया था।
” अभी रुको और मेरी बात ध्यान से सुनो।अभी मुझे अपने कुछ कार्य पूरे करने हैं । तुम कहीं और चक्कर लगाकर आओ । संभवत: तुम्हें कोई ‘सत्य’ शीघ्र मिल जाए । यदि न मिले तब आ जाना मैं अपने कार्य पूर्ण करके तुम्हारे साथ चलूँगा ।”
“हाँ,एक विशेष बात और है—-” मंत्री जी को अचानक कुछ स्मरण हो आया था । कॉस्मॉस की पेशानी पर बल पड़ गए,उसने पशोपेश की मुद्रा में मंत्री जी के मुख-मंडल पर अपने नेत्र चिपका दिए।
” क्या मेरी मृत्यु के पश्चात तुम मेरी अंतिम क्रिया केवल दो दिन तक रोक सकते हो? मैं यह देखना चाहता हूँ कि मेरे द्वारा किए गए कार्यों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? मेरे सामने तो सभी मेरी प्रशंसा के पुल बांधते हैं । उसके पश्चात मैं निःसंदेह तुम्हारे साथ चलूँगा , यह मेरा वचन है।क्या तुम्हें यह अधिकार है कि तुम दो दिनों तक प्रतीक्षा कर सको?”
कॉस्मॉस ने पल भर चिंतन किया ,अपनी ग्रीवा ‘हाँ’ में हिलाई और मंत्री जी को प्रणाम करके अपने तामझाम के साथ अदृश्य हो गया ।
अब बेचारा कॉस्मॉस पुन: यान के पास वृक्ष की डाली पर लटका अपनी डायरी के पन्नों को पलट रहा था ।कितने सारे ‘सत्य’ थे ,चुनाव उसे करना था। न जाने कौनसा सत्य उसकी जकड़ में आ सकेगा। यद्यपि सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि इस धरती पर जन्म लेने के साथ ही उनकी मृत्यु का समय भी सुनिश्चित कर दिया जाता है तब भी कोई इस पृथ्वी को छोड़ना नहीं चाहता।न जाने क्या चुंबक लगाया है धरती के रचयिता ने कि जीवन के सत्य को सब पहचानते है,किन्तु फिर भी मनुष्य सत्य से आँख-मिचौनी करना चाहता है !
‘कितनी सुन्दर है यह पृथ्वी ! सबको कितनी स्वतंत्रता है ! अपने मन से जीवन जीने का अधिकार ! प्रेम,स्नेह ये सब एक अलौकिक सुख प्रदान करते हैं । ‘ कॉस्मॉस सोच रहा था और जिस वृक्ष पर उसने डेरा डाल रखा था ,उसकी डालियों को झुका देखकर उसे लग रहा था कहीं वह भी तो इन डालियों के साथ पृथ्वी पर छू तो नहीं जाएगा !
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ ,उस वृक्ष में बहुत से घने पत्ते थे जिन्होंने उसके नन्हे से यान तथा उसको अपने भीतर ऐसे छिपा लिया था जैसे काले बादल कभी-कभी चाँद को अपनी चादर के तले छिपा लेते हैं । कभी-कभी पवन के हलके से झकोरे उसके चेहरे पर अठखेलियाँ करते ,उसे यह सब जैसे मतवाला बना रहा था । जितने दिन वह पृथ्वी पर रहता ,उतने दिन एक नया आनंद उसके भीतर हिलोरें मारने लगता।
पवन जैसे गुनगुनाने लगी थी,उसके साथ अठखेलियाँ कर रही थी । एक अजीब सी भावभूमि में डूबती संवेदना से उसका साक्षात्कार हो रहा था । धूप -छाँव से आते-जाते उसके मन के विचार कभी उसे शांत स्निग्ध वात्सल्य की छुअन देते तो कभी चिलचिलाती धुप का स्पर्श !
जैसे वह अपने इस अनुभव को अपनी साँसों में उतारने का प्रयास करने लगा था।एक ऐसा अहसास जो वह पहली बार महसूस कर रहा था । पवन में से कुछ सुरीले स्वर उसको कभी जगाते ,कभी उसकी पलकें मूंदते ,कभी उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैलाते। वह स्वर-लहरी की ओर आकर्षित हुआ जा रहा था ।
2
नीले अंबर से झाँकतीं अरुणिमा की छनकर आती लकीरें, वातावरण में घुँघरुओं की मद्धम झँकार ,कोयल की कूक से मधुर स्वर —दूत को इस सबने आकर्षित किया, स्वत: ही उसके पाँव उस मधुर स्वर की ओर चलने के लिए उदृत हो गए।
उसके लिए अदृश्य रूप में रहना श्रेयस्कर था । अब उसने सोच लिया था जहाँ उसे जाना होगा अदृश्य रूप में ही जाएगा।भीतर जाकर तो उसे अपना परिचय देना ही होता है। न जाने क्यों उसे लग रहा था कि सब स्थानों पर भटककर उसे अंत में मंत्री जी के पास ही आना होगा । अत:उसने अपने अदृश्य यान को उसी वृक्ष पर टिकाए रखा और स्वर-लहरी की ओर चल पड़ा ।
गीत सी कैसी मधुर है ज़िंदगी ,
प्रीत सी कैसी सुकोमल हर घड़ी ।
ज़िंदगी बस एक पल का नाम है ,
जूझता जिससे ये जग बिन दाम है ।
दाम, बस मुस्कान ही तो पल की है ,
स्वप्न सी कैसे छले है ज़िंदगी ।
भावना का प्रीत का संबल यही,
अर्चना की जीत का प्रतिफल यही ।
जीत तो बस एक घड़ी है ज़िंदगी ,
द्वार पर कैसी मढ़ी है ज़िंदगी ।
धड़कनों का प्राण ,जो है ज़िंदगी,
प्रीत और मधुमास जो है ज़िंदगी ।
ज़िंदगी के बिन सभी माटी यहाँ ,
आईने कैसी जड़ी है ज़िंदगी ।
कामना भी है अगर है ज़िंदगी ,
भावना का मोल जो है ज़िंदगी ।
ज़िंदगी जब तोड़ती धागा यहाँ ,
आंगने कैसी पड़े है ज़िंदगी ॥
स्वर की मधुर मिठास व घुँघरुओं की छनकती झंकार भोर की लालिमा को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी।कॉस्मॉस के कदम नवोदित सूर्य की किरणों का पीछा करने लगे। सूर्य की नवोदित किरणें एक विशाल कक्ष के झरोखे में से सहजता से बही जा रही थीं मानो कोई अप्सरा आकाश के भाल पर बड़ी कोमलता से अपने पग रख रही हो ।उन पगों में घुँघरुओं की स्वर-लहरी थी ,जो कंठ के स्वरों के साथ जुगलबंदी कर रही थी। कॉस्मॉस अपने अदृश्य रूप में था, किरणों के सुनहरे झुण्ड में लिपटकर वह कक्ष में प्रवेश करने ही वाला था सहसा उसे याद आया, अपनी पुस्तिका में उस कलाकार का नाम तो देख ले।
‘वाह ! सत्यनिधी —-!! उसका मन-मयूर नृत्य करने लगा।
अब वह इस कलाकार के नृत्य व संगीत से अपना मनोरंजन भी कर सकेगा और बाद में अपने साथ चलने का आग्रह भी करके देखेगा । सत्यनिधी भोर की प्रथम किरण के फूटते ही अपना नृत्य व संगीत का अभ्यास प्रारंभ करती , जो लगभग दो घंटे चलता।इस अभ्यास में वह किसी का भी अवरोध पसंद नहीं करती थी। जब तक वह अभ्यास में लीन रहती ,किसीको भी वहाँ आने की आज्ञा नहीं थी। उसकी साधना के साझीदार या तो एकांत में प्रतिष्ठित माँ शारदा तथा नटराज की बृहद प्रतिमाएं थीं अथवा सूर्यदेव के द्वारा प्रेषित वे कोमल किरणें व गुनगुनी धूप के वे टुकड़े जो उसके बड़े से साधना-कक्ष में इधर उधर छितर जाते थे । सूरज की किरणें झरोखों से छनकर चारोंओर कुछ दूरी पर ऐसे पसर जातीं मानो वे कलाप्रिय,समझदार,शांत दर्शक व श्रोता हों ।ये किरणें,यह वातावरण, यह छनक एवं सुरों का संगम सत्यनिधी के अत्यंत समीपी मित्र थे।उनके अतिरिक्त उस ओर किसी को भी आने की आज्ञा नहीं थी।
सत्यनिधी को स्नेह से सब निधी के नाम से पुकारते थे । वह विवाह नहीं करना चाहती थी किन्तु माता-पिता की चिंता को देखते व समझते हुए उसने उनकी इच्छानुसार विवाह कर लिया था लेकिन जिस प्रकार मीरा अपने कृष्ण के प्रेम में लीन थी ,उसी प्रकार वह अपने कला प्रेम में! अपनी नृत्य व संगीत की साधना करने के लिए वह एक तपस्विनी की भाँति साधनारत थी ।अब उसका आध्यात्मिक विवाह सात सुरों से हो चुका था। प्रतिदिन की भाँति निधि अपनी साधना के परम सुख में निमग्न थी अचानक छनाक —–की स्वर लहरी उठी और उसके पैरों के घुँघरू खुलकर बिखर गए । निधि ठिठक गई,उसका ध्यान भंग हुआ मानो किसी ने बैरागी तपस्वी की साधना में अवरोध ड़ाल दिया हो।विस्फारित नेत्रों से उसने ध्ररती पर यहाँ-वहाँ फैले हुए घुँघरूओं को देखा। आज उसके प्रतिदिन की साधना के मौन दर्शक व श्रोता झरोखे से गुपचुप साधिकार प्रवेश करने वाले धूप के टुकड़े नहीं थे।यकायक उसकी दृष्टि झरोखे से बाहर अम्बर की ओर गई।नीरव आकाश में बादलों के आवारा टुकड़े इधर-उधर घूम रहे थे।पवन की गति कुछ अधिक थी जिसके कारण माँ शारदा व नटराज के समक्ष जलते हुए दीपक फड़फड़ाने लगे थे । निधि तीव्र गति से आगे बढ़ी और झरोखे के पटों को बंद कर दिया।पीछे घूमकर देखा दीपक की ज्योति-बिंदु थिरक रही थी।एक विलक्षण अहसास उसके मन में बड़ी तीव्रता से उभरा, वह भाव विभोर हो उठी।नृत्य करते हुए बिन्दु पर उसके नेत्र इधर से उधर नाचने लगे मानो कोई तन्द्रा उसे अपने भीतर समेट रही थी।उसने नृत्य करते हुए बिंदु से अपनी दृष्टि हटाकर देखा ,दीपकों की लौ अपने स्थान पर पवित्रता से प्रज्वलित हो रही थी। उसका ध्यान नाचते हुए बिन्दु पर पुन:पड़ा । इस बार ध्यान से देखने पर उसे एक सुन्दर, सुकोमल, पवित्र चेहरा दिखाई दिया।उसके कक्ष में कोई अन्य –?वह उलझ गई । कक्ष का मुख्य-द्वार बंद था ,फिर?
” कौन? ”
बादलों के कारण कक्ष में आज बहुत प्रकाश नहीं था किन्तु सुन्दर,सजीली कन्या की मुस्कराहट अंधकार में एक विद्युत सी प्रदीप्त हो रही थी ।
” कैसे आईं बताया नहीं तुमने और कौन हो?”
वह कभी कक्ष में दमकती इस द्युत की चमक को देखती तो दूसरे ही क्षण धरती पर फैले अपने घुँघरुओं को । वर्षों से साधना कर रही थी ,आज विचित्र परिस्थिति से सामना हुआ था ।
कन्या की सुन्दर मुस्कान और गहरा गई ,उसने दोनों हाथ जोड़कर कला की पुजारिन को प्रणाम किया ।
निधी कुछ भी समझ पाने में असमर्थ कन्या के मुखमंडल की शोभा निहार रही थी ।
” क्या तुम पहले से ही मेरे साधना-कक्ष में थीं —और वो ज्योतिर्बिंदु ? वह कहाँ गया?”
निधी के चेहरे पर प्रश्न पसरे हुए थे,ह्रदय की धड़कन तीव्र होती जा रही थी।कुछेक पलों पूर्व वह अपनी साधना में लीन थी और अब—एक उफ़नती सी लहर उसे भीतर से असहज कर रही थी । परिस्थिति का प्रभाव व्यक्ति के मन और तन पर कितना अद्भुत रूप से पड़ता है ! वह खीज भी रही थी ,अपना उत्तर प्राप्त करने के लिए उद्वेलित भी थी और उसके समक्ष प्रस्तुत ‘रूपसी बाला’ केवल मंद -मंद मुस्कुराए जा रही थी । निधी की साधना का समय अभी शेष था और वह न जाने किस उलझन में उलझ गई थी ।
“अपना नाम बताओ और अपने यहाँ आने का कारण भी –”
” मैं कॉस्मॉस हूँ —“कन्या ने विनम्र स्वर में उत्तर दिया ।
“कॉस्मॉस, यह नाम है ?कैसा नाम है?” नर्तकी और भी उलझन में पड़ गई।
“आप बहुत सुन्दर नृत्य करती हैं ,बहुत सुन्दर गाती हैं । ”
सत्यनिधि के स्वेदपूर्ण प्रदीप्त मुख-मंडल पर कुछ क्रोध के चिन्ह प्रगट हुए ।
‘क्या यह मुझे मूर्ख बनाना चाहती है?अथवा कोई जादूगरनी अपना जादू चलाने आ गई है?’ निधि ने सोचा।
“सत्य कह रही हूँ ,इस पृथ्वी पर मैंने अभी तक इतना सुन्दर न तो स्वर ही सुना ,न ही नृत्य देखा । “उसने अपने सुन्दर नेत्र झपकाए ।
” यह कहने के लिए तुमने मेरे कक्ष में चोरी से प्रवेश किया है क्या?” वह खीजने लगी। अभी उसकी साधना का समय शेष था ,उसमें यह व्यवधान !
” अभी तुम यहाँ से जाओ , इस प्रकार किसी के व्यक्तिगत स्थान में प्रवेश करना अनुशासनहीनता है।तुम यदि नृत्य या संगीत सीखना चाहती हो तो मेरी ‘अकादमी’में प्रवेश ले सकती हो।वहाँ गुरुओं से शिक्षा ग्रहण कर सकती हो। क्या नाम बताया था तुमने —जो भी हो । अभी जाओ मेरा समय बहुत बहुमूल्य है ।”
” जी ,मेरा नाम कॉस्मॉस है — धरती पर सबका समय बहुमूल्य होता है क्या?”
” हाँ, समय तो बहुमूल्य है ही। कितना समय है हमारे पास?जीवन बहुत छोटा सा है और तुम समय नष्ट कर रही हो।जानती हो? गया हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता!”
“जी ,जानती हूँ ।मैं अपना समय नष्ट नहीं कर रही हूँ । मैं अपना कार्य कर रही हूँ ।”
“परन्तु तुम हो कौन और यहाँ क्या कर रही हो? ”
“मैं कॉस्मॉस हूँ,आपको अपने साथ ले जाने के लिए आया हूँ।”
” कॉस्मॉस! एक सौंदर्य से परिपूर्ण इतनी सुन्दर नवयुवती का नाम कॉस्मॉस! किस मूर्ख ने रखा है तुम्हारा नाम?” निधी ने हँसते हुए उससे पूछा । ”
” हम सब एक से ही होते हैं और हम सबके नाम भी कॉस्मॉस ही हैं —सच !”युवती ने निधी को विश्वास दिलाते हुए कहा ।
” मेरी बुद्धि में तुम्हारी बेतुकी बातें नहीं आ रही हैं। सबका मतलब? ‘लौट’ में जन्म लेते हो क्या?और मुझे ले जाने आई हो—कहाँ? ”
“जी हाँ—-”
“कहाँ और क्यों? और ये तुम्हारे हाथ में क्या है? ”
” मैं कॉस्मॉस हूँ ,मेरे स्वामी यमराज ने मुझे आपके पास भेजा है।” अब वह उसके समक्ष आ खड़ी हुई ।
“क्या मैं अपने वास्तविक रूप में आ जाऊँ?” कन्या ने कुछ सहमते हुए पूछा ।
“तुम मुझे पागल कर दोगी ,मेरी आज की साधना में विध्न डालकर तुमने मुझे कुंठित कर दिया है । चलो ,दिखाओ अपना वास्तविक रूप।तुम इतनी प्यारी सी कन्या हो अन्यथा इस प्रकार मेरी आज्ञा के बिना अनाधिकार प्रवेश के आरोप में मैं तुम्हें पुलिस को दे देती।”
एक सुगंधित झौंका लहराया ,क्षण भर के लिए नर्तकी के नेत्र मुंद गए,जब खुले तब उसके समक्ष युवती के स्थान पर एक आकर्षक युवक था, निधी बौखला गई।
— क्रमशः—
– डॉ. प्रणव भारती