धारावाहिक
गवाक्ष – 4
प्रतिदिन की भाँति उस दिन भी चांडाल-चौकड़ी अपनी मस्ती में थी कि एक हादसे ने सत्यव्रत को झकझोर दिया, उसे जीवन की गति ने पाठ पढ़ा दिया।एक रात्रि जब वह मित्रों के साथ खा-पीकर अपनी विदेशी कार में घूमने निकला तब एक भयंकर दुर्घटना घटी।एक भैंस उसकी कार के सामने आ गई,भैंस के मालिक ने कई लठैतों के साथ मिलकर उसे मारने के लिए घेर लिया।सारे मित्र दुर्घटना-स्थल से भाग निकले ,वह कठिन परिस्थिति में फँस गया। उसको बुरी प्रकार पीटा गया,जेब से सारे पैसे निकाल लिए गए, हीरे की घड़ी,अँगूठियाँ सब छीन ली गईं ,उसकी एक टाँग बुरी प्रकार कुचल दी गई थी।
“अरे! कहाँ मुसीबत मोल लेंगे ,चलो भागो यहाँ से —” घायल सैवी के कानों ने अपने तथाकथित मित्रों की खुसफुसाहट सुनी और फिर दूसरी गाड़ी के इंजन की आवाज़ सुनी जिसमें वे मित्र थे जो एक गाड़ी में समा नहीं पाए थे , आवाज़ क्रमश: दूर होती चली गई थी। कुछ पलों में वह निश्चेष्ट हो गया —— ।
पूरी रात भर सत्यव्रतअन्धकार युक्त निर्जन मार्ग पर पड़ा कराहता रहा,उसके शरीर का बहुत रक्त निकल गया था।पुलिस के भय व बेकार की मुसीबत मोल लेने के भय से किसी ने पुलिस को ख़बर देने का भी कष्ट नहीं किया । सुबह चार बजे जब गाँव से शहर दूध लाने वाले उस मार्ग से गुजरकर शहर की ओर आने लगे तब कराहते हुए ज़ख्मी व्यक्ति पर उनकी दृष्टि पड़ी और उसे उठाकर लाया गया।
सत्यव्रत की माँ बेटे की दुर्घटना के बारे में जानकर अर्धविक्षिप्त सी हो गईं । उनके लिए जैसा भी था वह उनका एकमात्र पुत्र था,जिसका कुछ दिवस पूर्व ही विवाह हुआ था, उनकी दुनिया अपने इसी पुत्र के चारों ओर घूमती थी ।
“मैंने सोचा था मेरी पारस बहू फिर से इस सैवी को सत्यव्रत नाम का सोना बना देगी पर इसने —–” माँ ने अपना सिर दीवार से दे मारा था किन्तु स्वाति दृढ़ बनी रही । माँ को अपने बेटे व भाग्य पर क्रोध था और केवल एक ही सहारा दिखाई देता था। उनकी पुत्रवधू स्वाति!स्वाति उनके अंधकार युक्त जीवन में टिमटिमाती लौ सी आई थी जिसे बीहड़ जंगल में जुगनू की भाँति इस परिवार का मार्ग प्रशस्त करना था।
सत्यव्रत का इस प्रकार दुर्घटनाग्रस्त होना माँ के लिए भयंकर पीड़ा बन गया।सत्यव्रत का बहुत रक्त जा चुका था,लोहे के रॉड से पीटने के कारण पूरे शरीर में इस प्रकार विष फ़ैल रहा था कि उसकी एक टाँग काट देनी पड़ी । छह माह वह अस्पताल में पड़ा रहा लेकिन उसके साथ मौज-मस्ती करने वालों की टोली में से एक मित्र भी उसके पास आकर नहीं झाँका ।जीवन के ‘एक पल’ में विश्वास करने वाली स्वाति नेअपने एक-एक पल की उपयोगिता की व्यवस्थाकी । पति की प्रत्येक आवश्यकता के साथ वह अपनी विक्षिप्त सास व व्यवसाय को कुशलता से संभालती रही ।
दुर्घटना ,माँ की विक्षिप्तता तथा व्यवसाय सबको स्वाति की सेवा व कुशल संचालन ने इतनी भली प्रकार सँभाला कि सब उसकी कार्य-कुशलता पर आश्चर्यचकित हो उठे । स्वाति की निःस्वार्थ सेवा ने सैवी को पुन:सत्यव्रत बनाने का महत्वपूर्ण कार्य कर दिखाया।
“बेटा ! मेरा विश्वास जीत गया ,वह विश्वास जो मुझे तुम पर था किन्तु उसे अँधेरों ने अपने गुबार में छिपा लिया था —“माँ ने पुत्रवधू पर अपनी ममता व स्नेह-आशीषों की वर्षा कर दी थी।
रिश्तों की एक गरिमा होती है ,रेशमी डोरी से बँधे रहते हैं रिश्ते! जिन्हें सँभालकर रखना होता है। इसीलिए जब रिश्ते टूटते हैं तब वे आँसुओं से रोते हैं ,जो सूख तो जाते हैं लेकिन निशान छोड़ जाते हैं। कितने भी बेमौसमी रिश्ते हों,कितनी भी परेशानियाँ हों, संभालना सँवारना आता था उसे रिश्तों को । कितना भी कष्टसाध्य क्यों न हो स्वाति के मन पर ‘सकारात्मक’ मुहर चिपकी थी , कागज़ के रिश्तों में कागज़ी फूलों सा लुभावनापन तो होता है ,सच्चे पुष्पों जैसी रिश्तों की सौंधी सुगंध नहीं । उसने माँ-बेटे को रिश्तों में भरकर उन्हें समीप ला दिया था और माँ व बेटे को रिश्तों की सुगंध से सराबोर कर दिया ।
जब सैवी बनावटी टाँग लगवाकर अस्पताल से घर वापिस आया तब वह पूरी तरह सत्यव्रत में बदल चुका था। ज़िंदगी का वास्तविक स्वरूप उसे बहुत शीघ्र ही अपनी छटा दिखा गया था।स्वाति ने माँ बनकर उसे सहलाया,मित्र बनकर हँसाया तथा जीवन की वास्तविकता को समझने में उसकी सहायता की।अब उसे महसूस हुआ कि जीवन वह था ही नहीं जिसमें अभी तक वह फँसा पड़ा था , उसकी अस्वस्थता के समय स्वाति उसकी वास्तविक मित्र बन गई थीऔर उसने उसे जीवन , रिश्तों व मित्रों की गरिमा सेअवगत कराया था ।अब तक का उसका सारा जीवन एक दुखद स्वप्न की भाँति अतीत के पवन के झौंके में बिखर गया था और स्वाति ने अब ‘स्वाति नक्षत्र’ की अलौकिक बूँद बनकर चातक सत्यव्रत के जीवन की वास्तविक प्यास बुझाई थी । अब सत्यव्रत के ह्रदय की गहराइयों में स्वाति एक सीप की भाँति समा गई थी ।
स्वाति ने उसके समक्ष गांधी जी,स्वामी विवेकानंद , डॉ.राधकृष्णन आदि का दर्शन इतने मनोरंजक रूप में प्रस्तुत किया कि उसने वास्तविक आनंद को पहचानना शुरू किया , वह अब समझ गया था कि वास्तविक संबंध व मित्रता क्या होती है?दुर्घटना के पश्चात अब पत्नी उसके जीवन की धुरी बन गई थी।स्वस्थ होते ही स्वाति के साथ मिलकर सत्यव्रत ने अपने व्यवसाय को बहुत अच्छी प्रकार संभाल लिया ।पुत्रवधु की सेवा से माँ भी ठीक हो चुकी थीं।
स्वाति की सेवा व लगन से माँ के जीवन में पसरा हुआ अन्धकार व एकाकीपन समाप्त हो गया था ।विवाह के प्रथम दिवस से ही स्वाति प्रात: माँ के चरण -स्पर्श करती थी । एक दिन माँ से न रहा गया ;
“बेटी ! ये रोज़ पैर छूने की क्या ज़रुरत है ? तुमने जो इतनी सेवा की है और कर रही हो उससे तुम सदा आशीर्वाद पाओगी फिर यह परंपरा क्यों ? रहने दो अब —”
“मैं जानती हूँ माँ आपका आशीष सदा मेरे साथ है ,उसके बिना तो मैं कुछ भी नहीं कर सकती । मैं किसी परंपरा के वशीभूत आपके चरण-स्पर्श नहीं करती । हम दोनों एकसाथ रहते हैं ,कभी आपको मेरे किसी आचरण से क्रोध आ सकता है तो कभी किसी नाज़ुक क्षण में मेरे मुह से कोई अपशब्द निकल सकते हैं । इससे मन को व्यर्थ ही क्लेश हो सकता है । यदि दुर्भाग्यवश कभी ऐसा हो तब भी आप मुझसे या मैं आपसे कितनी भी रुष्ट क्यों न हों प्रात:काल में आपके चरण स्पर्श करके बीते पलों की नाराज़गी समाप्त हो जाती है।” माँ ने उसे अपने सीने से लगा लिया लिया था।
पॉंच-पॉंच वर्ष के अंतर में सत्यव्रत व स्वाति की फुलवारी में क्रमश: तीन पुष्प खिले। दो बड़े बेटे व अंत की एक बिटिया।बस— यहीं फिर से सत्यव्रत के जीवन में अन्धकार छाने लगा।सत्यव्रत व स्वाति दोनों एक बिटिया की ललक से जुड़े थे ।स्वाति का रक्त-संचार बहुत अधिक रहने लगा था ।उसके लिए ऎसी स्थिति में गर्भ धारण करना हितकर नहीं था ।परन्तु जो होना है ,वह सुनिश्चित है। बिटिया आई तो परन्तु उसके जन्म के समय रक्तचाप बहुत अधिक हो जाने के कारण स्वाति का स्वास्थ्य बिगड़ गया और वह उसे छोड़कर चली गई ।डॉक्टर यथासंभव प्रयत्न करके हाथ मलते रहे गए । सत्यव्रत को बहुत बड़ा धक्का लगा परन्तु स्वाति सत्यव्रत को जीवन की सार्थकता समझा ,सिखा गई थी;
“जीवन चंद दिनों का है जिसमें मनुष्य के भीतर पलने वाला ‘अहं’ उसको कभी भी खोखला बना सकता है,कभी भी उसको समाप्त कर सकता है ।अहं को छोड़कर यदि मनुष्य सरल , सहज रह सके , उस समाज के लिए कुछ कर सके जिसका वह अंग है तभी जीवन की सार्थकता है । अन्यथा सभी आते-जाते हैं लेकिन उनका ही दुनिया में आना सुकारथ होता है जो किसी की सहायता कर सकें, किसीको मानसिक व शारीरिक तुष्टि दे सकें ,किसी की आँखों के आँसू पोंछकर उसके मुख पर मुस्कुराहट ला सकें ।जीवन के बारे में कोई कुछ कुछ नहीं जानता, कुछ नहीं कह सकता।जीवन सत्य है परन्तु सार्वभौमिक व शाश्वत यह है कि मृत्यु वास्तविक सत्य है, जीवन का अंतिम पड़ाव ! यही जीवन-दर्शन है ।”
इस दुनिया से विदा लेते समय स्वाति व सत्यव्रत में कुछ पलों का वार्तालाप हुआ था । स्वाति समझ रही थी कि वह जा रही है।नन्ही सी बिटिया के गाल पर ममता का चुंबन लेकर स्वाति ने उसे सत्यव्रत की गोदी में दे दिया।सत्यव्रत ने बिटिया के माथे को स्नेह से चूम लिया और उसे पालने में लिटाकर पत्नी के पास आ बैठा । स्वाति के दुर्बल हाथों को सहलाते हुए उसने डबडबाई आँखों से उसे देखा था —
“सत्य ! जन्म लेने के पश्चात मृत्यु सबके लिए सुनिश्चित है,कोई नहीं जानता उसके पास कितना समय है लेकिन एक बात निश्चित है कि जन्मने वाले को खेल पूरा करके वापिस लौटना है” , और उसने उसे जीवन ,रिश्तों व मित्रों की गरिमा से उसे अवगत कराया, जीवन के मंच पर चरित्र के खेल की इस वास्तविकता की सशक्त अनुभूति कराई । वह जा रही थी,बोलते हुए उसनी श्वांसें ऊपर-नीचे होने लगी थीं।
“दुनिया में आने के बाद हम जो कुछ भी करते हैं ,अपने -अपने चरित्र का निर्वाह करते हैं।जीवन रूपी नाटक का पटाक्षेप मृत्यु पर आकर होता हैअत:जीवन का वास्तविक सत्य मृत्यु है, उसे हमें स्वीकारना चाहिए। हम अधिक तो कुछ नहीं जानते लेकिन इतना तो समझ सकते हैं कि जीवन के मंच पर अपने पात्र को ईमानदारी से खेल सकें।जन्म एक उत्सव तो मृत्यु सबसे बड़ा उत्सव ! अत:मेरी मृत्यु को एक उत्सव की भाँति मनाना ।”
स्वाति की देह के विलीन होने के पश्चात सत्यव्रत की दुनिया बदल गई । उसने स्वाति की मृत्यु एक जश्न की भाँति मनाई ।उसके लिए स्वाति की मृत्यु हुई नहीं थी, वह उसके भीतर जीवित थी । अब वह जो भी कार्य करता था स्वाति की सोच व चिंतन के अनुसार ही करता था।
एक बार स्वाति ने सत्य से कहा था ——
“दुनिया के कारोबार के लिए सबको एक नाम की आवश्यकता होती है इसीलिए प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति के नाम रखे गए। नाम देह तक ही सीमित रह जाता है,आत्मा का कोई नाम ही नहीं है। जीवन का यह कितना बड़ा दर्शन है कि इस भौतिक संसार में जन्म लेकर हम सब स्वयं को वह ‘नाम’समझने लगते हैं ,यह भूल जाते हैं कि हमारा दुनियावी नाम केवल यहीं तक ही सीमित रहता है ।जहाँ पाँच तत्वों में विलीन हुआ सब समाप्त । हमारे भौतिक शरीर के विलीन होने के पश्चात हमारे द्वारा किए हुए कर्मों से हमें जाना जाता है। जैसे कर्म ,वैसा उनका परिणाम ! ”
जीवन के पृष्ठ पलटते हुए मंत्री जी न जाने कितनी दूर निकल गए थे ,उनके नेत्र पनीले थे किन्तु चेहरे पर सत्य, ईमानदारी,आत्मविश्वास की अलौकिक छटा विद्यमान थी।
“मेरी पत्नी स्वाति स्वयं संत का सा जीवन जीकर मुझे सिखा गई कि यदि मनुष्य चाहे तो इस दुनिया के सब कर्तव्यों को ईमानदारी से पूरा करके आसक्ति रहित जीवन जी सकता है । ”
“ओह!” दूत के मुख से निकला, सत्यव्रत जी का ध्यान भंग हुआ । अपने जीवन की पुस्तक के पृष्ठों को पलटते हुए उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा था कि वे किसीको अपने जीवन के बारे में बता रहे थे।उन्होंने अपनी भीगी पलकों पर अपनी हथेलियाँ रखकर सामान्य दिखने का प्रयत्न किया।
संभवत: कॉस्मॉस मंत्री जी को उस विषय से हटाना चाहता था जो उन्हें पीड़ित कर रहा था ;
” क्या राजनीति बहुत अच्छी चीज़ है जो आप इसमें आए?” दूत नेअपनी बुद्धि के अनुसार विषय-परिवर्तन करने चेष्टा की ।
“राजनीति कोई चीज़ नहीं है,यह एक व्यवस्था है । किसी भी कार्य-प्रणाली के संचालन के लिए एक व्यवस्था की आवश्यकता होती है। समाज को चलाने के लिए एक व्यवस्था तैयार की गई,यही व्यवस्था राजनीति है यानि–‘राज करने की नीति’! वास्तव में यह राज नहीं ‘सेवा-नीति’ होनी चाहिए। इसमें सही सोच,वचनबद्धता,एकाग्रता, सही मार्गदर्शन होना चाहिए और इसमें ऐसे व्यक्तियों को कार्यरत होना चाहिए जो अपने विचार शुद्ध व सात्विक रख सकें किन्तु ऐसा हो नहीं पाता —-मेरा तो यही अनुभव है कि राजनीति में न चाहते हुए भी स्वार्थ का समावेश हो जाता है । सरल,सहज व्यक्ति इसमें कूदकर कहीं न कहीं फँस ही जाता है । ” मंत्री जी ने कॉस्मॉस को राजनीति के बारे में अपने विचार बताए ।
” ऐसा क्यों?” कॉस्मॉस ने मंत्री जी से इस पहेली का उत्तर जानना चाहा ।
” इसके बहुत से कारण होते हैं जिनमें अपने राजनीतिक दल को जीवित रखने के लिए ) अर्थ(धन की व्यवस्था करना ,वह व्यवस्था किस प्रकार की जाती है उसका ध्यान रखना तथा उसका व्यय संभालना बहुत बड़ा कारण है।एक बार किसी भी प्रकार का स्वार्थ आया कि मनुष्य के अपने स्वार्थ सबसे आगे आ खड़े हुए।यह केवल राजनीतिक क्षेत्र की बात नहीं है ,क्षेत्र कोई भी हो सबमें सन्तुलन की आवश्यकता है ।” दो पल रूककर फिर बोले ;
“हम नहीं चाहें तो भी हमें पंक में धकेल दिया जाएगा ।”
” हाँ , राजनीति में राजनीतिज्ञ की कड़ी परीक्षा होती है –इस परीक्षा से न तो बुद्ध ही बच सके न ही कृष्ण ! कितने महान दार्शनिक थे वे !फिर हम जैसे लोग ठहरे आम मनुष्य जो राजनीतिक के ‘र’ तक का अर्थ नहीं समझते ,कैसे इसकी कीचड़ में भीतर जाने से स्वयं को रोक सकते हैं? सच कहूँ तो मैं स्वयं को सुधारने ने के लिए ही राजनीति में आया था लेकिन पीड़ा इस बात की हुई कि जिस भावना को लेकर मैंने इस क्षेत्र में प्रवेश किया था ,मेरी वह भावना इसमें आने के बाद कहाँ बनी रह सकी? मैं सबसे न्याय करना चाहता था लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं वह सब कर सका जिस प्रतिज्ञा तथा सोच को लेकर मैंने इस क्षेत्र में प्रवेश किया था। ”
– क्रमशः
– डॉ. प्रणव भारती