धारावाहिक
गवाक्ष : 2
” गवाक्ष? यह किस स्थान का नाम है ?”
” धरती पर इसे ‘वेंटीलेटर’ के नाम से जाना जाता है अर्थात रोशनदान! परन्तु हमारे ‘कॉस्मिक-वर्ल्ड’में हम इसे गवाक्ष कहते हैं।
” ओह! इसीलिए तुम कॉस्मॉस हो?तो यह कहो न तुम मृत्यु-दूत हो??”
“जी, क्या अब मैं इस यंत्र को स्थापित कर सकता हूँ?”
सत्यव्रत जी को यह सब रुचिकर लग रहा था।
“खड़े क्यों हो? बैठ सकते हो।” इसके बारे में जानने की उत्सुकता से मंत्री जी के मन में बेचैनी होने लगी, जैसे कुछ क्षणों के लिए वे भूल से गए कि वे कितनी कष्टकर स्थिति से गुज़र रहे थे। उनके अपने पुत्र ही किसी और को मध्यस्थ बनाकर उनका उपयोग करना चाहते थे। दूत भी उनसे वार्तालाप करने के लिए व्याकुल दिखाई दे रहा था । उसने मंत्री जी के सामने की मेज़ पर अपना यंत्र स्थापित कर दिया और स्वयं एक कुर्सी खिसकाकर उनके पलँग के पास जा बैठा।
” महोदय! क्या मैं आपके बारे में कुछ जान सकता हूँ? आप कितने प्रसिद्ध हैं! बाहर कितने व्यक्ति आपकी प्रशंसा कर रहे हैं। मैं आपसे प्रभावित हो गया हूँ।”
मंत्री जी स्वयं इस लावण्यमय दूत से वार्तालाप करना चाहते थे। वे भूल जाना चाहते थे कि बाहर कितने व्यक्ति उनकी प्रतीक्षा कर हैं, वे यह भी याद नहीं रखना चाहते थे कि ‘कॉस्मॉस’ नामक यह प्राणी अथवा जो भी है इतने संरक्षण के उपरान्त किस प्रकार उन तक पहुंचा? वे बस उससे वार्तालाप करना चाहते थे, उसकी कहानी में उनकी रूचि बढ़ती जा रही थी।
“अपने बारे में विस्तार से बताओ- “मंत्री जी ने अपना समस्त ध्यान उसकी ओर केंद्रित कर दिया।
” जी, जैसा मैंने बताया मैं कॉस्मॉस हूँ,गवाक्ष से आया हूँ। धरती पर मुझे ‘मृत्यु-दूत’माना जाता है। हमारा निवास ‘गवाक्ष’ में है, आप उसे स्वर्ग,नर्क –जो चाहे समझ सकते हैं लेकिन वे स्वर्ग-नर्क हैं नहीं,यह (कॉस्मिक डिपार्टमेंट) एक भिन्न विभाग है।”
“तो स्वर्ग-नर्क कहीं और स्थित हैं? कहाँ?”
” मैं नहीं जानता —-”
” हम तो यह यह समझते हैं कि स्वर्ग-नर्क यहीं इस पृथ्वी पर हैं।”
“जी,इतना सब तो नहीं जानता ”
“यमराज के दूत होकर भी नहीं जानते!” मंत्री जी ने व्यंग्य करके उससे उस रहस्य का पर्दा खुलवाने की चेष्टा की जिसे योगी-मुनि तक नहीं खोल पाए। जिससे धरती का प्रत्येक मानव कभी न कभी जूझता है।”
“मुझे मेरे स्वामी यमराज जी के द्वारा ‘सत्य’ नामक किसी प्राणी को लाने का आदेश दिया गया है। आते ही मुझे ज्ञात हुआ आपका नाम सत्यप्रिय है,मैं प्रसन्न हो गया, गत वर्ष से अपना कार्य पूर्ण न कर पाने का दंड भुगत रहा हूँ। मुझे गवाक्ष में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं है–जब तक मैं अपना ‘टार्गेट’ यानि लक्ष्य पूर्ण नहीं कर लूँगा ,इसी प्रकार दंड पाता रहूंगा।”
” यहाँ भीतर कैसे प्रवेश कर लिया ,यहाँ किसी को आने की आज्ञा नहीं है। क्या किसीको पैसे-वैसे खिलाकर आए हो?”अपनी व्यथा भूलकर मंत्री जी ठठाकर हँस पड़े ।
“कितना कड़ा पहरा है !मुझे कौन प्रवेश करने देता? भीतर आने के लिए मुझे अपनी अदृश्य होने वाली शक्ति का प्रयोग करना पड़ा। जब आपने मृत्यु को पुकारा मैं प्रसन्न हो गया, मुझे लगा आप मेरे साथ चलने के लिए तत्पर हैं। लक्ष्य प्राप्ति की किरण ने मेरे भीतर उत्साह जगा दिया।” वह लगातार एक रेकॉर्ड की भाँति बजता ही जा रहा था, अपना हालेदिल सुनाए जा रहा था।
” मुझे एक बात भर्मित कर रही है —“मंत्री सत्यव्रत जी ने कहा ।
” यह सर्वविदित है ‘जीवन एक सत्य है और —मृत्यु भी उतना ही अटूट सत्य है’ अर्थात जीवन का आवागमन शाश्वत सत्य है। यह कहा जाता है कि इस पृथ्वी पर सबके आने और जाने का समय सुनिश्चित है। तब यह भी सुनिश्चित हुआ कि किसका अंतिम समय कब है? फिर यह कैसे संभव है कि कोई भी सत्य नामक प्राणी यह संसार छोड़कर तुम्हारे साथ जा सकता है?”
कॉस्मॉस मुस्कुराया;
“मैंने आपको बताया न ,हमारा विभाग एक भिन्न विभाग है।जिसमें योजनाएं बनाई जाती हैं। इस बार ‘सत्य’ नामक प्राणी को धरती से गवाक्ष में लाने की योजना बनाई गई है।इतने बड़े विश्व के आवागमन का हिसाब-किताब रखना आसान नहीं है। इसके लिए गवाक्ष में सहयोगी विभाग भी हैं। मेरे साथ के कई और कॉस्मॉस भी इस कार्य पर तैनात हैं। हमारा कार्य केवल ‘सत्य’नामक प्राणी को गवाक्ष में ले जाकर स्वामी को सौंप देना है। हमारे स्वामी व अन्य उच्च पदाधिकारियों के निर्णय से बारी-बारी सबका चयन किया जाता है फिर उनको आगे स्वर्ग अथवा नर्क में स्थान दिया जाता है।”
“इसका अर्थ है कि स्वर्ग-नर्क कहीं और स्थान पर स्थित हैं? ”
“महोदय! यह सब जानना हमारे अधिकार-क्षेत्र में नहीं होता। गवाक्ष से निकालकर आत्मा को कहाँ प्रेषित किया जाता है, इसको गोपनीय रखा जाता है। ”
“तो क्या पृथ्वी पर से देह के समाप्त हो जाने के पश्चात गवाक्ष में प्राणी जीवित रहता है?”
“पृथ्वी पर प्राणी जिन पाँच तत्वों से मिलकर बना था ,वह उन्ही में अपने व्यवस्थित समय में विलीन हो जाता है। किन्तु यह तो देह की समाप्ति हुई। आत्मा हमारे साथ जाती है तथा गवाक्ष में ,आपकी भाषा में ‘वेंटिलेटर’ पर तब तक रहती है जब तक उसकी बारी नहीं आती, बारी तथा गुणों,अवगुणों के परिणाम स्वरूप आत्माओं के निवास का चयन किया जाता है। “यह बिलकुल नवीन सूचना ज्ञात हुई ,मंत्री जी और भी संभलकर बैठ गए थे।
” महोदय! मुझे पृथ्वी पर आकर बहुत सी नई जानकारियाँ मिल रही हैं। मैं उनमें खो जाता हूँ ,अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पाता। ”
“अच्छा ! तुमने मुझे ही अपने साथ ले जाने का निर्णय क्यों लिया?” सत्यव्रत जी ने बहुत आराम से पूछा।
” ऐसा कुछ नहीं है, यह तो अवसर की बात है कि इस बार आप मुझे धरती पर उतरते ही मिल गए अन्यथा मैं कहीं और ‘सत्य’ की खोज में जाता।”
” आप मुझे अन्य धरतीवासियों से अधिक प्रभावित कर रहे हैं। आपके मुख का तेज तथा आपके वार्तालाप का प्रभाव मुझे मुग्ध कर रहा है। क्या मैं आपके इस तेजस्वी व्यक्तित्व से परिचित हो सकता हूँ? “दूत ने विनम्रता से कहा।
समय-यंत्र की रेती धीमी गति से नीचे की ओर आने लगी थी । अभी इसे नीचे आने में खासा समय लगने वाला था। दूत को यह यंत्र सदा धोखा देता रहा था। जबसे उसने पृथ्वी पर आना प्रारंभ किया था, उसमें पृथ्वीवासियों की बहुत सी ऎसी संवेदनाओं का समावेश होने लगा था। जो वास्तव में उसके हित में नहीं थी ।
सत्यव्रत ने आँखें मूंदकर एक लंबी साँस ली। वे समझ नहीं पा रहे थे इस अन्य लोक के प्राणी से वे क्या और कैसे अपने बारे में बात करें?
” हर वह धातु सोना नहीं होती जो चमकती हुई दिखाई देती है ।” उन्होंने मुरझाए शब्दों में कहा।
“अर्थात —??” उसकी बुद्धि में कुछ नहीं आया अत: उसने उनसे पूछा;
“वैसे आप इतने व्यथित क्यों हैं? क्या इसलिए कि मैं आपको ले जाने आया हूँ ? ”
“नहीं दूत ,मैं इस तथ्य से परिचित हूँ कि समय पूर्ण होने पर सबको वापिस अपने वास्तविक निवास पर लौटना होता है।”
“क्या मैं अपेक्षा करूँ आप मुझे अपने बारे में बताएंगे ?”उसने मंत्री जी से चिरौरी सी की।
मंत्री जी सोच की गहरी झील में डूबने-उतरने लगे। वे कोई पुराना द्वार खोलकर उसमें से अपने अतीत में झाँकने लगे थे, उनके चेहरे पर द्वार के चरमराने के चिन्ह उभरने लगे, खट्टे -मीठे चिह्न!
” तुम जानते हो दूत ‘gone with the wind is always a history ‘यानि बीत जाने वाली बात इतिहास बन जाती है। इतिहास के पन्ने पलटना इतना सहज भी नहीं होता । इतिहास में आँसू ,आहें सबका मिश्रण होता है,हाँ ! खुशियाँ भी होती हैं किन्तु यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह खुशियों के ऊपर आँसू व आहों का आवरण चढ़ाए रखता है। इसीलिए उत्तम यह है कि मनुष्य अपने उस पल में जीवित रहे जिसमें वह साँस लेता है।”
दूत मुँह बाए सत्यव्रत जी की बातें सुनने में मग्न हो गया। इस धरती पर कई बार आने में उसका बहुत लाभ हुआ था। कितनी ही बातें उसने ऎसी सुनी थीं जिनकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता था।
“आप कितने ज्ञानी हैं! कितने अच्छे! कितने शुभ्र विचार हैं आपके !” दूत उन पर लट्टू हुआ जा रहा था।
” नहीं, मैं ज्ञानी नहीं, मैं तो इस धरती का एक सामान्य व्यक्ति हूँ – दुःख और सुख के दामन में जकड़ा एक ऐसा साधारण मनुष्य जो अपनी ही समस्याओं के वृत्त में चक्कर लगाता रहता है ।” उनके मुख पर फिर से पीड़ा की छाया दिखाई देने लगी थी।
“आपकी पृथ्वी पर ही मुझे यह ज्ञात हुआ कि अच्छा व बुरा दोनों समय किसी न किसी प्रकार कट ही जाते हैं। क्या यह सत्य है?”
“सौ पतिशत सत्य है ,अच्छा समय नहीं रहता तो बुरा कैसे रह सकता है? किन्तु हम मनुष्य हैं ,अपने को बुरे समय के जाल में फँसा देखकर बहुत शीघ्र असहज हो जाते हैं घबरा जाते हैं। “मंत्री बहुत ईमानदारी से कॉस्मॉस के प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे।
आश्चर्य इस बात का था कि वे जिन बातों को लेकर असहज हो रहे थे, कॉस्मॉस से वार्तालाप करने के पश्चात सहज होते जा रहे थे। एक दूसरी दुनिया का यह जो उनके समक्ष था और स्वयं को दूत बता रहा था अनजाने ही उन्हें एक शीतलता का अनुभव करा रहा था।
” तो महोदय! क्या पृथ्वी पर कोई ज्ञानी नहीं होता? मैं तो समझा जो दूसरों के दुःख-सुख का ध्यान रखते हैं, दूसरों की पीड़ा से जिन्हें परेशानी होती है, दूसरों के लिए जो कुछ करना चाहते हैं, उनसे बड़ा ज्ञानी और कौन हो सकता है?”
” तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो लेकिन यदि तुम्हारा ज्ञान केवल तुम तक ही सीमित रह जाए तो? ज्ञान व शिक्षा वह है जो समाज के लिए हितकारी हो। ” मंत्री जी फिर कहीं शून्य में विचरण करने लगे।
” महोदय मैं ऐसे ज्ञानी महोदय के दर्शन करना चाहता हूँ, उनसे मिलना चाहता हूँ जिनसे मैं बहुत कुछ और सीख सकूँ। अपनी अर्जित की हुई शिक्षा को समाज में वितरित करना, कितना उच्च कार्य है!” कॉस्मॉस के मुख पर प्रशंसात्मक चिन्ह अवतरित होने लगे थे।
“हाँ, एक महापुरुष ऐसे ज्ञानी हैं जो आजकल अपने जीवन के पूर्ण ज्ञान को समेटकर पृथ्वीवासियों में वितरित करके इस दुनिया से विदा होना चाहते हैं, वे अपने जीवन का पूर्ण ज्ञान पृथ्वी पर बाँटकर जाना चाहते हैं। मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ -“उन्होंने पुन: निश्वांस ली।
“क्या नाम है उनका? कहाँ रहते हैं?” दूत चंचल हो उठा।
“कुछ समय मेरे पास बैठो। तुम्हारे आगमन से मेरा अशांत मन स्थिर हो चला है उनका नाम सत्यविद्य है, यहीं रहते हैं किन्तु तुम मेरे बारे में जानना चाहते थे न! ”
वे बात करते-करते जैसे बार-बार अपने वर्तमान से भूत में प्रवेश कर जाते थे। अपने क्षेत्र में प्रवेशकर उन्होंने राजनीति की वास्तविकता को समझा था। समाज के लिए कुछ व्यवहारिक कार्य करने का उनका उत्साह इस क्षेत्र में प्रवेश करने के पश्चात कुछ ही दिनों में फीका पड़ गया था। उन्होंने राजनीति को पवित्र कार्य-स्थल माना था। अपनी पत्नी स्वाति से चर्चा करने पर उन्हें यह समझ में आया था कि यदि मनुष्य वास्तव में सेवा करना चाहे तो राजनीति जैसा क्षेत्र और कोई हो ही नहीं सकता। समाज से जुड़ना,सभी लोगों की समस्याओं को जानना और उनके लिए समाधान देने का प्रयत्न संतुष्टि-प्रदायक होता है।
“राजनीति एक पवित्र कार्य -क्षेत्र है जो हमारी कार्य-क्षमता को उन्नत करता है, विविधता को बढ़ावा देता है। संपर्क के माध्यम से हमें प्रगति की ओर अग्रसर करता है। राजनीति हमें आत्म-केंद्रित होना सिखाती है, वास्तव में राजनीति वैराग्य की भावना का मंच है । स्वीकारोक्ति की क्षमता देकर यह हमारी सहनशक्ति बढ़ाती है। “स्वाति कुछ इस प्रकार से अपनी बात प्रस्तुत करती थी कि उसकी बात गलत नहीं लगती थी वरन चिंतन के लिए एक मंच प्रदान करती थी।
“मुझे तो आज की राजनीति एक खेल लगती है और तुम राजनीति में दर्शन खोजती हो —” सत्यव्रत पत्नी से चुहल करते।
” हाँ,सत्य —आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन राजनीति ही क्या जीवन मंच पर खेल नहीं करता है,नाटक ही कर रहे हैं न हम सब? फिर अगर राजनीति के मंच पर किया तो क्या हुआ? ! अपने अपने चरित्रों को निभाना खेल नहीं है क्या? इसी प्रकार राजनीति भी है। राजनीति में पदार्पण भी एक खेल है और उसमें से निकलना भी एक खेल ही है। ”
” राजनीति की दहलीज़ पर करके ईश्वर की दहलीज़ पर पहुँचने का अहसास ही दर्शन है । “एक दिन पति से वार्तालाप करते समय स्वाति ने गंभीर स्वर में पति से कहा था।
” ठीक है,माना लेकिन कहाँ है दर्शन और ईश्वर की दहलीज़? मैं भी तुम्हारे साथ राजनीति में दर्शन खोजने के लिए तत्पर हूँ —“सत्यव्रत खिलखिलाकर हंस दिए थे ।
” मैं तो आपका साथ प्रत्येक परिस्थिति में साथ देने के लिए सदा से ही तैयार हूँ —राजनीति में भी आपके साथ उतर पडूँगी। “उसने पति की बात का मुस्कुराकर उत्तर दिया था ।
स्वाति के साथ अपना विस्तृत व्यवसाय संभालते हुए सत्यव्रत ने निम्न वर्गों की मन लगाकर सेवा करने का निश्चय कर लिया था और दोनों मिलकर समाज में प्रेरणा-स्त्रोत बन रहे थे।
किसी और को क्या कहें उनके अपने पुत्र ही उनसे ऐसे कार्य करवाना चाहते थे जिनके लिए उनका ह्रदय कभी तत्पर न होता, यदि वे इंकार करते तो उनके पुत्र किसी के माध्यम से अपने कार्य निकलवाने की चेष्टा में संलग्न हो जाते। इस समय भी वे ऎसी ही किसी पीड़ा से व्यथित थे। वे स्वयं को हल्का महसूस करने स्नान-गृह में गए थे किन्तु वहां पर भी तकनीकी के इस यंत्र ने उनका पीछा न छोड़ा,अंत में उन्हें अपना यंत्र बंद कर देना पड़ा।
सत्यव्रत कहीं खो से गए ,जीवन कितना बड़ा उपहास बन जाता है कभी-कभ ! मनुष्य कितने मुखौटे चिपकाकर जीता है! आज सर्वत्र उनकी प्रशंसा के पुल बांधे जा रहे हैं, उनसे कितनी अपेक्षाएँ की जा रही हैं किन्तु किसी समय अपनेजीवन के इतिहास के पृष्ठ पर उनकी कहानी कितनी अशोभनीय थी, यह तो वे ही जानते थे। क्या आज जिस स्थान पर वे सुशोभित हैं उसका श्रेय उन्हें जाता है? छद्म जीवन का समय बहुत छोटा सा होता हैअंत में उसे अनावृत होना ही पड़ता है।
माता -पिता की एकमात्र संतान का नाम सत्यव्रत इसलिए रखा गया था कि एक सदाचारी ,सरल किन्तु ऐश्वर्यपूर्ण परिवार में जिस बाल-पुष्प का जन्म हुआ, वह न जाने कितनी मिन्नतों, प्रार्थनाओं के पश्चात उस घर के आँगन में खिला था। जीवन में जितनी भी खुशियाँ ,सुविधाएं हो सकती हैं,वे सब इस बालक को प्राप्त हुई। बालपन पर जिस वस्तु पर भी वह हाथ रख देता ,वह कहीं से भी उसके पास पहुंचा दी जाती। परिणाम वही हुआ जो आवश्यकता से अधिक लाड़-दुलार पाने वाले बच्चों का होता है। सत्यव्रत कभी अपने सत्य के व्रत में नहीं रह सका। प्रत्येक वस्तु की माँग पहले उसकी ज़िद तथा बाद में उसका आदेश बनता गया। कॉलेज के प्रांगण में प्रवेश करने पर उसके पँख और ऊँची उड़ान भरने लगे।बनावटी वाह-वाह करने वाले मित्रों की सोहबत में पड़कर वह ‘सत्य’ के अतिरिक्त बहुत कुछ सीख चुका था। सरल व शांत पिता बेटे के इस रूप को सह सकने में जब असमर्थ होने लगे तब ह्रदय के दौरे ने उन्हें इस संसार से विदा कर दिया।
पिता का लंबा-चौड़ा व्यापार अब सत्यव्रत के हाथों में था। माँ अत्यधिक लाड़ के कारण उसी समय बेटे का पथ-प्रदर्शन नहीं कर पाईं थीं जब वह उनके हाथ में था। अब तो उसकी पहुँच बहुत दूर हो गई थी। बेशुमार दौलत और कोई रोकने ,टोकने वाला नहीं। जेबें लबालब धन से भरी हुईं! अधिक धनवान के संबंधी व मित्र बाढ़ से उभरने लगते हैं, यह जीवन का सत्य है। सत्यव्रत ने किसी प्रकार बी.ए पास किया और अपने व्यवसाय में जुड़ गया। वह भाग्यशाली था कि उसके पिता के साथ व्यवसाय में काम करने वाले पुराने कर्मचारियों के मन में अपने स्वामी के व उनके परिवार के प्रति संवेदनाएं थीं, वे उनके व्यवसाय व परिवार के प्रति सदा ईमानदार बने रहे थे। उन्होंने सत्यव्रत को अपने सामने बड़ा होते हुए देखा था,उसे अपने स्वयं के बच्चे की भाँति गोद में खिलाया था। वे किसी भी प्रकार अपने स्व.मालिक के परिवार के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते थे। सत्यव्रत के पिता के विभिन्न व्यवसाय थे जिनको संभालने वाले विभिन्न अधिकारी ,कर्मचारी व सेवक थे। एक बात और उसके हित में थी कि सत्यव्रत अपने व्यवसाय के उच्च अधिकारियों को पिता के समान घर के सदस्य का सा मान देता था। वह यह भी भली प्रकार जानता व समझता था कि उनके न रहने से उसका व्यवसाय चौपट हो जाएगा अत: उनके साथ विनम्रता व सम्मान का नाटक करना उसकी विवशता थी।
– क्रमशः
– डॉ. प्रणव भारती