धारावाहिक
गवाक्ष -18
“ये जीवन तो बहुत बड़ी उलझन है! मैं इस सबको कैसे समझ सकूँगा!” उसके मुख से अचानक निकल गया।
“नहीं कॉस्मॉस,जीवन को समझना जटिल नहीं है, केवल स्वयं को समझने की आवश्यकता है। ज़रा विचार तो करो, इस संपूर्ण सृष्टि में मस्तिष्क प्रत्येक प्राणी के पास है किन्तु चिंतन की विशेष योग्यता केवल मनुष्य नामक प्राणी को प्रदान की गई है परन्तु क्या मनुष्य इसका समुचित उपयोग करता है? मैंने तुम्हे समझाने के लिए ही जीवन को संघर्ष कहा है। क्या अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए तुम संघर्ष नहीं कर रहे हो? जिस प्रकार एक डॉक्टर अपने रोगी की बीमारी दूर करने के लिए अनथक परिश्रम करता है, उसी प्रकार जब हम किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए बारम्बार प्रयत्न करते हैं, वही संघर्ष है। संघर्ष करते समय हमारी चेतना जागरूक रहती है, हम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए डटे रहते हैं, निश्चयपूर्वक अपने कार्य को सफल बनाने का प्रयास करते हैं, वही संघर्ष है। यहाँ संघर्ष करते समय हार-जीत की बात नहीं है, यहाँ कर्म करने की बात है। कर्म करने पर मनुष्य के समक्ष दो विकल्प आते हैं- सफलता एवं असफलता। असफलता मिलने पर जब हम बारम्बार उसकी सफलता के लिए प्रयास करते हैं ,वही संघर्ष है।”
उन्होंने कॉस्मॉस को कर्म के बारे में समझाने का प्रयास करते हुए कहा –
श्री कृष्ण ने भी श्रीमद् भागवत गीता में कर्म पर ही मनुष्य का अधिकार है, यह शिक्षा प्रदान की है-
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’
“इसका क्या अर्थ है और ये कृष्ण कौन हैं?”
“इसका अर्थ है हमें अपने कार्य को पूरी तल्लीनता से करना चाहिए, फल के बारे में नहीं सोचना चाहिए।”
“कार्य करेंगे तो फल तो चाहिए न! जैसे मैंने अपना कार्य किया लेकिन मुझे फल नहीं मिला। मैं उससे पीड़ित हुआ।”
“मैंने कहा, कार्य को पूरी तल्लीनता से करना चाहिए, फल प्राप्त होगा ही। कोई भी कार्य बिना फल के नहीं होता। जैसा काम,वैसा परिणाम! समझे?”
“और ये कृष्ण कौन हैं?” कॉस्मॉस ने पुन: प्रोफेसर के सम्मुख प्रश्न रखा।
“वैसे तो कृष्ण ने इस पृथ्वी पर हमारे जैसे ही जन्म लिया था। उन्हें यदुवंशी कहा जाता है। महाभारत के युद्ध में उन्होंने कौरव व पांडवों को जो उपदेश देकर कर्म पर बल दिया था, उसे श्रीमद् भागवत गीता के द्वारा समाज के लाभ के लिए प्रस्तुत किया गया है।” कॉस्मॉस का प्रश्नवाचक चेहरा पढ़कर प्रोफ़ेसर ने फिर कहा, “वास्तव में कृष्ण को शब्द-अर्थ, भाग्य-परमार्थ, भक्ति-शक्ति, विज्ञान-तत्वज्ञान,साध्य-आराध्य माना गया है। उन्होंने कर्म की महत्ता पर बल दिया। यह अनुभवपूर्ण सत्य है कि मनुष्य जितने श्रम से कार्य करेगा, उसका परिणाम भी उसे उसी अनुपात में प्राप्त होगा। इसीलिए कार्य भक्ति भी है, शक्ति भी।”
कॉस्मॉस के लिए प्रेम सरल था, संघर्ष कठिन! उसने सोचा यदि वह प्रोफेसर को संघर्ष की भावना से प्रेम की भावना पर ले जा सके तब संभवत: वह आसानी से इस जीवन को समझ सकेगा। यकायक ऊपर अधर में चक्कर काटते हुए कुछ पृष्ठ प्रोफेसर के समक्ष कुछ इस प्रकार से आकर जमने लगे जैसे किसी ने उन्हें एक सूत्र से बांधकर नीचे उतारा हो। कॉस्मॉस ने देखा सबसे ऊपर के पृष्ठ पर लिखा था :-
‘जीवन –संघर्ष!’
प्रो.श्रेष्ठी के मुख पर एक सरल मुस्कान थी।
“आपने बताया प्रेम जीवन है,संघर्ष जीवन है। संघर्ष में कठोरता है, खुरदुरापन है जबकि प्रेम में कोमल भावना व संवेदना हैं तब जीवन को कोमल भावनाओं से क्यों न व्यतीत किया जाए? कठोर संघर्ष की क्या आवश्यकता है?”
प्रोफेसर समझ गए कॉस्मिक उनका ध्यान आडम्बर की ओर खींचने का प्रयास कर रहा है।
प्रेम की अनछुई अनुभूति से वह अभी नवीन किसलय के समान उगा है। इसीलिए वह प्रेम की कोमल अभिव्यक्ति में स्वयं को डुबा देना चाहता है, संघर्ष के कठोर कारावास में दंडित होने का भय उसे चिंतित कर रहा है। स्वाभाविक था, अभी उसने कोमल संवेदना का स्वाद लिया था।
“कॉस्मॉस! प्राणी मात्र के भीतर अनेकों कोमल, कठोर संवेदनाएँ जन्मती हैं, वे स्वाभाविक हैं। वास्तव में प्रेम हमारा स्वभाव है, जो बदलता नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति के तरीके भिन्न-भिन्न हैं। प्रत्येक संबंध को मोह के धागे ने जकड़ रखा है। प्रेम का जन्म मोह से होता है। संबंध के अनुसार मोह के रूपों में परिवर्तन होता रहता है। माँ गर्भ में आते ही अपने शिशु को ममता से सींचने लगती है। वह जीवनपर्यन्त प्रेम में अपनी इच्छाएं, आकांक्षाएँ ,शारीरिक व मानसिक तुष्टि, धन-वैभव, सर्वस्व अपने बच्चों पर न्योछावर करती रहती है। माँ कुछ भी सहन कर सकती है,अपने बालक की परेशानी नहीं। इसी प्रकार प्रेम के सभी संबंधों में विभिन्न प्रकार की संवेदनाएँ निहित हैं।”
प्रोफेसर तन्मयता से प्रेम की संवेदना में खोए हुए थे, उनके नेत्र बंद थे। वे प्रेम विषय पर धारा प्रवाह बोलते ही जा रहे थे।
‘जीवन-प्रेम’ नामक अध्याय भी ऊपर से नीचे व्यवस्थित रूप में आकर जम गया जैसे किसी ने पृष्ठों को बहुत सहेजकर लगा दिया हो। प्रोफेसर बिना अवरोध के बोलते ही जा रहे थे, “जैसा मैंने तुम्हें प्रेम की अभिव्यक्ति के बदलाव के बारे में बताया। यह अभिव्यक्ति संबंधों के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। प्रेम की बात करते समय हम स्वयं प्रेममय होते हैं। कॉस्मॉस जब हम प्रेममय होते हैं तब जीवन को समझना बहुत आसान हो जाता है क्योंकि हमारा जीवन प्रेम के तंतुओं से बना है। संबंध कोई भी क्यों न हो, जब प्रेम की धुरी के चारों ओर घूमने लगता है तब सच्चे अर्थों में जीवन का अर्थ समझ में आने लगता है।”
“प्रोफ़ेसर! पृथ्वी पर मनुष्य इतना मोहक, इतना सुन्दर, इतना आकर्षक कैसे लगता है?” कॉस्मॉस के भीतर प्रेम की संवेदना उगनी प्रारंभ हो गई थी। उसे सत्यनिधि के आलिंगन का वह स्पर्श छूने लगा जो उसके विदा होते समय निधि ने अचानक उसे अनुभूत करा दिया था।
“लेकिन प्रेम होता कैसे है?” उसने धीमे स्वर में प्रोफेसर से पूछ ही लिया।
“जब मन में ईर्ष्या,द्वेष,बदले की भावना आदि विकार न रहें तब केवल प्रेम ही रह जाता है। मैंने तुम्हें बताया न! प्रेम मनुष्य के भीतर ही तो है, उसके न होने का कोई प्रश्न ही नहीं है क्योंकि एक सामान्य मनुष्य संवेदनाओं के साथ ही जन्म लेता है।
हाँ,अब जो तुम्हारे मन में चल रहा है ,वह आकर्षण है। यह आकर्षण भी प्रेम में परिवर्तित हो सकता है, निर्भर करता है स्थितियों पर।”
” प्रेम हमारे भीतर है। प्रत्येक व्यक्ति को प्रेम चाहिए। प्रेम के बिना कोई नहीं रह सकता। कॉस्मॉस! प्रेम सदा देने से बढ़ता है। यह चाहने से नहीं, देने से होता है। इसका कोई अनुभव भी करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह हमारे भीतर ही है। जिसने हमें बनाया है, उसने हमारे भीतर अपार प्रेम भरा है।”
‘क्या गोल-गोल मामला है यह प्रेम भी, लेकिन जो भी है मधुर है, कोमल है!’ कॉस्मॉस के चेहरे पर जैसे किसी ने गुलाब खिला दिए थे। प्रोफेसर अपने में खोए हुए बिना किसी विराम के बोल रहे थे। शब्द उनके मुख से झर रहे थे और कॉस्मॉस के संवेदनशील मस्तिष्क में घुल रहे थे।
“इस धरती पर सभी अच्छे हैं क्योंकि सब एक ही पिता की संतान हैं किन्तु जब हम अपने उस पिता के द्वारा पुरस्कृत संवेदनों का सुन्दर उपयोग करते हैं, तब अपने उन कर्मों से सुन्दर दीखते हैं न कि बाहरी टीम-टाम से! चेहरे को विचारों का दर्पण कहा गया है। हमारे भीतर जैसे विचार होंगे, उनकी वैसी ही छवि हमारे चेहरे के दर्पण में प्रदर्शित होगी। भीतर का सौंदर्य हमारे चेहरे पर, हमारी आँखों में, हमारी भाव-भंगिमाओं में सिमट आता है। यदि हमारे भीतर प्रेम होता है तब हम दूसरों का भी ध्यान प्रेम से रखते हैं। ऐसा करने से जो संतुष्ट मुस्कुराहट की आभा हमारे चेहरों को प्रकाशित करती है, वह एक अलौकिक ज्योति होती है। उसीसे हम सुन्दर लगते हैं। इसी सुंदरता से प्रेम की निर्झरा प्रवाहित होती है। वास्तविक प्रेम अधिकार नहीं जताता, वह हमें स्वतंत्र करता है और प्रेम का पुष्प पूर्ण रूप से स्वतंत्रता में ही खिलता है। प्रेम किसी भी प्रकार की चाह से मुक्त होता है, सच्चा प्रेम वैराग्य की ऊंचाई पर जा पहुँचता है।
प्रेम नैसर्गिक भावना के कारण सहज है, प्रसन्नता है, ऊर्जा है, दिव्यता का अहसास है। इसके समक्ष सभी वस्तुएँ फीकी हैं। प्रेम निराकार है, भक्ति है, शक्ति है, अभिव्यक्ति है। प्रेम दर्शन है, वंदन है, अर्चन है,अभिनन्दन है। पेड़-पौधे भी प्रेम, स्नेह से संचित किये जाने पर खिल उठते हैं। मनुष्यों में यदि प्रेम व स्नेह की संवेदना हो तो पाने वाले व बाँटने वाले दोनों ही एक संतुष्टि के अहसास से निखर उठते हैं। प्रेम जितना गहरा होता है, उतना ही दिव्य होता है। वह हर पल हमारे साथ रहता है, मार्ग प्रशस्त करता है। प्रेम का अपेक्षा रहित समर्पण जीवन जीना सिखाता है। प्रेम माँ की कोख से जन्म लेकर अंतिम श्वांस तक हमारे हृदय की धड़कन में बसा रहता है। यह अनन्त है, आकाश की भाँति असीमित है, समुद्र की भाँति गहरा है। यह इस शरीर की समाप्ति के पश्चात भी यहाँ रहने वालों के संग बना रहता है। कॉस्मॉस बौखला उठा। प्रोफेसर चुप ही नहीं हो रहे थे।
“सर! छोटा सा प्रेम और इतनी सारी बातें!” उसके मुख से निकल गया।
विद्य हँस पड़े, “यही तो, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।”
“अब इसका अर्थ?”
“वही, प्रेम! मीरा, राधा के प्रेम के विषय में कौन नहीं जानता? वर्षों बीत गए हैं और युग बीत जायेंगे किन्तु इनका प्रेम सदा यूँ ही पूजा जाता रहेगा क्योंकि वह स्वार्थ रहित था। उसमें कुछ प्राप्त करने की इच्छा समाहित नहीं थी।”
“ओहो! मैं तो इस प्रेम में गोल-गोल घूम रहा हूँ। ये मीरा,राधा कौन हैं?”
“भारत में राम व कृष्ण जैसे महापुरुषों ने जन्म लिया जिनको आज भगवान के रूप में पूजा जाता है। कृष्ण की बात मैंने पहले बताई है न , मधुर वेणु बजाने वाले यदुवंशी कृष्ण! वही कृष्ण प्रेम के प्रतीक हैं। मीरा ने अंतर्मन से उनसे देह से परे पवित्र प्रेम किया। अपने परिवार व दुनिया की दृष्टि में चरित्रहीन कहलाईं, कृष्ण के प्रति उनके प्रेम को विगलित करने के लिए उन पर अनेकों लांछन लगे। उन्हें ज़हर तक भेजा गया जिसका उन्होंने बिना किसी हिचक के पान कर लिया किन्तु कुछ न हुआ। उनका प्रेम वैसा ही निश्छल व पवित्र बना रहा! राधा कृष्ण की बालसखी थीं, उनके प्रेम की ऊँचाई को नकारा नहीं जा सकता। रुक्मणी कृष्ण की पत्नी थीं। उनका प्रेम भी वंदनीय है, उनमें अपने पति के प्रति किसी के लिए भी ईर्ष्या प्रदर्शित नहीं होती। तात्पर्य है कि प्रेम सीमा रहित है। प्रेम का पौधा सबसे कोमल, सुन्दर व महत्वपूर्ण है जो किसी सामान्य क्यारी में नहीं, दिल की क्यारी में उगता है, फलता-फूलता है।”
“तो क्या देह का प्रेम पवित्र नहीं है?”
“नहीं ऐसा नहीं है यदि मन पवित्र है तो देह का प्रेम भी पवित्र है। कभी-कभी देह का प्रेम शरीर की आवश्यकता पूर्ण होते ही समाप्त हो जाता है। वह आकर्षण होता है जो शरीर तक सीमित रह जाता है जबकि ह्रदय का प्रेम शारीरिक संबंध न होने पर भी ह्रदय के अंतर में गहरे बसा रहता है।”
“मैंने पृथ्वी पर बहुत से लोगों से सुना है कि संसार, शरीर सब असत्य है, सत्य केवल परमात्मा है जिसके पास मृत्यु के पश्चात जाना है? इसका क्या अर्थ हुआ?”
“असत्य कुछ भी नहीं है। जिस पल में हम रहते हैं, हमारा हमारा मन व मस्तिष्क कार्य करता रहता है। वह असत्य कैसे हो सकता है?”
“यह पृथ्वी का जीवन बहुत उलझा हुआ है। हम किसी बात की तह तक पहुँच ही नहीं पाते!”
“कोई आवश्यकता भी तो नहीं है तह तक पहुँचने की, जिस पल में रहो उसे भरपूर जीओ। वास्तव में उलझनें हम स्वयं पैदा करते रहते हैं फिर किसी के भी कंधे पर रखकर बंदूक चला देते हैं। काल्पनिक भगवान को दोष देने लगते हैं।”
“काल्पनिक भगवान कैसे हैं और किसने बनाए हैं?”
“ये सब मनुष्य ने बनाए हैं”
“फिर ये प्रेम से क्यों नहीं रहते? क्यों एक- दूसरे से किसी न किसी बहाने झगड़ते रहते हैं? रक्तपात करते रहते हैं?”
“हम सब प्रकृति की संतान हैं। एक ही प्रकार से जन्मते हैं किन्तु जबसे समाज का अस्तित्व हुआ है, उसमें बँटवारे हुए। इससे मनुष्य मनुष्य से विलग हो गया और मनुष्यता के स्थान पर विभिन्न जातियों व धर्मों ने पैर पसार लिए। इससे धर्मों में, बल्कि यह कहें कि एक-एक धर्म में भी विभिन्न शाखाएं वितरित हो गईं।”
“इसकी आवश्यकता थी क्या?”
“नहीं, कोई आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य है, अच्छाई-बुराईयों का मिश्रण उसकी फितरत है कि वह केवल स्नेह व प्रेम से शांत नहीं बैठ सकता। उसके मस्तिष्क में थोड़े-थोड़े समय में कुछ न कुछ खुराफात चलती रहती हैं, फिर वह अपनी आदतों से लाचार हो जाता है और ‘अपने अहं’ की तुष्टि के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता है। पंडित वर्ग अपनी धन की गंगा में गोते लगाने की ताक में मूर्खों को और मूर्ख बनाते रहते हैं। यह नहीं किया तो यह अनर्थ हो जाएगा। वह नहीं किया तो वह अनर्थ हो जाएगा। इस धरती के वासी इतने मूर्ख बनने लगते हैं कि अपने पिता उस भीतर के ईश्वर की बात न सुनकर पंडों, महंतों, मौलवियों की बातों में आकर अपने जीवन का बहाव उनकी दिशा-निर्देश की ओर मोड़ देते हैं और अपने प्रेमिल जीवन को छोड़कर स्वार्थ व अंधविश्वासों में उतरते चले जाते हैं। क्या -क्या बताऊँ तुम्हें? यह जीवन के अनुभव की बात है।”
दूत ने देखा, कुछ और पृष्ठ नीचे आकर अन्य पृष्ठों के साथ व्यवस्थित रूप में जम गए थे।
“आपके अनुसार जीवन का क्या लक्ष्य है? उसका ध्येय क्या होना चाहिए?”
“जो सारी बातें मैंने तुमसे की हैं वे जीवन से ही संबंधित हैं मेरे दोस्त!जीवन किसी एक प्रकार की वस्तु का नाम नहीं है। सब कुछ मिलकर जीवन बनता है। उसके सभी पहलुओं को हम किस प्रकार देखते हैं, यह हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर है। तुम जान गए हो कि पृथ्वी के समस्त प्राणियों में मस्तिष्क है किन्तु केवल मनुष्य को ही उसकी उपयोगिता रूपी उपहार प्रदान किया गया है। हमारे शरीर में प्रत्येक अंग की अपनी महत्ता है। मस्तिष्क में चेतना है। जागृतावस्था में वह पूर्ण चैतन्य रूप में होता है किन्तु मस्तिष्क सुप्तावस्था में भी काम करता है। आज के मनुष्य की यही परेशानी है, वह सोचना ही नहीं चाहता, चिंतन ही नहीं करना चाहता। किसी भेड़ चाल के समान भीड़ चलती जाती है।यदि हम मस्तिष्क का सही उपयोग करें तब हम केवल गुरु से ही नहीं प्रकृति से, किसी से भी शिक्षा प्राप्त करके जीवन को व्यावहारिक रूप में सुंदरता से जी सकते हैं। कमल के फूल को देखा है कभी?”
“जी, देखा है। वही जो कीचड में रहता है?” कॉस्मॉस ने पृथ्वी की बहुत सी चीज़ों को देख लिया था।
“कीचड़ में रहकर भी वह अपने आपको ऊपर उठाकर रखता है।कितना सुन्दर,पवित्र, स्वच्छ रहता है! यह प्राकृतिक है। कितना कुछ सिखाती है हमें प्रकृति, यदि हम सीखना चाहें। इसके लिए चिंतन की, जागृति की आवश्यकता है। यह जागृति मस्तिष्क से ही आएगी न?”
“फिर इसमें कठिनाई क्या है?”
“कठिनाई यह है कि हम मस्तिष्क को कुछ अच्छा, मानव-हित में सोचने ही नहीं देते। मस्तिष्क का प्रयोग अब दूसरों की बुराई करने में, चुगली करने में, ईर्ष्या करने में होने लगा है। जब हम इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त कर लेते हैं कि हम यहाँ पर क्यों आए हैं? क्या दुखी होने के लिए? रोने के लिए? दूसरों में त्रुटियाँ निकालने के लिए? ईर्ष्या के लिए? अथवा प्रेम का प्रसाद बाँटने तथा स्वयं उस प्रसाद को ग्रहण करके उससे आनंद प्राप्त करने के लिए, तब हम सहज होकर जीवन के ध्येय को सरलता से समझ पाते हैं और एक उत्साह,आनंद व अनुराग का जीवन व्यतीत करते हैं। हम क्या कभी यह सोचते हैं कि हम पृथ्वी पर क्यों हैं? जीवन का आखिर अर्थ क्या है?”
“लेकिन यह सोचने की आवश्यकता क्यों है कि हम पृथ्वी पर क्यों हैं? हम हैं तो हैं !”कॉस्मॉस ने अपनी बुद्धि के अनुसार कहा।
“हम हैं इसीलिए हमारे इस होने का कोई ध्येय तो होना चाहिए न? कोई मकसद तो होना चाहिए न? मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न कौंधता रहा है कि क्या कभी हम सोचते हैं कि हम क्यों हैं? हमारे जीवन का अर्थ क्या है? जीवन का ध्येय क्या है?
इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर चिंतन केवल मनुष्य ही कर सकता है क्योंकि मनुष्य की चिंतन-शक्ति अद्भुत है। जैसा मैंने ऊपर कहा कि मस्तिष्क अन्य प्राणियों में भी है किन्तु वे उसका उचित उपयोग करने की क्षमता नहीं रखते। मनुष्य ने उसका उत्कृष्ट प्रयोग करके कितने नवीन आविष्कार किए। मनुष्य ने आज इस धरती पर विज्ञान की अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त करके जीवन को सुविधाएं प्राप्त कराई हैं। सोच व सही चिंतन मनुष्य को प्रगति-पथ पर ले जाती है। यही सही सोच विकास की बुलंदियों पर पहुंचती है किन्तु मनुष्य के मस्तिष्क की गलत सोच विध्वंस भी मचा देती है इसीलिए सही सोच महत्वपूर्ण है। यही सोच सही रहे, उन्नति-पथ पर अग्रसर करे, मनुष्य को एक दूसरे में विश्वास जगाए। जीवन को जीने के लिए बहुत आवश्यक है अन्यथा जैसा तुमने कहा ‘हम हैं तो हैं,नहीं हैं तो नहीं हैं।”
“तो क्या हमारे रहने, न रहने से कुछ अंतर पड़ता है?”
“जानते हो! जब मस्तिष्क शांत हो जाता है तथा अन्य अवयव चलते रहते हैं तब या तो यह माना जाता है कि मनुष्य ‘कोमा’ में चला गया अर्थात वह इतना अशक्त हो गया कि उसका जीवन केवल निष्चल शरीर तक ही सीमित रह गया और मस्तिष्क के ठीक प्रकार काम न करने की अवस्था में उसे पागल करार दे दिया जाता है। ह्रदय व मस्तिष्क के बिना मनुष्य या तो है ही नहीं अथवा अधूरा है।
“अरे बाबा! बहुत गूढ़ दर्शन है!” कॉस्मॉस चकित होकर सब सुनता रहा था।
“नहीं ,केवल जागृत होने की आवश्यकता है। यह स्मृति में रखने की आवश्यकता है कि मनुष्य जीवन अमर नहीं है, केवल अपने किए हुए कार्यों से ही वह भौतिक शरीर के न रहने पर भी अमर रहता है। जीवन का प्रत्येक पल महत्वपूर्ण है, मनुष्य गुरूर में फूला रहता है और किस पल गुब्बारे की भाँति उसकी हवा निकल जाती है, उसे पता भी नहीं चलता। इसीलिए जीवन का प्रत्येक पल बहुत महत्वपूर्ण है। जो कुछ भी घटित होता है, एक पल में ही होता है। जीवन की इस क्षण भृंगुरता को समझना अनिवार्य है। इसको समझने के पश्चात ही मनुष्य अपनी प्रत्येक साँस में मुस्कुराहट भर सकता है।”
“कॉस्मॉस! हम मनुष्य दैनिक जीवन में बहुत अचेत रहते हैं अपने मस्तिष्क को कष्ट देने की आवश्यकता ही नहीं समझते। जब हम छोटे थे तब हमें सिखाया जाता था कि उतने पाँव पसारने चाहिएं जितनी जिसकी चादर होती है।”
“ये पाँव भी सोचने के दायरे में आते हैं क्या?” कॉस्मॉस चौंककर बोला।
“समझाता हूँ,इसका अर्थ है कि मनुष्य को अपनी आवश्यकता के अनुसार ही भौतिक साज-सामान एकत्रित करना चाहिए। इसमें चाहे खान-पान हो अथवा रहन-सहन! आज मनुष्य का जीवन उपभोक्तावाद पर टिका हुआ है। जितने अधिक उपभोक्ता, उतना अधिक उत्पादन तथा उतना ही अधिक तथाकथित विकास, हमारे प्रसार-माध्यम, प्रचार-माध्यम, प्रकाशन-माध्यम सब में उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। यदि हम समाज की प्रगति के बारे में सोचते हैं तब भी उचित है, तब उत्पादन के लिए अधिक कल-कारखाने खुलेंगे, आम आदमी को काम मिलेगा। वह अपने परिवार का पालन-पोषण अच्छी प्रकार कर सकेगा। परन्तु वास्तविकता इतनी सरल नहीं है।आम आदमी भी कार्य करने के स्थान पर उपभोग में अधिक रूचि लेता है। आज उपभोग की वस्तुएं खरीदने के लिए ‘क्रेडिट-कार्ड्स’हैं, सरकारी,गैर-सरकारी कंपनियाँ तथा तथा बैंक आदि ऋण देने के लिए तत्पर रहते हैं लेकिन संस्कार! इस सबमें मनुष्य के संस्कार खो जाते हैं।”
“प्रोफेसर! मेरा तो सिर चक्कर काट रहा है। ये संस्कार? मुझे आपकी बातें बिलकुल समझ में नहींआ रहीं। इन सब बातों का जीवन से क्या संबंध है?”
———-क्रमशः ———
– डॉ. प्रणव भारती