धारावाहिक
गवाक्ष -17
प्रोफेसर के मुख-मंडल पर मुस्कुराहट तैर गई। वे उस ‘बेचारे से कॉस्मॉस’ के मन में झाँकने लगे थे, उसकी सारी भावना का ज्ञान हो रहा था उन्हें। ‘क्या करे यह बेचारा,अपने कर्तव्य का मारा !’ उन्होंने भी मन ही मन सोचा।
“सर! मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना है।” उसने सहमते हुए कहा। जहाँ कहीं भी जाता था, यही तो कहता था फिर बैरंग चैक सा वापिस लौट जाता था।
“मेरे कर्तव्य में विध्न डालकर?” उन्होंने सहज भाव से पूछा।
कॉस्मॉस शर्मिंदा था, उसे ज्ञात था कि वह एक विद्वान के महत्वपूर्ण कार्य में विघ्न बन रहा है।
वह जहाँ जाता था वहाँ यही संवाद उसके मुख से निकलते थे। ‘सर! मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना है’ क्या करता? इस पृथ्वी के प्यारे लोगों ने उसे इतना अभिभूत कर दिया था कि वह अपना ‘कॉस्मॉस’ होना कभी-कभी भूलने लगता था।
“मैं आपसे तथा आपकी विद्वता से भली-भाँति परिचित हूँ “दूत अभी तक खड़ा था तथा विनम्रता से प्रोफेसर के प्रश्नों का उत्तर दे रहा था।
“सर! आप महान दार्शनिक हैं,ज्ञानी हैं, जीवन की वास्तविकता समझते हैं। मेरे कार्य की महत्ता को भी समझते हैं, आपसे क्या छिपा है?” कॉस्मॉस विनम्र बना रहा।
“यह तुम्हारी शालीनता है किन्तु जितना मैं मृत्युदूत के बारे में जानता, समझता हूँ उसमें शालीनता की संवेदना का होना कुछ अद्भुत नहीं है?” प्रोफेसर एक समर्थ विचारक थे, दूत के आचरण ने उन्हें यह समझने के लिए बाध्य किया कि वह मृत्युदूत है भी अथवा नहीं?
“सबसे पहले तुम मेरे पृष्ठ उतारो और यह बताओ तुम मेरे कक्ष में एक छोटे बालक बनकर क्यों प्रविष्ट हुए थे? क्या तुम्हें लगा कि मैं मृत्यु का नाम सुनकर भयभीत हो जाऊंगा?”
“मैं आपके कार्य में विघ्न नहीं बनना चाहता था किन्तु क्या करूँ?” उसने अपनी वह सारी गाथा प्रोफ़ेसर के सम्मुख रख दी जो अन्य सबको बताई थी।
“लेकिन बालक बनकर क्यों?”
“क्योंकि बच्चे को कोई आसानी से डाँटता नहीं न!” उसने इतने भोलेपन से कहा कि प्रोफेसर मुस्कुरा पड़े।
“तुम भी पृथ्वी से राजनीति सीख गए हो”सोचकर वे हँसे।
“अच्छा! अब पहले मेरे लिखे हुए पृष्ठ उतारो फिर आगे बात करो।”
कॉस्मॉस ने आगे बढ़कर अपने हाथ का यंत्र प्रोफेसर की मेज़ पर स्थित कर दिया और पृष्ठ उतारने के प्रयास में आगे बढ़ा ।
“यह तो समय-यंत्र है!” प्रोफेसर ने कहा। मेज़ पर स्थित होते ही उसकी रेती नीचे की ओर आनी प्रारंभ हो गई थी।
“जी” और उसने यंत्र के बारे में बताया तथा पुस्तक के लिए लिखे गए पृष्ठ ऊपर से उतारने का प्रयास करने लगा।
कमाल था! जितनी आसानी से पृष्ठ ऊपर चले गए थे, उतनी ही कठिनाई अब कॉस्मॉस को उनको नीचे उतारने में हो रही थी। ऊपर -नीचे उछलते-कूदते उसकी साँसें धौंकनी की भाँति चलने लगीं थीं। प्रोफ़ेसर कॉस्मॉस की उछल-कूद देख रहे थे और मन ही मन मुस्कुरा रहे थे।
बहुत देर तक जूझने के पश्चात अपने चेहरे को प्रश्न-चिन्ह बनाकर वह नतमस्तक हो प्रोफ़ेसर के सम्मुख खड़ा था। यंत्र की रेती अपना कार्य समाप्त कर चुकी थी, वह पुन: शून्य पर था।
“लो, पहले बैठकर पानी पीओ ” प्रो.श्रेष्ठी ने उसे अपने पास कुर्सी पर बैठाया और जग से पानी लेकर उसे पिलाया।
कॉस्मॉस ऐसे गटककर पानी पी गया जैसे जन्मों का प्यासा हो। उसकी साँसें अब भी बहुत तीव्रता से चल रही थीं। पानी पीकर कॉस्मॉस ने एक तृप्ति का अनुभव किया।
“यह क्या? मुझे तो न भूख लगती थी न ही प्यास!”
“अब लगेगी” प्रोफेसर ने मुस्कुराकर कहा।
“क्यों?”
“क्योंकि अब तुम्हारे शरीर में संवेदनाएं प्रविष्ट हो गई हैं।”
“मैं आपके पृष्ठ भी नहीं उतार सका” वह शर्मिंदगी से बोला।
“क्या इसका कारण जानते हो?”
“जी नहीं”
“क्योंकि तुम्हारा ज्ञान अधूरा है! यदि हम किसी वस्तु अथवा व्यक्ति का आकार नष्ट करते हैं और पुन: उसे वही आकार नहीं दे सकते तो उसको नष्ट करने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए।”
“प्रोफेसर! मैं ये सब कैसे जान सकता हूँ। मैं तो एक कॉस्मॉस हूँ, अपने स्वामी यमदूत का एक अदना सा दूत !”
“तुम्हारा दोष नहीं है, मैं जानता हूँ किन्तु मुझे यही चेतना तो सबमें उद्दीप्त करनी है। हम केवल अधिकार की बात करते हैं, कर्तव्य करने में आनाकानी करते हैं,क्यों?”
“आप भी नहीं चलेंगे तो इस बार मुझे और भी कठोर दंड का भागी बनना होगा… इस बार तो मेरा भाग्य..” उसने अपना चेहरा लटका लिया।
“अरे! भाग्यवादी बन गए! कैसे?” प्रोफेसर हँस पड़े।
“इस पृथ्वी ने बहुत सी बातें सिखाईं प्रोफ़ेसर,अब मुझे इसमें रूचि उत्पन्न हो गई है। जो होगा देखा जाएगा, भयभीत होकर भी क्या करना! आप कृपया मुझे अपनी इस पुस्तक के बारे में बताइये, यह आपके लिए महत्वपूर्ण क्यों है?” सहसा कॉस्मॉस में जैसे किसी नवीन शक्ति का संचार होने लगा। क्या वह ज्ञानी का प्रभाव था?
“इसमें मेरे जीवन का समस्त अर्जित ज्ञान है, वह ज्ञान जो मैंने दूसरों से भी प्राप्त किया है, स्वयं भी चिंतन किया है। वह मैं केवल अपने पास रखकर कैसे जा सकता हूँ? एक अध्यापक होने के नाते मैं इस ज्ञान को समाज में बाँटकर जाना चाहता हूँ।”
कॉस्मॉस ज्ञान के पृष्ठ नीचे न उतार पाने के कारण उदास था,प्रोफेसर खुलकर हँस पड़े;
“मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ, तुमने मेरी हँसी लौटा दी। मैं तो इस गंभीरता से लेखन में डूब गया था कि हँसना भी भूलता जा रहा था जो जीवन की विशेष आवश्यकता में से एक है।आज बहुत समय पश्चात तुम्हारे साथ हँसा हूँ।”
“लेकिन तुम क्यों उदास हो गए हो?” उन्होंने कॉस्मॉस के लटके हुए चेहरे को देखकर पूछा।
अपने अधकचरे ज्ञान के कारण! बिलकुल ठीक कहा आपने! मुझे किसी का आकार बदलने का कोई अधिकार नहीं यदि मैं अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं कर सकता।”
“उदासी तब आती है जब हम अपनी समस्या से जूझने का जोश खोने लगते हैं। जिस जोश से तुमने इन्हें ऊपर उठाया था यदि वही जोश बनाए रखते तब संभवत: ये नीचे आ भी सकते थे किन्तु तुमने अपना जोश ही खो दिया।”
“आप भी तो उन्हें नहीं उतार पाए, क्या आपका ज्ञान भी संपूर्ण नही है?”
“मैंने कभी दावा नहीं किया मेरा ज्ञान संपूर्ण है। ज्ञान हर पल से प्राप्त होता है, हर पल हमें कुछ नई शिक्षा देता है। हमारा कर्तव्य प्रयास करना है, उससे विमुख होना नहीं है। ‘चरैवेति चरैवेति’ हर पल चलना ही जीवन है,ठहर जाना यानि समाप्ति! पूरे जीवन की सार्थकता विद्यार्थी बने रहने में है।” कुछ रूककर वे पुन: बोल उठे;
“हम जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह विद्यार्थी बनकर और जो वितरित करते हैं, वह गुरु बनकर। इस प्रकार पूरे जीवन हम विद्यार्थी व गुरु दोनों ही बने रहते हैं। तुमने मुझे मंत्री जी के बारे में बताया। हाँ,मैं उनका गुरु था लेकिन कुछ बातें जो मैंने उनसे सीखी हैं, उनमें वे मेरे गुरु थे। मैं जानता हूँ वे विनम्रतावश इस बात को स्वीकारते नहीं हैं किन्तु सत्य तो यही है। ज्ञान प्राप्ति में छोटा-बड़ा,शिक्षित-अशिक्षित,जाति -पाँति कुछ नहीं होता केवल गुरु व शिष्य होते हैं, हम छोटे बच्चों से भी बहुत कुछ सीखते हैं।” कॉस्मॉस के ह्रदय में ज्ञानअर्जित करने की तरंगें प्रसृत होने लगीं।
“मुझे भी तो कुछ ज्ञान बाँटिए!” कॉस्मॉस ने कहा तो प्रोफेसर फिर मुस्कुराए।
“ज्ञान हाथ पर रखकर दिया जाने वाला प्रसाद नहीं है, यह अर्जित किया जाता है। मैंने जो कुछ भी चिंतन किया है, उसके बारे में तुमसे अवश्य चर्चा करूंगा। आज स्थिति यह है कि कोई किसी की बात समझना व स्वीकारना नहीं चाहता क्योंकि आज बड़े ‘आई’ व छोटे ‘आई’ में होड़ लगी रहती है। सभी बड़ा बनना चाहते हैं, छोटा कोई नहीं। इसीलिए सब गुरु बनना चाहते हैं ,शिष्य की विनम्रता कोई नहीं रखना चाहता, इसीलिए ज्ञान प्राप्त नहीं होता।”
कॉस्मॉस के मन को सत्यनिधि की मधुर स्मृति नहला गई। कितना कुछ प्राप्त किया था उस नृत्यांगना से जो उसकी ‘निधि बन गया था। निधि ने भी तो यही कहा था,
‘सीखने के लिए शिष्य का विनम्र होना आवश्यक है, वही शिष्य सही अर्थों में कुछ सीख सकता है जो अपने गुरु को सम्मान देता है अर्थात विनम्र होता है।’
दूत ज्ञानी प्रोफ़ेसर के समक्ष विनम्रता से सिर झुकाए बैठा था।
“यह छोटा आई और बड़ा आई क्या है?” उसने पूछा।
“ये जीव के भीतर का ‘अहं’है जो उससे छूटना ही नहीं चाहता, मनुष्य सदा स्वयं को बड़ा तथा महान दिखाने की चेष्टा करता है। उसे झुकना पसंद नहीं। अपने सामने देखते हुए भी वह इस बात को नहीं स्वीकार चाहता कि वृक्ष वो ही झुकते हैं जो फलों से लदे रहते हैं। फलों से विहीन वृक्ष सीधे खड़े रहते हैं। इसी प्रकार से ज्ञानी मनुष्य अहंकार से दूर रहकर सबके समक्ष अपना शीश नवा सकता है परन्तु अहंकारी मनुष्य एक कठोर वृक्ष अथवा डंडे के समान सीधा खड़ा रहता है।”
प्रोफेसर को अच्छा लगा कि मृत्युदूत के भीतर ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा है,वह उनसे कुछ जानने की आशा कर रहा है अर्थात वह उन पर विश्वास कर रहा है। जिस प्रकार प्रत्येक बात के पीछे कारण होता है, किसी पर विश्वास भी बिना कारण नहीं किया जाता।
“यह जीव क्या है?” कॉस्मॉस ने पुन: पूछा।
प्रोफ़ेसर के मुख से जैसे सरस्वती बहने लगीं..
“जीव का अर्थ है प्राण अर्थात जीवित मनुष्य, जिसे ले जाने का कर्तव्य तुम्हें सौंपा गया है। वास्तव में जीवन प्राण के रूप में वह सुन्दर उपहार है जिसका उपयोग अर्थपूर्ण तथा सुन्दर कारणों के लिए किया जाना चाहिए। जब जीव का जीवन सबके लिए उपयोगी तथा कल्याणकारी होता है तब ही यह महत्वपूर्ण है।”
दूत ज्ञानी प्रोफ़ेसर के मुख से निकले हुए शब्दों का अर्थ समझने का प्रयास कर ही रहा था कि वे अपने गहन विचारों में डूबने लगे;
“यह जो जीवन है जिसके लिए इतने पापड़ बेले जाते हैं, जिसमें अहं के वृक्ष रोपकर उन्हें सींचा जाता है,एक-दूसरे से ईर्ष्यावश न जाने कितने अमर्यादित कार्य किये जाते हैं , वह वास्तव में प्रेम है,प्रकाश है,विनम्रता है,सौंदर्य है,जागृति है,सेवा है,करुणा है, भजन है,वंदन है और इन सबकी स्वीकृति है। यही सब तो जीव के जीवन का जुड़ाव है। यही साँस है,आस है, विश्वास है..वास्तव में जीवन को जान लेना ही चेतना है, ज्ञान है…”
प्रोफ़ेसर मानो अपना कोई अध्याय लिखने बैठे थे।
“लेकिन जीवन है क्या? यह समझ में कैसे आता है?” कॉस्मॉस का प्रश्न था।
“जब इस बात का ज्ञान हो जाता है कि हम अपना अंतिम ग्रास खाए बिना इस जीवन से नहीं जा सकते तब वास्तव में हम जीवन को समझ लेते हैं। जब हम जीवन के प्रत्येक पल को महत्वपूर्ण इकाई मानकर व्यवहार करते हैं, हम जीवन को समझने लगते हैं। लेकिन यह सत्य है कि जीवन एक संघर्ष भी है, स्वयं को जानने,समझने का संघर्ष!जिसमें प्राणी पूरी उम्र उछलता-कूदता रहता है किन्तु उसे कुछ प्राप्त नहीं होता!”
मृत्युदूत, कॉस्मॉस बेचारा प्रेम, ममता, प्रकाश, विश्वास के मकड़जाल में फँसने लगा था। यह क्या घुचपुच था प्रेम, स्नेह से छलांग लगाकर ज्ञानी प्रोफेसर संघर्ष पर पहुँच गए थे।
———————– क्रमशः ——————–
– डॉ. प्रणव भारती