धारावाहिक
गवाक्ष – 12
वह जीवन-दर्शन के प्रति समर्पित थी । जिस विश्वविद्यालय के कॉलेज में वह शिक्षा ग्रहण कर रही थी उसके दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष से वह बहुत प्रभावित थी।कई बार उसने उनका व्याख्यान सुना था और उसके मन में एम.ए पूर्ण करके पी. एचडी उनके हस्ताक्षर से करने का सपना पलना शुरू हो गया था । उसे रातों को नींद न आती और आती भी तो वह अपने समक्ष प्रो.श्रेष्ठी को व्याख्यान देते हुए पाती। एम.ए करने के लिए जब उसने विश्विद्यालय में प्रवेश लिया तब वह नहीं जानती थी कि प्रो.श्रेष्ठी का विभाग उसकी कक्षा के ठीक सामने ही था। समय मिलने पर वह प्रो. को उनकी कक्षा लेते हुए देखती और बाहर से कभी कभी उनका व्याख्यान भी सुनती। उसे उनका व्याख्यान देने का तरीका इतना सहज व शब्दों का चयन इतना प्रभावित करता कि उसका आगे शिक्षा प्राप्त करने का विचार और भी सुदृढ़ हो गया।
दस वर्ष बड़ा भाई! वह भी कब तक अपनी गृहस्थी केवल सपनों में बसा सकता था ? जीवन की वास्तविकताएं एवं व्यवहारिकताएं सतही होती हैं तथा सपनों के पंखों की उड़ान आकाशी। सत्यनिष्ठ चाहता था कि वह पहले बहन का विवाह कर दे उसके पश्चात अपनी गृहस्थी के बारे में सोचे।
“”भाई! मैं दर्शन में आगे काम करना चाहती हूँ,डॉ.श्रेष्ठी के हस्ताक्षर से पी.एचडी करना चाहती हूँ।”
“यह तो तू विवाह के बाद भी कर सकती है –”
“भाई! किसने देखा है —” वह मुस्कुराकर बोली थी; अचानक उसने चुटकी बजाई ;
“भाई! आप क्यों नहीं कर लेते पहले शादी? मेरी बाद में हो जाएगी, मैं मना नहीं कर रही हूँ केवल आगे पढ़ना चाहती हूँ।”
भाई की अंतरंगता अपनी एक सहकर्मी के साथ थी परन्तु उसने अभी तक बहन को उस बारे में कुछ भी नहीं बताया था। माँ होतीं तो और बात थी, बहन का पूरा उत्तरदायित्व उस पर था और वह उसे पूरे मन व सम्मान से पूरा करना चाहता था। “ज़िंदगी का फ़लसफ़ा भी अजीब है जब दाँत होते हैं तो खाना नहीं होता और जब खाना सामने हो और दाँत गायब हो जाएं तो खाने वाला ललचाता रह जाता है।” न जाने किन संवेदनशील क्षणों में सत्यनिष्ठ ने अपनी सहकर्मी प्रेमिका के समक्ष उगल दिया, वह भड़क उठी —
“कम से तुमसे इस व्यवहार की अपेक्षा नहीं करती। बहन है वह तुम्हारी ,उसने तुम्हें कब परोसे व्यंजन चखने से रोका है, वैसे भी प्रेम व्यंजन नहीं है जिसे चखा, डकार ली और बस! प्रेम साहचर्य है,बलिदान है, प्रेम अर्थों से सराबोर है, उत्तरदायित्व का अहसास है, जीवन की आस,विश्वास है, कोई वृत्त नहीं है प्रेम जिसके भीतर घूमना और थककर चूर हो जाना मनुष्य की नियति हो। प्रेम वह आकाश है जिसकी कोई सीमा नहीं और तुम? किसी के साथ प्रेम यानि उससे जुड़ी तमाम वस्तुओं,व्यक्तियों से,अच्छाईयों-बुराइयों से प्रेम होना है। मुहर नहीं है प्रेम, ठप्पा लगा दिया और बस —? गलती तुम्हारी है कम से कम अपने रिश्ते के बारे में उससे बात तो करते। तुममें ही साहस नहीं है,कमज़ोर हो तुम।” स्वरा उससे बहुत बहुत रुष्ट थी।
” क्या बात करती हो? दस वर्ष छोटी है वह मुझसे! उसके प्रति संवेदना की बात है,मैं उसके भविष्य के लिए चिंतित हूँ और कुछ नहीं। माँ-पापा होते तो और बात थी —“, उसने गंभीर स्वर में स्वरा से कहा। सत्यविद्य बौखला गया था, उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि स्वरा उसे शब्दों के इतने कोड़े मार देगी।
“नहीं हैं न ?अब समस्याएँ तुम्हें सुलटानी हैं ,वो तो नहीं आएँगे न?”
” स्वरा! मेरी बहन मेरे लिए समस्या नहीं है,मेरा गुरूर है वह” उसे भी दुःख था, न जाने कैसे उसके मुख से ऎसी बात निकल गई थी। हो जाता है कभी कभी, न चाहते हुए भी कुछ ऎसी कच्ची बात निकल जाती है कि बाद में पछतावा होता है।
“चमड़े की ज़बान है,कभी फिसल भी सकती है।” माँ कहा करती थीं ,सत्यनिष्ठ को सहसा माँ की स्मृति हो आई।
“तो उसे सुधार लेना चाहिए, और उस गुरूर को संभालकर रखो ,मुसीबत मत समझो उसे। “स्वरा का स्वर गंभीर था।
स्वरा बंगाल की निवासी थी और बंबई में कार्यरत थी। सत्यनिष्ठ के संस्कार व व्यवहारों के प्रति आकर्षित हो वह उससे प्रेम करने लगी थी। संगीत की सुरीली धुन सी स्वरा के कंठ में लोच ,स्निग्धता व ईमानदारी थी। वह सत्यनिष्ठ के संवेदनशील व पारदर्शी व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित हुई थी।
स्वरा के मन की क्यारी में संदल महक रहा था, यह महक उसे व सत्यनिष्ठ को ऐसे भिगो रही थी जैसे कोई उड़ता कबूतर ऊपर से बरसात के सुगंध भरे पानी में भीगकर अपने पँख फड़फड़ाता निकल जाए और पता भी न चले कि कब? कैसे? मन भीग उठा। वह सुसंस्कृत युवती थी,अपने कर्तव्यों व प्रेम के मध्य संतुलन करने की पक्षधर!
“सत्यनिष्ठ! यदि तुम मेरे साथ अपने रिश्ते के प्रति गंभीर हो तो अपनी बहन से इस बारे में चर्चा क्यों नहीं करते?”
वह कई बार कह चुकी थी परन्तु न जाने सत्यनिष्ठ क्यों किसी संकोच में डूबा रहता। दिल की गहरी संवेदनाओं से बहन को स्नेह,प्रेम व ममता करने वाले सत्यनिष्ठ के मुख से उपरोक्त बात सुनकर स्वरा को अच्छा नहीं लगा था। जानती थी यदि वह सत्यनिष्ठ से विवाह करती है तो अक्षरा उसका उत्तरदायित्व होगी जिसके लिए वह मन से तैयार थी। परन्तु अपना विवाह करने के लिए बहन पर उसकी अनिच्छा देखकर भी स्वयं से पूर्व विवाह करने का दबाव डाला जाए,उसकी बुद्धि से परे था।
“सबकीअपनी ज़िंदगी है, उसे वह दूसरों के अनुसार क्यों चलाए? ज़िंदगी बार-बार नहीं मिलती। सत्याक्षरा कोई इतनी छोटी नहीं है कि रिश्ते की नज़ाकत समझ न सके।”
स्वरा रिश्ते को त्रिशंकु की भाँति लटकाने की पक्षधर नहीं थी,जो भी निर्णय लेना हो ले लिया जाए।अभी तक सत्यनिष्ठ ने उसे घर पर निमंत्रित तक नहीं किया था। एक दिन स्वरा बिना किसी पूर्व सूचना के रविवार को सत्यनिष्ठ के घर जा पहुंची और अक्षरा तथा वहाँ उपस्थित उसकी अंतरंग मित्र शुभ्रा पर भाई के प्रेम-प्रसंग की बात खुल गई।
बंबई में सत्याक्षरा को घर के पास ही रहने वाली एक अच्छी मित्र मिल गई थी शुभ्रा! पास ही रहती थी। वह बी.ए के पश्चात एक गैरसरकारी दफ़्तर में काम कर रही थी। वे दोनों छुट्टी का दिन अधिकांशत:साथ ही व्यतीत करतीं। शुभ्रा का विवाह निश्चित कर दिया गया था जिससे सत्यनिष्ठ बहन के विवाह के प्रति और अधिक संवेदनशील हो रहा था।
“यह क्या बात हुई भाई! आप मेरी शादी की प्रतीक्षा में अपने विवाह को क्यों टाल रहे हैं? क्या आप नहीं चाहते कि आपकी बहन को घर में एक अच्छी मार्ग-दर्शिका मिले? प्रथम मिलन में ही अक्षरा व स्वरा दोनों रेशम की नाज़ुक सी संबंध की डोर से बंध गई थी।
“भाई, बस इस रविवार को आपका और स्वरा भाभी का गठबंधन! क्यों शुभ्रा?”
” बिलकुल ठीक अक्षरा! हम दोनों मिलकर एक सप्ताह में पूरी तैयारियाँ कर लेंगे। “शुभ्रा खिलखिलाई।
“लेकिन –इस प्रकार?” सत्यनिष्ठ को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस प्रकार प्रतिक्रिया दे।
“हाँ,भाई या तो इसी प्रकार या किसी प्रकार नहीं! कमाल है, आपने मुझे इस योग्य ही नहीं समझा कि मुझसे अपने मन की बात साँझा तो कर सकें।” बहन का मुँह भी फूलकर कुप्पा हो गया था। उसने चुप्पी लगाना ही ठीक समझा। यह सत्य था कि बहन के अतिरिक्त घर में किसी और का न होना खलता तो था ही!
दोनों सखियों ने स्वरा को अपनी ओर मिला लिया था और उसकी ही गाड़ी में जाकर उसकी ही पसंद की आवश्यक वस्तुएं व वस्त्र और आभूषण खरीद लिए गए थे।
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बिना किसी टीमटाम के कुछ मित्रों एवं स्वरा के माता-पिता की उपस्थिति में विवाह की औपचारिकता कर दी गई। स्वरा के माता-पिता कलकत्ता से विशेष रूप से बेटी व दामाद को शुभाशीष देने के लिए बंबई आए थे। जीवन की गाड़ी सुचारू रूप से प्रेम,स्नेह, आनंद व आश्वासन के पहियों पर चलनी प्रारंभ हो गई। कुछ दिनों के पश्चात शुभ्रा का विवाह भी हो गया, वह अपने पति के पास चली गई। दोनों सखियाँ बिछुड़ गईं किन्तु उनका एक-दूसरे से संबंध लगातार बना रहा।
दर्शन-शास्त्र में एम. ए करते हुए सत्याक्षरा ने अपना जीवन पूर्ण रूप से अपने भविष्य के सुपुर्द कर दिया। दर्शन अर्थात जीवन के आवागमन के रहस्य के बारे में जानने की उत्सुकता अक्षरा की रगों में बालपन से रक्त की भाँति प्रवाहित होती रही थी। जीवन की लुका -छिपी को जानने-समझने का वह कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाहती थी। उसे भली -भाँति स्मरण है जब माँ व पिता जी बहुधा जीवन की क्षण-भृंगुरता के बारे में चर्चा करते हुए कहते ;
“जीवन का आना और जाना आज तक कोई नहीं समझ पाया। कितने योगी-मुनियों ने इस रहस्य को जानने, समझने में अपने जीवन की आहुति दी होगी लेकिन इसका परिणाम केवल यह रहा कि जीवन जन्मता है तथा अपना समय पूर्ण होते ही विदा ले लेता है। कहाँ ?कैसे? क्यों कर? सब रहस्य के आलिंगन में ऐसे समाए रहते है जैसे कोई नववधू अपने घूँघट में समाई रहती है। यह रहस्य का घूँघट कभी नहीं खुलता।“
“हाँ, वधू तो कुछ समय पश्चात सबके समक्ष अपना आँचल हटा देती है परन्तु जीवन के रहस्य की वधू पूरी उम्र सबको एक भ्रम में लपेटे रखती है।”माँ मुस्कुराकर कहतीं।
अक्षरा को माँ,पापा के मध्य होने वाली इस प्रकार की चर्चा में बहुत आनंद आता था।अट्ठारह वर्ष की उम्र होते होते अक्षरा पर स्वामी विवेकानंद जी के विचारों का बहुत गहन प्रभाव पड़ चुका था।
“यह इसकी उम्र थोड़े ही है विवेकानंद को पढ़ने की!” माँ कहतीं।
” क्यों, विवेकानंद युवाओं के साहस थे। हमें गर्व होना चाहिए हमारे दोनों बच्चों में जागृति है, तुम भी जानती हो जीवन के संतुलन के लिए यह आवश्यक है।” पिता बच्चों का पक्ष लेते और बात समाप्त हो जाती।
वास्तव में तो माँ भी अपने बच्चों के आचार -विचार से बहुत प्रसन्न थीं, वह तो कभी-कभी यूँ ही पति-पत्नी में छेड़छाड़ चलती रहती थी।
एम.ए में अक्षरा ने अपने विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया और अचानक ही वह डॉ.श्रेष्ठी तथा पूरे विश्वविद्यालय की दृष्टि में आ गई। शहर के प्रत्येक दैनिक समाचार पत्र ने उसकी प्रशंसा के पुल बाँध दिए थे। कई बड़े पत्र-पत्रिकाओं में उसका साक्षात्कार प्रकाशित हुआ और वह भाई व भाभी की आँखों का तारा बन गई। स्नेह तो वह पहले भी प्राप्त करती रही थी परन्तु समाचार पत्रों की सुर्ख़ियों ने उसे पूरे भारत में एक ऐसे स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया जिससे वह सभी के गर्व व चर्चा का विषय बन गई। इस बार लगभग सात वर्ष पश्चात कोई विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक लेकर इस स्थान पर प्रतिष्ठित हुआ था।
“बस भाभी –अब इतनी प्रशंसा के पुल मत बांधिए कि मैं उड़ने ही लगूँ।”
स्वरा उसे बहुत लाड़ लड़ाती थी और प्रयास करती थी कि उसकी सभी सुविधाओं का ध्यान रख सके। वह उसे इतना स्नेह,ममता व प्यार देती कि अक्षरा को माँ की स्मृति हो आती। स्वरा अक्षरा के अध्ययन के पक्ष में थी तो भाई विवाह की चिंता में घुलता रहता।
“बहुत से अच्छे रिश्ते आए हैं, अवसर का लाभ उठा लेना चाहिए,तुम ही समझाओ न इसे ,तुम्हारा अधिक कहना मानती है ।तुम्हारे बंगला समाज के बारे में तो मैं अधिक नहीं जानता परन्तु उत्तर भारतीय तो बेटियों के विवाह में एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगाता है —- ”
“हाँ,ठीक कह रहे हो सत्य!अक्षरा को अपनी इस सफलता के अवसर का लाभ लेना ही चाहिए,समय बड़ा बलवान होता है, किसी के लिए प्रतीक्षा नहीं करता!” स्वरा मुस्कुराकर बोली।
सत्य को लगा पत्नी से इस विषय पर चर्चा करना व्यर्थ ही है, उसने सीधा बहन से पूछा।
“अब तो सोच सकते हैं न बेटा तेरे रिश्ते के बारे में? ”
“नहीं भाई,अब तो बिलकुल नहीं! भाभी से मेरी बात हो चुकी है।अगर मैं अपने प्रयत्न में असफल हो जाती तब तो सोच भी सकती थी परन्तु अब तो डॉ.श्रेष्ठी के साथ पी. एचडी करनी ही होगी। क्यों भाभी?” दोनों की खिलखिलाहट ने वातावरण में प्रसन्नता और जोश भर दिया था।
“यह तो मुझसे अन्याय हो रहा है! अब तो तुम दोनों मुझसे अपनी योजनाएं भी साँझा नहीं करतीं,क्यों?” सत्यनिष्ठ ने शिकायत परोसी।
“इस प्रकार अंकुश में रखना कहाँ की संगत बात है? हर बात के पीछे कुछ कारण तो होता ही है,तुम जानते हो! बस उन पीछे के कारणों में झाँक लो, अपने आप पता चल जाएगा।” स्वरा ने मुस्कुराकर अक्षरा का पक्ष लिया।
स्वरा मानती थी कि प्रत्येक मनुष्य का सर्वप्रथम उसके जीवन पर स्वयं उसका अधिकार होता है।अक्षरा की चतुराई,बुद्धि,समझदारी,स्नेह सबको वह बहुत भली प्रकार समझने लगी थी और उसकी इच्छा थी कि उसकी छोटी बहन जैसी भगिनीवत ननद अपने जीवन को बिना किसी बोझ के जिए। अक्षरा को उसके परिश्रम का परिणाम इस बड़ी सफलता के रूप में प्राप्त हुआ था, स्वरा हर पल अक्षरा के साथ थी, प्रगति-पथ पर उसे अग्रसर देखने की इच्छुक!
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– डॉ. प्रणव भारती