धारावाहिक
गवाक्ष – 10
“यह ‘समय-यंत्र’ है।”अपने हाथ में पकडे हुए काँच के उस यंत्र को दिखाते हुए उसने कहा। जिस क्षण इसे स्थापित किया जाएगा उसी क्षण से इसकी रेती नीचे आनी प्रारंभ होगी ,जब तक रेती नीचे आएगी केवल इतना ही समय तुम्हारा है, इसके पश्चात तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।” दूत ने उस डमरू जैसे यन्त्र को उसकी आँखों के समक्ष हिलाते हुए कहा।
अक्षरा की बुद्धि से परे था यह सब कुछ! सब उसे एक सपना या तमाशा लग रहा था परन्तु यह समय क्या कोई तमाशे का था? प्रसव-पीड़ा के इस दुरूह समय में जब स्त्री जीवन को जन्म देने के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की कगार पर होती है, उस समय यह तमाशा!
“मैं इसे स्थापित करता हूँ।” कहकर वह मेज़ की ओर बढ़ा और उसने समय-यंत्र को स्थापित कर दिया। प्रसव-पीड़ा के कारण पसीने से लथपथ सत्याक्षरा घबराहट से भर उठी।
“तुम यह सब क्या और क्यों कर रहे हो, मैं नहीं जानती। केवल इतना जानती हूँ मैं तुम्हारे साथ कहीं नहीं जा सकती। यहाँ मैं अपने शिशु की प्रतीक्षा कर रही हूँ, तुम्हारी अर्थहीन बातें सुनने का मेरा कोई मन नहीं है।” वह झुंझलाने लगी। न जाने कहाँ से यह अज्ञात आकर उसे सताने लगा था, वह भी उस समय जब उसे करुणा व सहानुभूति की आवश्यकता थी।
“मैं तुम्हारी स्थिति समझता हूँ, तुम भी तो समझो न! मैं एक अदना सा दूत हूँ ,मुझे प्रेषित किया गया है तुम्हें लाने के लिए, मैं कैसे अपने स्वामी की अवहेलना कर सकता हूँ?”
“क्या मैं तुम्हें मृत्यु-दूत कहूँ? किस देश से आए हो? ” पीड़ा से कराहते हुए उसके मुख से अस्फुट शब्द निकले।
” हाँ,कह सकती हो—देश?हाँ, गवाक्ष! वह तुम्हारी पृथ्वी सा नहीं है परन्तु तुम्हारी इस पृथ्वी ,यहाँ तक कि समस्त विश्व के प्राणियों के वापिस लौटने का संचालन वहीं से होता है।” उसने गर्व से उत्तर दिया। यंत्र में से धीमे-धीमे रेती नीचे की ओर आनी प्रारंभ हो गई थी ।
‘यह मृत्यु-दूत कैसे हो सकता है?और गवाक्ष? यह उस स्थान का नाम है जहाँ से यह आया है? ‘गर्भवती के मस्तिष्क पर चिंता की लकीरें खिंच आईं। दूत कहीं से भी पैशाचिक नहीं था, बिलकुल आम ,साधारण आदमी की भाँति उसके समक्ष मुस्कुराता हुआ खड़ा था। स्तब्ध थी वह! वह एक जीव को जन्म देने वाली थी और यह उसे ले जाने की बात कर रहा है! यह कैसा अन्याय! और वह जाएगी ही क्यों? बच्चे को जन्म देकर अभी उसे कितने काम करने हैं। उसकी कराहटें समुद्र की लहरों की भाँति ऊपर-नीचे हो रही थीं। कभी वह पीड़ा के उफान से कराहती तो कभी शांत लहरों की भाँति शिथिल हो जाती। पहले मृत्युदूत को देखकर उसने कँपन महसूस किया था, बाद में गर्भ की पीड़ा ने उसे निडर बना दिया, आखिर वह माँ बनने वाली थी।
“गवाक्ष ! कैसा नाम है? इसका अर्थ जानते हो?”
“क्यों नहीं? गवाक्ष —अर्थात जहाँ से सबकी साँसें चलती हैं। तुम्हारी भाषा में कहूँ तो ‘वेंटिलेटर’या फिर रोशनदान! यह तो समझती हो न! मनुष्य किसी अन्धकार भरे संकरे स्थान में बंद हो तब वह साँस लेने के लिए एक रोशनदान की तलाश करता है, उसकी जब साँसे अटकती हैं तब मनुष्य को ‘वेंटिलेटर’ के सहारे जीवित रखा जाता है।”
“यानि हम सबकी साँसों का लेख-जोखा तुम्हारे ‘गवाक्ष’में है?”
“बिलकुल, और यह सब सुनिश्चित है। दूत आगे बोला –
“क्या तुम यह जानती हो जब इस पृथ्वी पर किसी प्राणी का समय समाप्त हो जाता है तब उसे गवाक्ष में जाना पड़ता है। जहाँ किसी का समय समाप्त हुआ वहीं प्राणी को सूत्रधार का आमंत्रण आया।”
“मैं नहीं जानती गवाक्ष क्या है? इतना जानती हूँ आने वाले को जाना होता है परन्तु इस स्थिति में मैं तुम्हारे साथ कैसे जा सकती हूँ?”
“लगता है जीवन के सत्य पर तुम्हारी कोई निष्ठा नहीं है।” दूत अब कुछ अड़ने लगा, उसके शब्द भी अब कठोर हो चले थे।
“मैं सब जानती और समझती हूँ, तुम नहीं समझते। तुम कहते हो मेरा समय समाप्त हो रहा है परन्तु मेरे गर्भ के इस शिशु का? जिसने अभी इस दुनिया में साँस भी नहीं ली, जिसने इस दुनिया में अपना कदम भी नहीं रखा उसका समय प्रारंभ से पूर्व ही समाप्त हो गया क्या?” गर्भवती माँ तड़प उठी।
वह अपने शिशु को बचाने के लिए कटिबद्ध थी।उसके समक्ष स्थित समय-यंत्र की रेती धीमे-धीमे नीचे की ओर आनी शुरू हो गई थी। दूत के कथनानुसार यंत्र के नीचे के भाग में रेती के भर जाने पर उसका समय पूरा हो जाना था। बचाव का कहीं कोई मार्ग नहीं था, केवल उसके गर्भस्थ शिशु के जो बाहर आने की चेष्टा कर रहा था।
‘एक ऎसी स्त्री को किस प्रकार वशीभूत किया जाए जो एक अन्य प्राणी को जन्मने वाली हो’ उसने सोचा, यह तो कलाकार से भी अधिक पेचीदा है। एक प्रयास –
“तुम सच में ईश्वर की श्रेष्ठ रचना हो और एक अन्य रचना को इस धरती पर लाने की तैयारी में हो, कितनी सुन्दर हो तुम!”
“प्रत्येक मनुष्य ईश्वर की रचना है” वह कुछ रुकी फिर बोली –
“क्या तुम भी ब्रह्माण्ड के रचयिता को ईश्वर ही कहते हो?”
“हम अपने स्वामी ‘यमदूत ‘को स्वामी तथा श्रृष्टि के सूत्रधार को ‘महास्वामी’ कहते हैं। तुम लोग ईश्वर कहते हो, मैंने भी ईश्वर कह दिया”
“मैं तुम्हारे सौंदर्य से आकर्षित हूँ।” दूत ने मन के भाव स्त्री के सम्मुख प्रस्तुत कर दिए। सुन्दर व्यक्ति हो अथवा वस्तु, आकर्षित करते ही हैं।
“सुंदरता मन के भावों से चेहरे को प्रफुल्लित करती है और वह भीतरी प्रफुल्लता आकर्षण उत्पन्न करती है । प्यार,स्नेह, संवेदनाएं मनुष्य को सुन्दर बनाते हैं ,बाहर से की गई चिकनी -चुपड़ी त्वचा कुछ देर ही सुंदरता का आभास कराती है परन्तु मन की सुंदरता से मनुष्य देह न रहने पर भी अपने सौंदर्य की सुगंध से समस्त वातावरण को सुरभित करके जाता है ,वह अदृश्य होकर भी सबमें बसा रहता है।”
‘हूँ,विदुषी भी है’ दूत ने मन में सोचा, तर्क करने की सामर्थ्य है इसमें!’
“मुझे लगता है अब हम मित्र हो सकते हैं?” मृत्युदूत के मन में स्त्री के संबंध में जानने की जिज्ञासा उगती जा रही थी। उसे अपने ऊपर आश्चर्य भी था, उसकी संवेदनाओं में निरंतर परिवर्तन होता ही जा रहा था??
“अच्छा! तुम्हें क्या लगता है मारने वाले के साथ मित्रता की जा सकती है? साँप फन फैलाए खड़ा है,डंक मारने की उसकी पूरी तैयारी है और सामने वाला अपना शरीर परोसकर दे दे? ‘आ भाई काट ले मुझे’ वह हँस पड़ी, एक निश्छल हँसी वातावरण में सूर्य की प्रथम किरण सी बिखर गई और दूत विभोर हो गया।
समय-यंत्र की रेती नीचे पहुँच चुकी थी।
“देखो! मेरा तो सारा खेल समाप्त हो चुका है, मैं अब निश्चिन्त हूँ , दंड तो मिलेगा ही मुझे। फिर मैं कुछ सुखद यादें समेटकर क्यों न ले जाऊँ? ”
वह अपनी पूर्ण योग्यता से सत्याक्षरा को फुसलाने की चेष्टा में संलग्न हो गया। जिस प्रकार ‘सेल्समैन’अपने ‘प्रोडक्ट’ को बेचने के लिए कोई न कोई मार्ग तलाशते रहते हैं,दूत भी उस गर्भवती को फुसलाने की चेष्टा जी-जान से कर रहा था।
“इस संसार में दुःख और परेशानियों के अतिरिक्त और है क्या? सच कहना!क्या इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति मोक्ष की इच्छा ,आकांक्षा नहीं करता? और तुम हो कि एक और प्राणी को इस संसार में लाना चाहती हो! मेरे साथ चलो और इस दुःख भरे वातावरण से निकलकर खुलकर साँस ले लो, कितनी पीड़ा तुम्हारे चेहरे और शरीर में भरी हुई है।”
दूत अपना पूरा ज़ोर लगाए दे रहा था, पीछे ही पड़ गया था वह सत्याक्षरा के अपने साथ चलने के लिए !
“पर मैं चलूंगी ही क्यों तुम्हारे साथ? तुम मेरे सुख में व्यवधान डाल रहे हो, माँ के लिए गर्भ की पीड़ा के ऐसे अनमोल क्षण होते हैं जिनको वह कभी नहीं भूलती, अपने शिशु का मुख देखते ही उसकी समस्त पीड़ा समाप्त हो जाती है। शिशु का मुख देखते तथा उस कोमल जीव को अपनी बाहों में लेते ही माँ स्वर्गिक सुख की प्राप्ति करती है। तुम मुझे यहाँ से ले जाना चाहते हो, कितना अमानवीय कृत्य करना चाहते हो तुम?”पीड़ा से कराहती स्त्री मृत्युदूत पर बरस पड़ी थी।
यकायक उसे कोई बात स्मरण हो आई –
“तुम चाहते हो मैं अपने अजन्मे शिशु की हत्या कर दूँ? यानि भ्रूण-हत्या, यानि पाप —क्या तुम नहीं जानते जीवन ईश्वर की देन है,शायद तुम्हारे सूत्रधार की देन है जिसे तुम छीन लेना चाहते हो?भ्रूण-हत्या के बारे में बात करना कितना सरल है तुम्हारे लिए! तुम समझते हो अपनी संवेदनाओं का गला घोट देना इतना सरल है? कितने क्रूर हो तुम!” अक्षरा ने उस विक्षिप्त से भागने का उपाय पा लिया था।
दूत सोच में पड़ गया, गर्भवती स्त्री की आँखों की कोरों में अश्रु- जल, मुख पर मुस्कुराहट का पुष्प खिलने लगा, उसे लगा वह सुरक्षित हो गई है।
“मैं अपने शिशु को जन्म देने वाली हूँ, क्या तुम जानते हो मातृत्व से ऊँची कोई भावना नहीं है, हो ही नहीं सकती। यदि तुम समझते हो मैं इस आनंद से,इस संवेदना से खुद को अछूता रहने दूंगी तो तुम जैसा मूर्ख कोई नहीं हो सकता।” उसने कहा और पीड़ा सहन करने के लिए अपने दाँतों को कसकर भींच लिया। कमाल था या कोई ईश्वरीय प्रताप? अपनी प्रसव-पीड़ा के बढ़ने के साथ ही वह और भी अधिक दृढ़ होती जा रही थी।
“बच्चा माता-पिता के प्रेम का परिणाम माना जाता है न? फिर इसका पिता तुम्हारी इस स्थिति में तुम्हारे साथ क्यों नहीं है? “मृत्यु -दूत वाचाल था,वह उत्साहित हो स्वयं को आवरण में छिपा स्त्रियों के पीछे चल पड़ा था और पूरा वातावरण तैयार करने के पश्चात वह अब उस स्त्री को येन-केन-प्रकारेण पटाने का प्रयास कर रहा था।
“हाँ,तुमने अपने शिशु के पिता का नाम बताया नहीं? व्यर्थ ही इस दुनिया की लालसा में लिप्त हो रही हो जबकि शिशु के पिता को अपने शिशु की कोई चिंता ही नहीं है। बताओ तो अपने शिशु के पिता का नाम।”
अक्षरा भयंकर प्रसव-पीड़ा में डूबी हुई थी, उसे दूत पर क्रोध आने लगा, एक तो वह पीड़ा से दुहरी हुई जा रही थी दूसरा यह उसकी जान खा रहा था। भला वह कौन होता है उससे उसके शिशु के पिता का नाम पूछने वाला! ज़िंदगी उसकी, शिशु उसका फिर- यह क्यों फटे में टाँग अड़ा रहा है? उसने दूत के प्रश्न का कोई उत्तर न दिया, बस अपने उभरे हुए पेट की पीड़ा से कराहती रही,अपना उभरा पेट सहलाती रही। यह भी इसी धरती के प्राणियों के जैसा तुच्छ प्राणी है और बात करता है देवदूत की भाँति! उसने सोचा।
—————————————– क्रमशः ————————————–
– डॉ. प्रणव भारती