धारावाहिक
‘हस्ताक्षर’ के इस अंक से हम डॉ. प्रणव भारती के बहुचर्चित उपन्यास ‘गवाक्ष’ को धारावाहिक के रूप में आरम्भ कर रहे हैं. आशा है, पाठकों को हमारा यह प्रयास पसंद आएगा.
गवाक्ष (उपन्यास) के संदर्भ में लेखिका के शब्द –
सत्य एवं असत्य की यात्रा, हाँ या न के मध्य इस अपारदर्शी भावना रूपी वृत्ताकार में घूमता ,भटकता अनगिनत वर्षों से ठुकता-टकराता मन आज भी सत्य और असत्य की दहलीज़ पर मस्तिष्क रगड़ता दृष्टिगोचर होता है। भौतक आत्मिक देह के पर शून्य में कहीं बीहड़ वनों से गुज़रते हुए ठिठककर विश्राम करने के लिए व्यक्ति कहाँ जाता है –? कहाँ से आता है किसी को ज्ञात नहीं | वह तो बस बाध्य है धरती पर आकर अपना भोग्य भोगने के लिए | विभिन्न नामों से परिचित करवाती जीवन- यात्रा में न जाने उसको कितने नाम दिए गए,न जाने कितने संबोधनों से पुकारा गया, कितने आदर्श समेटे गए, खखोला गया, घोला गया, निचोड़ा गया, लादा गया परन्तु कहाँ कुछ हाथ लग सका? युगों से चलती इस यात्रा का कहाँ कोई स्पष्टीकरण है? यह तो एक यात्रा भर है —अनवरत यात्रा !!
आज भी मानव अनेकों अनुत्तरित पश्नों के बंडलों के बोझ से दबा न जाने कौन -कौन से और कितने माध्यमों से अपनी इस खोज में संघर्षरत है कि ‘वह कौन है?’ मानव भटक रहा है, खीज रहा है ,दौड़ रहा है,थक रहा है, त्रस्त हो रहा है, पस्त हो रहा है—और अंतत:वहीं आकर अपनी जिज्ञासा पर पट्टी बांधकर कुछ समय के लिए शांत होने की चेष्टा करता है जहाँ से उसकी यात्रा प्रारंभ हुई थी —-और कुछ न सूझने पर वह टकटकी लगाए शून्य को घूरने लगता है ,संभवत: उसी गर्भ को जिससे वह जन्मा था और जहाँ से उसकी यात्रा का प्रारंभ हुआ था।
जिज्ञासापूर्ण मन का केवल यही ठिकाना –अनेकों अनुत्तरित प्रश्नों से घिरा मनुष्य थक हारकर वह बस एक ही बात कह पाता है,सोच पाता है,संदेश दे पाता है —-
‘जीवन एक सत्य—मृत्यु एक सत्य! सत्य केवल है आवागमन,सत्य है केवल पल,सत्य है केवल खोज में अनवरत जुड़े रहना और सत्य है प्रतीक्षा —केवल प्रतीक्षा —एक अनवरत प्रतीक्षा !’आना और जाना और बहते जाना —कहते जाना —-सहते जाना —-रमते जोगी सा मन किसी भी किनारे पर जाकर अटकने लगता है,भटकने लगता है !
मनुष्य जन्म लेते ही अपने साथ जाने का बहाना लेकर आता है फिर भी जीव प्रत्येक वस्तु,क्षण,बदलाव की परिधि में चक्कर काटते हुए किसी न किसी स्थान पर अटक जाता है, ठिठक जाता है। धरती पर जन्म लेने से ही इस चक्कर का प्रारंभ है और अंत? क्या दैहिक मृत्यु ही पूर्णरूपेण अंत है? यह सारी स्थिति सत्य से प्रारंभ होकर सत्य पर ही समाप्त होती है। इस सृष्टि के जन्म से ही हम सूत्रधार से मिलने, उसे जानने -पहचानने के लिए केवल अटकलों पर गोल-गोल घूम रहे हैं –‘सूत्रधार कौन?’और सूत्रधार है कि कभी नज़र ही नहीं आया,पकड़ा ही नहीं गया। वह तो अपना काम करके ऐसे जा छिपता है जैसे सूरज रोशनी प्रदान कर रात्रि में छिप जाता है |
गवाक्ष के ‘कॉस्मौस’ के माध्यम से एक प्रयास है जीवन को समझने का यद्यपि वह निरीह स्वयं प्रताड़ित है किन्तु भूमि पर आकर वह क्या और कैसे जीवन को देखता ,सोचता है? कैसे बदलाव उसके जीवन में आते हैं ? ‘गवाक्ष’ जीवन की साँसों को समझने का एक लेखा-जोखा भर है और कुछ नहीं| -डॉ.प्रणव भारती
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‘गवाक्ष’ :
1 –
बसंत पंचमी
दिनांक-12/2/2016
अपने व्यक्तिगत नन्हे से अदृश्य यान को एक घने वृक्ष पर टाँगकर वह स्वंय अदृश्य रूप में वृक्ष से नीचे उतर आया। नीचे उतरकर उसने ऊपर दृष्टि उठाकर यान को देखने की चेष्टा की।पत्तों के झुरमुट में छिपा यान उसे भी नहीं दिखाई दे रहा था । उसने एक संतुष्टि की साँस ली और सामने के बड़े से बंगले की ओर बढ़ गया। बंगले के बड़े से गेट पर सुनहरी नामपट्टिका पर काले,बड़े, कलात्मक शब्दों में लिखा था —
‘सत्यव्रत गौड़’
मंत्री –‘शिक्षण-विभाग’
मंत्री जी का नाम देखकर उसकी बाँछें खिल गईं।बंगले के चारों ओर बहुत से व्यक्ति जमा थे । कुछ बाहर खड़े थे कुछ बंगले के भीतर बिछे सोफों व कुर्सियों पर विराजमान थे और भीतर बुलाए जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे।ये सभी मंत्री सत्यव्रत जी से किसी न किसी कार्यवश मिलने आए थे।वह ठहरा एक अदना दूत भर ! यदि उसने प्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत होकर भीतर जाने की आज्ञा मांगी तो उसको भीतर जाने कौन देगा? दूत के मस्तिष्क में न जाने क्या-क्या गड़मड़ हो रहा था ,उसने एक हल्की सीटी वातावरण में उछाली जिसे केवल उसने ही सुना और पलक झपकते ही वह मंत्री-निवास के भीतर कब? कैसे जा पहुंचा ? किसीको ज्ञात नहीं हुआ।
मुख पर शरारत भरी मुस्कान लिए वह बिंदास भीतर घूम रहा था ।उसने झांककर देखा ,यह एक बड़ा सा कक्ष था, संभवत: मंत्री जी का शयन-कक्ष ! वह इठलाता हुआ उसमें प्रवेश कर गया,इसमें उसे एक और द्वार दिखाई दिया जो भीतर से बंद था।अब उसमें बिलकुल भी सब्र नहीं रह गया था।अपनी उसी अदृश्य कला के सहारे वह उस बंद द्वार को पार कर गया।यह स्नानगृह था जिसमें एक खूब सुन्दर ,चिकना तथा बड़ा ‘बाथ-टब’ था,उसमें मंत्री जी कमर तक डूबे हुए थे । पूरा स्नानगृह महक रहा था,मंत्री जी चिंतित मुद्रा में अपने ‘वार्तालाप यंत्र’ पर किसी से वार्तालाप कर रहे थे।
” कृपया आप मुझसे इस प्रकार के अमानवीय कृत्य की अपेक्षा न करें । देखिए ,मैं सब जनता हूँ ,यह सब किसके इशारे पर हो रहा है !।” मंत्री जी का स्वर रुष्ट प्रतीत हो रहा था ,वे किसी गंभीर चिंतन में मग्न दिखाई दे रहे थे। कहीं न कहीं इतिहास स्वयं को दुहराता है चाहे हम उससे कितना ही पल्ला क्यों न झाड़ लें ! इस प्रकार की परिस्थितियों में उन्हें सदा अपनी पत्नी स्वाति का स्मरण हो आता था जो किसी भी परिस्थिति को सहज रूप से संभालने में सक्षम थी।
वह बड़े आराम से भीतर चला तो आया था किन्तु मंत्री जी को जल में अर्धसुप्तावस्था में देखकर और उनके वार्तालाप को सुनकर वह भी दुविधा में था, सोच रहा था इस स्थिति में कैसे और किस प्रकार वार्तालाप प्रारंभ करे ? बाहर से कोई द्वार पर धीमे से खटखट कर रहा था ।
” अभी मुझे समय लगेगा ।” मंत्री जी ने कहा और ‘बाथ-टब’ के किनारे पर अपनी ग्रीवा रखकर आँखें मूँद लीं ।
” महोदय! बहुत लोग जमा हो गए हैं -” द्वार के बाहर से आवाज़ आई ।
” कोई बात नहीं,मैं अस्वस्थ महसूस कर रहा हूँ । आज शायद मिल भी न सकूँ । आप मेरा संदेश दे दीजिए ,संभव हुआ तो मिल लूँगा अन्यथा बाद में ।”
“जी ” वातावरण में चुप्पी पसर गई।
दूत सोचने में व्यस्त था कि वह किस प्रकार वार्तालाप प्रारंभ करे ?मंत्री जी का ‘वार्तालाप यंत्र’ फिर बोलने लगा था । इस बार उन्होंने यंत्र का कोई बटन दबा दिया जिससे यंत्र में से ध्वनि आनी बंद हो गई और हाथ बढ़ाकर बाथ-टब के किनारे से कुछ दूरी पर सरका दिया । मंत्री जी ने अपनी थकी हुई आँखों को फिर से बंद कर लिया और किसी गहन चिंतन में तल्लीन हो गए।अब पर्याप्त विलंब हो चुका था,दूत के मन में खलबली होने लगी। इस प्रकार तो वह अपना कार्य प्रारंभ ही नहीं कर पाएगा और यदि इन्होने उसके साथ चलने से मना कर दिया तब उसे कहीं और ‘सत्य’ नामक देह को खोजना होगा।
” क्षमा करें —-” दूत ने सत्यव्रत जी से वार्तालाप करने का प्रयास किया ,वे चौंक उठे।उन्होंने अपने मुंदे हुए नेत्र खोले और इधर-उधर ताकने लगे,परन्तु वहाँ कोई नहीं था संभवत: उनका बहम था । उन्होंने अपने सिर को झटका देकर एक लंबी बैचैन श्वांस भरी तथा पुन: नेत्र बंद कर लिए ।
“क्षमा करें मैं —–” दूत बेचारा समझ नहीं पा रहा था कैसे व कहाँ से अपनी बात प्रारंभ करे ? वह अचानक स्वयं को प्रस्तुत भी नहीं करना चाहता था और प्रस्तुत किये बिना उसका कार्य होना असंभव था।
” कौन है भई ? सामने आओ । क्या मेरे द्वार पर मृत्यु आई है ? बहुत अच्छा है , इस बनावटी दुनिया से थक गया हूँ मैं ।” उन्होंने एक निश्वांस लेकर पुन: नेत्र मूँद लिए ।
मंत्री जी के मुख से मृत्यु की पुकार सुनकर दूत प्रसन्न हो उठा । ओह!कोई तो है जो उसे पुकार रहा है ।’अब उसका कार्य आसान हो जाएगा’ वह उत्साहित हो गया –” महोदय ! मैं आपको ही लेने आया हूँ।”
अब तक मंत्री जी किसी स्वप्नावस्था में थे ,दूत की वाणी ने उनके नेत्र विस्फारित कर दिए ,वे चौकन्ने हो उठे।अपनी वस्त्रहीन देह संभालते हुए वे बोले —
“मेरे अंतरंग कक्ष में किसीको आने की आज्ञा नहीं है, तुम कैसे चले आए और दिखाई क्यों नहीं दे रहे हो ? क्या उस पर्दे के पीछे छिपे हो ?वे सकपका से गए ।इस प्रकार किसी का वहाँ तक चले आना मंत्री जी व उनके आवास के लिए असुरक्षित व अनौचित्यपूर्ण था,वैसे भी मंत्री जी की दशा—!!
” क्षमा कीजिए महोदय! मैं आपको अपने साथ ले जाने आया हूँ।” आगंतुक विनम्र था किन्तु मंत्री जी के आवास– वह भी स्नानगृह में घुस आना — असुरक्षित व अशोभनीय भी था।
उनको कुछ भी सुझाई नहीं दे रहा था ,वेअपनी देह संभालने में व्यस्त होगए थे।उनके अंतरंग कक्ष में किसी भी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था ।
“तुम कैसे यहाँ आ पहुंचे ?” मंत्री जी संकोच व दुविधा में थे।
कितनी अदभुत बात है ,मनुष्य यह जानता समझता है कि पाँच तत्वों से बनी यह देह नश्वर है , इसकी कोई कीमत नहीं। प्राणों के निकल जाने के पश्चात यह देह किसीके भी समक्ष अनावृत रहे , क्या अंतर पड़ता है किन्तु दूसरी ओर यह भी है कि इस भौतिक संसार की नींव यह देह ही है। अत: मंत्री जी अपनी अनावृत देह के प्रति अधिक सतर्क हो उठे थे , यह कौन होगा जो उन्हें इस अवस्था में —- मंत्री जी टब में से निकलना चाहते थे परन्तु कैसे ? वे पशोपेश में थे —-!
“क्या तुम अब भी यहीं हो? पहले यहाँ से निकलो ,मेरे कक्ष में चलकर प्रतीक्षा करो,मैं वहाँ मिलता हूँ।”मंत्री जी को कुछ न सूझा तो उन्होंने अदृश्य को आदेश दे डाला।
इससे पूर्व कॉस्मॉस कई बार इस धरती पर चक्कर लगाकर गया था किन्तु अपने कार्य में असफल वह कभी धरती को एक अजूबा समझता, कभी अपने स्वामी द्वारा वर्णित कोई भयावना स्थल ! कभी स्वामी के द्वारा दंडित होने के भय से केवल अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के साधन खोजने में एक भयभीत मेमने की भाँति पृथ्वी के लोगों से छिपता-छिपाता घूमफिरकर ‘लौट के बुद्धू घर को आए’वापिस स्वामी के समक्ष नतमस्तक हो जाता और स्वामी की अग्निमेय दृष्टि का सामना कर स्वयं को पुन: नकारा समझने लगता।
मंत्री जी के आदेशानुसार वह गुसलखाने से निकल आया था और उनके सुन्दर,व्यवस्थित ‘बैड रूम’ का जायज़ा लेने लगा था । मंत्री जी के बड़े से सुन्दर , सुरुचिपूर्ण कक्ष में कई तस्वीरें थीं,जिनमें कुछ दीवार पर और कुछ पलंग के दोनों ओर पलंग से जुड़ी हुई छोटी-छोटी साफ़ -सुथरी सुन्दर मेज़ों पर थीं । कॉस्मॉस ने ध्यान से देखा एक सौम्य स्त्री की तस्वीर कई स्थानों पर थी। किसी में वह मंत्री जी के साथ थी ,किसी में पूरे परिवार के साथ ,किसी में एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ और उसी सौम्य,सरल दिखने वाली स्त्री की एक बड़ी सी तस्वीर ठीक मंत्री जी के पलंग के सामने थी। उस तस्वीर में उस सुन्दर सौम्य स्त्री के हाथों में एक वाद्य था और माँ सरस्वती के सौम्य रूप की छटा से उसका चेहरा आच्छादित था ।एक तरल,सौम्य मुस्कराहट से उसका चेहरा प्रदीप्त था।कॉस्मॉस सभी चित्रों समक्ष से गुज़रता हुआ उस तस्वीर के समक्ष आकर गया था ।वह उस तस्वीर की और ऐसे खिंचा था जैसे कोई चुम्बक उसे अपने पास खींच रहा हो।
कुछ देर स्नानगृह में शांति पसरी रही,अनुमानत:अंदर जो कोई भी था वहाँ से चला गया था ।मंत्री महोदय ‘बाथ-टब’ में से निकले, स्टैंड पर टँगे श्वेत रूएँदार गाऊन को देह पर लपेटते हुए उन्होंने अपने पैरों को मुलायम स्लीपरों के हवाले किया और शयन कक्ष का द्वार खोलकर कई प्रश्न एकसाथ ही वातावरण में फैला दिए ।
” अब बताओ कौन हो तुम? कहाँ से और क्यों आये हो? यहाँ तक कैसे पहुंचे ?”वे अपने पलंग तक पहुँच गए थे और थके हुए से उस पर बैठ गए थे । अब तक वे काफी हद तक सामान्य होने का प्रयास कर चुके थे ।
” क्या आप मेरा वास्तविक रूप देखना चाहते हैं ?” कक्ष के पलँग के ठीक सामने से आवाज़ उभरी।
” बिलकुल ! मुझे सब कुछ सत्य बताओ और सबसे पहले मेरे समक्ष आओ ।” उन्होंने स्लीपर गलीचे पर उतारकर अपने पैरों को पलंग पर लंबा करके लेटने की स्थिति मेंअपना सिर तकियों के सहारे टिकाते हुए कहा,वे संयमित किन्तु क्लांत दिख रहे थे !
एक शुभ्र ज्योत्स्ना से कक्ष के पलँग के ठीक सामने का भाग जगमगा गया। जैसे कक्ष के पटल पर कोई सुन्दर प्रतिमा उभरने लगी हो।एक सुदर्शन युवक का मासूम,कोमल स्निग्ध चेहरा उस ज्योत्सना से प्रस्फुटित हो बाहर निकलकर उनके समक्ष प्रस्तुत हो रहा था । शनैःशनैःवह चेहरा आदमकद रूप में उनके समक्ष स्थापित होकर नतमस्तक हो गया।
” तुम?” सत्यव्रत जी को उससे वार्तालाप करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे ।
” कौन हो और क्यों आए हो यहाँ?” वे समझ चुके थे वह कोई साधारण व्यक्ति तो था नहीं जो इस प्रकार उनके कक्ष में प्रवेश कर सका था ।
” जी —आपको लेने “युवक ने उत्तर दिया । उसके हाथ में एक काँच का बड़ा सा समय-यंत्र था जिसके एक भाग में रेती भरी हुई थी ।
” इस पृथ्वी पर आपका समय समाप्त हो गया है ।अपने स्वामी की आज्ञा से मैं आपको ले जाने के लिए आया हूँ।”
“परन्तु मैं तुम्हारे साथ कैसे चल सकता हूँ ? यहाँ अभी मेरे बहुत से कार्य शेष हैं ,बहुत से लोगों को मेरी आवश्यकता है,बहुत से लोगों को सीधे रास्ते पर लाना है —”
” आप बहुत थके हुए लग रहे हैं , आप मृत्यु को पुकार रहे थे —मुझे लगा — ”
” हम धरती के प्राणी अपने जीवन में किसी भी भटकाव की अवस्था में न जाने कितनी बार मृत्यु को पुकारते हैं लेकिन मृत्यु के आलिंगन में जाना कौन चाहता है –?” उन्होंने अपने चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट फैलाई और सहज रूप में प्रश्नकर्ता को उत्तर प्रश्न सहित उत्तर परोस दिया।
” ओह ! तो क्या शाश्वत मृत्यु से भी पृथ्वी का मनुष्य आँख-मिचौनी खेल है?” उसने अपने नेत्र आश्चर्य में गोल-गोल घुमाए ।
” तुम क्या जानो पृथ्वी के मनुष्य की फितरत ! वह कुछ भी कर सकता है। ये सब छोड़ो ,तुम बताओ —और मेरे कक्ष में —! अरे भई !कहीं तो मुझे अकेला छोड़ दो ।” वे बहुत खिन्न दिखाई दे रहे थे।
वह बेचारा भी क्या करता ? एक दूत भर ! जिसको केवल कर्तव्य करने छूट थी, अधिकार किसको कहते हैं, वह जानता ही नहीं था ।
“देखिये ,मेरे हाथ में यह ‘समय-यंत्र’ है, मैं इसे स्थापित करता हूँ , इसकी रेती जितनी देर में नीचे के भाग में पहुंचेगी ,आपके पास केवल उतना ही समय रहेगा,उस समय में आप जो भी कर सकें, कर लें,उसके पश्चात आपको मेरे साथ चलना होगा।”
“क्या –नाम बताया था तुमने अपना ?” उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा। उन्हें यह सब कुछ खेल सा लग रहा था ।
“जी ,अभी बताया नहीं –मैं कॉस्मॉस हूँ –” विनम्र उत्तर था ।
“कहाँ से आए हो ?”उनका दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न था ।
“जी, गवाक्ष से —”
” गवाक्ष? यह किस स्थान का नाम है?”
-क्रमश:
– डॉ. प्रणव भारती