कविता-कानन
1.
खुद को कहीं रख के
भूल जाती हूँ
दीवानावार खुद को ढूँढती रहती हूँ
घर का कोना – कोना खंगालती रहती हूँ
पूछती रहती हूँ- परेशान होके खुद को बार बार
खुदाया!
कोई घर में हो के घर से ही गुम कैसे हो सकता है
काम में उलझी
सबकी जरूरतों को सांसो की लड़ी में पिरोती
घर को संवारने समेटने में
मिट्टी से मिट्टी होती
हर औरत के साथ
खुद से ही गुमशुदा हो जाने का
ये हादसा हो सकता है
मेरे वजूद का कोई हिस्सा
चुपके से कान में यह कह के
मुझे कहीं से ढूँढ लाता है
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2.
रोज थोड़ा थोड़ा झड़ जाती हूँ
पतझड़ में सूखते गुलाबों की पंखुड़ियों की तरह
एक-एक करके पत्ती दर पत्ती फना हो रही हूँ
ज़रा ज़रा सा दफन हो रही हूं गुलशन की मिट्टी में
फिर से किसी मौसम का फूल बनने के लिए
आज के मौसम पर कुर्बान हो रही हूँ
ज़िन्दगी है बस पल दो पल कहे हर कोई
कब सिमट जाए यादों में न जाने कोई
सो हर पल हर लम्हा भरपूर जी के
रूह तक महसूस कर रही हूँ
गुलाब कहाँ नसीब होते हैं
काँटों से दामन उलझाए बगैर
सो जरा सी उफ़्फ़ के साथ उलझ के काँटों से
गुलाबों की खुशबू से वाकिफ हो रही हूँ
फिर से किसी मौसम का फूल बनने को
आज के मौसम पर कुर्बान हो रही हूँ
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3.
उलाहने की तरह उतरता है कोई दिन
कभी-कभी अंबर से-
रूठा-रूठा सा
मुँह फुलाए बच्चे की तरह
अकडू सा खड़ा
जाने सदियों से अपनी निरंतर यात्रा से थका
या कि धरती की अंतहीन परिक्रमा से अका हुआ
रंग भी कैसे मैला मैला सा हुआ
उधड़ा उधड़ा सा बदरंग सा
जैसे दूर तक हो उदासी का दरिया कोई फैला हुआ
ऐसा बदरंग मैला सा उदास दिन
उतरता है कभी-कभी कि
लाखों तारों की झिलमिल और
चांद की श्वेत चांदनी भी धो नहीं पाती
ऐसे उलाहने जैसा दिन-अपना मैला सा अक्स
तकिए के लिहाफ पर भी छोड़ जाता है
चांदनी रात में पैबंद की तरह
चिपक जाती है उसकी मैली सी छाप
उफ्फ….
दिन की उथड़ी सिलाईयों में
उलझ के रह जानी है
कहीं ऐसे दिन की रात की रात…
– मीनाक्षी मैनन