विमर्श
कुलानंद भारतीय तथा मंजिल और राही
(28 अप्रैल, जयंती पर विशेष)
– डाॅ. पवनेश ठकुराठी
कुलानंद भारतीय का जन्म 28 अप्रैल, 1924 को पौड़ी गढ़वाल के जामणी नामक ग्राम में हुआ था। आपने एम. ए. तक की शिक्षा हासिल की और बाद में सीनियर कैम्ब्रिज स्कूल में नियुक्त हुए। सन् 1952 में आपने सीनियर कैम्ब्रिज से त्याग-पत्र देकर शक्ति नगर में भारतीय विद्यालय की स्थापना की। इसके अलावा एक शिक्षक के रूप में कुलानंद भारतीय ने प्रभाकर बी. ए. की कक्षाओं में 10-12 वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। आप भारतीय शिक्षण संस्थान के अंतर्गत दो सीनियर सेकेंडरी स्कूल और दो माध्यमिक विद्यालयों के संरक्षक एवं अध्यक्ष रहे।
कुलानंद भारतीय राजनीति में भी निरंतर सक्रिय रहे। आप सन् 1969 में दिल्ली युवा कांग्रेस राष्ट्रीय एवं सन् 1971 से 1980 तक जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय युवा केंद्र के अध्यक्ष रहे। इसके अलावा आप दिल्ली विश्वविद्यालय में सन् 1972 से 1975 तक विद्वत् परिषद् के सदस्य रहे। आपने दिल्ली नगर निगम में भी अपनी सेवाएँ दी। आप सन् 1962 से 1975 तक नगर निगम के सदस्य रहे और कई समितियों के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष पदों को सुशोभित किया। सन् 1972-73 में कुलानंद भारतीय ने यूरोप के 8-10 देशों की यात्रा की। सन् 1983 से 1990 तक आप दिल्ली प्रशासन शिक्षा विभाग के कार्यकारी पार्षद अर्थात् शिक्षा मंत्री रहे। इसी दौरान सन् 1988 में आपको शैक्षिक शिष्टमंडल के नेता के रूप में जापान की यात्रा करने का अवसर मिला। शिक्षा विभाग के अलावा भारतीय जी ने तकनीकी शिक्षा, बिक्रीकर, पुरातत्व विभाग एवं आबकारी विभाग का भी सफलतापूर्वक कार्यभार संभाला। आपके अथाह परिश्रम के फलस्वरूप देश में शिक्षा की उन्नति हुई। सैकड़ों स्कूल भवनों का सुधार हुआ और स्कूलों का परीक्षा परिणाम 83-84 प्रतिशत तक जा पहुंचा। इस प्रकार एक शिक्षाविद् एवं शिक्षा मंत्री के रूप में आपने भारत की शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन किए और शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
प्रभारी शिक्षा मंत्री के अलावा कुलानंद भारतीय दिल्ली प्रशासन में हिंदी, उर्दू, पंजाबी एवं संस्कृत अकादमियों के कार्यकारी अध्यक्ष रहे। आपने पहली बार दिल्ली में संस्कृत अकादमी की स्थापना की। अपने राजनीतिक कैरियर के दौरान ही कुलानंद भारतीय के कृतित्व एवं व्यक्तित्व में काफी समानता दिखाई देती है। वे स्वयं भी राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रप्रेम के उपासक थे। उनका यही राष्ट्रप्रेम उनकी रचनाओं में दिखाई देता है। कुलानंद भारतीय मधुर, मिलनसार, ईमानदार एवं कर्मठ व्यक्तितव के धनी थे। वे एक ईमानदार राजनेता, ज्ञानी, शिक्षाविद्, कुशल प्रशासक, उत्कृष्ट साहित्यकार होने के साथ-साथ एक दार्शनिक एवं समाजसेवी भी थे। एक राजनेता के रूप में उनके द्वारा किए गए कार्यों को और उनके सरल व्यक्तित्व को लोग आज भी याद करते हैं। एक साहित्यकार के रूप में कुलानंद भारतीय ने कविता, लेख, उपन्यास, संस्मरण आदि विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। इन्होंने डौल्या (खंड काव्य) सल्ट क्रांति (कविता), नवा-खाली कांड (कविता), राहे-मंजिल (उपन्यास), नगरपिता (उपन्यास), अपना घर (उपन्यास), पूजा के फूल (आध्यात्मिक पुस्तक), विदेश यात्रा (संस्मरण), बीते दिन (आपबीती), अस्सी बसंत (जीवन के विविध रूप) आदि पुस्तकें लिखीं। मुरारीलाल त्यागी के संपादन में कल्पान्त प्रकाशन से वर्ष, 2003 में प्रकाशित ‘त्रिवेणी संगम’ में इनके तीन उपन्यास अपना घर, मंजिल और राही, नगरपिता और दो प्रारंभिक काव्य कृतियां डौल्या और नवाखाली कांड संकलित हैं।
कुलानंद भारतीय अधिकांशतया राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय रहे, किंतु राजनीति के दुष्चक्रों से वे सदैव दूर ही रहे। वे स्वयं लिखते हैं: ‘‘मेरा अधिकांश जीवन राजनीति में व्यतीत हुआ, जबकि मैं संस्कारों से, विचारों से, भावनाओं से, स्वभाव से मूल रूप में साहित्य, शिक्षा, अध्यात्म का व्यक्ति रहा हूँ।………..लेकिन पचास वर्षों तक राजनीति में रहकर भी मैं राजनीतिक व्यक्ति के इन गुणों को न पा सका, निभ गया, कैसे निभ गया, यह सब भगवान की कृपा थी। भगवान ने मुझे मानवता का कवच दिया, सहनशीलता की शक्ति दी और अपने चरणों की भावभक्ति दी, इसीलिए इस दमघोटू राजनीति में रहकर भी मेरा साहित्य जीवित रहा, समय-समय पर कविता कहानी, उपन्यास के रूप में मेरी भावनाओं की अभिव्यक्ति होती रही।’’1
राष्ट्रप्रेम कुलानंद भारतीय के रचनाओं की मुख्य वस्तु रही है। इनके उपन्यास भी राष्ट्रप्रेम और शिक्षा जगत के उच्च मूल्यों का निरूपण करते हैं। त्रिवेणी संगम की भूमिका में लेखक ने लिखा है: ‘‘प्रस्तुत प्रस्तक ‘त्रिवेणी संगम’ मेरे तीन उपन्यासों का संगम है- ‘अपना घर’, ‘मंजिल और राही’, ‘नगरपिता’। ये तीनों उपन्यास मेरे त्रिकाल के युगांतर के परिचायक हैं। अपने समय की समाज की प्रतिबिंबित, परिलक्षित रचनाएं हैं।’’2
‘मंजिल और राही’ कुलानंद भारतीय का पहला उपन्यास है। इस उपन्यास मंे भी भारतीय जी ने देश-प्रेम और राष्ट्रीय एकता के स्वरों को मुखरित किया है। इस उपन्यास का नायक महादेव है, जो नौकरी हेतु दिल्ली जाता है और वहां लाला माधोदास के साथ रहता है । कुछ समय बाद जब वह गांव लौटता है, तो कबूतरी नाम की युवती से विवाह कर लेता है। इसके पश्चात् वह पुनः दिल्ली लौट जात है और दिल्ली विश्वविद्यालय में युवक संगठन के अध्यक्ष पर को सुशोभित करता है। इस उपन्यास में अंततः महादेव अपने भ्रष्टाचार मुक्त एवं समतामूलक समाज के निर्माण की संकल्पना हेतु ‘राष्ट्रीय एकता मंदिर’ की स्थापना करता चित्रित हुआ है : ‘‘दोनों ने देखा कि भवन के मुख्य द्वार के सम्मुख गांधीजी की संुदर मूर्ति स्थापित है, जो देश की एकता का प्रतीक है। इस मूर्ति के पास ही राष्ट्रीय-एकता-मंदिर का संुदर मानचित्र लगा हुआ है। इस मानचित्र को देखते ही संस्था का विहंगम दृश्य सम्मुख आ जाता है।’’3 इस उपन्यास का नायक महादेव न सिर्फ एक राष्ट्रप्रेमी चरित्र है, बल्कि वह वैयक्तिक जीवन में भी एकनिष्ठ प्रेमी है। वह अपनी पत्नी कबूतरी से अप्रतिम प्रेम करता है। इतना ही नहीं वह चंचल और आधुनिक युवती साधना के प्रणय प्रस्ताव को ठुकराकर उसे प्रेम के महान आदर्श से अवगत कराता है: ‘‘प्रेम का तात्पर्य मान-मर्यादाओं को छोड़कर इधर-उधर भटकना नहीं। जब दो प्राणी नियम और ढंग से सत्यव्रत का पालन करते हुए एक-दूसरे के प्रेम-बंधन में बंध जाते हैं, तो वे पति-पत्नी बन जाते हैं और यह प्रेम धर्म के रूप में बदल जाता है। जीवन के अंत तक इस धर्म का पालन करना ऊँचे मर्यादित लोगों का ही कार्य होता है।’’4 इतना ही नहीं वह साधना को भी ऊँचे विचार रखने के लिए प्रेरित करता है: ‘‘साधना! विश्वास भी करो! इस धरती के लोग जब ऊँचे विचार रखने लगते है।, मान-मर्यादाओं का ध्यान रखते हैं, तो यही धरती स्वर्ग बन जाती है।’’5
लेखक युवाओं की शक्ति को पहचानता है। इसीलिए तो इस उपन्यास में लेखक ने युवाओं को देश की सबसे बड़ी संपत्ति कहा है: ‘‘आज आवश्यकता इसी बात की है कि युवक और युवतियाँ संगठित होकर देश की शक्ति को बढ़ाएं युवक-युवतियाँ ही देश की सबसे बड़ी संपत्ति हैं।’’6 इस उपन्यास में चित्रित राष्ट्रपति का भाषण धार्मिक-सांस्कृतिक एकता पर बल देता है। वस्तुतः इस भाषण के माध्यम से कथाकार ने राष्ट्रीय एकता हेतु धार्मिक-सांस्कृतिक एकता का होना जरूरी बताया है: ‘‘आज आवश्यकता इस बात की है की सभी धर्म एक स्वर में एकता का शंख बजाएं। पिछले इतिहास की कमजोरियों को भुलाकर हमें धर्म को सर्वव्यापी बनाना है।’’7
इस प्रकार इस उपन्यास का उद्देश्य भी राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना है। उपन्यास का अंत उपन्यास के उद्देश्य और कथानायक की दोनों को स्पष्ट करता है: ‘‘आज हम सब लोगों ने अपनी-अपनी जाति बिरादरी, वर्ग, प्रांत, धर्म, स्वार्थ और संकीर्णता के छोटे-छोटे दायरे बना लिए हैं। हम सब लोग इन छोटे-छोटे घरों में, अंधेरी गुफाओं, छोटे-छोटे बिलों में, छिद्रों में, जहां सड़न और दुर्गंध से हमारा दम घुट जाता है, रहना पसंद करते हैं। आज हम सबको खुलें मैदान में आने की आवश्यकता है, तभी हमको ताजी हवा मिल सकती है। ताजी हवा और ताजा पानी पीकर ही हमारा दिमाग खुल सकता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम खुले आकाश के नीचे अपनी धरती माता की गोद में हिल-मिलकर बैठना सीखें। धरती हम सबकी मां है और हम सबका पिता एक ही भगवान है, जो विश्व में सबसे महान है।’’8
इस प्रकार कुलानंद भारतीय का ‘मंजिल और राही’ उपन्यास एकता की मंजिल के राही महादेव की गौरव गाथा है, जो मानव समाज को विश्व बंधुत्व और प्रकृति प्रेम की ओर उन्मुख करता है।
संदर्भ:
1. त्रिवेणी संगम, कुलानंद भारतीय, सं0 मुरारीलाल त्यागी, कल्पान्त, दिल्ली, प्र0सं0 2001
2. वही
3. वही, मंजिल और राहीऋ पृ0 138
4. वहीऋ पृ0 46
5. वहीऋ पृ0 46
6. वहीऋ पृ0 60
7. वहीऋ पृ0 77
8. वहीऋ पृ0 142
– डॉ. पवनेश ठकुराठी