कविता-कानन
कुत्ता कहाँ है?
गली का आवारा-सा कुत्ता भी
भौंकता है
हर बार जब वो सूंघता है
गंध किसी अनजानी आशंका की
वो भौंकता है रात भर
किसी अनजान खतरे की आहट पर
चोरों और लुटेरों पर
आगाह करता पूरे मोहल्ले को
निश्चिंत करता
लेकिन
लोकतंत्र में, कुत्ता कहाँ है?
लुटेरे संगठित हैं, निर्भयता से
लोकतंत्र का नाम लेकर
काटते हैं देश की जड़ों को
और
कोई कुत्ता नही भौंकता
हमारे लोकतंत्र ने भेड़िये पाले हैं
जो नोंच लेते हैं देश की गर्दन से लेकर
पैरों के नाखून तक
बस भेड़ियों की गुर्राहट और मेमनों की बेबसी
कुत्ते अब यहां नही मिलते
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आरक्षण
पुरानी चप्पल में घिसटती-सी चाल में
बिना किताबों के आसमान की छत वाले
फटीचर सरकारी स्कूल की तरफ बढ़ती आँखें
पास से गुज़रती लग्ज़री पीली स्कूल बस में
पैसे के जोर पर आरक्षित सीटों पर बैठे
बच्चो को किसी परीकथा-सी देखती है
और अचरज से पढ़ती है पीछे की दीवार पर
टूटी-सी देवनागरी में लिखे शब्द
आरक्षण हटाओ, देश बचाओ
और तलाशती है मायने इसके?
जाहिल कहीं के
चिल्लाती सरकारी टीचर की मगरूर बेंत की मार
और मिड डे मील के लालच के बीच गुम होती शिक्षा
और किसी कान्वैंट स्कूल के
सिर्फ ढाई लाख के नासा टूर के एक समान से मौके
चिल्ला कर कहते हैं
जब शिक्षा एक समान है
मौके एक समान है तो फिर
एक समान प्रतियोगिता क्यों नहीं?
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रिक्त स्थान
मुन्ना नहीं समझ पाता
गणतंत्र के अध्याय के
रिक्त स्थान
कातर नज़रों के
प्रश्नात्मक चिन्ह
असमानता,
बेरोजगारी,
भूख अशिक्षित-सी क्यों है?
दुनिया के सबसे युवा देश के
जवान हाथ खाली
और यौवन गर्त में नशे के
मुन्ना नहीं पूछ पाता है
कि दस साल में खत्म होने वाली
आरक्षण की बैसाखियाँ
चलना क्यों नहीं सिखा पायीं?
कानून, जिसकी लाठी उसी का क्यों?
हमारे वोट क्यों खुद-ब-खुद
बदल जाते है हमारी जाति में, धर्म में?
मुन्ना देश का भविष्य है!
पर उसकी आँखो मे कुछ प्रश्न है
रिक्त से
किसी रिक्त भविष्य से
– हरदीप सबरवाल