संस्मरण
कुछ ऐसे
मेरी एक छोटी-सी गद्य-रचना है-
कुछ ऐसे पल
कुछ वैसे पल
कुछ भीने-से
कुछ सूखे पल
कुछ मुस्काते
कुछ रोते पल
लीजिए यहाँ आकर मेरी कलम ठिठक गई। क्यों? बताती हूँ।
हुआ कुछ यूँ कि मेरे एक उपन्यास ‘गवाक्ष’ को रांची से ‘स्पेनिन पुरुस्कार’ मिलने की घोषणा हुई। फ़ोन पर सूचना प्राप्त हुई थी, स्वाभाविक था कि मन में कहीं तब तो लड्डू फूटे ही थे, जिन्हें मैंने अपने करीबियों में, मित्रों में बाँट दिया था। अकेले खाती तो बदहजमी न हो जाती!
खैर जी, लड्डू बंट गए। मित्रों के मुंह भी मीठे हो गए। बधाई भी मिली। पार्टी की माँग भी हुई और साथ ही यह आदेश भी कि भई तुम जाओगी वर्ना…इस वर्ना के पीछे बहुत-सी मुहब्बत छिपी थी, मनुहार छिपा था, अपनों का लगाव झलक रहा था।
बात यह थी कि कई बार इस प्रकार के सम्मानों के लिए मैंने कुछ आंतरिक कारणों से व कुछ आलस्यवश मना कर दिया था। यहाँ सवाल रांची का था। न जाने क्यों मुझे यह नाम बहुत पहले से आकर्षित करता रहा है लेकिन इतनी दूरी पर जाना मेरे लिए लगभग असंभव ही था। बहुत कुछ सुना था इसकी नैसर्गिक सुन्दरता के बारे में, सो जब बिटिया ने कहा कि वह मेरे साथ जाएगी, जाने का मन बना ही लिया गया।
सम्मान के रूप में ग्यारह हजार रूपये, प्रशस्ति-पत्र तथा अंग-वस्त्र, जैसा इस प्रकार के सब सम्मान के कार्यक्रमों में होता है, वही सब लिखकर आया था। अब यहाँ से जाना, वो भी हवाई-यात्रा, वो भी दो लोगों की! कठिन तो था ही, मैं तो न सोचती, बिल्कुल न सोचती किन्तु बिटिया ने कहा, “आप सम्मान के लिए जा रही हैं, न कि ग्यारह हजार के लिए।” उसने घुड़का। दामाद और बेटे ने भी सुर में सुर मिलाए और परिणाम हुआ कि दो लोगों की हवाई टिकिटों में हमने लगभग अट्ठारह हजार खर्च किए। अब यह तो होता नहीं है कि आप कहीं पर जाएं और केवल टिकिट भर में काम चल जाए! खैर यह बाद की बात है। मज़े की बात यह कि मुझे और बिटिया को जाने के एक सप्ताह पूर्व बुख़ार ने हमला कर दिया। खैर, दवाईयाँ लीं गईं, फैमिली डॉ. बोले, “एंटी बायटिक भी ले लीजिए।” ठीक है जी, वो भी ले ली गईं और निश्चित दिन हम माँ-बेटी को अहमदाबाद से कलकत्ते की उड़ान के लिए हवाई-अड्डे पर छोड़ दिया गया, जहाँ से हमें रांची के लिए दूसरा हवाई जहाज़ लेना था। मुझे कष्ट न हो इसलिए दामाद जी ने ‘व्हील चेयर’ का भी प्रबंध कर दिया था। बिटिया जो खुद भी बीमारी से उठी थी, उसे मेरी देखभाल के लिए न जाने कितनी सलाह दी गईं। “मेरी भी माँ हैं, मैं खुद देख लूंगी।” उसे खीजकर कहना ही पड़ा।
मैं इस ट्रिप पर खर्च होने वाले पैसों का हिसाब मन ही मन लगाती रही। मुझे पता था कि मेरा यह ट्रिप बाईस-पच्चीस से कम का नहीं पड़ेगा। बेटी से इस विषय पर बात करना यानी उससे डाँट खाना था। बच्चों को इसमें प्रसन्नता थी कि मुझे सम्मान के लिए आमंत्रित किया गया है। उनके लिए पैसों से अधिक उनकी माँ को पुरुस्कृत होते हुए देखना था। मैंने भी फिर दिल पर पत्थर रख ही लिया कि जब जा ही रहे हैं तब बेकार ही दुखी होने से क्या लाभ?
कलकत्ता हवाई अड्डे से रांची का टर्मिनस कुर्सी पर बैठकर लगभग 20/25 मिनट में पार किया गया। मन ही मन अपने दामाद को आशीष दिया। पैदल चलती तो किस हाल में होती! रास्ते में बातें करते गए कि जब यहाँ तक आ ही गये हैं तो चलो ‘स्पेनिन’ वाले घुमा-फिरा तो देंगे ही, जैसे उन्होंने लिखा था कि केवल हम रांची तक पहुंच भर जाएं बाकी सारी ज़िम्मेदारी उनकी होगी। सभी दर्शनीय स्थलों पर घुमाया जाएगा, स्वाभाविक था कि उन्होंने गाड़ी आदि की व्यवस्था भी की होगी।
शुक्र है कि हवाई अड्डे पर ‘स्पेनिन’ वाले महाशय अपनी किसी छात्रा की कार लेकर ड्राईवर के साथ उपस्थित थे। जब हमने अपने स्वास्थ्य व बीमारी की बात बताई तब उन्होंने कहा, “बहुत अच्छा किया आप लोग आ गए, आपको यहाँ बिलकुल नवीन अनुभव प्राप्त होगा।”
हमारा मन चहकने लगा। उस दिन एअरपोर्ट पर भारी भीड़ थी। पता चला कि श्री अमित शाह पधारे हुए हैं, जिनके कारण कई रास्ते ब्लॉक हैं। खैर हमारे मेजबान हमें लेकर एक होटल में पहुँच गए और हमें होटल के मालिक को सुपुर्द कर दिया।
“चलिए, आप लोग पहले कमरा देख लीजिए। फिर हमें जाना होगा। आप जानती हैं कल कार्यक्रम है अत: व्यस्तता—–” मेजबान अपनी विवशता प्रस्तुत करने लगे।
“जी, मैं समझती हूँ—” कहकर मैंने उन्हें धर्म संकट से बचा लिया।
“आप लोग एक और महिला-लेखिका को अपने साथ एडजस्ट कर लेंगे?” उन्होंने अचानक प्रश्न दागा।
मैं अपनी गर्दन ‘हाँ’ में हिलाने वाली ही थी कि मेरी बेटी तुरंत बोल पड़ी, “इस कमरे में एक डबल-बैड’ के अलावा दूसरे पलंग के लिए कहाँ जगह है?” उसने कहा तो मेरा माथा भी ठनका।
मेजबान चुप्पी लगा गए और होटल वालों से हमारा सामान ऊपर रखने को कहकर यह कहते हुए चले गए कि आप लोग सुबह नौ बजे तैयार रहियेगा, गाड़ी आएगी। भूख के मारे बुरा हाल था। फ्लाईट में कुछ सैंडविच खाए थे जो पेट के किस कोने में दुबक गए थे, पता ही नहीं चल रहा था। खाने का समय था, लगभग दो बज रहे थे और मेज़बान ने यहाँ आकर हमें चाय तक को भी नहीं पूछा था। खैर, हमने सोचा कि फ़्रेश होकर यहीं कमरे में खाना मंगा लेते हैं। गर्मी के मारे बुरा हाल था। फटाफट फ़ोन से खाना ऑर्डर किया और पहले मैंने फिर बिटिया ने मुँह-हाथ धोकर कपड़े बदले। इतनी देर में खाना भी आ गया।
लड़के ने खाना मेज़ पर लगा दिया, जहाँ कोने में दो कुर्सियाँ भी थीं और बेटी के कहने से मिन्ररल वॉटर लेने चला गया। “कमाल है माँ, ए.सी क्यों नहीं चला रही हो? देखो वहीं होगा बैड पर इसका कंट्रोल, लाओ ए.सी चलाते हैं।” मगर हमें कहीं भी ए.सी का रिमोट नहीं मिला। इतनी देर में होटल का लड़का पानी की बोतल लेकर आ गया। “भैया! ए.सी का रिमोट देखना, कहीं मिल नहीं रहा है—” बिटिया ने लड़के से कहा।
“नहीं है—” उत्तर था।
“मतलब–ए.सी तो है न?” बेटी ने सहज भाव से ए.सी की ओर इशारा करते हुए कहा।
“ए.सी है पर उसका रिमोट नहीं देना है।”
“क्यों?” बिटिया की त्योरी चढ़ी।
“साब ने बोला है।” लड़के ने धीरे से कहा।
बिटिया ने तुरंत नीचे रिसेप्शन पर फ़ोन किया तो पता चला कि हमारे मेजबान ने हमें बिना ए.सी वाला कमरा देने के लिए कहा है। अब तो बिटिया के पूरी तरह बिगड़ने की बारी थी, उधर भूख के मारे हम बेहाल हुए जा रहे थे। “तुम रिमोट लेकर आओ, हम देख लेंगे।” उसने लड़के को ऑर्डर दिया और मेरी ओर घूरते हुए कुर्सी खिसकाकर बैठ गई।
“चलिए, आप खाना खाइए, दवाई भी खानी है।” उसने मेरी प्लेट में खाना परोसा और मैं चुप्पी साधे खाना खाने लगी। दो-तीन मिनट में ही लड़का रिमोट ले आया।
हम दोनों खाना खाकर सो गए। बहुत सवेरे के निकले हुए थे; थके हुए थे। शाम गए आँखें खुलीं, हमने स्पेशल चाय मंगवाई और फिर कहीं घूमने जाने के बारे में सोचना शुरू किया तो हमारे पास कोई वहाँ की व्यवस्था न थी। हमारे मेजबान अथवा उनकी ओर से तो किसी की शक्ल तक दिखाई नहीं दी थी। हम नीचे उतरकर आए और होटल के मालिक सरदार जी से बातें करने लगे। पिता-पुत्र दोनों बहुत ही सज्जन थे। उन्होंने बताया कि शहर में बीस हाथी घुस आए हैं, वे गाड़ी का इंतजाम तो कर सकते हैं किन्तु इस समय कहीं भी जाना खतरे से खाली नहीं है। होटल से निकलकर पैदल जाने की भी कोई संभावना नहीं थी क्योंकि गलियाँ संकरी थीं और रोड़ पर जाने के लिए काफ़ी दूर चलना पड़ता था।
अगले दिन सुबह मेजबान द्वारा भेजी हुई गाड़ी आ गई। अब तक और लोग भी आ चुके थे। दो गाड़ियों में सब समाकर एक मिशनरी स्कूल में पहुंचे। जहाँ का वातावरण घबराहट से भर देने वाला था। स्कूल की प्रिंसिपल बहुत मधुर स्वभाव की थीं। वहाँ चाय-पानी का इंतजाम था किन्तु गर्मी के मारे हम बेढब बनारसीदास हो रहे थे। मेरी सिल्क की साड़ी और बेटी का सिल्क का लंबा गाऊन शरीर से चिपककर जैसे त्वचा ही बने जा रहे थे। जिस हॉल में कार्यक्रम के लिए ले जाया गया, वहाँ ऊंचाईयों पर पंखे लटके हुए धीमी गति के समाचार पढ़ रहे थे।
एक चबूतरा हॉल में बना हुआ था, जिस पर पधारने के लिए हम सब सम्मानीय महानुभावों को पुकारा गया। कार्यक्रम माँ शारदे की वन्दना से प्रारंभ हुआ, जो वास्तव में एक सुन्दर नृत्य-नाटिका थी। उसके पश्चात कुछ मेजबान बोले, कुछ हम सम्मानीय अतिथिगण बोले। एक अजीब प्रकार की पसीनी गंध पूरे वातावरण में पसरी हुई थी और लग रहा था मानो हम अभी उल्टी कर देंगे।
खैर! माननीय अतिथियों को सम्मानित किया गया। ग्यारह हजार रुपयों का एक लिफाफा, अंग-वस्त्र यानि एक सूती दुप्पट्टा जैसा व एक प्रमाण-पत्र। शुक्र है कि उस दिन किसी ठीक-ठाक से होटल में खाना खिलाया गया और शाम को बहुत थके होने के उपरान्त भी हमें अपने मेजबान का मन रखने के लिए उनके द्वारा निर्देशित नाटक देखकर बोर होना पड़ा। नाटक से वापिस आते हुए हम कार में बैठे ही थे कि अचानक मेजबान ने कार का दरवाज़ा खोला, “कल कार नहीं आएगी। आप लोग अपने आप आ जाना। कल मेरी दो पुस्तकों का विमोचन है।”
मैंने और बिटिया ने एक-दूसरे का मुख देखा और चुप रह गए। हम वहाँ किसी को जानते तक नहीं थे। होटल पहुंचकर पता चला कि मेरे लिए ग्यारह हजार की राशि उपन्यास पर प्रदान की गई थी, उसी प्रकार दो लोगों को भी ग्यारह हजार रूपये प्रदान किए गए थे। जो लिफ़ाफ़ा खोलने पर पता चला कि स्टेज पर जो सूचना दी गई थी कि सबको ग्यारह-ग्यारह हजार दिए गए हैं, वे दो भागों में विभक्त करके कहनियों के दो लेखकों को प्रदान किए गए थे जबकि पब्लिकली तो मेजबान महोदय ने वाह-वाही लूट ली थी। साथ ही यह बात भी हवा में थी कि डॉ.प्रणव भारती एवं उनकी सुपुत्री का हवाई-खर्च भी उन्होंने ही वहन किया है।
अब हम बिल्कुल भी उस कार्यक्रम में जाने के मूड में नहीं थे किन्तु मरते क्या न करते! फर्स्ट हाफ़ में मेजबान महोदय की पुस्तकों का विमोचन था तो सेकेण्ड-हाफ़ में ‘रूबरू’ कार्यक्रम घोषित किया गया था, जिसमें सम्मानीय अतिथियों से आमने-सामने प्रश्नोत्तर किए जाने थे। हमने पहले सैशन में जाने के स्थान पर होटल के मालिक की सहायता से एक गाड़ी मंगवाई और सोचा कि यहाँ के दर्शनीय स्थलों को देखकर अपना यहाँ का आना कुछ तो वसूल कर लें। हमारे साथ एक और महिला भी जुड़ गईं थीं, जो बाहर से सम्मान हेतु ही आई थीं।
नैसर्गिक सुन्दरता का ह्रास देखकर हमारा दिल रो पड़ा। सारे जंगल काट दिए गए थे। बड़े-बड़े पत्थर जैसे अभी निकलकर गिर पड़ेंगे, ऐसा महसूस हो रहा था। बड़ी मुश्किल से एक झरना जैसा दिखाई दिया, थोड़ी-सी हरियाली दिखाई दी, गाड़ी में से उतरकर हमने कुछ तस्वीरें खींचकर अपना मन कुछ हल्का किया। दोपहर दूसरे सैशन ‘रूबरू’ में हमें पहुंचना ही था। सुना था कोई महिला शहर के बाहर से उस कार्यक्रम को ‘एंकर’ करने आ रही हैं। खैर हम भुनभुनाते हुए कार्यक्रम-स्थल पर पहुंचे, जहाँ हमारे मेजबान ने लपककर हमसे पूछा कि हम कहाँ रह गए थे? इस सैशन के बाद हमारा ‘रूबरू’ कार्यक्रम होना था। पुस्तकों के विमोचन का कार्यक्रम लगभग संपन्न हो चुका था, अब दोपहर के भोजन की बारी थी। हमें पूरे रास्ते भर ग़रीबी के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया था। खाने के लिए हमारे पास कहीं ठीक से स्थान पर जाने का कोई समय नहीं था अत: जो बिस्किट आदि हम साथ ले गए थे, उन्हें ही हम तबसे खा रहे थे लेकिन उनसे क्या होना था, पेट में चूहे दौड़ मचा रहे थे।
पता चला सब खाने के लिए जा रहे हैं। सब बाहर आए, हम भी निकले। बाहर मेजों पर खाना लगा हुआ था, हम एक ओर खड़े हो गए किन्तु हमसे खाने के लिए किसी ने पूछा तक नहीं। मैं और मेरी बेटी एक ओर बैठे रहे और न जाने क्यों हमारे मेजबान अपने लोकल लोगों से ऐसे चहककर बातें करते रहे मानो वे सब उनके मेहमान हों और हम उनसे रोज़ाना मिलने वाले। भूख के मारे बुरा हाल था किन्तु खाने के लिए किसी के न बुलाने पर हम और भी दुखी हो गए और खाना खाने नहीं गए। मेजबान ने भी भोजन ग्रहण किया और हम चुपचाप बैठे भुनभुनाते रहे।
खाने के बाद सैशन ‘रूबरू’ शुरू हुआ, जो लगभग दो घंटे चला। हमने अपनी गाड़ी रोकी हुई थी, जिससे हम वापिस होटल आ गए और वहाँ आकर स्नेक्स से पेट की अग्नि को शांत किया। अगले दिन की हमारी फ्लाईट थी। रांची के विश्व विद्यालय से फ़ोन आया, जहाँ कविता-पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था किन्तु तीन बजे की फ्लाईट होने के कारण मैंने उनसे क्षमा याचना कर ली, हम मन व तन से बेहद टूट-फूट चुके थे।
होटल के मालिक पिता-पुत्र बहुत ही सौम्य व व्यवहारिक थे। उन्होंने हमें बहुत स्नेह से बताया कि हम चिंता न करें, वे हमें एयरपोर्ट के लिए टैक्सी दिलवा देंगे। मज़ेदार बात तो तब हुई जब हमें पता चला कि हमारे मेजबान हमारा पेमेंट करके चले गए थे और होटल में स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दे गए थे कि इससे आगे का सारा पेमेंट वे हमसे लें।
अगले दिन हम ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ कुछ ऐसा सोचते हुए कि ‘कुछ सूखे पल’ ‘कुछ रोते पल’ इनमें से हमारे ये पल कौनसे और कैसे थे, जिनमें हमने सम्मान-कार्यक्रम में जाने के लिए निश्चित किया था। घर आकर हमने यह बात किसी से सांझा नहीं की वर्ना हमारी ही भद्द पिटनी थी कि तुम्हारे साहित्यिक सम्मान इतने उच्च स्तरीय होते हैं!! किन्तु मित्रों से तो साँझा करना बनता ही था सो।
कुछ ऐसे बे-आबरू होकर हम अपना सम्मान करवाकर लौटे कि सम्मान की परिभाषा ही भूल गए।
– डॉ. प्रणव भारती