कविताएँ
कील
बड़ा ऊटपटाँग-सा दिन था
उसने फिर बाल सँवारे
माँग मेँ सिन्दूर डाला
कलाई मेँ लाल चूड़ी
दुपट्टे का एक छोर
दराज़ के कोने से
निकली कील से
उलझ गया
उसने छुड़ाने की कोशिश
नहीँ की,
अब वो खीँचातानी
नहीँ करना चाहती थी
क्योँकि संस्कारोँ मेँ माँ से
ये बतौर विरासत मिला है उसे
कि तार-तार होने से
बेहतर है फंसे रहो
क्योँकि ये ही
समाज को सकून देता है,
और तुम्हेँ?????
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एक ग़लती
बड़ा सहेज के उसने
वापिस वहीं रख दिया वो बैग
जिसमें रखा था
उसका अतीत
तीन जोड़ी कपड़े,
एक छोटा-सा शीशा,
एक कंघी, दो रिबन
और एक
माधोपुर से मुंबई तक का स्लिपर
415 रुपये का टिकट
साथ ही उसने
सहेज दिया था बैग में
अपना अल्हड़पन,
बात-बात पर
खिल-खिलाकर
गूँजती हुई हँसी,
दुपट्टा न ओढ़ने पर
पड़ने वाली माँ की डाँट,
लापरवाह होने का
पिता का ताना,
सिनेमा का
गीत गाने पर
भाई की चुगली
करने की आदत
आज तीन बरस बाद भी
सब कुछ
वैसा का वैसा ही है
घर की याद,
माँ के लिये तड़प,
पिता के लिये स्नेह
और भाइयों से
बिछड़ने का दर्द
अगर कुछ बदल गया है
तो वह है
उसकी दिनचर्या,
उसके रात-दिन
और
रोज़ एक नये
पति के संग
बीतती रातों में
उसकी कराहती
सिसकती-सी
सुहाग-सेजें
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अब नहीँ हँसती रधिया
अब नहीं हँसती रधिया
कभी गूँजती थी
उसकी हँसी
पूरे मौहल्ले मेँ
सब खबर रखती थी
वो मौहल्ले की
किसके घर मेँ
बाप-बेटी का झगड़ा है,
किसकी लड़की का
किसके संग लफड़ा है,
कौन ज्यादा
फ़ैशन करती है,
कौन स्टेशन मास्टर के
लड़के पर मरती है,
किसकी बेटियाँ
रात-रात भर
घूमा करती हैँ,
कौन लड़की
स्कूल के बहाने
सिनेमा जाती है,
राजू के लड़के के संग
किसकी बेटी
फूर्र होने वाली है,
किसने अपनी बेटी को
कोई काम धंधा
नहीँ सीखा रखा है,
किसने अपनी लड़की को
लड़कोँ जैसा
बिगाड़ के रखा है,
क्योँ सीतया अपनी
नौकरी करती
लड़की की
शादी नहीँ करती,
क्योँ बिरजू की
जवान लड़की को
कोई रिश्ता नहीँ मिलता,
क्योँ विधवा फूलवा
काम करने के बहाने
शंभू पंडित के
खेतोँ की ओर
दौड़ती है
सब जानती थी
रधिया
मगर जब से
वो बिन ब्याही
सुनैना के बच्चे की
नानी बनी है
तब से
नहीँ हँसती रधिया
– अनामिका कनोजिया प्रतीक्षा