कथा-कुसुम
कहानी- विस्थापन के बाद का रास्ता
उसके मोबाईल की घण्टी जब शाम के ठीक सात बजे बज उठी तब वह बरामदे को पार करता हुआ लगभग दौड़ता-सा मोबाईल लेने लपका। मोबाईल के स्क्रीन पर बिल्कुल नये नंबर को देख उसने अंदाज़ा लगाया कि यह अवश्य ही किसी प्रशंसक का काॅल है, जो उसकी छपी कविता की बधाई एवं प्रशंसा के लिए ही किया गया है। अपने गले को साफ करते हुए उसने जितना संभव हो सका अपनी आवाज़ को मधुर बनाया और बोल पड़ा, ‘‘हैलो! कौन?’’
‘‘जी मैं बोल रहा हूँ, बब्बन।’’ उधर से आवाज़ आयी।
‘‘बब्बन कौन?’’ उसने प्रश्न किया।
‘‘अरे भैया जी मैं बब्बन बोल रहा हूँ, मुंबई से। पहचाना नहीं क्या?’’ बब्बन ने कहा।
‘‘ओह! तो तुम हो, कहो कैसे याद किया?’’ बड़े ही आश्चर्य से उसने पूछा।
‘‘मैंने हिन्दी लेखकों की एक फेसबुक साइट खोली है। आपको तो मालूम ही है कि वर्तमान में हिन्दी की दशा कितनी दयनीय स्थिति पर आ लगी है, कितनी कम किताबें अच्छे स्तर की प्रकाशित हो पाती हैं और जो होती हैं, उनके लिए बाज़ार नहीं मिल पाते। अनेकों हिन्दी में लिखने वाले लोग भरे पड़े हैं, जिन्हें कोई मंच नहीं मिल पाता। अंग्रेजी में लिखने वाले धड़ल्ले से बिकते हैं और हर कहीं पोपुलर होते हैं। आप समझ रहे हैं न कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ?’’ बब्बन ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा।
‘‘हाँ मैं समझता हूँ इस बात को, परंतु इसके लिए कई बड़े साहित्यकार एवं मर्मज्ञ अपनी कोशिशों में लगे हैं, जिससे हिन्दी और हिन्दी साहित्य को अपना एक विशिष्ट स्थान दिया जा सके और साथ ही नवलेखकों के लिए हिन्दी साहित्य की तरफ से प्रोत्साहित करने का भी भरपूर प्रयास किया जा रहा है। अब समय काफी बदल चुका है।’’ उसने समझाने का प्रयत्न किया।
‘‘आप नहीं समझ रहे कि मैं क्या कह रहा हूँ। मैं विश्वस्तर पर हिन्दी लेखकों को लाने की बात कर रहा हूँ।’’ बब्बन ने जैसे किसी गूढ़ एवं रहस्यमय विषय से परदा उठाया हो।
‘‘हूँ, सो तो है।’’ उसने अपना सिर झटक मुस्कराते हुए इधर-उधर कुछ इस प्रकार से देखा कि कहीं बब्बन आस-पास बैठा उसे ऐसा करता हुआ न देख ले।
‘‘आप लिखते तो हैं न या लिखना बंद कर दिया है?’’ बब्बन ने सवाल दागा जैसे उसने अब तक किसी अंतरिक्ष यान में सफर करने के पश्चात् अभी ही पृथ्वी पर कदम रखा हो।
‘‘हाँ, लिखता तो हूँ। कभी-कभार छप भी जाता हूँ। इधर ही मेरी एक कविता……।’’
‘‘खैर छोड़िये, मैं आपको ऊंचाई पर ला खड़ा कर दूंगा। आपको लोग आज जानते भी नहीं, लेकिन कल मैं आपको लोगों के बीच पोपुलर बना कर छोड़ूंगा देखना।’’ बब्बन ने उसकी बात को बीच में ही काटकर अपनी बात इस प्रकार घुसेड़ दी जैसे वह साहित्य जगत का कोई वक्ता हो, जिसने लाईने लिख रखीं हों और जिसे सिर्फ पढ़ा जाना शेष था।
बब्बन की बात से परेशान होते हुए उसने ख़ुद को संयत कर कहा, ‘‘और सुनाओ बब्बन भाभीजी कैसी हैं और शादी के बाद का जीवन कैसा चल रहा है?’’
‘‘ठीक ही है बस, काम से फ़ुर्सत कहाँ है। अभी भी ऑफिस में ही हूँ। आप बताएँ आपका कितना प्रतिशत चलता है घर में?’’ बब्बन ने उसके सवालों को उसी की ओर मोड़ दिया था।
‘‘हमारी तो साझेदारी है यहां, प्रतिशत वाली कोई बात नहीं।’’ उसने अनमने भाव से कहा और उसी क्षण उसे बब्बन की शादी के दिन की याद आयी थी, जब बब्बन ने उसे अपनी शादी में शामिल करना भी उचित न समझा था। इसकी वजह उसे बहुत बाद में मालूम चली थी और उसने सिर्फ यह अनुमान लगाया था कि अचानक रूपयों की बरसात होने पर आम आदमी के दिमाग पर क्या असर हो सकता है।
‘‘आप न बस मेरे लेखकों के लिए बनाये नये अकाउन्ट पर आ जाएँ और अपना लिखा डालते रहें। हजारों की संख्या में लोग आपको पढ़ेंगे और तब लोग आपको जानने लगेंगे। मैंने आपके फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भी भेज दी है आज।’’ बब्बन ने अपनी बात को पुनः विस्तार देते हुए कहा था।
‘‘ठीक है भाई देखता हूँ।’’ उसने बड़ी ही धीमी आवाज़ में कहा।
‘‘वैसे आप लिखते क्या हैं? कविता लिखा करें, थोड़े में ही आपका काम हो जाया करेगा, कहानियों में तो अधिक समय खर्च करना पड़ता है। कविताएँ ज़्यादा बिकती हैं।’’
‘‘भाई मैं कवितायें ही लिखता हूँ, तुमने देखा तो होगा ही जब तुमने मुझे अपने अकाउण्ट से फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी और मैंने रिजेक्ट कर दी थी।’’ इस बार उसने तैश में आकर कहा।
‘‘याद नहीं है, शायद देखा होगा। वैसे इस बार मैंने अपने अकाउंट से रिक्वेस्ट नहीं भेजी है, बल्कि यह हिन्दी लेखकों के लिए बनाया अकाउण्ट है, एक्सेप्ट कर लिजियेगा।’’ बब्बन के हँसने की आवाज़ आयी थी, जिसके पीछे से किसी महिला के हँसने की धीमी आवाज़ सुन उसने अनुमान लगाया कि बब्बन अपने घर में ही बैठा है।
‘‘आप अपने नाम में कोई उपनाम क्यों नहीं जोड़ते जैसे मजबूर, घायल, अकेला, आहत, बातूनी, कयामत, ढ़ेंकी, तमंचा, तूफ़ानी, कारतूस आदि। चल निकलेंगे एकदम से, मैं चला दूंगा। अभी तो चार सौ-पांच सौ लोग ही इस अकाउण्ट में शामिल हुए हैं, आप भी हो जायें। फायदा होगा। अच्छा फिर काॅल करूंगा, रखता हूँ।’’
उधर बब्बन ने अपना मोबाईल रखा और इधर उसका दिमाग चकराता रहा था कि इस बब्बन को क्या हुआ है जो आज महीनों बाद बात भी की तो किसी व्यावसायिक साहित्यिक समीति के कार्यकर्ता के रूप में, जो सिर्फ अपने काम और दाम की बात करता है। हो न हो यह महज़ उसके फेसबुक से उसकी मित्रता को अस्वीकार करने का ही नतीजा रहा होगा, जो उसने आड़े हाथ लिया था और एक वर्ष के लंबे इन्तज़ार के बाद अपना दिमाग इस प्रकार से खर्च किया था। कारण जो भी रहा हो परंतु जिस व्यक्ति को साहित्य से कोई लेना-देना नहीं, वह इसमें अपनी टांग क्यों घुसेड़ने लगा है, इससे उसे क्या फायदा होगा। मैंने तो उसके फ्रेंड रिक्वेस्ट को इसलिए अस्वीकार किया था कि जिसने असल जीवन में रिश्ते की कोई कीमत न समझी, वह इस आभासी दुनिया में रह कर क्या करेगा, सिर्फ लाईक और कमेंट करने के सिवा। यह सब सोचते हुए उसने अपना फेसबुक खोला था, जिसमें ‘हिन्दी लेखकों के लिए’ नाम से एक फ्रेंड रिक्वेस्ट आयी थी। उसने देखा कि सच में लगभग पांच सौ लोग महीने भर के अंदर शामिल हो गये थे। उसने एक झटके में बब्बन के उस जाल को अपने अकाउण्ट से हटा डाला और बुदबुदाया, ‘‘देखते हैं यह कितने दिनों तक चल पाता है। साहित्य जगत में अभिव्यक्ति का अब विस्तार हो चुका है, लोग जल्द ही जान जायेंगे कि यह सिर्फ अपने फायदे के लिए खोला गया अकाउण्ट है न कि साहित्य की पारदर्शिता के लिए जहाँ सच्चे साहित्य के दर्शन होंगे।’’
उस दिन के बाद फिर कभी बब्बन का कोई काॅल नहीं आया था। इसकी वजह उसे अच्छी तरह मालूम थी। महीने भर बाद उसने बब्बन के ‘हिन्दी लेखकों के लिए’ एकाउण्ट में उत्सुकतावश झांका था। तकरीबन पांच हजार लेखकों, प्रकाशकों, साहित्यिक संस्थाओं आदि की भीड़ देखकर उसके मन में हल्की-सी कोफ्त हुई और इस पर आये विचार को उसने काग़ज़ पर कुछ इस प्रकार लिखा,
‘‘चरवाहा जहाँ हाँक ले जाये
कंपास दिशा जो भी दिखाये
अथाह समुद्र में कप्तान जिस ओर जाये
नेता बातों के चूल्हे जलाये
संत भूखे को दर्शन सुनाये
मत रोकना उन्हें कभी भी
भीड़ को हांकने के लिए चरवाहा,
दिशा के लिए कंपास,
समुद्र में कप्तान,
सत्ता में नेता,
जीवन दर्शन के लिए संत
की जरूरत है हमें
हाँ, इतना याद रखना कि
चरवाहा, कंपास, कप्तान,
नेता और संत की
पड़ताल अवश्य करना
क्योंकि बिना पड़ताल के
तुम ठगे जाओगे
और इसका दोष
तुम्हारे ही माथे होगा।
लिख लेने के बाद उसने सोचा- बब्बन साहित्य पर सवार होने का थोड़ा भी श्रेय उसे देता तो शायद वह उसे माफ़ भी कर देता, परंतु उसने इस ख्याल का सारा श्रेय स्वयं ही ले लिया। बब्बन की बात एक तरह से सही भी है कि मुझे अपना कोई उपनाम रख लेना चाहिए जो ख़ालिश मेरी पहचान होगी। परंतु बब्बन के सुझाये नामों में उसे कोई दिलचस्पी न थी, अतः वह शब्दों की कुंजी ले अपने लिए नाम ढूंढने में लग गया।
– रश्मि पाठक