कथा-कुसुम
कहानी- मुट्ठी में आकाश
“माँ, क्या करती हो आप! दवा क्यों नहीं खायी?” मेज पर ज्यों की त्यों रखी टेबलेट्स को देख अपनी आवाज़ में थोड़ा-सा गुस्सा भर महक ने कहा।
वह बाज़ार गयी थी फल, सब्जी आदि लाने और जाने से पहले दवा, पानी का गिलास माँ के बिस्तर के पास मेज पर रख गयी थी, लौटी तो देखा माँ तकिया पर सिर टिकाये, आँखें मूंदे बैठी हैं और दवा वैसे ही रखी है।
मोनिका जी के चेहरे पर एक स्नेहिल मुस्कान खिंच गयी। “अरे मेरी रानी बिटिया, गुस्सा नहीं होते। शायद झपकी लग गयी थी, इसीलिए रह गयी।” जबसे वे बीमार हुईं हैं, उनकी लाडो पूरी तरह से माँ के रोल में हैं और वे भी महक के पूरी ज़िम्मेदारी से सबकुछ करने के इस प्रयास को देख तुष्ट सुख से भर उठती हैं।
“माँ!!!”
“हाँ, बोलो बेटा।”
“माँ, भैया आ रहे हैं थोड़ी ही देर में।”
“अभिनव, क्यों अचानक! इन दिनों तो वह बहुत व्यस्त था न!” थोड़ा सीधे होकर बैठने का प्रयास करती हुई वे बोली, “तुमने उसे बता दिया क्या, मैंने मना किया था न!”
“पर परसों रात तबीयत कितनी ख़राब हो गयी थी आपकी। अगर शर्मा आंटी ने उतनी रात में फोन न उठाया होता तो मैं बहुत डर गयी थी मम्मा।”, कहते-कहते महक उनके पास आ, उनकी छाती पर सिर रख पैर समेट दुबक गयी बिल्कुल उनसे सट कर। कांपते हाथों से उसका सिर सहलाती मोनिका जी ने अपनी हांफती साँसों को थोड़ा थिर करने की कोशिश में सिर फिर से तकिए पर टिका दिया।
और अनजाने ही उनका मन बहुत पीछे चला गया।
बा-मुश्किल आठ साल की रही होंगी वे, जब कार दुर्घटना में उनके माता-पिता की मृत्यु हो गयी थी। रातों-रात पापा की परी, मम्मा की सोनचिरैया चाची के बच्चों की मोनिका दीदी ही भर रह गयी थी। तीनों बच्चों में वही सबसे बड़ी थी तो चुप भी उसी को रहना था, सहन भी उसी को करना था और यह उससे किसी को मुँह खोल के कहने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी थी शायद। परिस्थियाँ कहें या चाची के हाव भाव, उसे अपने आप ही सब समझ में आ गया था। परियों जैसी सफेद, बेबी पिंक फ्रिल वाली उसकी सबसे पसंददीदा फ्रॉक्स हों, बार्बी डॉल्स या रंग-बिरंगे पेंन्सिल बॉक्स सब उसकी आँखों के सामने बच्चों की ज़िद के नाम सोनी, पिंटू के हाथों चले जाते रहे और वह बस चुपचाप देखती रही। पता नहीं क्या पथरा गया था उत्ती-सी उम्र में भी उसके भीतर कि न ज़िद करती थी, न रोती थी। फिर धीरे से पुराना स्कूल छूटा, सहेलियाँ छूटीं।
पर इन सबके बीच उसकी किताबों से दोस्ती बढ़ती गयी। जहाँ भी, जो कुछ भी पा जाती, जब भी समय निकाल पाती; पढ़ डालती। हाँ, एक बात पर चाचा अड़ गये थे कि भले प्राइवेट ही सही पर ग्रेजुएशन तो उसे करा ही देंगे।
और फिर चाची ने कर दी उसकी शादी। उम्र में उससे पंद्रह साल बड़े दो बच्चों के पिता से। रूप-रंग में वह साधारण ही थी और फिर चाची को पैसा भी नहीं खर्च करना था। पढ़ाई-लिखाई भी कोई विशेष नहीं थी। सबको तो यही पता था कि पढ़ने में उसका मन ही नहीं लगता था, वो तो चाची ही थी जिन्होंने ठेल-ठाल कर उसे प्राइवेट बी.ए. करा दिया था। उसका ज्ञान उसके भीतर और मार्कशीट बक्से में बंद थी।
नहीं, सफेद घोड़े वाले राजकुमार का कोई सपना तो उसने कभी देखा ही नहीं था पर हाँ, यह भाव तो कभी-कभार मन में अंकुआता ही था कि शायद कोई तो होगा, जो उसका अपना होगा। उसका एक अपना घर। पर कहाँ मिल पाया वह भी। यहाँ पर भी वह केवल काम करने के लिए लायी गयी थी। काम करने से उसे कोई परहेज भी नहीं था पर उससे तो कोई बात तक करने वाला नहीं था। दोनों बच्चों को सास उसके पास फटकने तक नहीं देती थी। वैसे भी सबने मिलकर उनके मन में ज़हर भर रखा था कि वह सौतेली माँ है। उनकी माँ को तो ईश्वर ने छीन लिया था और अगर वे सतर्क नहीं रहे तो पापा को यह छीन लेगी और बच्चों के पापा का उनसे रिश्ता तो दूर, बात भी शायद ही कभी होती हो। हाँ, देर रात कमरे में आ; पति धर्म निभाना वो कभी नहीं भूलते थे और उसे भी वह अपने बाकी सारे कर्त्तव्यों की तरह निभा देती थी।
शुरू के वे आठ साल छोड़कर उसकी जिंदगी जैसे ठहरे पानी का तालाब, न कोई भंवर, न लहरों का आलोड़न और न ही कोई तूफान। सब ठहरा और पथराया-सा। तकलीफें कम नहीं थीं, प्रताड़ना भी बहुत सही, छिना भी बहुत कुछ, मिला कुछ भी नहीं पर वह सब सहती रही। निभाती रही बिना किसी शिकायत के। शिकायत करती भी तो किससे, कोई शिकायत सुनने वाला तो चाहिए न। पर उसने अपने भीतर कड़ुआहट नहीं आने दी। पता नहीं कौनसी चीज थामे रहती थी उसे, रसोई की खिड़की से झलकता एक टुकड़ा आसमान, आँगन में तुलसी का बिरवा, ठाकुर जी का दिया या घर के स्टोर में कबाड़-सी पड़ी किताबों की दुनिया या फिर अचेतन में कहीं फुसफुसाते साँस रुकने से पहले बोले गए मम्मी के अस्फुट बोल, ‘मेरी सोनचिरैया, अभी तो तेरे पंख उगे भी नहीं और मैं छोड़ कर जा रही हूँ तुम्हारा साथ पर बिटिया घबराना मत मुझे पता है किसी दिन बहुत ऊंची उड़ान भरेगी हमारी बिटिया खूब खुले आसमान में। कभी हारना मत, रानी। मैं दिखूं भले न तुम्हें पर हमेशा रहूँगी तुम्हारे आस-पास।’ ऐसा ही कुछ बोली थी मम्मी। वह कुछ समझ नहीं पायी थी उस समय पर जैसे-जैसे बड़ी होती गयी माँ के वो बोल ही जैसे उसे हिम्मत भी बंधा जाते थे और उम्मीद भी। उसे कुछ पता नहीं था कि कैसा आकाश, कौनसी ऊंचाई और सबसे अधिक कैसे भला बदलेंगी स्थितियाँ पर कहीं भीतर एक विश्वास था, जो उसे ऊर्जा देता रहता था।
और फिर वह दिन जब तीसरे एबॉर्शन के बाद कमरे में होती सास और अपने पति की बातें सुन ली थी उसने। अब तक तो उसे भी लगने लगा था कि शायद उसकी सास ठीक ही कहती है कि जो भी उसका बहुत अपना होगा, वह बच ही नहीं सकता। अभागिन ही है वो पर बिल्कुल सन्नाटे में आ गयी थी वह यह जान कर कि पिछले तीन साल में तीन बार जो उसके साथ हुआ, वह हुआ नहीं था, किया गया था। अब भी माँ-बेटे में बहस इस बात को लेकर हो रही थी कि माँ की चिंता थी कि वह बहुत कमजोर हो जायेगी तो घर कौन सम्हालेगा और बेटे का कहना था कि आनंद उठाना तो उसका अधिकार है। घर के सदस्यों में बढ़ोत्तरी भी नहीं चाहिए थी क्योंकि और लोगों का खर्चा उठाना उसके वश की बात नहीं है। बस, इतनी ही कीमत थी एक जिंदगी की। उसकी फिक्र तो नहीं थी पर अपने अंश से भी कोई मोह नहीं। खाने में चोरी छिपे दवा मिलाते समय कभी महसूस नहीं हुआ कि हत्या कर रहे हैं ये लोग। नहीं, इतना सब नहीं सोच पायी थी वह। बस जैसे गरम, पिघलता शीशा उसके भीतर चीरता हुआ उतर गया था। सुन्न-सी हो गयी थी। घिसट कर कमरे तक गयी और पता नहीं कब तक ऐसे ही पड़ी रही। जब आँख खुली तो कमरे में वह अकेली थी और बिल्कुल अंधेरा था। घड़ी पर नज़र पड़ी, आधी रात हो रही थी। वह उठी, अपने बक्से से अपनी मार्कशीट्स वाला लिफाफा निकाला और वह बैग, जिसमें मम्मा-पापा की बचपन में उसके लिए खरीदी दो किताबें और एक उन तीनों की फोटो थी और निकल गयी चुपचाप गेट से बाहर।
उसने कुछ नहीं सोचा था कहाँ जायेगी, क्या करेगी, बस उसे इतना पता था कि अब यहाँ और नहीं रुक सकती। यह भी उसे याद नहीं कि वह कितनी दूर चली, क्या हुआ पर जब दुबारा आँख खुली तो वह बीना दीदी के घर में थी। उन्होंने ही बताया था कि वे अपने दौरे से लौट रहीं थीं कि सड़क किनारे बेहोश पड़ी उसकी आकृति पर उसकी नजर पड़ी थी। दोनों थैले उसने बेहोशी में भी कस कर छाती से चिपका रखे थे। वे उसे अपने साथ ले आयीं थीं। वे भी अकेली थी, इस शहर की एस.डी.एम. साहिबा।
और फिर उसके हिस्से का आकाश उसे मिलने लगा। नौकरी, आगे पढ़ाई और जीवन व्यवस्थित होता गया। फिर वह अनाथालय से इन दो भाई-बहन को गोद ले आयी थी। इनके माँ-पिता भी एक सड़क दुर्घटना में इन्हें छोड़कर चले गये थे। फिर तो महक और अभिनव के संग उन्होंने अपना बचपन जिया, अपना माँ होना जिया और अब वो दूसरों को भी जीना सिखाती हैं।
माँ क्या सोचकर मुस्कुरा रही हो और सारा प्यार इसी बिल्ली को मिलता रहेगा क्या!! अभिनव की आवाज़ से उन्होंने आँखें खोली और महक भी उठ गयी पर और कसकर उनसे लिपट रोहित को चिढ़ाने लगी।
कितना प्यार करते हैं बच्चे उनसे और कितनी फिक्र करते हैं उनकी। अब तो दोनों बड़े हो गये हैं, सक्षम भी हो गये हैं पर वो असमय आँख बंद कर बैठ भी जाय तो बिल्कुल बच्चों की तरह परेशान हो जाते हैं। अभिनव डॉक्टर से फोन पर बात कर रहा था और महक उनके लिए जूस निकाल रही थी।
उन्होंने फिर आंखें बंद कीं और तृप्ति से भर सिर पीछे टिका लिया। उन्हें लगा किसी ने फुसफुसा कर उनके कानों में कहा, आकाश भी तुम्हारा, पंख भी तुम्हारे पास, अब मैं जाऊं सोनचिरैया!
– नमिता सचान सुंदर