कथा-कुसुम
कहानी- बर्फ
पिताजी के भीतर एक अकेलापन रहता है। सुबह की धूप में चमकता हुआ। रात की चाँदनी में दमकता हुआ। बारिश में नहाता हुआ। ठंड में सिकुड़ता-सिमटता हुआ। उदासी में बिलखता हुआ। पिताजी के भीतर एक अकेलापन रहता है।
पर वे अपने अकेलेपन के साथ अकेले नहीं होते। वे उससे ढेर सारी बातें करते हैं। अक्सर उसके कानों में फुसफुसाते हैं। कभी-कभी कोई भूला हुआ उदास गीत भी गुनगुना कर उसे सुनाते हैं। पर हमारे पास आते ही वे बर्फ हो जाते हैं।
अक्सर पिताजी काठ की कुर्सी पर बैठे-बैठे काठ हो जाते हैं। उनकी आँखें शून्य में अटक जाती हैं। ज़रूर वे अपने अकेलेपन से कोई न कोई बात कर रहे होंगे। मैं चाहता हूँ कि उनके अकेलेपन के ताल में एक पत्थर फेंकूँ।
“पिताजी…”
पत्थर ‘गुड़ुप्’ से ताल में डूब जाता है। कोई लहर नहीं उठती।
मैं चाहता हूँ कि उनके अकेलेपन के ताल में मछलियाँ तैरें।
“पिताजी, मौसम विभाग कह रहा है इस साल खूब बारिश होगी।”
पिताजी का ताल जम कर ठोस हो गया है। वहाँ की सारी मछलियाँ बरसों पहले मर चुकी हैं।
पिताजी काठ की कुर्सी पर काठ-से बैठे हैं। अपने भीतर के शून्य में खोए हुए। वहाँ केवल उनका अकेलापन है। हममें से कोई वहाँ नहीं जा सकता। उन तक नहीं पहुँच सकता। वे हमारे बीच होते हुए भी यहाँ नहीं हैं।
पिताजी शुरू से ऐसे नहीं थे। वे बेहद हँसमुख थे। जीवन से भरे हुए। उनके जीवन के आकाश में भी इंद्रधनुष थे। उनके जीवन के बाग़ में भी फलों से लदे हुए पेड़ थे। कोयलों की कूक थी। उनके जीवन में भी फुलवारी थी। तितलियाँ थीं। जुगनू थे। चाँदनी थी। उनकी आँखों में भी हरियाली थी।
तब बड़े भैया जीवित थे। माँ बड़े भैया के हत्या के सदमे से नहीं मरी थीं। मँझले भैया ने बदला लेने के लिए हत्यारों को नहीं मारा था। वे आजीवन कारावास नहीं भुगत रहे थे। दीदी की शादी नहीं टूटी थी और वे वापस घर नहीं लौट आई थीं।
तब सारा आकाश हमारा था। अलाव गर्माहट देती थी। भुनी हुई मूँगफलियाँ खाने में मज़ा आता था। बारिश में भीगना अच्छा लगता था। शाम को दफ़्तर से लौट कर बड़े भैया अक्सर किशोर कुमार के गीत गाते थे। मँझले भैया काठ की मेज़ पर साथ-साथ तबला बजाते थे। मैं ख़ुशी से नाच उठता था और दीदी कैमरे में हमारी तस्वीरें क़ैद कर रही होती। पिताजी उन दिनों खुलकर हँसते थे। माँ रसोई में से गर्मा-गर्म पकौड़े ले आतीं। और साथ में ‘डंकन’ की ‘डबल डायमंड’ चाय। पिताजी को चाय पीने का बड़ा शौक़ था। वे ख़ुद बढ़िया-से-बढ़िया चाय ख़रीद कर लाते। चाय पीने के बाद पिताजी और बड़े भैया शतरंज की बाज़ी लगाते। मैं, मँझले भैया और दीदी ताश खेलने लगते। माँ चश्मा लगाकर ‘कल्याण’ उठा लेतीं। वे भी क्या दिन थे।
“पिताजी, चाय ले लीजिए।” दीदी शाम की चाय बना लाई है।
पिताजी के अकेलेपन के ताल में बर्फ जम गई है। हड्डियों को जमा देने वाली ठंडी, ठोस बर्फ। वहाँ अब लहरें नहीं उठतीं। ज्वार नहीं आता। सिहरन नहीं होती।
“पिताजी, दीदी चाय लाई है।”
अगर मैं ड्रिलिंग-मशीन लेकर इस बर्फ में छेद कर दूँ तो?
शुरू-शुरू में पिताजी ने काठ होने के विरुद्ध संघर्ष किया था। बर्फ के जमने के ख़िलाफ़ अशक्त-सी ही सही, लड़ाई लड़ी थी। अपने-आप को किसी तरह बटोर कर उन्होंने माँ को दिलासा दिया था- “मैं मँझले को छुड़ा लूँगा।”
फिर वकीलों और कोर्ट-कचहरियों के चक्कर काटते हुए उनके जूते घिसने लगे थे। आस के कच्चे धागे टूट गए थे। मँझले भैया को सज़ा हो गई थी। बड़े भैया अब नहीं रहे थे। घर में मुर्दनी छा गई थी। पिताजी पत्थर हो गए थे। माँ ने बिस्तर पकड़ लिया था।
बीच-बीच में पिताजी छटपटा कर अपनी सुन्नावस्था से निकलने की कोशिश करते। बीमार माँ के सिरहाने बैठकर कहते- “सुनती हो! छोटू है न अभी। सब ठीक हो जाएगा।” पर भीतर कहीं वे भी जान चुके थे कि अब सब ठीक कभी नहीं हो पाएगा। माँ की कातर आँखें भी यह जानती थीं।
फिर एक शाम दीदी वापस लौट आई थीं। ससुराल वालों ने उन्हें निकाल दिया था। शादी के पाँच साल बाद भी वे उस घर को वारिस नहीं दे सकी थीं। जिस दिन मँझले भैया को सज़ा हुई थी, उसी रात माँ ने आँखें मूँद ली थीं। हमेशा के लिए। पिताजी नहीं रोए थे। वे सुन्न हो चुके थे। उनके भीतर कुछ जम गया था। उस रात ओले पड़े थे और ख़ूब पानी बरसा था। एक काली बिल्ली बाहर बरामदे में ऊँची आवाज़ में रोती रही थी। मैंने उसे एक-दो बार खदेड़ा भी था पर वह हर बार वापस लौट आती थी। बिजली चली गई थी और मोमबत्ती की रोशनी में मृत पड़ी माँ का चेहरा डरावना लग रहा था। हम सब की परछाइयाँ दीवार पर प्रेतों-सी डोल रही थीं। मैं बार-बार मोमबत्ती जलाता पर बाहर की तेज़ हवा दरवाज़ों और खिड़कियों में से भीतर आकर बार-बार मोमबत्ती बुझा देती। एक भीगा हुआ चमगादड़ खिड़की के रास्ते भीतर घुस आया था और दीवारों से टकरा-टकरा कर सिर धुन रहा था। बाहर किसी पेड़ पर एक उल्लू देर तक ‘वोंक्, वोंक्’ करता रहा था। दीदी माँ के सिरहाने सिसक रही थी। मेरी आँखें भी रो-रो कर लाल हो गई थीं। पर पिताजी की आँखों में एक बूँद पानी भी नहीं था। वहाँ एक वीरान खंडहर था, जहाँ शायद रिक्तता की आँधी साँय-साँय कर रही थी। सुबह हम माँ को जला आए थे। तब तक पिताजी के भीतर सब कुछ जम कर बर्फ हो चुका था।
मेज़ पर रखी चाय ठंडी हो चुकी है।
“पिताजी…”
यदि उनके अकेलेपन के ताल में दुख की काई जमी होती तो मैं उसे साफ़ कर देता। मैं उस ताल में से पीड़ा की गदा भी निकाल देता। पर वहाँ तो बर्फ जमी हुई थी। ठंडी और ठोस। अंटार्कटिका से भी ज़्यादा।
पिताजी, अगर मैं वैज्ञानिक होता तो एक ‘टाइम-मशीन’ बनाता। फिर हम सब पाँच साल पहले के समय में लौट जाते और समय की धारा मोड़ देते।
तब बड़े भैया जीवित रहते। मँझले भैया को सज़ा नहीं होती। दीदी ससुराल से वापस नहीं आतीं। माँ सदमे से नहीं मरतीं। और पिताजी सामान्य लोगों की तरह हँसते और रोते। उनका अकेलेपन का ताल नहीं होता। और वहाँ बर्फ नहीं जमी होती।
इस बीच और भी बहुत कुछ हुआ। चाचाजी ने मौक़ा पाकर गाँव का पुश्तैनी मकान और ज़मीन हथिया ली। पिताजी के इलाज के लिए बहुत कर्ज लेना पड़ा। मुझे अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर क्लर्की करनी पड़ी…।
मेरे पास पिताजी को बताने के लिए बहुत कुछ है। पर वे अब मेरी बात नहीं सुन पाते। वे पास होकर भी बहुत दूर हैं। वे साथ होकर भी नहीं हैं।
“पिताजी, भीतर चलिए। अँधेरा हो गया है।”
दीदी ने बरामदे की बत्ती जला दी है। अँधेरा सरक कर थोड़ा दूर चला गया है। लेकिन ताक में है कि कब बत्ती बंद हो और वह लपक कर हमें दबोच ले।
पिताजी जड़ हैं। वे काठ की कुर्सी पर जैसे काठ हो गए हैं। उनकी आँखें गाढ़े अँधेरे में टिकी हैं। ज़रूर वे अपने अकेलेपन से बातें कर रहे होंगे। मैं उनकी आँखों में देखता हूँ। वहाँ दूर तक ठोस बर्फ जमी हुई है।
भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में जमी बर्फ भी बीच-बीच में पिघलने लगती है। मैं पूछना चाहता हूँ- पिताजी की आँखों में जमी बर्फ कब पिघलेगी? क्या आप बता सकते हैं?
– सुशांत सुप्रिय