कथा-कुसुम
कहानी- पिकनिक
निम्मो दीदी आ गई
निम्मो दीदी आ गई
दूर से ही ताँगे की आवाज़ सुनकर एक ने दूसरे के, दूसरे ने तीसरे के कानों में उड़-उड़ कर खबर फूँकी और पलक झपकते ही बच्चों की ख़ासी वानर सेना किसान कॉलोनी के उपाध्याय-भवन के गेट के पास एकत्र हो गई।
ज्योंही ताँगा रुका, सभी बच्चे कूद-फाँद कर सामान उतारने लग गए और निर्मला जब तक ताँगे वाले को पैसे देती, उसका सामान अंदर भी पहुँच गया और उसे इसका उसे पता ही न चला, वो पर्स हिलाती हुई आगे बढ़ी तो गेट पर ही उसके बड़े भाई विपुल और भाभी लीना ने मुस्कुराकर स्वागत किया। बैठक में उसके साथ ही सारी वानर सेना प्रवेश कर गई।
बालों की लंबी चोटी लटकाए सूट दुपट्टे में लिपटी, सिमटकर चलने वाली निर्मला अब कटे बालों और जींस-टॉप में खूब फब रही थी। अतिरिक्त आत्म विश्वास चेहरे से छलका पड़ रहा था।
वैसे तो सभी बच्चों के चेहरे, अपनी हमजोली को देखकर खिले हुए थे लेकिन उनमें मिली और निपुण के चेहरे अलग ही चमक रहे थे। आखिर निम्मो दीदी उनकी बुआ जो थीं। बाकी बच्चे पड़ोसी कृषक परिवार के थे। सभी बच्चों ने आसपास मोर्चाबंदी कर ली। अब उन्हें निम्मो दीदी से मिलने वाले उपहारों का इंतज़ार था।
लगभग 10 वर्ष पहले यह कॉलोनी खेतों को काटकर बसाई गई थी, अतः इसे किसान कॉलोनी नाम दिया गया था। कुछ मकान सम्पन्न कृषकों द्वारा खरीद लिए गए थे, जो खेतों के मालिक भी थे। इस नए मकान में आने के साल भर बाद ही विपुल का विवाह हो गया था और अगले तीन वर्षों में वो दो बच्चों का पिता भी बन गया। लेकिन निर्मला के विवाह से पहले ही उनके माँ-पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई, और वे कन्यादान का सपना मन में सँजोए ही इस दुनिया को विदा कह गए।
निर्मला का विवाह भाई-भाभी ने समीप के ही एक शहर में किया। पति आशीष सरकारी नौकरी में था। एक ही बहन थी तो वे उसे दूर नहीं भेजना चाहते थे।
उनके पड़ोस वाला मकान एक सम्पन्न कृषक मनोहरलाल का था। वे अपनी जीप और एक ट्रेक्टर ट्राली के मालिक थे। उसका परिवार काफी बड़ा था। पत्नी सुमति देवी के अलावा तीन बेटे, बहुएँ और उनके बच्चे एक साथ ही रहते थे। भाइयों के परिवारों के बीच के प्रेम का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता था। इस परिवार की एक बड़ी ख़ासियत यह थी कि अच्छी नौकरी, अच्छी पढ़ाई या डिग्री हासिल करने के बाद भी इस परिवार के लोग खेती-किसानी से पूरी तरह जुड़े हुए थे।
विपुल और लीना के संबंध उनके साथ बहुत मधुर थे। वे निर्मला को बेटी की तरह मानते थे। निर्मला मनोहरलाल को चाचाजी और सुमति देवी को चाचीजी कहकर संबोधित करती थी। उसके मायके आने पर वे अपने खेतों पर पिकनिक का कार्यक्रम अवश्य रखते थे और निर्मला भी मिली और निपुण के साथ ही उनके बच्चों में शामिल हो जाती थी।
निर्मला का अभी तक कोई बच्चा नहीं, इसलिए बचपना अभी तक गया नहीं था। साल में दो बार मायके आ जाती है। एक सावन में और दूसरी बार होली के दिनों में। वैसे तो सावन की रिमझिम में कहीं तफ़रीह करने नहीं जा सकती, फिर भी एक तो रक्षाबंधन सावन में आता है, दूसरे गाँव की कच्ची गलियों में मुहल्ले के बच्चों के साथ लोहे के सरिये गाड़ते हुए दूर तक निकल जाने, फिर पानी के गड्ढों में छप-छप करने, कागज़ की नाव के साथ पानी में भीगने और सहेलियों के साथ लँगड़ी, रस्सी-कूद आदि खेलने में उसे बहुत आनंद आता है। होली के रंगों में सराबोर होना भी उसे बहुत भाता है। यहाँ आते ही वो बच्ची बन जाती है, खाने-पीने की कोई सुध नहीं रहती। अबकी बार पति ने होली ससुराल में ही अपने साथ मनाने की बात कही तो उसने पति को ही रंगपंचमी पर गाँव आने के लिए मना लिया। मायके में कम-से कम 15 दिन वो अवश्य रहती है, शहर निकट होने से उसे आने-जाने में भी कोई परेशानी नहीं होती। कभी भैया लेने आ जाते हैं तो कभी स्वयं चली आती है।
इस बार भी वो होली से एक सप्ताह पहले आ गई थी। यहाँ का मौसम शहर की अपेक्षा काफी ठंडा था और ठंडी, नम हवाएँ भी जारी थीं। मनोहर चाचा का ज़िक्र छिड़ते ही भाभी ने बताया कि अभी 7-8 दिन पहले ही असमय वर्षा और ओलों से गाँव के सभी खेतों की पकती हुई फसल का बहुत नुकसान हुआ है। सारी दास्तान सुनते ही निर्मला दुखी मन से मनोहर चाचा से मिलने उनके घर पहुँच गई। सबके चेहरे बुझे हुए तो थे लेकिन उनकी फसल का बीमा किया हुआ था तो उम्मीद की एक चमक भी उन चेहरों पर क़ायम थी। बातचीत में पता चला कि खेतों का हवाई सर्वे तो दूसरे दिन ही हो गया था लेकिन अब तक मुआवजा मिलने का समाचार नहीं मिला। मनोहर उसी दिन से गाँव के पटवारी के घर चक्कर लगा-लगा कर परेशान हो गया था, क्योंकि अब मुआयना करके रिपोर्ट भेजना पटवारी के ही ज़िम्मे था। बीमा-मुआवजा मिलने पर ही अगली फसल की बुआई या शेष फसल की कटाई शुरू हो सकेगी। मनोहर की उससे अच्छी जान-पहचान थी, वो उसकी लालची प्रवृत्ति से भी परिचित था तो पहले ही उसने मुआवजे की रकम से उसके हिस्से की बात तय कर ली थी। जल में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जाता, यह बात वो अच्छी तरह जानता था। अचानक मनोहर ने बातचीत का रुख पलटते हुए कहा-
“लेकिन बिटिया, तुम पिकनिक के लिए तैयार रहना, बच्चे तुम्हारा इंतज़ार बेसब्री से करते हैं। तुम्हारे आने से सबका मन प्रसन्न हो जाता है। इस बार भी हम सब होलिका दहन खेत पर ही करेंगे और दाल-बाफले, लड्डू भी वहीं बनाएँगे।” तभी सुमति चाची चाय नाश्ता ले आई। निर्मला को वे बिना कुछ खिलाए-पिलाए कभी वापस नहीं जाने देते थे। तृप्त होकर निर्मला उनकी हिम्मत को मन ही मन दाद देती हुई घर आ गई और मिली तथा निपुण को पिकनिक के बारे में बताया। वे खुशी से उछल पड़े। अच्छे संबंध होने के कारण आमंत्रित तो उनके पूरे परिवार को किया जाता था लेकिन लीना और विपुल को त्यौहार अपने तरीके से मनाना अच्छा लगता था। बच्चे निर्मला के साथ चले जाते थे तो उन्हें भी मित्रों से मिलने-जुलने की आज़ादी मिल जाती थी।
4-5 दिन खेलते-खाते कैसे निकल गए, पता ही नहीं चला। होलिका-दहन के दो दिन पहले गाँव में जगह-जगह उत्साहपूर्वक डाँडा गाड़ने की तैयारियाँ शुरू हो गईं। गाँव के लोगों की यही विशेषता होती है कि चाहे कितना भी कठिन-काल क्यों न हो, पर्वों पर परम्पराओं के पालन में वे कभी पीछे नहीं रहते। मनोहरलाल ने भी घर में पिकनिक की तैयारी करने की घोषणा कर दी। अब निर्मला के घर में उसकी भाभी तो पड़ोस में सुमति चाची अपनी बहुओं के साथ होली के लिए पकवान बनाने में जुट गई। लेकिन निर्मला घूम फिर कर बच्चों के साथ होली का डाँडा गाड़ने के लिए सूखी टहनियाँ एकत्रित करने में व्यस्त हो गई।
होलिका-दहन के दिन तड़के ही सब लोग खेत पर जाने की तैयारी में लग गए। मनोहर ने बच्चों की रुचि देखते हुए दो बढ़िया ताँगे तय करके बुला लिए। वापसी में देर रात होलिका-दहन के बाद अपने निजी ट्रेक्टर-ट्राली से आना तय हुआ। निर्मला को भी ताँगे की सवारी बहुत अच्छी लगती थी, शहर में तो अब ताँगे दिखते ही नहीं। ताँगों के चारों कोनों पर घुँघरू बँधे हुए थे, जो ताँगों के चलते ही घोड़ों के टापों की लय पर बजने लगते थे। मनोहर ने दो बेटों को एक-एक ताँगे में महिलाओं व बच्चों के साथ रहने के लिए कहा और ख़ुद एक बेटे के साथ जीप में सारे सामान के साथ खेत का रुख किया। थोड़ी ही देर में पूरा दल खेत पर था।
निर्मला ने घूमते हुए दूर-दूर तक नज़रें दौड़ाईं। छितरी हुई फसल अपनी बरबादी की दास्तान स्वयं सुना रही थी, जो खेत हमेशा लहराते हुए हरे भरे चने और उम्बियों के साथ उनका स्वागत करते थे, वे आज पाले की पिटाई से लहूलुहान अपने ज़ख़्म दिखा रहे थे। खेत में बना हुआ कुआँ, जिससे खुशी से इतराती हुई नहरों द्वारा पूरे खेत की सिंचाई होती थी, पानी से लबालब भरा होने के बावजूद अपने खालीपन का एहसास ढो रहा था। किनारे-किनारे जिन मेड़ों से बेलों वाली सब्जियों की लताएँ आलिंगन-बद्ध होकर झूमती दिखती थीं, आज उनकी गोद सूनी थी। लगभग तीन चौथाई फसल नष्ट हो चुकी थी। सूना खलिहान भी यह सोचकर चिंतित था कि इस बार उसके खाते में न जाने कितनी फसल जमा हो।
सारी स्थिति भाँपते हुए निर्मला का मन भर आया। छोटे किसानों के तो और बुरे हाल होंगे, यह विचार भी उसे व्यथित करता रहा लेकिन उसने इस मौके पर कोई बात छेड़ना उचित नहीं समझा। बच्चों की उमंग देखकर वो उनके साथ खेलने और डाँडा गाड़ने में व्यस्त हो गई। इधर सुमति चाची अपनी बहुओं के साथ खलिहान के निकट ही छप्पर के नीचे लीपी हुई जमीन पर ईंटों का कच्चा चूल्हा बनाकर भोजन की तैयारी में लग गई, उधर बच्चों की वानर-सेना उछल-कूद करती हुई हरे चने और उम्बियों को उदरस्थ करने पहुँच गई। कुछ चने-उम्बियाँ सेकने के लिए लाए गए। सबसे पहले चूल्हे पर होलिका-पूजन के लिए गाँव की प्रथा के अनुसार मीठी रोटी (पूरणपोली) बनाई गई फिर चने-उंबियाँ सेंककर सबने मिलकर नाश्ता किया।
घूमते-खेलते दोपहर हो गई। अब भोजन बनकर तैयार था। सबको भूख भी लग आई थी, अतः पहले मिली और निपुण सहित सभी बच्चों को खिलाने के लिए बिठाया गया। बच्चों ने निर्मला को भी अपने साथ घेर लिया। उसे भी बच्चों से अलग कुछ कहाँ अच्छा लगता था, तो छोटे बच्चों के बीच बड़ी बच्ची बनकर वो उनमें शामिल हो गई।
मनोहरलाल चिंतामग्न खेतों को निहार रहे थे। समय रहते बीमा राशि न मिली तो बची हुई फसल की कटाई के बाद नुकसान का सर्वे होना मुश्किल हो जाएगा। वे इसी सोच में डूबे हुए थे कि सहसा उसकी नज़र बाहर की तरफ अपने खेत के सामने रुकती हुई जीप पर पड़ी। कुछ आगे चलकर पहुँचा तो उसने जीप से पटवारी और उसके 4-5 साथियों को उतरते देख उसकी बाछें खिल गईं। प्रफुल्लित मन से आगे बढ़कर हाथ जोड़कर सबका स्वागत किया। पटवारी ने मुस्कुराते हुए कहा-
“मनोहर भाई, हम सुबह से निकले हैं और आसपास के खेतों का मुआयना करते हुए आ रहे हैं, अब केवल तुम्हारे ही खेत बचे हैं, कल तक सारी रिपोर्ट उच्च अधिकारियों को भेज दी जाएगी।”
“आपकी बड़ी मेहरबानी सरकार, अब आपका ही भरोसा है। आप सब कुछ देर छाँव में आराम कर लीजिये।” नम्रतापूर्वक कहते हुए मनोहर लाल उनको खलिहान के निकट नीम के पेड़ के नीचे ले आए और दरी बिछाकर बिठाया। फिर पानी पिलाने के बाद एक तश्तरी में सिके हुए चने और उम्बियाँ ले आया। खाते-खाते उनको खलिहान के दूसरी तरफ से रसोई की खुशबू और बच्चों का शोरगुल आने लगा तो पटवारी बोल उठा।
“भाई मनोहर, लगता है आज परिवार के साथ होली मनाने के इरादे से यहाँ डेरा डाले हुए हो, भई हमें तो ज़ोरों की भूख लगी है, कुछ व्यवस्था हो तो…”
“ज़रूर सरकार, मैं अभी आया।” कहते हुए मनोहरलाल ने दूसरी तरफ जाकर सुमति से सबके लिए भोजन परोसने के लिए कहा।
बच्चे भोजन कर चुके थे और धमाल करने एक-दूसरे के पीछे भाग रहे थे। सुमति ने चुपचाप मेहमानों के लिए थालियाँ लगा दीं। इतना स्वादिष्ट भोजन देखकर सबने इत्मीनान से छककर खाया, फिर डकार लेकर उठ गए।
अब रसोई में इतना खाना नहीं था, जिससे सभी बड़े सदस्यों की भूख मिटती। स्थिति भाँपकर मनोहरलाल तो पटवारी को अपने खेत दिखाने चला गया और सुमति ने बचा हुआ खाना खेतों की देखभाल करने वाले नौकरों को देकर साफ सफाई करने को कह दिया। गनीमत यह थी कि बच्चों ने भोजन कर लिया था।
खा-पीकर पटवारी साथियों और मनोहर के साथ खेतों का मुआयना करने निकल गए। घूमते-घूमते उसकी लालची निगाहें बचे हुए हरे भरे चने-उंबियों पर ठहर गईं-
“भाई मनोहर कुछ चने-उम्बियाँ बच्चों के लिए ले जाने की इजाज़त हो तो…” कहते हुए उसने बात अधूरी छोड़ दी।
“कैसी बातें करते हैं सरकार, यह सब आपका अपना ही है।” कहते हुए उसने नौकरों को बुलाकर पटवारी के साथियों के साथ कर दिया।
और फिर इधर मनोहर, पटवारी के साथ खेतों की हालत बयानी में लगे रहे, उधर उनके साथी चने-उम्बियों के बड़े-बड़े गट्ठर बनवाकर जीप की सीटों के नीचे ठूँस-ठूँस कर भरते गए। पटवारी ने फसल का 50 फीसदी मुआवजा मिलने की रिपोर्ट तैयार की और जल्द खाते में बीमा राशि आने की बात कहकर अपने हिस्से की भी ताकीद कर दी।
साँझ घिरने लगी थी। सुमति सोच रही थी कि अच्छा हुआ, कि निर्मला ने बच्चों के साथ भोजन कर लिया, लेकिन निर्मला को अपना खाया हुआ अटकने लगा था, उसने मौन साध लिया था और सोच रही थी, कुछ इंतज़ार क्यों न कर सकी। वो हँसना और मस्ती करना भूल गई थी। लग रहा था जैसे अचानक वो बच्ची से बुजुर्ग बन गई हो। फिर वो मनोहर चाचा की सुध लेने पहुँच गई। उसे सामने देखकर मनोहर ने मन के भाव छिपाकर चेहरे पर मुस्कान ओढ़ ली, लेकिन निर्मला ख़त देखकर उसका मज़मून भाँप चुकी थी। सारा नज़ारा उसके सामने था। वो हमेशा इस कृषक परिवार के साथ खेतों पर पिकनिक मनाने आती रहती थी और सिर्फ उनकी खुशी से ही वाकिफ थी। आज ही उसने जाना कि अचानक आई विपदाओं से किसान कितना दर्द सहन करते हैं, सियासती सर्पों का दंश झेलते हुए भी अपनी परम्पराओं को प्रेमामृत से सींचकर अपनेपन का बाग पल्लवित करते रहते हैं। फिर भी मनोहर का दिल न दुखे इसलिए उसने कोई बात नहीं छेड़ी।
पटवारी ने भी बात का रुख मोड़कर विदा लेते हुए कहा-
“भाई मनोहर, हमारी तो आज शानदार पिकनिक हो गई। पहले मालूम होता तो परिवार के साथ ही आने का कार्यक्रम बनाता, खैर…! अब अगले साल ही सही…”
कुछ ही देर में जीप धुएँ का गुबार उड़ाती हुई चली गई।
– कल्पना रामानी