कथा-कुसुम
कहानी- धन्यवाद जज साहिबा
कोर्ट से आये लिफाफे को देख संजय को लगा अगली तारीख पड़ी है सुनवाई के लिए। उसका उसकी पत्नी सरिता से शादी के पाँच वर्षों के अंदर झगड़ा बढ़ते-बढ़ते तलाक तक पहुँच गया था। झगड़ा बढ़ते-बढ़ते कहना ठीक नहीं होगा। उसके रवैये से तंग आकर सरिता ने अंत में उसके गुस्से में दिए गये तलाक के धमकी की ताव में आकर स्वीकर कर लिया था। छोटी-छोटी बात पर आवेश में न जाने कितनी बार वह सरिता को तलाक की धमकी दे डालता था। बात-बात पर गुस्सा होना और फिर खरी-खोटी सुनाना और अंत में तलाक की धमकी देना अनिश्चित अंतराल पर प्रायः होता ही रहता था। पर सरिता हर बार चुप लगा जाती थी।
वह संजय का बहुत खयाल रखती थी और इसके बाद भी संजय इस तरह की बात क्यों कहता है समझ नहीं पाती थी। लेकिन वह भी कब तक सहती! यह ठीक है कि वह औरत थी पर थी तो इनसान ही। शायद अब उसकी सहन शक्ति चूक गई थी। या फिर मूड ठीक नहीं होने के कारण पिछली बार जब उसने गुस्से में सरिता से कहा था कि वह उससे छूटकारा चाहता है तो सरिता ने दबे परंतु दृढ़ स्वर में कहा था- “अपनी चाहत पूरी कर ही लो। अब बहुत हो चुका, मैं भी तलाक के लिए तैयार हूँ।”
सन्न रह गया था संजय; सरिता की बात सुनकर। उसे लगा था सरिता पहले की ही तरह उसे समझाएगी, “वाद-विवाद तो आपस में होते रहते हैं, मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना! एक-दूसरे की पसंद-नापसंद की टकराहट भी होती रहती है। आखिर हम अलग-अलग परिवार से हैं। अलग-अलग स्वभाव है हमारा और अलग-अलग परिस्थितियों में पले बढ़े हैं। एक ही माँ बाप की संतानें भी एक ही तरह का विचार नहीं रखतीं। ऐसे में हमारे सोच में अंतर होना स्वाभाविक है। पर इसका यह मतलब तो नहीं कि सीधे तलाक ले लिया जाए।”
जब सरिता ने कह दिया कि अपनी चाहत पूरी कर ही लो तो संजय के मन में आया था कि सरिता की कही बातों को वह दुहरा दे, “वाद-विवाद आपस में होते रहते हैं। एक-दूसरे की पसंद-नापसंद की टकराहट भी होती रहती है पर इसका यह मतलब तो नहीं कि सीधे तलाक ले लिया जाए!” बल्कि वह कहना चाहता था कि ऐसे अगर तलाक लिया जाने लगे तो एक भी विवाह टूटने से बच नहीं पाएगा। गुस्से में आकर ऐसा कहना अलग बात है और करना अलग। पर वह कह नहीं सका। उसके अहं ने उसे ऐसा कहने नहीं दिया। उसका अहं तो बार-बार उभरता रहता था। शायद पुरुष प्रधान समाज का अंग होने के कारण उसकी सोच ऐसी बन गई थी। पिछले पाँच वर्षों में सरिता उसका अभिन्न अंग बन चुकी थी। उसका एक पल भी सरिता के बिना अधूरा होता था। वह उस पर इतना आश्रित हो गया था कि एक दिन भी उसके बिना बिताना मुश्किल जान पड़ता था। सरिता उसका खयाल ही इतना रखती थी। वह भी सरिता को कम नहीं चाहने लगा था। शादी के बाद धीरे-धीरे वह सरिता से प्यार करने लगा था। बस एक था कि वह कम बोलता था और सरिता थोड़ा ज्यादा बोलती थी। इसी प्रकार वह खर्च के प्रति लापरवाह था जबकि सरिता एक-एक पाई का हिसाब रखती थी। वह अपने और अपने परिवार तक खुद को सीमित रखता था जबकि सरिता पूरे परिवार, रिश्तेदारों का खयाल रखती थी। यही कारण था कि जब भी वह सरिता पर नाराज होता था तो सरिता चुप लगा जाती थी। पर इस बार सरिता के अहं ने भी हार न मानने की ठान ली थी।
बात धीरे-धीरे बढते हुए फैमिली कोर्ट तक पहुँच गयी। दोनों अलग-अलग रहने लगे। सरिता ने छोटी-मोटी नौकरी भी ज्वाईन कर ली। उनका दो वर्ष का बच्चा कृष भी सरिता के साथ ही रहने लगा। बीच-बीच में संजय की इच्छा होती भी थी कि वह सरिता से वापस आने को कहे पर कह नहीं पाता था। कृष के बिना भी उसका दिल नहीं लगता था। परंतु जो कदम आगे बढ़ गये थे, उन्हें वापस कैसे खींचा जाए, यह वह नहीं समझ पा रहा था।
उसने लिफाफ खोलकर देखा। उसमें कोर्ट से एक पत्र था। पत्र पढ़कर उसे आश्चर्य हुआ। पत्र में उसे पत्नी और बच्चे के साथ आने के लिए अनुरोध किया गया था। दिनभर तरह-तरह के कार्यक्रम का आयोजन था। सबसे बड़ी बात थी कि जिस तारीख को बुलाया गया था, वह रविवार का दिन था। एक बार उसे लगा किसी ने उसके साथ मजाक किया है परंतु पूरा पत्र पढ़ने के बाद वह आश्वस्त हो गया कि यह मजाक नहीं बल्कि कार्यालयी पत्र ही है। फिर पत्र के नीचे एक नंबर भी दिया हुआ था। उसने उस नंबर पर कॉल किया तो उसे विस्तार से कार्यक्रम के बारे में बताया गया।
तलाक लेने को इच्छुक दंपतियों को इस प्रकार के कार्यक्रम में बुलाने का कोई मतलब उसकी समझ में नहीं आया। उसे गुस्सा भी आया। कोर्ट जल्दी से अपना काम तो करता नहीं, फालतू बातों में समय बरबाद करता है। परंतु उसे इस बात की खुशी थी कि कृष के साथ वह दिन भर रह पाएगा। अभी तक वह किसी-किसी दिन ही कृष से मिल पाता था। कृष वैसे तो छोटा होने के कारण माँ के पास रह रहा था पर उसका दिल अपने पिता से अधिक लगता था। इसका कारण यह था कि संजय उसके साथ बिल्कुल बच्चा बन जाता था और उसके हर खेल में उसके साथ शरीक होता था। सरिता उसकी हर जरूरत को पूरा भले ही करती थी पर उसके साथ बच्चा बनना उसके स्वभाव में नहीं था। वह टोक-टाक ज्यादा ही करती थी, अतः कृष अपने पिता के ज्यादा करीब था। दिल के किसी कोने में सरिता के साथ दिन बिताने की खुशी भी थी पर वह उस खुशी को खुद पर भी प्रकट नहीं करना चाहता था।
नियत तिथि को वह कोर्ट परिसर में पहुँच गया। कई अन्य लोग भी आए हुए थे। सरिता भी कृष के साथ पहले से ही उपस्थित थी। कृष उसे देख लपक कर उसकी गोद में आ गया। सरिता चुपचाप एक ओर खड़ी रही। दोनों एक-दूसरे का हाल लेना चाहते थे पर अहं की दीवार जो कुछ दिनों पहले उठ गई थी, वह बीच में खड़ी थी। दोनों कृष से तो बातें कर रहे थे पर एक-दूसरे से कतरा रहे थे। वहाँ का दृश्य देखकर ऐसा लग रहा था मानो किसी उत्सव की तैयारी चल रही है। उपस्थित कार्यकर्ताओं ने सभी को अपने परिवार के साथ बैठने का अनुरोध किया। बिल्कुल समय पर जज महोदया आयीं। संक्षिप्त परंतु सारगर्भित भाषण दिया- “यहाँ आने के लिए आप सभी का धन्यवाद। चूंकि आजकल सभी काफी व्यस्त हैं और व्यस्तता के कारण तनावग्रस्त जीवन बिताते हैं। इसका प्रभाव बच्चों पर बहुत ज्यादा पड़ता है। विशेषकर उन छोटे बच्चों पर
जिनके माँ-बाप छोटी-छोटी बातों को लेकर अलग-अलग रहते हैं। बच्चों के लिए माँ-बाप का साथ वैसे ही है, जैसे हवा और पानी का। हवा माँ की तरह आवश्यक है तो पानी बाप की तरह। इन दोनों का साथ पाकर ही बच्चे सही तरीके से विकसित हो पाते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर हमने इस कार्यक्रम का आयोजन किया है ताकि बच्चे एक दिन अपने माँ और बाप दोनों के साथ बीता सकें। हमने कुछ मनोरंजक कार्यक्रम का भी आयोजन भी किया है ताकि बच्चों का मन बहल सके और दोपहर के खाने की भी व्यवस्था की है ताकि आपको घर जाकर खाना बनाने की परेशानी न उठानी पड़े। खाना खाने के बाद आप सभी जा सकते हैं। आप सभी का इस बात के लिए विशेष धन्यवाद कि आपने अपने छुट्टी का दिन हमें दिया।”
कार्यक्रम शुरू हुआ। जज साहिबा भी दर्शकों के बीच ही बैठ गयीं। मनोरंजन के लिए छोटे-छोटे कार्यक्रम शुरू हो गये। कभी पहेलियाँ बुझायी गयीं कभी चुटकुले सुनाए गये। फिर बच्चों को एक बक्से से स्लिप निकालने के लिए कहा गया। बच्चों ने स्लिप निकाला। स्लिप पर तरह-तरह
के प्रश्न थे। जैसे बच्चे की माँ को बताना है कि बच्चे के पिता को कौन-सी फिल्म सबसे ज्यादा अच्छी लगती है। बच्चे के पिता को बताना है कि बच्चे की माँ को कौन-सा पर्यटन स्थल सबसे अच्छा लगता है आदि आदि। अधिकतर मामलों में जवाब सही होता था। बच्चों के चेहरे पर माँ-बाप दोनों का साथ पाने की खुशी तो थी ही, इस तरह के मनोरंजक कार्यक्रम ने भी उनकी प्रसन्नता को चार चाँद लगा दिये थे और फिर बच्चों के चेहरे पर प्रसन्नता की चमक देखकर उनके माँ-बाप को खुशी कैसे नहीं होती भला! सबसे बड़ी बात थी कि सभी इस कार्यक्रम में खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर रहे थे। स्लिप किसी भी बच्चे ने उठाया हो और प्रश्न कुछ भी हो सभी उससे खुद को जोड़ कर देखते थे। उस प्रश्न का जवाब वे मन ही मन अपने पति या पत्नी के लिए भी देते थे।
कृष की बारी जब आयी तो उसने पर्चा उठाया। एंकर ने पर्चा खोलकर पढ़ा, “बच्चे की माँ बताए कि बच्चे के पिता को कौन-सा गाना सबसे ज्यादा अच्छा लगता है?” सरिता; संजय के पास से उठकर मंच की ओर गयी। उसकी नजर संजय की नजर से मिली। संजय भी उसकी ओर ही देख रहा था। ‘चाँद-सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था’ सरिता ने खुशी और उदासी मिश्रित आवाज में कहा।
“बच्चे के पिता यहाँ आकर बताएँ कि क्या यह सही जवाब है!” एंकर ने जोशभरी आवाज में कहा। संजय धीरे-धीरे उठा और मंच पर गया। एंकर ने माइक उसकी ओर बढाया, “बताइए क्या यह सही जवाब है?” कुछ-कुछ शरमाते हुए संजय ने कहा- “हाँ|”
“तो फिर यह गाना सुनाना होगा आपको, दर्शकगण गीव हिम अ बिग हैंड।” एंकर ने जोश के साथ कहा। तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हॉल गूंज उठा। संजय पहले तो सकपकाया पर दर्शक अर्थात् तलाक के लिए आवेदन दिए हुए दंपत्ति और उनके बच्चे ताली पर ताली बजाए जा रहे थे। सरिता भी चेहरे पर मुस्कान लिए उसकी ओर देख रही थी। संजय को वह मुस्कान बड़ी प्यारी लगी। दरअस्ल संजय ने यही गाना अपनी सुहागरात में अपनी पत्नी को सुनाया था। सरिता के चेहरे की मुस्कुराहट ने उसे गाने को प्रोत्साहित किया। गला साफ कर उसने गाना शुरू कर दिया। पहले उसने सोचा था कि वह सिर्फ मुखड़ा गाकर छोड़ देगा। पर उपस्थित लोग भी उसके साथ गाने लगे तो वह खुद को रोक नहीं पाया। उसने पूरा गाना गाया। वापस जब वे सीट पर आये तो सरिता ने हौले-से कहा- “बड़ा अच्छा गाया आपने।”
“चाँद-सी महबूबा मेरी बगल में थी तो गाना तो अच्छा गाना ही था न?” संजय ने कहा। सरिता ने शरमा कर नजरें झुका लीं। अहं की दीवार भरभराकर गिर पड़ी।
कृष बैठा हुआ तो मम्मी की गोद में था पर सर पापा की गोद में रखकर स्टेज की ओर देख रहा था। लोगों को सबकुछ इतना अच्छा लग रहा था कि समय का पता ही नहीं चला। कार्यक्रम संपन्न होने में कुछ विलम्ब हो गया। फिर खाने-पीने का दौर चला। बुफे सिस्टम में सभी बारी-बारी से खाना लेकर खा रहे थे। प्रायः सभी अपने परिवार के साथ ही खा रहे थे। सरिता ने संजय की प्लेट को देखा तो कहा, “अरे! आपने दहीबड़ा तो लिया ही नहीं। यह तो आपका सबसे ज्यादा पसंदीदा व्यंजन है।” उसने अपना प्लेट संजय को पकड़ाया और तेजी से जाकर दहीबड़ा लेती आयी। संजय ने देखा सरिता आज भी उसकी पसंद-नापसंद का काफी खयाल रखती है। उसने भी खाने के बाद सरिता के लिए खोजकर पेप्सी लाया क्योंकि वह जानता था कि सरिता को कोल्डड्रिंक काफी पसंद है।
कार्यक्रम संपन्न हुआ। अब विदाई की बारी थी। जज साहिबा ने फिर सबको धन्यवाद दिया और एक-एक फार्म उपलबध करवाया। यह फार्म तलाक का आवेदन वापस लेने के लिए था। उन्होंने उपस्थित लोगों को संबोधित किया, “पति-पत्नी परिवर रूपी गाड़ी के दो पहिए के समान होते हैं, जिस पर बच्चे आनंद्पूर्वक सवारी करते हैं। कभी-कभी छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ बन जाता है और वे एक-दूसरे से अलग रहने का निर्णय ले लेते हैं। इससे नुकसान तो सबका होता है पर बच्चे बिना किसी ग़लती के सज़ा पाते हैं। यदि आपमें से किसी को ऐसा लगा कि आप अभी भी एक-दूसरे के लिए ही बने हैं और अपनी तलाक की अर्जी वापस लेना चाहते हैं तो यह फार्म भर कर दे दें। आप चाहे तो फार्म बाद में भी जमा कर सकते हैं। एक बार फिर से आप सभी का धन्यवाद।”
कुछ लोगों ने तो तुरंत का तुरंत फार्म भरकर दे दिया। संजय और सरिता उनमें एक थे। जब वे कोर्ट परिसर से बाहर निकल रहे थे तो उनके दिल से एक ही आवाज निकल रही थी- ‘धन्यवाद जज सहिबा’।
– विनय कुमार पाठक