कथा-कुसुम
कहानी- तस्दीक
यदि तीन जड़-सरिताओं का पावन मिलन संगम कहलाता है तो तीन चैतन्य मित्रों का नित्य मिलना इससे भी अधिक पवित्र क्योंकर न होगा?
सांझ ढले दारूडि़यों को जैसे दारू पीने की, बारिश के दिनों में भंगेडि़यों को भांग छानने की एवं गाहे-बगाहे जरदा लेने वालों को जरदे की तलब होती है, ‘गणेश’, ‘भैरू’ एवं ‘बब्बन’ नित्य शहर के पुराने किले के पीछे बतियाने के लिए मिलते।
तीनों शहर के नामी सेठों के यहाँ नौकर थे। सुबह आठ से शाम छः बजे तक नौकरी बजाते एवं सूरज डूबते ही किलेे के पीछे इस तरह मिलते जैसे वर्षों बिछड़े भाई मिलते हैं। एक-दूसरे को देखते ही तीनों की बांछें खिल जातीं।
तीनों आज फिर किले के पीछे मगरी पर बैठे लाल-पीले होते सूरज को देख रहे थे। तीनों चिरकुंवारे थे। गणेश बत्तीस पार, भैरू उससेे एक वर्ष छोटा एवं बब्बन भैरू से दो साल छोटा था। तीनों अकल से भोट थे, मालिकों की दिनभर डांट खाते लेकिन बचपन से काम करते आ रहे थे इसलिए मालिक जस-तस धकिया रहे थे।
गणेश इन तीनों में कुछ अधिक अकल वाला यानी अंधों में काना राजा था। वह तीनों से अधिक स्मार्ट भी था। उसका कद ऊँचा, चेहरा लंबा, नाक चौड़ी एवं वह बाकी दो से कपड़े भी ढंग के पहनता था। उसी के बराबर मालिक का लड़का था, जब-तब उसके पुराने, उतरे हुए कपड़े मिल जाते एवं इन्हीं कपड़ों को धारण कर वह खिल उठता। भैरू का क़द ठिगना, रंग सांवला एवं चेेहरा गोेल था। बब्बन था तो गणेश जैसा ही गोरा एवं लम्बा, लेकिन पतला इतना था कि कुछ ज्यादा ही लंबा लगता। उसका नाक तीखा एवं आँखें भूरी थी। भैरू एवं बब्बन जिस तरह के कपड़े पहनते, उन्हें भिखारियों के कपड़ों से कुछ अधिक सुंदर कहा जा सकता है। दोनों के शर्ट, पेन्ट पर जगह-जगह पैबंद लगे होते एवं जूते ऐसे फटे होते, जैसे उन्होंने फेंके हुए उठाकर पहन लिए हों। तीनों मस्त मौला थे। तीनों में आत्म-गौरव दूर तक दृष्टिगत नहीं होता था। पराधीन, अन्यों के रहमो-करम पर पलने वालों में यह भाव शनैः शनैः दृढ़ होता जाता है।
तीनों शाम मिलकर ठर्रा पीते, लेकिन पीने से अधिक उनको गपियाने की तलब होती। तीनों के जुबान की खुजली कई बार इस कदर बढ़ जाती कि तीनों एक-दूसरे से पहले सुनाने के लिए लड़ पड़ते। गप सुनाते-सुनाते उनके चेहरे पर ज्ञानियों-सा दर्शन भाव उभर आता। वे एक ऐसे अकल्पनीय सुख में खो जाते, जिसका वर्णन शब्दों से परे है। मालिकों के डांट-डपट से उपजी कुण्ठा क्षणभर में काफ़ूर हो जाती। वर्षों गप्पें मारते-मारते तीनों इस कला में महारत हासिल कर चुके थे। एक की दस बनाने, डींगे मारने एवं हवा में गांठें लगाने में उनका सानी नहीं था। इससे बढ़कर आश्चर्य तो यह था कि तीनों एक-दूसरे को ध्यानमग्न योगियों की तरह परम एकाग्रता से सुनते।
प्रारंभ में तो तीनों किस्सागोइयों की तरह यहाँ-वहाँ पढ़ी-सुनी गप्पें सुनाते, जैसे कि यह गप्प कि एक गप्पी ने दूसरे से कहा कि मेरे गाँव में सौ फीट लंबी खाट थी तो दूसरे ने कहा कि मेरे दादा सौ फीट ऊँचे थे तो पहले ने पूछा फिर सोते कहाँ थे तो दूसरे ने जवाब दिया तेरे गाँव की खाट पर अथवा फिर वह गप्प कि एक बार एक प्रेमी-प्रेमिका गंगा किनारे बैठे थे कि प्रेमी ने कहा मेरे बापू इतने अच्छे तैराक थे कि एक दिन गंगाजी में कूदे एवं एक घण्टे बाद निकले तो प्रेमिका ने जवाब दिया बस इतना ही दम था तेरे बापू में, मेरे बापू तो सालभर पहले कूदे एवं अभी तक नहीं निकले। एक बार तो भैरू ने हद कर दी जब उसने बताया कि एक बार उसके गाँव में अकाल पड़ा तो उसकेे बाबा ने बढ़ई को सौ फीट ऊँचा बांस बनाने का काम दिया। बढ़ई ने कहा कि मैं भी इसी गाँव का जाया-जन्मा हूँ, मैं हज़ार फीट ऊँचा बांस बनाऊंगा। फिर उसने हज़ार फीट ऊँचा बांस बनाया। उसके बाद तो अकाल की समस्या ही हल हो गई। जब भी अकाल पड़ता बाबा बांस से उड़ते बादलों को हिला-हिला कर बारिश कर लेते। उस दिन गणेश एवं बब्बन निरुत्तर हो गये। दोनों अल्पज्ञों की तरह सुनते रह गये।
समय बीतने के साथ तीनों की गप्प-कला गरियाती गई। धीरे-धीरे तीनों शहर से चण्डूखाने की खबरें लातेे एवं एक-दूसरे को सुनाकर धन्यता पाते। देशी ठर्रा उनकी कथा-पारंगतता को परवान चढ़ाता। तीनों का नित्य यूँ गपियाना बूस्टर का कार्य करता एवं उनके दिनभर की थकान सहज ही मिट जाती। तीनों की गप्पें अनेक बार उनके दैनिक क्रियाकलापों से भी जुड़ी होती जैसे कि एक बार भैरू को उसके मालिक ने बाज़ार से गुलाबजामुन लाने को कहा। उस दिन घर में मेहमान आए थे। भैरू ने गुलाबजामुन तो खरीद लिए, लेकिन लौटते वक्त मन चल गया। वह एक-एक कर सभी गुलाबजामुन चट कर गया। बेचारे ने महीनों से मिठाई नहीं खाई थी। गरीब का मन भी आखिर मन है। दिन-दिन मरकर भी उसका मन नहीं मरता। वह दो घण्टे बाद घर पहुँचा एवं बोला, “मालिक! मिठाई लेकर आ ही रहा था कि कुत्तों ने लपक लिया। आपके डर से मैं बहुत देर वहीं खड़ा रह गया।” उस दिन जाने कैसे मालिक ने उसे भांप लिया। उसने भैरू की आँखों में झांककर देखा तोे दाल में काला लगा। भैरू की ऐसी धुनाई हुई कि दिन में तारे नज़र आ गये। उस शाम भैरू ने एक ऐसी गप्प सुनाई, जिसमेें गुस्सा होेकर एक नौकर ने मालिक को सरेआम पीटा था। बाद में मालिक ने नौकर से जब कहा कि माफ कर दे, तो नौकर ने गिरेबां छोड़ी। उस दिन गणेश ने पूछा भी यार! नौकर मालिक को कैसे मार सकता है, मालिक ने उसे नौकरी से बाहर कर दिया होगा तो भैरू ने उत्तर दिया- वह नौकर मालिक के ‘सीक्रेट्स’ जानता था जैसे कि मालिक के किसी अन्य औरत से संबंध थे। मालिक खून का घूंट पीकर रह गया। उस दिन गणेश एवं बब्बन को लगा काश! मालिकों के कुछ रहस्य वे भी जान लेते तो यूँ डांट खाकर गुलामी नहीं करते। लोग यूँ ही थोड़े कह गये हैं कि बिल्ला आंटे आये मरता है। फंसा बिल्ला चूहों से भी कान कटवाता है अन्यथा बिल्ला चूहों को छोड़ता है क्या?
तीनों अपनी वार्ता में किसी अन्य को शरीक नहीं करते। ऐसे महान भेद भी क्या अन्यों को बताये जाते हैं? यह इतर बात है दूरी रखते हुए भी लोग उनके बारे में भली-भांति जानते थे। जंगल में सियारों की आवाज़ भी क्या कभी छुपी है? अब तक अनेक लोग इन महान गप्पियों के बारे में जान चुके थे। उनके परिचित-रिश्तेदार इन्हें देखते ही किनारा कर लेते। गप्पियों से माथा कौन लड़ाए?
अनेक बार यह देख-सुनकर आश्चर्य होता हैं कि किस्सागोई, कवि, उपन्यासकार यहाँ तक कि राजनेता भी अण्ड-बण्ड कहकर बड़े-बड़े ईनाम अथवा ओहदे पा जाते हैं तो ऐसा ही कोई सम्मान जैसे कि ‘गप्पश्री’, ‘गप्पशिरोमणि’, ‘गप्पभूषण’ एवं ‘गप्परत्न’ आदि गप्पियों को क्यों नहीं दिये जाते? गप मारना भी तो दर्शन का विस्तार है। हम गप्पियों को निंदा भाव से क्यों देखते हैं? क्या लोग ऑफिस में काम होते हुए गप्पें नहीं लगाते? गुणी-ज्ञानी तो यहाँ तक कहते हैं कि गप्पें कर्मचारियों को एक-दूसरे केे नज़दीक लाती है, कर्मचारी की कुण्ठा समाप्त करती है एवं इन्हें सुनकर हर कर्मचारी को सुकून मिलता है। काश! कृष्ण गीता में यह कहते समय कि ‘मैं ज्ञानियों का ज्ञान हूँ’ यह भी कह देते कि ‘गप्पियों की गप्प भी मैं ही हूँ’ तो आज गप्पियों को ज्ञानियों के समकक्ष रखा जाता। वैसे वे ज्ञानियों से कम होते भी नहीं। कल्पना की इतनी ऊँची उड़ान भरना कोई सरल काम है? बहरहाल आज गणेश, भैरू एवं बब्बन यह सोचकर उदास थे कि उनकी पुरानी सारी गप्पें समाप्त होने को आयी। एक ही गप्प कोई कितनी बार सुनाए। मौलिकता की अपनी महत्ता है। नवीनता हर एक को चाहिए। वे कवि तो थे नहीं कि एक ही रचना का दस-दस बार पारायण करते। वहाँ तोे फिर भी कुछ मित्र अकारण वाह-वाह कर देते हैं, पर यहाँ तो आन की बात थी। आँख की शरम भी कोई चीज़ होती है। यहाँ तो सृजक एवं श्रोता दोनों वे ही थे। इन्हीं विचारों में खोये तीनों शून्य में गोता लगा रहे थे।
पावस के दिन थे। वातावरण में उमस थी। गत दो रोज़ से आसमान पर बादल उमड़ते-घुमड़ते पर बारिश नदारद थी। इन्हीं बादलों के पीछे डूबते सूरज की किरणें जब-तब उनके चेहरों पर पड़ती तो तीनों के चेहरे चमक उठते। तीनों आज कुछ चमत्कारिक कहने पर आमादा थे। भीतर कहीं खमीर उठ रहा था। तीनों के बीच ऐसा अटूट बंधन था कि तीनों झूठ के पुलाव पकाते, लेकिन कभी एक-दूसरे को मौसेरे भाइयों की तरह झूठा नहीं कहते वरन् अनेक बार तो एक कहता तो दूसरा हौसलाअफजाई करता। तीनों में यह भी एक आश्चर्यजनक अनुबंध था कि अगर किसी के कुछ कहने पर हजम न हो एवं सुनने वाला माँ भवानी की कसम दे दे तो तीनों को असल भेद उगलना होगा। इस एकमात्र वीटो के अतिरिक्त तीनों एक-दूसरे की सम्मान-परिधियों को कभी नहीं लांघते। यह तथ्य भी कम आश्चर्यजनक नहीं था कि करार होते हुए भी तीनों ने आज तक इस विशेषाधिकार का प्रयोग नहीं किया।
यकायक गणेश का ध्यान टूटा, उसने ठर्रा खोला एवं तीनों को एक-एक पेग बनाकर दिया। तीनों धीरे-धीरे सिप लेने लगे। जैसे गैस भरने से गुब्बारा ऊपर की ओर उठता है, तीनों की भड़ास सर चढ़ बैैठी। चढ़ते सुरूर के साथ गणेश ने आज गप्प का शुभारंभ किया। भैरू एवं बब्बन की ओर देखकर बोला, “यार! अब तक बहुत झूठी बातें कह ली, आज एक सच्चा वाकया बयाँ करता हूँ।” ‘सच्चा’ शब्द सुनते ही भैरू एवं बब्बन के कान खड़े होे गये। दोनों ने उसकी ओर संशय भरी निगाहों से देेखा तो गणेश ने गले के मध्य च्योंटी रखी एवं बोला, “एकदम सच्ची बात भैरू! कानों सुनी नहीं, आँखों देखी!” भैरू एवं बब्बन आश्वस्त हुए तो शून्य में ताकते हुए वह एक विचित्र कल्पनालोक में खो गया। भैरू एवं बब्बन उसकी ओर यूँ देखने लगे जैसे नया पाठ प्रारंभ करने के पूर्व शिष्य गुरु की ओर देखते हैं। बचा हुआ सारा पेेग हलक से उतारकर गणेश बोला, “भैरू! क्या बताऊँ! कुछ कहते नहीं बन रहा। वाकया ही कुछ ऐसा है।”
“बता न यार! अपन दोस्त हैं! खुलकर बोल! अपनों से कैसी शरम!” इस बार बब्बन बोेला।
गणेश ने पुनः दोनों मित्रों को ओर देखा। दोनों की आँखें विश्वास एवं प्रेम से लबरेज थी। अब भला वह कैसे रुकता। भैरू के कंधे पर हाथ रखकर बोला, “भैरू! आज मालिक ने मुझे मुँह अंधेरे उठाया एवं श्मशान सेे हाल ही जले मुरदे की राख लाने को कहा। मालिक ने यह भी हिदायत दी कि यह बात कानों-कान किसी को पता नहीं चलनी चाहिए। मेरी आँखों में अनेक प्रश्न उभर आए तो मालिक को लगा मैं डर गया हूँ।” मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोला, “आज घर में यज्ञ है, कुछ तांत्रिक क्रियाएं भी होगी। तू तो जानता है तेरी मालकिन कितने समय से बीमार है। उसी के लिए यह यज्ञ करवा रहे हैं। तुमसे अधिक विश्वासपात्र मेरा कोेई नहीं है, अतः यह कार्य तुम्हें सौंप रहा हूँ।”
मालिक के आदेश को शिरोधार्य कर मैं श्मशान गया। सुबह के पाँच बजे थे। वहाँ अभी भी घुप्प अंधेरा था। दबे पाँव मैं इधर-उधर घूमा तो एक ताजा चिता दिखी, जिसका मुर्दा बीती रात ही जला होेगा। मैंने चुपचाप राख उठायी, एक पुरानी थैली में बंद की तो वहाँ एक दृश्य देखकर दंग रह गया। वहाँ चिता के पास एक पीतल की गोल किनारे वाली थाली उलटी रखी थी, उस थाली से टन…..ऽऽऽऽ की आवाज आई। मैंने गौर से देखा। वहाँ सात बिच्छु एक-एक कर थाली पर चढ़ रहे थे, जो थाली पर चढ़ता वह थाली के बीच में आकर पूंछ फटकारता तो टन…..ऽऽऽऽ की आवाज आती। इस तरह एक-एक कर सातों बिच्छु थाली पर चढे़, सबने फटकार लगाई तो टन…..ऽऽऽऽ बजा। मैं तो घबरा गया। थोड़ी देर में वहाँ सभी बिच्छु पूंछ के बल नाचने लगे। मैं और नजदीक आया तो देखा वहाँ न तो बिच्छु है न थाली, वहाँ से बीस कदम दूर सात कंकाल नाच रहे थे। सातों ने मुझे घूरकर देखा तो मेरी कंपकंपी छूट गई। तभी उनमें से एक बोेला, “हम सब जानते हैं तू यहाँ क्यों आया है। शरम नहीं आई तेरे मालिक को यूँ सुबह-सुबह उठाकर तुझे भेजते हुए। नौकर क्या इंसान नहीं होते? कहे तो टेंटुआ दबा दूँ उसका, सब छकड़ी भूल जाएगा।” मैं डर गया। एक बार तो जी में आया सारी हैकड़ी भुला दूँ, फिर ख़याल आया मुझे नौकरी कौन देगा? मैं डरते हुए बोेला, “नहीं! ऐसा नहीं करना। मेरा मालिक अच्छा आदमी है।” मेरी बात सुनकर सातों जोर-जोर से हँसने लगे। मैं थैली हाथ में लिए तेजी से भागा। देर से पहुँचने के कारण मालिक ने खरी-खोटी सुनाई। मैं क्या कहता? तब से अब तक दिल धड़क रहा है।” यह कहते हुए गणेश ने बब्बन का दायां हाथ खींचकर अपने सीने पर लगाया और बोला, “तू खुद महसूस कर सकता है बब्बन, मेरे साथ सुबह क्या हुआ होगा?” कहते-कहते उसने भैरू की ओर भी देखा एवं एक बार फिर गले पर च्योंटी काटते हुए बोला, “एकदम सच आँखों देखी बात है भैरू! तुम दोनों को अपना समझ कर बताई है।” इतना कहकर गणेश चुप हो गया।
ऐसी लोमहर्षक घटना सुनकर अब भैरू ने कमान संभाली। गणेश की कथा सुनकर वह हैरत में था। वह इससे भी बढ़कर वाकया सुनाना चाहता था। दूसरा वक्ता पहले से कमतर हो तो बात में रस कौन लेगा? उसने भी एक पेग बनाया, गले से नीचे उतारा एवं दोनों मित्रों की ओर देखकर बोला, “आज सुबह मेरे साथ भी अजीब वाकया हुआ। मेरे मालिक ने नाश्ता करने के बाद मुझे बुलाया और कहा, “भैरू! तू ऐसा कर आज पालड़ी गाँव जाकर वहा के पटवारी गोवर्धनसिंह को यह थैली दे आ। ध्यान रखना कोई देख न लें।” मैं समझ गया यह पटवारी की रिश्वत है। मालिक ने हाल ही में उस गाँव के काश्तकार से जमीन खरीदी थी। लेकिन मुझे इससे क्या, मुझे तो हुकम बजाना था। मैं जानता था पालड़ी चौदह मील दूर है। मैंने मालिक से कहा स्कूटर पर चला जाऊँ तो मालिक ने फटकार कर कहा, “गाल पर एक तमाचा मारा तो सब निकल जाएगी। तुम्हें स्कूटर चाहिए? अरे गधे गुलकंद खाने लग गए तो कर लिया कारोबार। चुपचाप साइकल पर हो आ।” मुझे काटो तो खून नहीं। पटवारी को रिश्वत के बीस हजार एवं मैं रात-दिन जी-हजूरी करता हूँ तो इतना भी नहीं। मैं एक पल भी नहीं रुका। बाहर आकर साइकल उठाई एवं कोई आठ मील आया हूंगा कि रास्ते में एक अजीब दृश्य देखा। दांये खेत में गोल उड़नतश्तरी आकर उतरी, उसमें से ढाईफुटे दो बौने निकले। दोनों सपाट गंजे थे। उनकी नाक चपटी, आँखें अंजीर जैसी एवं दोनों शरीर से इतने पतले थे कि छातियों से पसलियाँ दिख रही थी। उस समय मैं वहाँ अकेला था। मुझे देखकर दोनों चिल्लाये, “वहीं रुक!” मैंने पैडल तेज किए पर साइकल घूम ही नहीं रही थी। मैंने नीचे उतरकर भागने की कोशिश की तो कदम वहीं चिपक गये। तभी एक बौना मेरे समीप आकर बोला, “मुझे पता है तुम रिश्वत देने जा रहे हो। शरम नहीं आती ऐसा दुष्कर्म करते हुए। क्या तुम्हें नहीं मालूम रिश्वत इंसाफ को खा जाती है। इस रिश्वत के एवज में तुम्हारा मालिक गरीब काश्तकार की एक बीघा अतिरिक्त जमीन हड़पना चाहता है।”
मैं डर गया। डरते-डरते बोला, “हजूर! इसमें मेरा क्या दोष है। मुझे तो मालिकों का हुकम बजाना पडे़गा। पेट की आग तो सबको बुझानी पड़ती है।” तभी दूसरा बौना मेरे समीप आकर बोला, “बात तो तू ठीक कहता है। खैर! तू चिंता मत कर, इस तश्तरी में आजा। हम तुझे दो मिनट में पटवारी के घर उतार देंगे।” गणेश! मुझे काटो तो खून नहीं। मेरा रोम-रोम खड़ा हो गया। मुझसे न बोलते बन रहा था न चुप होते। मैंने उसी समय संकटमोचक हनुमानजी का स्मरण किया तो वहाँ एक बंदर प्रकट हुआ। उसके गले में मोतियों की माला थी एवं वह लाल लंगोट पहने था। बंदर को देखते ही बौनों के पसीने छूट गये, वे भागकर तश्तरी में घुसे एवं देखते-देखते छू-मंतर हो गये। इस खौफनाक दृश्य को देख मेरी आँखें मुंद गयीं। आँखें खुली तो वहाँ कुछ नहीं था। बब्बन! भैरू! आज इन्हीं आँखों से मैंने हनुमानजी के दर्शन किए हैं।” अपनी कथा समाप्त कर भैरू ने दोनों मित्रों की ओर देखा। दोनों की आँखें प्रभुप्रेम से लबालब थी। पहले गणेश एवं फिर बब्बन ने आगे बढ़कर भैरू की आँखें चूमी। वक्ता-श्रोता तीनों गद्गद् थे।
अब बब्बन की बारी थी।
बब्बन जानता था आज दोनों ने न सिर्फ एक से बढ़कर एक कथा सुनाई है, दोनों ने कथा सत्यता को लेकर भी अपनी धाक जमाई है। एक ने वीररस की तो दूसरे ने भक्तिरस की सरिता बहाकर सिद्ध कर दिया है कि दोनों घुटे हुए शोहदे हैं।
अब बब्बन ने मोर्चा संभाला। प्रथम दो वक्ताओं की तरह उसने भी पूरा पैग नीचे उतारा, एक लंबी साँस ली एवं दोनों के देखते फूट-फूट कर रो पड़ा। उसके आँसू थमते ही न थे। बब्बन की ऐसी दशा देखकर भैरू एवं गणेश स्तब्ध रह गये। दोनों बड़े थे। दोनों ने उसके कंधे पर हाथ रखा तो बब्बन बोला, “गणेश! भैरू! लगता है हम तीनों के ग्रह एक-से हैं। तीनों पर बिजली एक ही दिन गिरती है। कम से कम तुम दोनों की नौकरी तो बच गई लेकिन आज मेरे साथ जो कुछ हुआ उससे लगता है मेरी नौकरी के दिन पूरे हुए।” कहते-कहते बब्बन बिलख पड़ा।
“डरता क्यों है बब्बन! हमारे होते हुए तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।” कहते-कहते भैरू ने हाथ बढ़ाकर बब्बन के आँसू पोंछे।
“बता न बब्बन! तेरे दोस्त क्या मर गये हैं? नौकरी जाएगी तो मिल-बाँटकर खा लेंगे।” गणेश ने भैरू से सुर मिलाते हुए ढाढ़स बंधाया।
अपने शर्ट की दांयी बाँह से आंसू पोंछते हुए बब्बन ने अपनी कथा का शुभारंभ किया, “भैरू! तुम तो जानते हो, इन दिनों मेरे मालिक एवं मालकिन हरिद्वार गए हुए हैं। घर में मैं एवं उनकी बेटी ही है। आज इतवार होने से वह दस बजे उठी। रोज काॅलेज जाना होता है अतः सात बजे उठती है, लेकिन आज कोई कहने वाला तो था नहीं अतः पड़ी रही। साढे़ दस बजे मैंने दरवाजा खटखटाया तो उसने दरवाजा खोला। उसे देखकर मैं दंग रह गया। वह नीचे निकर एवं ऊपर चोली पहने थी एवं उसके हाथ में बीयर की बोतल थी। मुझे देखकर वह लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ी एवं मुझे बाँहों में भर लिया। मेरा दिल धक से रह गया। तुम्हें पता नहीं है मेरे मालिक की बेटी कमसिन तो है ही, बला की ख़ूबसूरत है। फिल्म की हिरोइन भी उसके आगे फीकी है। वह इतनी गोरी है मानो आसमान का चाँद जमीन पर उतरा हो, इतनी कोमल जैसे छुईमुई। काँच की गुडि़या जैसी नाजुक है। बाँहों पर अंगुली रखो तो गड्ढा पड़ता है। नाक-नक्श ऐसे तीखे हैं, जैसे हूर हो। बोलती इतना मीठा है कि कोयल लजा जाए। बोलते समय मुँहफाड़ में दांत मोतियों से चमकते हैं। साढे़ पांच फीट से ऊपर लंबी है एवं चलती है तो लगता है कयामत ढा रही है।
ऐेसी हसीन परी को बाँहों में पाकर मैं निहाल हो गया। कुछ देर तो मैं उसकी बाँहों में रहा फिर हौले-से दूर होकर उसने मेरी ओर देखा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में लाल डोरे तैर रहे थे। धीरे-धीरे उसने अपनी दोनों कोमल हथेलियाँ मेरे गालों पर रखी एवं बोली, “बब्बन! मैं दिल ही दिल में तुझे चाहती हूँ।” ‘आई लव यू’ एवं जाने क्या-क्या कहती गई। उसकी कोमल अंगुलियों पर तीखे नाखून थे, जिस पर लाल पाॅलिश लगी थी। मैं कुछ कहता उसके पहले उसने मुझ पर चुंबनों की बौछार कर दी। ऐसे हालात में मैं क्या करता। मैं उसे लेकर पलंग तक लिटाने आया तो उसने खींचकर अपने साथ लिटा लिया।” कहते-कहते बब्बन की साँस फूल गयी।
“फिर क्या हुआ बब्बन!” भैरू घुटने के बल बैठ गया।
“बता बब्बन! बात पूरी कर।” गणेश ने पेंट व्यवस्थित की।
“भैरू! क्या बताऊँ! उसके बाद उसने मेरी इज्जत लूट ली।”
“कमीने! उसने लूटी या तूने?” भैरू चीखकर बोला।
“बता हरामी!” गणेश ने भैरू के सुर में सुर मिलाया।
“बात तो एक ही है गणेश।” बब्बन ने उत्तर दिया।
इतना कहकर बब्बन चुप हो गया। भैरू एवं गणेश दोनों के कलेजे में कटार बह गई।
बब्बन ने आज बाज़ी मार ली। गणेश की शौर्य-कथा एवं भैरू की भक्ति-कथा बब्बन की प्रेम-कथा एवं प्रेमरस में तिनकों की तरह बह गयी। पराजित-ग्लानित दोनों के चेहरे देखते बनते थे। ऐसी बुनकरी न पहले सुनी, न गुनी न देखी। भैरू एवं गणेश ने सोचा न था कि कमीना बब्बन ऐसी शिकस्त देगा। दोनों के आँवे जल गये।
सांप ही सांप का मुँह सूंघ सकता है।
“क्या यह वाकया सच था बब्बन?” भैरू ने घूरकर पूछा।
“सौ टका सच भैरू! तुम अपने दोस्त पर शक करते हो।” कहते हुए बब्बन उदास हो गया।
“तो फिर इससे तेरी नौकरी क्यों खतरे में पड़ गई? तू तो मालिक बन जाएगा।” इस बार गणेश ने पूछा।
“गणेश! ऐसी लंपट लड़कियों का क्या भरोसा! बीयर का नशा उतरते ही उसे अपनी गलती का अहसास होगा, तब मौका मिलते ही नमक-मिर्च लगाकर माँ को कहेगी कि बब्बन कमीना है। तब मेरी कौैन सुनेगा? नौकरी तब बचेगी क्या?” बब्बन ने उत्तर दिया। उसकी आँखों का भोलापन देखते बनता था।
गणेश एवं भैरू को अब भी बब्बन पर भरोसा नहीं था।
“माँ भवानी की कसम देता हूँ। सच-सच बता क्या ऐेसा हुआ?” भैैरू ने आज प्रथम बार विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए तेज आवाज में पूछा।
बब्बन को साँप सूंघ गया।
साँस गले में अटक गयी।
अब कोई विकल्प नहीं था। रुआंसा होकर बोला, “मेेरे मालिक के तो कोई बेटी ही नहीं है भैरू! सच्चाई तो यह है आज मालिक के भाई के यहाँ मुझे कुछ सामान देना था। रात बीयर पीने के कारण मैं देरी से उठा। दस बजे मालिक का फोन आया तो उसने मुझे देरी से उठने के कारण लताड़ पिलाई। इसी से जला-भुना था। क़सम से बंधे बब्बन की सच कहते हुए आँखें नीची हो गयी।
बब्बन का ऐसा उपहास गणेश से सहन नहीं हुआ। इस बार उसने भैरू की ओर तीखी आँखों से देखा एवं अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए बोला, “तू भी कसम ले। क्या तुमने तश्तरी वाला वाकया सच कहा था?”
“नहीं गणेश! यह झूठ था। सच्चाई तो यह है आज दोपहर मालिक के स्कूटर न देने से मैं दुःखी था। पैडल मारते-मारते मेरी साँस फूल गयी। पैरों में अब तक दर्द है।” बात पूरी होते भैरू का चेहरा लटक गया।
भैरू एवं बब्बन अब एक तरफ हो गए। दो झूठों में एक सच्चा कैसे चले? इस बार बब्बन ने विशेषाधिकार का प्रयोग किया एवं गणेश से भवानी की क़सम उठवाकर बोला, “गणेश! तेरी कंकाल-कथा भी क्या झूठी थी?”
“हाँ बब्बन! मेरी कथा भी झूठी थी। दोपहर मुझे भी मालिक ने एक कीमती तस्वीर गिरा देने केे कारण चांटा मारा था। उसका निशान अब तक मेरे गाल पर है।” कहते-कहते गणेश का मुँह भी सूखे कटहल की तरह लटक गया।
सूरज डूब चुका था।
तीनों वहाँ से उठे एवं मगरी से उतरकर नीचे आये। तीनों अब तक चुप थे। आखिर गणेश ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, “यारो! हम रोज झूठ बोलते हैं। गपियाते हुए वर्षों बीत गये। सच्चाई तो यह है कि जितनी ताकत हम झूठ बोलने में लगाते हैं, उससे आधी अच्छा काम करने में लगाएँ तो झूठ बोलने की जरूरत ही न पड़े।” कहते-कहते गणेश के आँखों की चमक बढ़ गयी।
“सच कहते हो गणेश! झूठ के पाँव नहीं होते।” भैरू ने सुर में सुर मिलाया।
“तू ठीक कहता है भैरू! दुनिया ठीक ही कहती है, सच का बोलबाला झूठे का मुँह काला।” बब्बन ने दोनों की बातों को परवान चढ़ाया।
“तो फिर हम कसम लें, आज के बाद झूठ नहीं बोलेंगे।” इस बार गणेश गंभीर होकर बोला।
“क़सम माँ भवानी की!” तीनों मित्र हाथ पर हाथ रखकर जोर से बोले।
ऊपर बादलों से झांकता हुआ चाँद इसकी तस्दीक कर रहा था।
– हरिप्रकाश राठी