कथा-कुसुम
कहानी: चाँद आज भी बहुत दूर है!
वह टी.वी. के एक विज्ञापन में आँखें नचाती एक लड़की को देखकर मुस्करा उठती है, जो अपने भाई को राखी बाँधने के बाद ठसक के साथ कह रही है, “मुझे अपनी चॉकलेट की व अपनी रक्षा करना आता है।
तब लड़कियाँ ऐसा कहाँ सोच पाती थी जब वह् युवा थी? बहुत श्रद्धा भाव से अपनी रक्षा करने का आश्वासन माँगते हुए भाई को राखी बांधती थी। माँ के घर कैसा हंगामा हो गया था, जब उसने अपने भाई पंकज को राखी बाँधने से इंकार कर दिया था। तब वह सिर्फ़ चौदह वर्ष की थी।
माँ गुस्से से उसके कमरे में आ गई थी और उसकी किताब छीनकर मेज पर रख दी थी, “क्यों तूने पंकज से क्या कहा कि इसे राखी नहीं बाँधेगी?”
“हाँ”
“लेकिन अभी तक तो बांधती आ रही थी।”
“एक नासमझी के कारण। आजकल लड़के लड़कियाँ बराबर हैं। भाई की कलाई पर राखी बाँधकर रक्षा की भीख क्यों माँगू?”
“तू कैसी बहिन है?” माँ उसे विस्फ़ारित नेत्रों से देखती रह गई थीं।
उसे शरारत सूझी थी। वह अपने पतले दुबले भाई पर कराटे जैसा वार करते हुए बोली थी, “ये पिद्दी मेरी क्या रक्षा करेगा? मैं ही इसके काम आऊँगी।”
हाथ ज़रा ज़ोर से पड़ गया था, भाई कराहता हुआ ज़मीन पर बैठ गया था।
“अले! अले! मेले लाजा को जला ज़ोल छे चोट लग गई है।” वह तुतलाकर उसका ही मजाक उड़ाने लगी थी लेकिन फिर उसे मनाने के लिए वह् उसे साइकिल पर बिठा कॉलोनी में घुमाती रही थी। अपनी जेब से उसे आइसक्रीम खिलाईं थी वह अलग।
पापा के बुआ के घर से वापिस आने पर मम्मी बरस पड़ी थी, “पता है आपकी लाड़ली ने क्या किया है?”
“क्या?” उन्होंने बुआ का दिया मिठाई का डिब्बा मेज पर रखते हुए कहा था।
“आज ज्योति ने पंकज को राखी नहीं बाँधी है। वह कह रही है कि वह क्या कोई कमज़ोर प्राणी है जो रक्षा की भीख माँगें?”
“ज्योति ने ऎसा कहा है?”
मम्मी ख़ुश हो गई कि वह उसकी अच्छी तरह ख़बर लेगे लेकिन वह उसके पास आकर उसका माथा चूमते हुए बोले,”मैं तुम्हें ऐसा ही देखना चाहता था, एक चेतन प्राणी के रुप में। मुझे बहुत ख़ुशी है मेरी बेटी ने आँचल वाली आँसू भरी नारी से मुक्त होने की घोषणा कर दी है।”
“मतलब यह कि ये जो कर रही है सही कर रही है?”
“हाँ ,जानती हो क्यों? मेरी माँ बाबूजी का हर निर्णय मानती थी। तुम ज़रा सी बात के लिये निर्णय लेने के लिये मेरा मुँह देखती हो लेकिन मेरी बेटी ने स्वतंत्र होकर अपने लिए इतना बड़ा निर्णय लिया है। यह मेरे अभिमान का दिन है।”
तब दस वर्ष का पंकज कुछ समझा था, कुछ नहीं। लेकिन मम्मी के गले से ये सब नहीं उतरा था।
ऐसा ही धमाका उसने ससुराल में पहली करवाचौथ पर किया था। तब संजय की मम्मी का चेहरा ऎसे फक्क पड़ गया था कि जैसे उन्हें चलती गाड़ी से धक्का दे दिया हो।
“क्या कहा कि तुम करवा चौथ का व्रत नहीं रखोगी? मेरे बेटे के लिये अपशकुन करोगी?”
उसने दबी ज़ुबान में कहा था, “मम्मी जी! आपसे या मुझसे अधिक संजय का कौन शुभचिंतक हो सकता है? लेकिन मैं ही क्यों उसे अपनी वफ़ादारी का सबूत दूँ?”
“मम्मी! ये मुझसे कह रही है कि तुम भी मेरे साथ व्रत रक्खो, नहीं तो मैं भी व्रत नहीं रखूँगी।”
“तो तू भी अपनी बीवी का ग़ुलाम बनकर व्रत रख ले।” उन्होंने कड़वे स्वर में कहा था।
“आप तो जानती हैं कि मैं भूखा नहीं रह सकता। इसकी मर्ज़ी है ये व्रत रखे या नहीं और मम्मी जब मैं परवाह नहीं कर रहा तो आप क्यों कर रही हैं?” संजय अधिक विवाद मे नहीं पड़ना चाह रहा था इसलिए तौलिया उठाकर बाथरूम में चला गया था। वह ऑफ़िस जाने के लिये तैयार थी। वह चाय के साथ आलू का पराँठा खाने लगी तो सास ने रुँआसी होकर पापाजी से शिकायत की थी, “आप तो घर के मुखिया हैं। कुछ सुन रहे हैं घर की बहू करवा चौथ का व्रत नहीं रख रही।”
पापा जी ने अखबार के पीछॆ से ही कहा था ,”आजकल के बच्चे हैं। उन्हें अपनी तरह जीने दो। तुम क्यों अपना खून जलाती हो?”
“इससे संजय के लिये अपशकुन होता है।”
“शकुन अपशकुन का रह्स्य आज तक कोई जान पाया है?” मेरी माँ भी तो करवा चौथ का व्रत रखती थी फिर क्यों पिताजी उनसे पहले चले गए? ज्योति व संजय ने तीन चार बरस एक दूसरे को जानने के बाद शादी की है। मैं क्यों उनके बीच में पड़ूँ?”
ये बात सुनती ज्योति के गले से आलू का पराँठा चाय के साथ बमुश्किल उसके गले से उतर रहा था। अब तेज़ी से सरकने लगा। उसने नाश्ता खत्म करके स्कूटर की चाबी की होल्डर से निकाली व उन दोनों को प्रणाम करती ऑफ़िस निकल गई थी।
उसने कैसा तो विद्रोह किया था करवा चौथ के विरुद्ध। इन दस पन्द्रह वर्षो में एकदम से क्या बद्ल गया है? स्त्री चेतना ने कैसी करवट ली है? ‘फ्रेंडशिप डे’ या ‘मदर्स डे’ की तरह ये व्रत एक ब्रांड की तरह खूब महिमा मंडित किया जा रहा है। टी.वी. पर इस दिन के एक दो तीन दिन पहले से सुहाग की चीजें खरीदती या उन पर टूटती महिलाएँ दिखाई जाने लगी हैं। मॉल्स वाले दो तीन दिन पहले से अपने रिसेप्शन पर मुफ़्त में मेहंदी लगाने का आयोजन करने लगे हैं। वह युवा महिलाओं को मेहंदी वाले के सामने हाथ फैलाये देखती है तो सोचती रह आती है कि जिन हाथों में कलम या ब्लैक बोर्ड पर लिख्नने वाली चौक या प्रयोगशाला में परखनली होनी चाहिये या जो कंप्यूटर्स के की बोर्ड पर हाथ चलाकर देश की प्रगति में हिस्सा बन रहे होते; आज बाज़ार की गिरफ़्त में मेहंदी के लिये हथेली फैलाये बैठे हैं। इनको ब्यूटी पार्लर्स को बहुत पहले बुक करना होता है, जहाँ सुंदर दिखाई देने के लिये घंटों समय का गला घोंटा जाता है।
अब तो हर प्रदेश, हर धर्म व हर उम्र की औरतें करवा चौथ मनाने लगी हैं। उनके पति एक दिन पहले से ही उन्हें नई लाल, गुलाबी या नारंगी साड़ी या लहँगा या ड्रेस, गहनों से लाद देते हैं। टीवी पर कभी सैटिन या सिल्क के सलवार सूट में गोल घेरे में बैठी गहरी लाल लिपस्टिक लगाए, गहनों से लदी पंजाबिनें ‘सरगी’ खाते हुए दिखाई जाती हैं। चाँद निकलने पर माथे तक सिंदूर लगाये,भर भर चूडि़याँ हाथ में पहने, लाल गहनों से लदी व गहरी लाल रंग की लिपस्टिक से मुस्कराती, झिलमिल सफ़ेद दाँत दिखाती, पहले चाँद को फिर ज़री से कड़ी शेरवानी व चूड़ीदार पहने या कढ़ा हुआ कुर्ता- पायजामा पहने पति को छलनी में देखकर व्रत तोड़ती हैं। वे चाँद को जल अर्पित करती हैं। औल रबिश!” कहने वाली वह भी तो बरसों पहले हार मान बैठी थी।
क्यों आया है ये बदलाव? पचास साठ वर्ष में ही तेज़ तर्रार नारियों के तेवर ढीले पड़ गए हैं? वीमन रिसर्च सेंटर की उसकी मित्र शीना साने प्रोग्राम ऑफ़िसर भी तिलमिलाती थी, “मेरी मम्मी ने तो वीमन एम्पॉवरमेंट के लिये अपने सारे गहने छोड़ दिए थे। यहाँ तक कि अपना मंगलसूत्र भी उतार फेंका था। आज जब यूनिवर्सिटी की लड़कियों के लिए पोस्टर कॉम्पीटिशन रक्खा तो वे यानि आज की मॉडर्न लड़की गहनों से लदी हीरोइन बना रही है। कोई मन्दिर में अर्चना करती नारी बना रही है। कोई गोदी में शिशु लिए उसे निहारती युवती बना रही है .यानि कि वही मध्यकाल में लौट गई सारी नारी प्रगति!”
जिस व्यवस्था से स्त्री विद्रोह करने निकली थी, उसकी लोहे जैसी सशक्तता से टकराकर वह् लहूलुहान हुई है। उसने अपने अनुभव विभिन्न माध्यमों से शेयर किए हैं जिससे विद्रोह की आग और भड़के लेकिन अधिकतर विपरीत असर ही हुआ है। घबराकर अगली पीढ़ियों को ‘सो कॉल्ड रिच हाउसवाइफ’ का रोल अधिक अच्छा लगा है। कितना आसान है छलनी की जाली से पति को देखकर मंद मंद मुस्कराना व उसकी जेब पर कब्ज़ा जमा लेना।”
“तू सही कह रही है किस पति को पसंद है अक्लमन्दी की बात करती पत्नी?”
बस उसे इस पीढ़ी के कुछ युवकों का ये बदलाव बहुत अच्छा लगता है। नारीवाद की हायतौबा से कम से कम वे तो पत्नी को इंसान समझकर अपना प्यार जताने उसके साथ करवा चौथ का व्रत रखने लगे हैं।
तब उसकी दुनिया भी कैसे एक दिन में बदल गई थी? उस समय लगा था उसकी सोच, उसकी विचारधारा पर जैसे किसी ने तमाचा जड़ दिया था। शादी की पहली करवा चौथ को सास को रुष्ट करके आई थी तो सिंघानिया ज्वेलर्स के बंगले के नक्शे को बनाने में उसका दिल नहीं लग रहा था। सास का उतरा हुआ चेहरा याद करके उसके दिल में कील सी चुभ रही थी। उसने बोर्ड से हटाकर नक्शे का कागज़ रोल करके रख दिया। कल मन स्थिर होगा तब ये बनायेगी। वह एक मामूली शॉपिंग कॉम्प्लेक्स का नक्शा बनाने बैठ गई व चार बजे छुट्टी लेकर घर आ गई।
मम्मी दरवाज़ा खोलते ही चौंक गई थी, “तुम?”
“हाँ, मम्मी। आज आपका व्रत है इसलिए शाम का खाना मैं ही बनाऊँगी। आप पूजा की तैयारी कीजिये।”
“तुम क्यों तकलीफ़ कर रही हो? तुम तो आज होटल में जाकर मटन सटन खाओ।”
“मम्मी ! मैं जानती हूँ कि आप मुझसे नाराज़ हैं लेकिन मेरे पापा ने मुझे एक व्यक्ति के रुप में स्वतंत्रता दी है। संजय भी ऎसे हैं। व्रत ना रखने के लिये आप मुझे माफ़ करें लेकिन आप पलंग से नहीं उतरेंगी।”
उसने चाय पीकर थोड़ा आराम किया व सात बजे तक सारा खाना बना लिया। सूजी का हलवा बनाना नहीं भूली। उधर मम्मी ने घर के मन्दिर के आगे मिट्टी का लेप लगाकर आटे से चौक बना दिया था, जिस पर मिट्टी की बनी गौर को नए कपड़े का आँचल डालकर, उसके माथे पर लाल बिन्दी लगा दी थी व दीवार पर कागज़ पर बनी करवा चौथ चिपका दी थी।
वह किसी बच्चे की तरह ठुनकते हुए बोली थी, “मम्मी! आज मैं आपको सजाऊँगी।” उसने अपने हाथों से उनका मेकअप किया। साड़ी पहनाई। उनके बालों में बाज़ार से लाया गजरा लगाया। उन्हें कुर्सी पर बिठाकर उनके पैरों पर आलता व नेल पॉलिश लगाने बैठ गई। इतनी मक्खनबाज़ी के बीच वह जानती थी कि उसकी सास का अहम आहत था कि हमारी परम्पराओं को उखाड़ने तू कहाँ से चली आई?
मम्मी रात मे पूजा के बाद चाँद को अर्ध चढ़ाने जाते समय बोली थीं, “बहू! व्रत नहीं रक्खा, पूजा नहीं की, तो चलो चाँद को अर्ध चढ़ा दो।”
वह अपना स्वर भरसक नम्र बनाकर बोली थी, “मम्मी चाँद पर आदमी पहुँच चुका है। वहाँ कंकड़- पत्थर के अलावा कुछ नहीं है तो मैं किस श्रद्धा से उसकी पूजा करूँ?”
“कुछ मत करो,जो मन में आए वही करो।” वह पूजा की थाली लिए बड़बड़ाती सीढ़ियाँ चढ़ गई थीं। उसके ससुर ने उसे शाबासी दी थी, “मुझे खुशी है कि तुम एक जागरूक व्यक्ति की तरह हमारे घर में आई हो।”
“पापा जी! मैं भी तो किस्मत वाली हूँ कि मुझे भी तो अपने पापा के घर जैसा खुला वातावरण मिला है।”
शादी के बाद सच ही उसके जीवन में एक परितृप्ति थी। संजय जैसा एक बेलौस साथी, ऑफ़िस का सुसंस्कृत वातावरण। वह हैरान इस बात पर थी कि भारत जैसे गरीब देश में इतना पैसा कहाँ से आता जा रहा है कि लोग अपने घर के डिजाइन बनवाने में इतना पैसा खर्च करते हैं कि नित नये आर्किटेक्ट अपना ऑफ़िस खोल रहे हैं!
चीफ़ मुलगाँवकर की कुशाग्र बुद्धि पर वह पहले दिन से ही प्रभावित हो गई थी। उसका नए शहर में पहला इंटरव्यू था। एक डर था मन में। जब उन्हें पता लगा था कि उसे आर्किटेक्चर की डिग्री में यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान मिला था, तो उन्होंने उससे कुछ नहीं पूछा। बस मेज पर रखे कागज़ पर पेंसिल से एक लाइन बनाने को कहा। उस लाइन की सुघड़ता से उसकी स्थापत्य कला की प्रतिभा पहचान कर उन्होंने उसे पच्चीस कैंडीडेट्स में से चुन लिया था। वह भी मेहनत से काम करना चाहती थी। सिंघानिया ज्वेलर्स के बंगले की डिजाइन पूरी तन्मयता से बनाना चाहती थी जिससे चीफ़ के मुँह से ‘वाह’ निकल सके। उनकी इस ‘वाह’ का मतलब होता है -एक बोनस चैक। चतुर व्यावसायिक बुद्धि के चीफ़ ने नियम बना रखा है कि जो आर्किटेक्ट अच्छा काम करेगा उसे वे बोनस चैक देंगे, इसलिए कम तनख्वाह पाकर भी लोग यहाँ काम करना पसंद करते हैं।
जब उसे विशेष काम करना होता तो वह अपनी पूरी संतुष्टि के लिये थर्मोकोल, गत्ते ,प्लास्टिक्स या माचिस की तीली से इमारत का पूरा मॉडल बना लेती थी। मेहुल उसे चिढ़ाता, “लगता है कि तुम सपने में भी मॉडल बनाती रहती हो। उधर नक्शा तैयार किया, इधर फटाफट मॉडल तैयार हो गया। अपने को तो पेंसिल से ही नक्शा बनाकर ऐसा लगता है कि जान छूटी।”
तब शीना बीच में कूद पड़ती, “तुम्हें गर्व होना चाहिये कि तुम्हें इतनी जीनियस आर्किटेक्ट के साथ काम करने का मौका मिल रहा है।”
नीलेश चुटकी लेता, “यह इतनी मेहनत इसलिए कर रही है कि बॉस से बोनस चैक झटक सके। ख़ुद का एक न्यारा बंगला बना सके।”
वह इत्मीनान से थर्मोकोल के टुकड़े पर फ्रेंच विंडो की डिज़ाइन बनाती व उत्तर देती, “तुम दोनों बच्चे काफी समझदार हो। तुमने ठीक पहचाना। मेरा सबसे बड़ा सपना है कि मेरा भी एक न्यारा बंगला हो, चाहे छोटा ही सही। सड़क पर हर आने जाने वाला व्यक्ति एक बार तो ठिठक कर सोचे कि इसका आर्किटेक्चर किसने बनाया है? मैं प्रॉमिस करती हूँ कि उसके ‘वास्तु’ (गुजराती में गृहप्रवेश को वास्तु कहते हैं ) में ज़रूर बुलाऊँगी।
वे सब एक स्वर में बोले थे, “तुम्हारे घर के वास्तु में हम ज़रूर आयेंगे। अपने सारे काम छोड़कर।”
वह आश्चर्य कर उठी थी, “सारे काम छोड़कर क्यों?”
“क्योंकि तुम यू.पी वाला लोगों के घर वास्तु में ‘चाँदला’ (शगुन के रुपये) नहीं देना पड़ता।”
“नहीं, नहीं। तुम लोग अपने प्रदेश का रिवाज़ मत छोड़ना। तुमसे मैं चांदला ज़रूर ले लूँगी और किसी से लूँ या ना लूँ।”
ज़िन्दगी कैसी हँसती, खिलखिलाती भागी जा रही थी। तब कौन सोच पाया था कि आर्किटेक्ट डिजाइन कंप्यूटर्स पर बनाने लगेंगे। यूपी वाले भी ‘चांदला’ लेने लगेंगे। बस कभी उसे लगता था कि चीफ़ उसमें कुछ जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। वह उनसे ऎसे दृढ़ विश्वास से बात करती कि वह कुछ हल्की-फुल्की बात करना चाहते तो वह उन्हें किसी होटल या घर के डिज़ाइन की बातों में उलझा देती थी।
चीफ़ उन दिनों बहुत खुश थे क्योंकि उन्हे शहर के सबसे बड़े स्टील के व्यापारी दादू भाई एंटरप्राइजेज के ऑफ़िस की नई बिल्डिंग बनाने का काम मिल गया था। वे पूरी सावधानी के साथ टीम वर्क करना चाहते थे। कहीं भी कोई ढील नहीं छोड़ना चाहते थे। इंटीरियर के लिये उन्होंने उसे भी अपनी टीम में चुना था। दादू भाई उनकी टीम को अपनी ज़मीन दिखाने ख़ुद ले गए थे, “ये जगह शहर के बाहर थोड़े जंगल में है। मैं चाहता हूँ कि इस जगह के जंगलीपन में….!”
चीफ़ ने टोका था, “यू मीन इन बिटवीन नेचुरल ब्यूटी।”
“हाँ, हाँ वही। इसके बीच में मेरा ऑफ़िस बने। पेड़ों के झुरमुट के बीच झांकता हुआ।”
चीफ़ अपनी कार में लौटते हुए बहुत खुश थे। उन्होंने गुनगुनाते हुए घोषणा की थी, “आज का लंच मेरी तरफ़ से होगा।”
नीता ने उसे कोहनी मारी थी, “इस मक्खीचूस मधुमक्खी के छत्ते से शहद कैसे टपक पड़ा?”
महंगे होटल में खाना खाने के बाद नीता, दास व मेहुल एक- एक करअपने घर के पास होने का बहाना करके उतरते चले गए। उसका दिमाग अभी भी दादू भाई एंटरप्राइजेज के ऑफ़िस के नक्शे में उलझा हुआ था। वह बहुत गम्भीरता से चीफ़ से नक्शे की बारीकियाँ समझती जा रही थी। एक स्थान पर उन्होंने कार धीमी की और स्टीयरिंग पर हाथ रखकर पीछे घूमकर उससे कहा, “वो सामने जो तीसरा स्काईस्क्रेपर देख रही हैं!”
“जी”
“उसमें मैंने एक फ़ाइव बी एच के का फ़्लैट खरीदा है।”
“कौंग्रेट्स सर! लोकेशन बहुत अच्छी है।”
वह उसे तौलती हुई नज़रों से देखते हुए कहने लगे, “मैंने अभी अपनी फ़ैमिली वहाँ शिफ्ट नहीं की है। आपका मूड हो तो वहाँ चला जाए?चाबी मेरे पास है।” उन्होंने एक हाथ को अपनी पेंट की जेब में डालकर उसमें से चाबी का गुच्छा निकाल कर उसकी आँखों के सामने लहरा दिया।
वह हतप्रभ, काठ हो गई थी; नि;स्पंद। उन्होंने ऐसा सोच भी कैसे लिया? गुस्से की चिंगारी से उसके होंठ फडफड़ा उठे थे, “वॉट डू यू मीन माई मूड? आपने मुझे क्या समझ रखा है?”
“मैंने तो तुम्हे बहुत कुछ समझ रखा है लेकिन तुम शायद समझना नहीं चाहती या जानबूझकर अनजान बन रही हो?”
“वॉट डू यू मीन?”
“इतने सारे बोनस चैक ले चुकी हो और आज मतलब पूछ रही हो?”
“बोनस चैक देना आपके ऑफ़िस का नियम है। बीइंग अ फ़ाइन आर्किटेक्ट, आई डिज़र्व इट।”
“तुम डिज़र्व तो बहुत करती हो। कभी अपने आपको पहचानने की कोशिश की है?” उन्होंने उस पर एक भद्दी दृष्टि डालते हुए कहा।
“मुझे पता होता कि ये चैक मुझे अपने काम के लिये नहीं बल्कि आपकी मेहरबानी से मिल रहे है तो मैं उन्हें फाड़ आपके मुँह पर फेंक जाती मिस्टर मुलगाँवकर।”
“क्या तुम समझती नहीं थी कि इतने भारी भरकम चैक क्या फालतू ही कोई लुटाता रहेगा?”
“मेरी ये पहली नौकरी है। आगे के लिए यह बात समझ में आ जायेगी। ज़रूरी थोड़े ही है कि सब आप जैसे ही हो।आई एम वर्किंग इन योर ऑफ़िस लाइक अ पर्सन नॉट लाइक अ फीमेल। गाड़ी तेज़ करिये और सीधे ऑफ़िस चलिए।” उसके स्वर में कैसा तो आत्मविश्वास था कि चीफ़ ने सिटपिटाकर एक्सीलेटर पर पैर रख दिया। वह वहाँ से अपना स्कूटर उठाकर किस तरह घर पहुँची, उसे होश ही नहीं था। उस दिन वह् एक आँचल वाली अबला नारी की तरह पलंग पर उलटे लेटकर रोती रही थी। एक तीखी घृणा ने उसे अन्दर तक सिहरा दिया था। वह बेहद अपमानित महसूस कर रही थी। वह क्या रास्ते में कोई पड़ी चीज़ है, जो कोई उसे अपमानित कर सकता है?
शाम को संजय ऑफ़िस से आकर उसकी सूजी हुई आँखें देखकर चौंक कर बोले, “ये क्या हालत बना रखी है?”
वह उसके गले में बाँहें डालकर हिचकी भर और ज़ोर से रो उठी। अपनी सिसकियों के बीच उसने सारी घटना सुना दी थी। संजय से अपनी पत्नी का अपमानित चेहरा देखा नहीं जा रहा था लेकिन अपने को ऊपर से सहज बनाते हुए बोले थे, “इतनी सी बात के लिये रो रही हो? मैं तुम्हें औरों से अलग समझता था। भई मैं तो यही मानता हूँ ‘गिरते हैं शह्सवार ही मैदान-ए-जंग में’….!”
“तुम शायद मेरी पीड़ा, मेरा अपमान नहीं समझ सकते। आज जीवन में पहली बार जाना है कि मैं मात्र एक स्त्री हूँ, मानव नहीं। मैं अब उस ऑफ़िस में कभी पैर नहीं रखूँगी।”
“तुम इतनी परेशान हो। तुमसे कहाँ कोई कह रहा है कि नौकरी करो।”
“तुम जानते हो मैं बिना काम घर पर भी नहीं बैठ सकती।”
“जब मन स्थिर हो जाए तो दूसरी नौकरी ढूंढ़ लेना।” संजय ने उसे अपनी बाँहों में भींच कर सीने में जकड़ लिया था।
तब वह कहाँ समझ पाई थी कि हर बाहर निकली औरत के सामने घुमा फिराकर यही प्रस्ताव आता है। पहली बार ये सुनकर लगता है कि पैरों की ज़मीन में भूकंप आ गया है, सारा आसमान बरस रहा है या वह किसको झिंझोड कर पूछे कि मुझे अपमानित करने का हक इन दरिन्दों को किसने दिया? अपमान से फटते मस्तिष्क के स्नायुयों को दूर-दूर से खींचकर स्थिर करना होता है। आंसू पोंछने में, सहज होने में समय लग जाता है।
पिछली सदी से निकल कर जाने कितनी शहसवार ज़ख़्मी हो रही हैं, जिनक़ी प्रगति के रास्ते अवरुद्ध किए जा रहे हैं। उनके चेहरे पर तेज़ाब फेंका जा रहा है। वह नहीं तो चरित्र पर कीचड़ मला ही जा सकता है। यदि जुगुप्सा ऐसे भी शांत नहीं हुई तो गैंग में उसे घेरा जा सकता….हर औरत..एक त्रासदी की नई कहानी लेकिन सब समानांतर एक सी पृष्ठभूमि पर चलती हुई। वह सोचती है इसीलिये तो आज हर धर्म, हर प्रांत की नारी ज़री जड़ी लाल रंग के जोड़े में नज़र आती है। माथे तक बह आए लाल सिंदूर से खिल खिल छलनी के आर-पार चाँद और पति देखती हुई, हँसती हुई। जबकि उसे पता है वह कितनी सलीबों पर जड़ी हुई सुहागन होने का मोल दे रही है।
उसके मनोबल को भी तो संजय से सहारा मिला था। तब उसे भी लगा था कि वह ऎसे ही सुदृढ़ सहारे पर टिकी दू—–र तक निकल जायेगी। उसके व्यक्तितव को झिंझोड़ने वाली बात के कारण ही वह समझ पाई थी कि क्यों कोई लड़की भाई की कलाई पर राखी बांधती है।! क्यों विवाह में एक स्त्री फूलहार से एक पुरुष को बाँधने की पहल करती है!
तब ही की तो बात है ,उस घटना के एक महीने बाद ही वह ऑफ़िस जाने से पहले रसोई में नाश्ता बना रही थी। मम्मी जी ने आकर कहा, “ज्योति! आज मेरे लिए नाश्ता नहीं बनाना। आज मेरा करवा चौथ का व्रत है।”
“मम्मी जी! आज मै भी व्रत रखूँगी।” उसने निरीह दृष्टि से उन्हें देखा था। “क्या?तुम? तुम करवा चौथ का व्रत रखोगी?” उनका चेहरा एक विजेता की तरह खुशी से छलछला आया था। “लेकिन तुम्हे व्रत रखने की क्या ज़रूरत पड़ गई?”
“बस ऎसे ही मन हो रहा है।”
उन्होंने उसे उत्साह से छलकते हुए रसोई के बाहर कर दिया था, “तुम जाकर आराम करो, मैं काम संभालती हूँ। पहली बार निर्जल व्रत आसान नहीं होता।”
वह रात को शादी का ज़री से चमचमाता लहँगा पहन कर, हाथों में दर्जन भर चूडियां पहने,गले में नवरत्न का हार पहने, माथे पर चमकती बिंदी लगाये,आलता लगे पैरों से पायल छनकाती सीढ़ियाँ चढ़ गई थी।हाथ में पूजा की थाली लिए व पानी भरा हुआ करवा लिए चाँद को देखकर असमंजस की स्थिति में थी। शादी से पहले कितनी बार कंकड़, पत्थर व गड्ढे वाले चाँद को अर्ध देती अपनी मम्मी का मजाक उड़ाया है। मम्मी हमेशा यही उत्तर देती थीं, “हो आया होगा आदमी चाँद पर। हम तो इस जन्म में वहाँ पहुँचने वाले नहीं है। रात्रि के अंधकार को अपनी चाँदनी से नष्ट करने वाले चाँद को यदि मैं सृष्टिकर्ता का रुप मानकर अपने सुहाग की कामना करते हुए जल चढ़ा रही हूँ तो बुरा क्या कर रही हूँ?”
“अब बहू! पूरी व हलवे का चाँद को भोग लगाकर उसे जल चढ़ा दो।” सास के स्वर से उसकी तन्द्रा टूटती है। वह चूड़ी छ्नकाती हुई पूरी के टुकड़े में हलवा लगाकर चाँद की तरफ फेंकती है। कहाँ गई खिल खिल करती ज्योति? ये जल की धारा चाँद तक पहुँचेगी? उसे लगता है करवा चौथ या रक्षाबंधन उसकी बेड़ियाँ नहीं हैं। सिर्फ़ उस धारणा के प्रतीक चिन्ह हैं जो युग युगांतर से अविरल चली आ रही नारी के इर्द गिर्द नारीत्व की सूक्ष्म शाश्वत रेखा खींचते हुए, स्कूटर या तेज़ गति की कार में, कटे हुए फरफराते बालों से; जिनके पार आज भी जाया नहीं जा सकता।
चन्द्रमा के धवल रुप पर काजल लगी नजर टिकाये उसके मन में दर्द की भारी लकीर लहक रही है। सृष्टि के जननहार ने उसकी देह को सर्वोच्च सम्मान दिया है। सृष्टि के ही सृजन का सम्मान! वही जननहारी कभी भी अपनी इसी देह के कारण अपमानित की जा सकती है। बड़ा कुत्सित व विद्रूप मजाक लगता है न! लेकिन जीवन का अपना यही नियम है। जीवन की कोई उपलब्धि अपना पूरा- पूरा मोल लेती है न!
– नीलम कुलश्रेष्ठ