कथा-कुसुम
कहानी- गंगा के किनारे
“चार चाय देना बालक।” कहकर वे चारों बेंच पर जम गए। सामने हरहराती गंगा को देखकर मधुकर बोल उठा, “वाह! क्या बात है गंगा की। देखकर ही मन को शान्ति मिलने लगती है, नहा लिया जाता तो आनन्द ही आ जाता।”
“हाँ! आनन्द तो ज़रूर आता, पर अब चाय के लिए कह दिया है तो पी ही लेते हैं। नहाना तो ज़रूर है। ला भाई, ला चाय।” कहकर प्रशान्त ने चाय वाले लड़के की तरफ देखा।
मधुकर, प्रशांत, उस्मान और जोज़फ दिनभर की भाग-दौड़ से थककर हरकी पैड़ी पर आ बैठे थे। वे हरिद्वार घूमने आए थे। मधुकर को देहरादून में कुछ काम था। जब उसने मित्रों से इसकी चर्चा की तो वे भी साथ चलने के लिए तैयार हो गए और ये चौकड़ी पहले हरिद्वार आ पहुँची। चारों की दोस्ती पक्की, यदि घूमने-फिरने का मामला हुआ तो जहाँ जाएँगे साथ ही जाएँगे।
थोड़ी ही देर में चाय आ गई, “अरे सुन, एक ब्रेड भी ले आ।” प्रशांत ने कहा तो लड़का अपने खोखे की ओर मुड़ गया। तभी मधुकर ने देखा, वहीं उनकी बेंच के पास बैठी एक मैले-से कपड़ों वाली वृद्धा ललचाई नज़रों से उनके चाय के गिलासों को देख रही थी, “चाय पियोगी?” मधुकर ने पूछा तो वृद्धा की आँखें भर आईं। पर वह कुछ बोली नहीं। मधुकर ने चाय वाले से कहकर एक गिलास चाय उसे भी दिलवा दी। चाय वाला लड़का डबलरोटी ले आया था, उस्मान ने ब्रेड लड़के से लेकर खोली और उसके चार टुकड़े निकालकर वृद्धा को दे दिए, जो उसने बड़ी बेसब्री से झटक लिए और हबड़-तबड़ खाने लगी। उसे इस तरह से ब्रेड खाते देखकर मधुकर ने सारी डबलरोटी उस्मान के हाथ से लेकर वृद्धा को पकड़ा दी, जो उसने लगभग झपटकर ले ली। चारों मित्र आश्चर्य से वृद्धा को खाते देख रहे थे। वह इस तरह से खा रही थी मानो, उसने खाने में यदि ज़रा-सी भी देर कर दी तो कोई ब्रेड को उससे छीन लेगा।
जल्दी ही वह पूरी की पूरी ब्रेड खाकर चाय पीने लगी। प्रशान्त से नहीं रहा गया तो उसने पूछ लिया, ‘‘और खाओगी, माता?’’
वृद्धा ने हाँ में सिर हिलाया तो उन लोगों ने उसे एक और डबलरोटी ख़रीदकर दे दी। साथ ही एक गिलास चाय भी और दिलवा दी। अब वह आराम से बैठकर ब्रेड खा रही थी। अब उसे कोई जल्दी नहीं थी। उसकी आँखों की चमक बता रही थी कि उसे कितनी अधिक भूख लगी थी और चाय और ब्रेड से उसे कितनी तृप्ति हुई थी।
चारों मित्र उसे बड़े ग़ौर से देख रहे थे। भूख तो उन्हें भी लगी थी परन्तु इस वृद्धा को देखकर वे अपनी भूख को भूल गए। पेट भर जाने पर वहाँ से उठकर उसने गंगाजी में हाथ धोए, मुँह पर पानी के छींटे मारे और थोड़ी दूर जा बैठी। न तो उसने उन चारों को धन्यवाद कहा न उनकी तरफ देखा। तब प्रशान्त बोला, “यार, जब हम यहाँ आए थे, तब तो यह बुढ़िया यहाँ नहीं थी। फिर अचानक कहाँ से प्रकट हो गई?”
“नहीं बाबू जी, यह तो तीन दिन से यहीं पड़ी थी। इधर, मेरी दुकान के इस तरफ।” चाय वाले ने खुलासा किया, “बस चुपचाप पड़ी रहती है, पर मैंने इसे आज तक किसी से कुछ माँगते भी नहीं देखा। आज भी तो उसने आप लोगों से कुछ नहीं माँगा। आपने खुद ही इसे चाय और खाने को ब्रेड दिया। शायद यह तीन दिनों से भूखी ही पड़ी थी।”
“पर क्यों?” इस बार जोज़फ बोल पड़ा था, “कौन है ये और यहाँ क्यों पड़ी है?”
“क्या बताएँ बाबू जी, कैसा ज़माना आ गया है। पाँच दिन पहले यह औरत अपने बेटे और बहू के साथ आकर, वो…..{….{… साथ वाली धरमशाला में रुकी थी।” दुकानदार ने एक तरफ को इशारा किया, “हमें तो अपने कारोबार से ही फुर्सत नहीं होती, किसी को क्या देखेंगे? यहाँ तो हज़ारों लोग रोज़ आते हैं, पर परसों सुबह-सुबह जब हल्ला मचा तो हम भी भागे गए माजरा देखने के लिए। तब पता चला कि जब यह बुढ़िया गंगाजी नहाने गई तो इसके बेटा-बहू सारा सामान लेकर चम्पत हो लिए। धर्मशाला वालों ने इसे निकाल दिया। तब से यह यहीं पड़ी है।”
“और आप लोगों ने इसे खाने को भी कुछ नहीं दिया होगा?”
“अब बाबूजी, हमें क्या पता। मैंने कहा न, इसने तीन दिनों में किसी से कुछ माँगा भी नहीं इसलिए हमने सोचा, खा-पी लिया होगा कहीं कुछ। हम भी तो चौबीस घण्टे दुकान पर नहीं रहते न।”
बुढ़िया अपनी मैली धोती लपेट कर एक पेड़ के साथ अधलेटी हो गई थी। तभी मधुकर अपनी जगह से उठकर बुढ़िया के पास गया तो वह वृद्धा स्त्री हकबकाकर उठ खड़ी हुई, पर बोली फिर भी नहीं।
“माता जी, आपका घर कहाँ है?” उसने पूछा, पर वह फिर भी नहीं बोली, सिर झुकाकर बस आँखों से दो आँसू टपका दिए।
“देखिए, आप हमें अपने घर का पता दें तो हम आपको वहाँ पहुँचा सकते हैं।”
“………..”
“चलिए, हम समझ सकते हैं कि आप अपने बेटे-बहू के व्यवहार से दुःखी हैं और हमें कुछ बताना भी नहीं चाह रहीं। पर आप इस तरह यहाँ कब तक पड़ी रहेंगी? धूप है, बारिश है। कोई तो प्रबंध करना ही पड़ेगा। देखिए, मुझे भी अपना बेटा ही समझिए और ये कुछ रुपए रखिए।” कहते हुए उसने जेब में हाथ डालकर सौ-सौ के तीन नोट निकालकर वृद्धा के हाथ पर ज़बरदस्ती रख दिए। वृद्धा डबडबाई आँखों से कभी मधुकर के हाथ में पकड़े अपने हाथ के साथ नोटों को देखती और कभी गंगाजी को। उसके कुछ न बोलने से उसके स्वाभिमानी स्वभाव की स्पष्ट झलक मिल रही थी। आस-पास भीड़ जुटने लगी थी।
हरकी पैड़ी के बहुत से दुकानदार आ जुटे थे। चाय वाला कह रहा था, “बाबू जी, जब ये लोग आए थे तो इस बुढ़िया के कपड़े भी साफ-सुथरे थे, देर तक बैठी घाट पर भजन गाती रहती थी। बेटे-बहू के जाने के बाद एकदम गूँगी ही हो गई है। तब से न कुछ बोली है और न कहींं गई है। रात को भी यहीं बैठी आसमान को और कभी गंगा जी को तकती रहती है।”
“ठीक है, आप कुछ मत बोलिए। पर ये पैसे रख लीजिए, प्लीज़। मैं एक ज़रूरी काम से जा रहा हूँ। दो दिन बाद वापस आकर आपका कोई प्रबन्ध करता हूँ। तब तक आप इनसे काम चलाइए। आप के भोजन का काम चल जाएगा और किसी धर्मशाला में कमरा ले लीजिए। मैं आकर पैसे चुका दूँगा।”
फिर वह चाय वाले की तरफ मुड़कर बोला, “भाया, ज़रा आप भी देख लेना। हम जल्दी ही वापस लौटने की कोशिश करेंगे।” अपने मित्रों को देखकर उसने उठने का इशारा किया तो वे सब उठ खड़े हुए।
देहरादून जाकर अपने काम के सिलसिले में मधुकर को कुछ अधिक ही समय लग गया। चार दिन बाद जब वह खाली हुआ तो उसे बुढ़िया की याद आई। वे चारों एक बार फिर गंगा जी के किनारे आकर उसी चाय वाले के पास जा पहुँचे। वही छोटा लड़का भागा आया, जो वहाँ ग्राहकों को चाय पहुँचाता था।
“चाय लाऊँ बाबू जी?”
अभी वह कुछ कहते कि ढाबे का मालिक वहाँ आ गया, “बाबू जी आप लोग लौट आए?”
“हाँ, भाई साहब। काम कुछ ज़्यादा था इसलिए देर लग गई। पर वे माता जी दिखाई नहीं दे रहीं। कहाँ किया उनका प्रबन्ध?”
“अरे भाई साहब! मैं क्या प्रबन्ध करता, उस बेचारी ने अपना प्रबन्ध अपने आप कर लिया है।”
“क्या मतलब?” मधुकर चौंककर उठ खड़ा हुआ तो ढाबे के मालिक ने जेब से सौ का एक नोट और कुछ छोटे नोट निकालकर मधुकर के हाथ पर रख दिए, फिर भर्राए गले से बताने लगा, “उसने दो दिन तक आपका रास्ता देखा, आप दो दिन कह कर गए थे न? तब तक उसने इन पैसों से खाना भी खाया और मेरे खोखे के नीचे ही सोती रही। तीसरे दिन भी दोपहर तक वह उधर ही देखती रही, जिस तरफ आप लोग गए थे, फिर वह उठ-उठकर उस तरफ देखने लगी। हम समझ रहे थे कि वह आप लोगों का इंतज़ार कर रही है, लेकिन जब आप लोग शाम तक भी नहीं आए तो वह मेरे पास आई और मुझे ये पैसे देकर बोली, “अगर वह लड़के आ गए तो ये पैसे उन्हें दे देना।” बाबू जी, सच कहता हूँ इतने दिनों में मैंने पहली बार उसे बोलते सुना। अभी मैं उससे पूछता कि वह कहाँ जा रही है, उसने जल्दी से कदम बढ़ाकर गंगा जी में छलांग लगा दी। गोताखोर कूदे भी पर उसे बचा नहीं सके।”
“ओह!” मधुकर धम्म से बैंच पर बैठ गया, “मुझे क्षमा कर दो माँ! तुम्हें लगा होगा कि मैं भी तुम्हारे बेटे की तरह तुम्हें छोड़ गया हूँ। अब नहीं आऊँगा। काश तुम मेरा विश्वास करतीं। पर किस आधर पर करतीं, जब तुम्हारी कोखजाए ने ही तुम्हें निराश्रित कर दिया।” तीनों मित्र उसके कंधे थपथपाकर उसे दिलासा दे रहे थे। मधुकर अश्रुभरी आँखों से आसमान की ओर देख रहा था। सम्भवतया उस क्लांत चेहरे को आसमान में तलाश कर रहा था।
– आशा शैली