कथा-कुसुम
कहानी- के. के.
शिवाजी स्टेडियम के बस-स्टॉप पर उतर कर मैंने माथे का पसीना पोंछा और राहत की साँस ली । मैं कनॉट प्लेस में कुछ किताबें ख़रीदने के इरादे से घर से निकला था । महीने का पहला शनिवार था और अभी जेब में पैसे थे । सड़क पार करके मैं ‘ बुक-वर्म ‘ की ओर चल पड़ा । शाम हो गई थी और तरह-तरह की चीज़ों से सजी हुई दुकानों में रोशनी की चकाचौंध थी । सामने से रंग-बिरंगी पोशाकों में कॉलेज की शोख़ लड़कियों का एक रेला आया । लड़कियों के इर्द-गिर्द कुछ मजनू-टाइप लड़के भी मँडरा रहे थे। जैसे गुड़ के गिर्द चींटियाँ ।
तभी पीछे से किसी ने मेरा नाम पुकारा। मैंने मुड़कर देखा। भीड़ में दूर चश्मा लगाए के.के. मेरी ओर हाथ हिला रहा था। मैं थोड़ा हैरान हो गया। के.के. और यहाँ?
के.के. से मेरी पिछली मुलाक़ात तब की थी जब तीन साल पहले हम दोनों मुंबई के ‘ कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया ‘ में अनुवादक थे। फिर मुझे दिल्ली में उससे बेहतर नौकरी मिल गई और मैं दिल्ली चला आया। तब से अब तक के. के. से मुलाक़ात नहीं हुई थी। हालाँकि जान-पहचान वालों से उसके बारे में कुछ-न-कुछ सुनने को मिल जाता था। जैसे — उसे ‘ कंटेनर कॉर्पोरेशन ‘ की नौकरी से निकाल दिया गया था और अब वह मुंबई फ़िल्म-जगत में ‘ स्क्रिप्ट-राइटर ‘ बनने की जुगाड़ में हाथ-पैर मार रहा था।
“ कैसे हो , प्रशांत ? तुम बिल्कुल नहीं बदले । “ हाथ मिलाते हुए उसने कहा । उसकी हथेली पसीने से चिपचिपी थी ।
“ पर तुममें बहुत बदलाव आ गया है । पहले से दुबले हो गए हो और यह दाढ़ी कब रख ली ? “ मैंने पूछा ।
“ चेंज इज़ द लॉ ऑफ़ नेचर । और फिर आदमी माँ के पेट से उस्तरा लेकर तो पैदा होता नहीं । “ वह एक सूखी हँसी हँसता हुआ बोला । “ चलो , कहीं बैठते हैं । “
हम दोनों भारतीय कॉफ़ी हाउस की ओर चल पड़े ।
“ आज-कल क्या कर रहे हो , के. के. ? “
“ ख़ाली बैठा हूँ । झख मार रहा हूँ । कोई ढंग की नौकरी मिलती ही नहीं । “ उसकी सूखी हँसी दोबारा लौट आई ।
मुझे याद आया , के.के. नौकरियाँ छोड़ने के लिए बदनाम था । ‘ कंटेनर कॉर्पोरेशन ‘ से पहले वह डी.ए.वी. कॉलेज , पठानकोट में लेक्चरर था । उससे पहले वह दिल्ली में एक पब्लिक स्कूल में टीचर था । उससे पहले वह बिहार पुलिस में कांस्टेबल था । उससे पहले भी वह कहीं कुछ था , ठीक से याद नहीं आ रहा । लेकिन
‘ पंगे ‘ लेने की अपनी आदत के चलते उसकी लोगों से बनती नहीं थी । वह कहीं भी ज़्यादा दिन नहीं टिक पाता था । या तो लड़ कर खुद ही नौकरी छोड़ देता था या नौकरी से निकाल दिया जाता था ।
‘ स्क्रिप्ट-राइटिंग ‘ का क्या हुआ ? “ मैंने पूछा ।
“ वहाँ सब स्साले हराम… भरे हुए हैं । टेलेंट की कोई कद्र नहीं है । वहाँ सफल होने के लिए गॉडफ़ादर चाहिए । तभी ब्रेक मिलता है । “ उसने ऐसा मुँह बनाया जैसे कोई कड़वी चीज़ निगल ली हो ।
“ स्टेट सर्विस कमिशन की परीक्षा में फिर नहीं बैठे ? “
“ सब स्साले चोर हैं । हर जगह रुपया चलता है । सिफ़ारिश चलती है । टेलेंटेड आदमी से लोग जलते हैं । “ दाँतों से उँगलियों के नाखून कुतरता हुआ वह
बोला ।
मुझे ‘ कंटेनर कार्पोरेशन ‘ के दिन याद आ गए । वहाँ के.के. ‘ ऐबॉर्टेड आई.ए.एस. ‘ के नाम से बदनाम था । उसने अपने जीवन के चार साल से ज़्यादा आई.ए.एस. की परीक्षा में सफलता पाने में झोंक दिए । पर लाख कोशिश करने और चार बार परीक्षा देने के बावजूद कभी वह ‘ मेन्स ‘ की परीक्षा में रह जाता तो कभी इंटरव्यू में छँट जाता।
फिर वह ‘ डिप्रेशन ‘ का शिकार हो गया था। घर वाले उसका इलाज मनोचिकित्सक से करवाना चाहते थे । पर उसने इलाज कराने से इंकार कर दिया था । ज़िद्दी वह शुरू से ही था । इसी हालत में कभी-कभी दफ़्तर में चार लोगों को इकट्ठा कर के वह शुरू हो जाता , “ तुम सब कुत्ते-बिल्ली हो , कुत्ते-बिल्ली ! पर मैं यहाँ सड़ने के लिए पैदा नहीं हुआ । तुम सब देखना । मैं बहुत ऊपर तक जाऊँगा । बहुत ऊपर । मेरा वक़्त आएगा । तुम सब देखना । “
धीरे-धीरे दफ़्तर में लोग उससे कतराने लगे थे ।उसके सामने तो कुछ नहीं कहते , लेकिन पीठ पीछे बोलते , “ स्साले का दिमाग़ खिसक गया है । “
के.के. भी आए दिन किसी-न-किसी से झगड़ा कर लेता । महिला सहकर्मियों तक से उल्टा-सीधा बोल देता । लोगों से रुपए-पैसे उधार ले लेता और नहीं लौटाता । पैसे माँगने पर उन्हें गालियाँ बकता । कई बार तो लोगों से मार-पीट की नौबत आ जाती । कभी वह किसी की क़मीज़ का कॉलर पकड़ लेता , कभी लड़ने के लिए अपनी बेल्ट , कभी अपना जूता निकाल लेता ।
उसके बारे में कई चुटकुले चल निकले थे । जैसे — एक दिन के. के. ने एक बिल्ले का रास्ता काट दिया । बिल्ले ने घर लौट कर अपनी बिल्ली से कहा , “ भागवान ! आज सुबह-सुबह के. के. मेरा रास्ता काट गया । पता नहीं , दिन भर में एक भी चूहा नसीब होगा या नहीं । “ उसकी हरकतें देखकर दूसरी ब्रांच के लोग भी हमसे सहानुभूति जताते हुए पूछते , “ आप लोग इस पागल को कैसे बर्दाश्त कर लेते हैं ? “
जब मुझे दिल्ली में दूसरी नौकरी मिल गई थी , ठीक उसी समय के.के. को ‘ कंटेनर कॉर्पोरेशन ‘ की नौकरी से सस्पेंड कर दिया गया था । वहाँ इसने अपने बॉस मिस्टर चड्ढा से नाराज़ होकर कुर्सी उठा कर उन्हें दे मारी थी …
कॉफी हाउस में बहुत भीड़ थी । किसी तरह एक कोने में एक ख़ाली टेबल ढूँढ़ कर हम वहाँ जा बैठे ।
“ इस बीच क्या करते रहे ? “ मैंने कॉफ़ी का ऑर्डर दे कर उससे पूछा ।
“ बहुत कुछ किया और कुछ भी नहीं किया । “ उसके चेहरे पर वही सूखी हँसी लौट आई ।
“ क्या मतलब ? “ मैंने पूछा ।
“ डी.डी. मुंबई के लिए ‘ नई शिक्षा नीति ‘ पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाने का कांट्रैक्ट मिला था । बैंक से लोन लेकर इसमें हाथ डाला था । पर काम स्साला पूरा नहीं हो सका । सारा रुपया डूब गया । और भी एकाध जगह काम किया । “ ‘ धूम्रपान -निषेध ‘ का बोर्ड देख कर एक सिगरेट सुलगा कर कुछ लम्बे कश लेता हुआ वह बोला , “ शनि की साढ़े-साती चल रही है । जिस काम में हाथ डालता हूँ , वही अधूरा रह जाता है । “
फिर कॉफ़ी आने तक मैं उसे अपने बारे में बताता रहा।
कॉफ़ी पीने के बाद जब बैरा बिल ले कर आया तो के.के. उस से उलझ पड़ा , “ यहाँ कॉफ़ी इतनी महँगी क्यों है ? ग्राहकों को लूटते हो ? कंज़्यूमर-कोर्ट में ले जाऊँगा , समझे ? “
के.के. की ऊँची आवाज़ सुन कर दो-चार और बैरे वहाँ इकट्ठे हो गए । माहौल बिगड़ने लगा ।
एक बार घाटकोपर , मुंबई में भी वह किसी बस कंडक्टर से उलझ पड़ा
था । उसने भी दो-चार दूसरे ड्राइवर और कंडक्टर मदद के लिए बुला लिए । उस दिन वह पिट जाता अगर ऐन मौक़े पर मैंने बीच-बचाव करके इसे वहाँ से नहीं निकाला होता । एक बार और वह पिटते-पिटते बचा था । चौपाटी पर एक भेलपूरी वाले को पचास का नोट देकर इसने हम दोनों के लिए भेलपूरी ली । फिर भेलपूरी वाले से कहने लगा कि मैंने तुझे सौ का नोट दिया है । बाक़ी पैसे वापस कर । वहाँ भी मामला गर्म होने पर मैं ही इसे बचा कर ले गया था ।
एक बार फिर मुझे ही बीच-बचाव करना पड़ा । किसी तरह उसे समझा-बुझा कर मैंने कॉफ़ी का बिल अदा किया और हम कॉफ़ी-हाउस से बाहर निकल
आए । रास्ते में ‘ धूम्रपान-निषेध ‘ का एक और बोर्ड देखकर के. के. ने फिर से सिगरेट सुलगा ली । यह उसकी पुरानी आदत थी । जहाँ ‘ नो पार्किंग ‘ लिखा होता , वह अपना स्कूटर वहीं खड़ा करता था ।
मैंने बातचीत का विषय बदलते हुए कहा , “ के.के. , तुम शादी क्यों नहीं कर लेते ? शायद लड़की की क़िस्मत से तुम्हारे भाग्य का दरवाज़ा भी खुल जाए ? “
“ हाँ , वैसे शादी के एक-दो ऑफ़र हैं तो सही । पर लड़कियाँ बिल्कुल ‘ बहन-जी ‘ टाइप हैं । मैं भी सोचता हूँ , पहले सही नौकरी तो मिल जाए , फिर सही छोकरी भी मिल जाएगी । “
मैंने उसकी कनपटी के सफ़ेद होते बालों की ओर देखा और मुस्करा दिया।
कनॉट प्लेस के अंदरूनी सर्कल में ‘ बुक-वर्म ‘ से कुछ किताबें ख़रीद कर हम वापस शिवाजी स्टेडियम बस-स्टॉप की ओर चल दिए।
“ आगे क्या करोगे , “ रास्ते में मैंने उससे पूछा।
कुछ देर चुप रहने के बाद जवाब में उसने ऐसा कुछ कहा जिसका मतलब था — दुनिया रसातल में जा रही है । तृतीय विश्व-युद्ध का ख़तरा है । अमेरिका आर्थिक उपनिवेशवाद फैला रहा है । बाज़ार हमारे घरों में घुसता जा रहा है। ‘ विश्व-सुंदरी ‘ प्रतियोगिता नारी के सम्मान पर कलंक है। भारतीय हॉकी का भविष्य धूमिल है। और इस सब को रोकने के लिए उसे कुछ करना पड़ेगा …
शिवाजी स्टेडियम पहुँचते ही मुझे अपने घर तक की सीधी बस मिल गई।
“ अच्छा के. के. , फिर मिलेंगे । तुम तो अभी दिल्ली में ही हो न ? “ बस पर चढ़ते हुए मैंने पूछा।
“ यार , एक ज़रूरत है। तुम्हारे पास हज़ार-पाँच सौ होंगे क्या ? मैं लौटा दूँगा। “ वह मेरा हाथ पकड़ कर बोला।
मुझे ‘ कंटेनर कॉर्पोरेशन ‘ के दिन याद आ गए। इससे पहले कि मैं कोई फ़ैसला ले पाता कि उसे रुपए दूँ या न दूँ , खचाखच भर चुकी बस चल पड़ी । मैं बस के पायदान पर खड़ा उसे देखता रह गया। वह शून्य में ताकता हुआ स्टॉप पर खड़ा था। भीड़ में उसकी आकृति लगातार धुँधली होती जा रही थी । एक ‘ पिक्चर-पोस्टकार्ड ‘ पर पड़े किसी धब्बे जैसी । फिर बस मुड़ गई और धब्बा आँखों से ओझल हो गया।
इस घटना के कुछ समय बाद मैं काम के सिलसिले में तीन-चार सालों के लिए सपरिवार विदेश चला गया। वहाँ जा कर मैं अपने काम-काज में कुछ इस कदर व्यस्त हो गया कि अपने देश के जान-पहचान वालों से लगभग कट-सा गया।
तीन साल बाद वापस अपने देश लौटे हुए मुझे अभी कुछ ही दिन हुए थे जब एक सुबह नाश्ते की मेज़ पर अख़बार में छपा एक चित्र देखकर मैं चौंक गया।
“ क्या हुआ ? क्या आप इन्हें जानते हैं ? “ बग़ल में बैठी श्रीमती जी ने मेरी प्रतिक्रिया देखकर पूछा।
“ अरे हाँ , यह तो के. के. है। किसी जमाने में मेरा कलीग था। “ मैं अब भी विस्मित था।
अख़बार में छपे चित्र के नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में छपा था — “ प्रदेश के शिक्षा मंत्री श्री कृष्णकांत ‘ नई शिक्षा नीति ‘ पर लिखी एक पुस्तक का विमोचन करते हुए“।
– सुशांत सुप्रिय