कथा-कुसुम
कहानी- अनुत्तरित प्रश्न
अपने दोनों बच्चों को स्कूल पहुँचा कर रूपेश ने अपनी बाइक घर के दरवाजे पर खड़ी की। अभी उन्हें भी ऑफिस के लिए निकलना है। इसलिए बाइक को घर के भीतर नहीं रखा। नाश्ता करके, ऑफिस का बैग और लंच का डिब्बा लेकर कुछ ही मिनटों में वे ऑफिस के लिए निकलेंगे। इतनी व्यस्तता, इतना परिश्रम रूपेश अपने बच्चों को अच्छा भविष्य देने के लिए कर रहे हैं।
रूपेश के दो बच्चे हैं। एक बेटा, एक बेटी। दोनों बच्चे शहर के एक अच्छे अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ते हैं। रूपेश स्वंय तो राज्य सरकार के कार्यालय में बड़े बाबू हैं। उन्हें इतना वेतन नहीं मिलता कि घर के खर्चों का वहन करते हुए महंगे स्कूल में पढ़ा सकें। बच्चों के भविष्य के लिए रूपेश अपने व घर के अनेक खर्चों में कटौती करते हैं। उनके के लिए स्कूल की बस न लगवाकर स्वंय ही छोड़ने जाते हैं। ताकि बस का महंगा खर्च बच जाये और बच्चों की फीस जमा कर सकें।
बेटी अंजना आठवीं में और बेटा मयंक सातवीं में हैं। बच्चेे अभी छोटी कक्षाओं में हैं इसीलिए उनके लिए टयूशन नहीं लगवाया है। शाम को कार्यालय से आने के बाद बच्चों को स्वंय ही पढ़ाते हैं। अभी वे बच्चों को पढ़ा ले जा रहे हैं। अगले वर्ष से उन्हें ट्यूटर लगवाना ही पड़ेगा क्योंकि उनके समय से आज के समय का कोर्स बहुत बदल गया है। अनेक चीजें उन्होंने पढ़ी नही हैं इसलिए पढ़ाने में थोड़ी-थोड़ी कठिनाई आने लगी है। खर्चों का क्या है, वे तो जीवन भर लगे रहेंगे। किसी मद में कटौती कर के बच्चों को अच्छी शिक्षा देंगे। ट्यूशन भी लगवायेंगे।
शिक्षा का महत्व वो भली प्रकार जानते हैं। यदि आज वो पढे-लिखे न होते तो उफ्फ! उनकी जि़न्दगी का ये रूप भी न होता। सरकार द्वारा आवंटित निधन वर्ग का यह आवास सस्ते दर में इस नौकरी के कारण लेना सम्भव हुआ। अन्यथा इस शहर की मलिन बस्ती के टूटे-फूटे घर के अतिरिक्त उनके परिवार के पास कुछ नही था। रूपेश के माता-पिता ने उन्हें शिक्षा का मार्ग दिखाया, जिस पर वो पूरी लगन के साथ चल पड़े। शिक्षा पूरी करने के पश्चात् नौकरी में आने वाले अपने परिवार के वो पहले व्यक्ति हैं। ये तो है रूपेश के संघर्षों की छोटी-सी बात। रूपेश का वास्तविक संघर्ष अब उनके दोनों बच्चों की अच्छी परवरिश व अच्छी शिक्षा के लिए है।
समय व्यतीत होता जा रहा था। बच्चे लगन व परिश्रम से पढ़ रहे थे। देखते-देखते अंजना ने अच्छे अंकों से बी. एस. सी. कर लिया। मयंक भी अपनी रुचि के अनुसार बी.सी.ए. कर रहा है। रूपेश के बच्चे अच्छे नम्बरों से पास होते जा रहे हैं। जिस विषय में उन्हें समस्यायें आ रही हैं, उसके लिए रूपेश ने अच्छी कोचिंग ज्वाईन करा दी है। बच्चों की शिक्षा पूरी होने वाली है।
“पापा मैं नौकरी की तैयारी करते हुए एम. एस. सी. करूँगी।” एक दिन अंजना ने कहा।
“ठीक है। खूब पढ़ो।” रूपेश ने कहा।
“पापा मैं प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती हूँ। इसके लिए कोचिंग लेनी पड़ेगी।” अंजना की बात सुनकर रूपेश चुप रह गये।
“पापा, मैं छः माह की क्रैश कोचिंग करूँगी। वहाँ से गाइडेन्स लेकर शेष तैयारी मैं स्वंय कर लूँगी।” पापा को चुप देख अंजना समझ गयी कि पापा पैसों की तंगी के कारण चुप हैं। इसलिए अंजना ने क्रैश कोर्स की बात की, जो कि कम पैसों में हो जाएगा। नौकरी में आज के कठिन स्पर्धा के कारण कोचिंग आवश्यक है, ये बात रूपेश जानते हैं। बच्चों को क्या मालूम एम. एस. सी. की फीस और सब्जेक्ट के कोचिंग की फीस की व्यवस्था करने में पापा को कितनी कठिनाई होगी।
रूपेश के पास हारी-बीमारी, दुख-मुसीबत के लिए एक भी पैसा नहीं बचता है। बस, वो यही सोचते हैं कि ऊपर वाले ने जैसे अभी तक चलाया है वैसे ही आगे भी चलायेगा।
अच्छे स्कूल में पढ़ने के कारण ही दोनों बच्चे गणित और अंग्रेज़ी विषय में खूब अच्छे हैं। अंजना कितना बढि़या अंग्रेज़ी बोलती है। आत्मविश्वास से भरी हुयी अंजना आगे और पढ़ना चाहती है। उसके विकास में पैसों के कारण रूपेश कोई व्यवधान नही आने देंगे। अत्यन्त साधारण रहन-सहन, खान-पान रखते हुए, परिवार के अन्य खर्चों में, जिसमें वो कर सकते हैं कटौती कर के बच्चों को पढ़ायेंगे।
रूपेश की बिरादरी के सभी लोग कहते हैं कि बिटिया अंजना ब्याह लायक हो गयी है। कोई-कोई तो यह भी कहता है कि ब्याह की उम्र निकल गयी है। किन्तु रूपेश नये समाज के हैं। वे जानते हैं कि ये सब पुरानी बातें हैं। नये समय में बच्चे खूब पढ़-लिख रहे हैं। पढ़ने और आत्मनिर्भर होने तक बच्चों की उम्र नहीं देखी जा रही है। रूपेश ने सोच लिया है कि वो भी अंजना बिटिया को आगे पढा़येंगे और आत्मनिर्भर बनायेंगे।
“पापा, नौकरी की वेकेन्सी निकली है। हम फॉर्म भरना चाह रहे हैं।” एक दिन अंजना बिटिया ने पापा से कहा।
“तुम तो अभी पढ़ाई कर रही हो? कोचिंग भी अभी पूरी नहीं हुयी है।” रूपेश ने अंजना से कहा।
“हाँ पापा! कोचिंग मैं इसी तरह की नौकरी के लिये कर रही हूँ। अभी परीक्षा में बैठकर देखती हूँ कि कैसा पेपर आता है। पहली बार परीक्षा दूँगी। कुछ जानकारी हो जायेगी।” अंजना ने कहा।
“ठीक है बेटा, भरो। परीक्षा शुल्क कितना लगेगा?” रूपेश ने अंजना से पूछा।
“अभी देखती हूँ पापा कितनी फीस है। सबकुछ ऑनलाइन होना है।” अंजना ने कहा।
“ठीक है बेटा।” रूपेश ने कहा।
रूपेश को अपनी बेटी पर विश्वास है। मयंक भी पढ़ने में खूब मन लगाता है। वह एकाउटेंसी के क्षेत्र में काम करना चाहता है। इस वर्ष उसका बी. सी. ए. पूरा हो गया है। वह भी पढ़ाई करते हुए अपने योग्य नौकरी की तलाश कर रहा है।
आर्थिक समस्याओं का सामना करते हुए रूपेश बच्चों को उच्च शिक्षा दिला रहे हैं। वह बच्चों की इच्छा पूरी करने में कोई कमी नहीं रखना चाहते।
आज रूपेश कार्यालय से घर आये तो देखा कि अंजना लैपटाॅप लेकर अपने कमरे में बैठी कुछ कर रही है।
“पापा, फॉर्म भर रही हूँ। कुछ इन्फर्मेशन चाहिए।” पापा को देखते ही अंजना ने कहा।
“ठीक है बेटा! तुम फॉर्म भरो। मैं हाथ मुँह धोकर आता हूँ। फिर तुम्हारी मदद करता हूँ।” रूपेश ने कहा।
“जी पापा।” अंजना ने कहा।
कुछ ही देर में रूपेश हाथ-मुँह धोकर, फ्रैश होकर कमरे में आ गये। अंजना की माँ चाय बनाकर कमरे में ही ले आयी। चाय पीते हुए रूपेश लैपटाॅप में देखने लगे। अंजना फॉर्म भर रही थी। भरा हुआ फार्म लैपटाॅप के स्क्रीन पर दिख रहा था। काफी कुछ उसने भर दिया था। कुछ काॅलम रह गये थे, जिनके बारे में वह पापा से जानना चाह रही थी। वो काॅलम रूपेश के कार्यालय और उनके पद से सम्बन्धित जानकारी थी। सहसा उनकी दृष्टि फॉर्म के जाति वाले काॅलम पर गयी, जो कि अभी भरा नहीं गया था।
“बेटा, ये तो तुमने भरा नहीं।” रूपेश ने अंजना से कहा।
“अरे हाँ!” कहते हुए अंजना ने उस काॅलम में जनरल (सामान्य) भर दिया।
“अरे! ये क्या भर दिया? इसे डिलीट करो। इसमें एस. सी. भरो।” रूपेश ने कहा।
पापा की बात सुनते ही अंजना ने झटके से लैपटाॅप से हाथ हटा लिया। लैपटाॅप से कुछ दूर खिसकते हुए पापा की ओर देखते हुए बोली, “नहीं पापा, नहीं। आप ये क्या कह रहे हैं?” अंजना के चेहरे की चमक एकदम से बुझ गयी।
“हाँ बेटा, हम एस.सी. हैं। उसे तुम भर दो।” रूपेश ने कहा।
“पापा, हमने अपनी योग्यता से अच्छे और बड़े काॅलेज में एडमिशन लिया। सभी बच्चों के साथ बराबर से पढ़ाई की, परीक्षा दी। काॅपियों के मूल्याकंन सबके साथ एक स्तर पर हुआ। कक्षा में मेरी अच्छी पोजिशन मेरी अपनी योग्यता से आयी है। फिर हम एस.सी. कैसे हो गये? आप ये फॉर्म रिजर्वेशन से क्यों भरवाना चाहते हैं?” अंजना रूआंसी हो रही थी।
अंजना की आवाज़ सुनकर उसका भाई मयंक भी वहाँ आ गया। वह पापा व बहन के बीच होने वाली बातचीत को सुन रहा था और समझने का प्रयत्न कर रहा था।
“बेटा, मैं रिजर्वेशन की बात नहीं कर रहा। बल्कि मैं जाति के काॅलम में एस.सी. भरने की बात कर रहा हूँ।” बेटी की भावनाओं को समझते हुए रूपेश ने कहा।
“पापा, क्या हम लोग एस.सी. हैं?” कह कर अंजना रोने लगी।
रूपेश हकबक खड़े थे। उन्हें सूझ नहीं रहा था कि क्या करें? बच्चों को कैसे समझायें?
“पापा, आपने हम लोगों को बताया क्यों नहीं?” पापा को यूँ खड़े देख अंजना ने कहा। अंजना का चेहरा आँसुओं से भीगा था।
“बेटा, अभी तक बताने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। तुम लोगों का एडमिशन शहर के अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में सामान्य बच्चों की भाँति हुआ। साथ ही फीस, पढ़ाई लिखाई के अन्य खर्चे हमने सामान्य बच्चों की भाँति किये हैं।” रूपेश ने कहा।
रूपेश ने बेटे की ओर देखा। किंकर्तव्यविमूढ़ बना वह बहन और पापा की बातें सुन रहा था।
“पापा, हम एस. सी.क्यों हैं? किसने हमें एस.सी. बनाया? सारे काम तो हम सामान्य लोगों जैसा करते हैं। काॅलेज में बच्चे बातें करते हैं, हँसते हैं कि एस. सी. बिना पढ़े नौकरी पा जाते हैं। सामान्य लोगों का हक ले रहे हैं। बताइए पापा, ऐसा क्यों है…ऐसा क्यों है?” कह कर अंजना पुनः रोने लगी।
“…….हम एस.सी. नहीं हो सकते पापा!” अंजना के आँसू थम नहीं रहे थे। वह रोती चली जा रही थी।
मयंक अपनी बहन के पास जाकर खड़ा हो गया। स्थिति ऐसा हो गयी थी कि रूपेश से कुछ बोलते न बन रहा था।
“पापा, मैं इसमें एस.सी. नही भरूँगी। कुछ नहीं भरूँगी। मैं नौकरी में सलेक्ट होकर दिखाऊँगी।” अंजना ने कहा।
अंजना के स्वरों की दृढ़ता देखकर रूपेश कुछ न बोल सके। मयंक ने भी अंजना से सहमत होते हुए सिर हिलाया। रूपेश चिन्तित हो गए।
“बेटा, यदि जाति का काॅलम बना है तो उसमें अपनी जाति भर देने से कुछ नहीं होगा। नौकरी में चयन तो तुम्हारी अपनी योग्यतानुसार होगा।” रूपेश ने पुनः समझाने का प्रयत्न किया।
“नहीं पापा….नहीं! आप नहीं समझ रहे बाहर की दुनिया को, आज के यूथ के विचारों को। अधिकांश यही सोचते हैं कि एस. सी. वर्ग के विद्यार्थी बिना पढ़े, बिना योग्यता के नौकरी पा जाते हैं। सामान्य वर्ग के कुछ लोग ही हमारे सपोर्ट में हैं, शेष सभी लोग ऐसा ही सोचते हैं।” अंजना ने कहा।
“मैं समझता हूँ बेटा! मैं भी बाहर की दुनिया के विचारों से वाकिफ़ हूँ। फिर भी बेटा, एक व्यवस्था के अंतर्गत इसे भरना है। भर दो।” अंजना के अश्रु सूख चुके थे। कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये बिना वह खामोशी से अपने पापा की बात सुन रही थी। मयंक अपनी बहन के पास रूआँसा-सा खड़ा था। रूपेश कमरे से बाहर निकल आये। जाति प्रथा के दंश के पीड़ित रूपेश और कर भी क्या सकते थे…?
वह जानते हैं कि अपने बच्चों को आर्थिक समस्याओं को झेलते हुए, सामाजिक विषमताओं से जूझते हुए शिक्षा दी है। उनके वर्ग के अधिकांश बच्चे बुद्धिमान होते हुए भी आर्थिक तंगी के कारण उच्च शिक्षा से वंचित हो जाते हैं। ये विषमताएँ, जो समाज में जड़े जमा चुकी हैं, वो दूर होनी चाहिए। किन्तु कैसे? अनेक अनुत्तरित प्रश्न सामने थे, जिनके उत्तर रूपेश के पास नही थे। चिन्तित से रूपेश दूसरे कमरे में आकर बैठ गये।
– नीरजा हेमेन्द्र