कथा-कुसुम
कहानी- अनुत्तरित प्रश्न
‘‘अरे अरे, यह क्या हो रहा है?’’ कहते हुए रंजना ने झपट कर गैस का स्विच ऑफ किया तो पास ही बैठी तृष्णा ने उसे एक नज़र देखा और हाथ से अपने पास बैठने का संकेत करके तखत पर एक ओर को सरक गई। तृष्णा ने बहुत सारे मकान बदलने के बाद इस मकान में स्वयं को स्थिर किया था। यह मकान उसे उसी समय पसंद आ गया था जब यह बन रहा था। इसकी खास वजह यही बड़ा-सा रसोईघर था, जहाँ वह एक तखत डालकर आराम से बैठकर रसोई के सारे काम निपटा सकती थी और कोई मेहमान आ जाए तो उसे कमरे में सुलाकर तृष्णा को खुद को सोने के लिए तखत पर आराम से जगह मिल सकती थी। इससे बड़े मकान का किराया देना उसके बस में जो नहीं था। इस समय वह रसोई में पड़े इसी तखत पर खुली खिड़की के सामने बैठी न जाने किन ख़यालों में खोई हुई थी कि गैस पर रखा पानी उबल-उबल कर सूख चुका था, बस
थोड़ा-सा पानी तली में बच गया था। अगर रंजना समय पर आकर गैस बंद नहीं करती तो शायद भगौना भी जल जाता।
‘‘क्या हो रहा है तृष्णा जी, बहुत परेशान लग रही हो?’’ रंजना उसके पास बैठते हुए बोली।
‘‘नहीं, परेशान तो नहीं हूँ।’’
‘‘तो फिर?’’
‘‘रंजना, समझ में नहीं आ रहा क्या कहूँ। सच पूछो तो मैं परेशान तो नहीं हूँ, पर एक प्रश्न तो है ही, जिसका उत्तर नहीं मिल रहा।’’ तृष्णा ने
बिसूरते हुए कहा।
‘‘क्या हो गया तृष्णा? ऐसा कौन सा भयंकर प्रश्न है जो तुम्हें इतना विचलित कर गया कि पास ही रखे गैस पर उबलता पानी भी तुम्हें दिखाई नहीं दिया?’’
‘‘कुछ तो है ही परन्तु तुम्हें तो तब बताऊँ जब मैं स्वयं स्पष्ट हो सकूँ कि आखिर मैं कहाँ उलझी हूँ?’’
‘‘चलो, जब समझ में आए तो बता देना।’’
‘‘हूँ! खैर, कहो इस समय कैसे आना हुआ?’’
‘‘अरे, मैं तो इधर से काम से जा रही थी तो सोचा अपनी प्रिय मित्रा श्रीमती तृष्णा खन्ना से मिलती जाऊँ। बहुत दिन हो गए थे तुम्हें देखे हुए
सो चली आई। बस्स।’’
‘‘अच्छा किया, चलो चाय बनाती हूँ।’’
‘‘हाँ बनाओ, कम से कम इस समय तो मैं उसे जलने से बचा ही लूँगी।’’ और दोनों सहेलियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
चाय पीते समय रंजना ने पिफर उसे छेड़ दिया, ‘‘तिशि, तुम कभी बदलोगी नहीं न? जैसे थी, वैसे ही हो, ज़र्रा बराबर भी फ़र्क नहीं आया उम्र के साथ।’’
‘‘इस असीरी में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे?’’ तृष्णा ने टुकड़ा लगाया तो दोनों फिर से हँस पड़ीं। उसी समय पोस्टमैन कुछ डाक ले आया और इन का बातों का सिलसिला टूट गया।
‘‘अच्छा भई अब तुम डाक देखो, फिर मिलते हैं।’’ कह कर रंजना बाहर निकल गई और तृष्णा डाक देखने लगी। डाक में एक पत्र सरिता का भी था। हाँ! वह सरिता ही थी, जिसे लेकर तृष्णा कई दिनों से उलझी हुई थी, क्यों उलझ जाती थी वह सरिता को लेकर? जबकि उसे पता था कि सरिता उसे बेहद चाहती थी और लगभग हर दस-पंद्रह दिनों में एक पत्र तो उसका ज़रूर ही आ जाता था। वह सरिता को उत्तर भी उसी त्वरा के साथ देती रही है, जबकि वह जानती है कि यह मात्र औपचारिकता का निर्वाह कर रही है। आज का यह पत्र भी उसी सिलसिले की एक कड़ी था, सरिता ने लिखा था, ‘‘माँ, कभी इधर भी आ जाओ भूले भटके।’’
सरिता को लेकर उसकी परेशानी का कारण एक जमे-मंजे लेखक कन्हैया जी थे, जो अपने हँसमुख स्वभाव के कारण लेखकवर्ग में जितने लोकप्रिय थे, उतने ही उनके किस्से-कहानियाँ भी थीं।
यह सरिता उसकी कुछ नहीं लगती थी, लेकिन पता नहीं क्यों वह उसे माँ कहने लगी थी और चाहती थी कि वह भी माँ की तरह सरिता से संबंध रखे किन्तु तृष्णा की अपनी सीमाएँ थीं। न तो उसके पास इतना धन था कि वह बेटी के प्रति दायित्वों को निभा पाए और न ही इतने साधन और समय। वह सोचती थी कि सरिता उसे माँ की तरह सम्मान देती है, फिर भी पता नहीं क्यों वह अपने उर-अंतर में उसके प्रति वह भाव कहीं देख नहीं पा रही थी।
सरिता से तृष्णा का परिचय भी मात्र एक संयोग ही था। जिस दिन उन दोनों की पहली भेंट हुई, उस दिन आकाशवाणी में एक नाटक का पूर्वाभ्यास चल रहा था। सरिता शिमला से दूर एक छोटे से गाँव से आई थी। चन्दन शर्मा, नाटक के लेखक राकेश वर्मा के मित्र थे। इन दिनों सरिता अपने मामा चन्दन के पास आई हुई थी और आज चन्दन के साथ पूर्वाभ्यास देखने आई हुई थी। यहीं पर चन्दन शर्मा ने तृष्णा का परिचय अपने मित्र राकेश और उसकी भान्जी सरिता से करवाया था। नाटक में तृष्णा की भूमिका तो सौतेली माँ की थी, लेकिन एक सहृदय
सौतेली माँ की भूमिका! जिसे पति के पहले बच्चे बहुत परेशान करते थे।
सरिता बड़े ध्यान से इस पूरे पूर्वाभ्यास में खोई रही। पूर्वाभ्यास के बाद जब परस्पर परिचय का दौर शुरू हुआ तो सरिता तुरन्त बोल उठी, ‘‘मेरी माँ तो ऐसी ही होनी चाहिए, लेकिन है ही तो नहीं। आपको माँ बोलूँ क्या मैं?’’
तृष्णा ने हँसते हुए उसकी पीठ थपथपा दी और बात समाप्त हो गई। सरिता जब तक शिमला रही लगातार पूर्वाभ्यास में आती रही और फिर वापस जाने से पहले उसने तृष्णा का पता भी ले लिया और बराबर पत्र-व्यवहार करती रही। सरिता जानती थी कि तृष्णा के कोई संतान नहीं है। शायद वह उसी खाई को भरना भी चाहती थी, किन्तु जब भी सरिता का पत्र आता, न जाने क्यों वह और अधिक उलझ जाती। सरिता ने अपने पत्रों में तृष्णा को बताया था कि वह लेखन के क्षेत्र में पाँव जमाना चाहती थी। उसके लिए तृष्णा ने अक्सर उसे बहुत-से गुर भी बताए और उसका मार्गदर्शन भी किया। सरिता का लेखन साधारण ही था फिर भी आज वह अपने क्षेत्र की सफल लेखिका हो गई थी। अक्सर ही कहीं न
कहीं उसके लेख-कहानियाँ अथवा कविताएँ प्रकाशित होती रहतीं।
सरिता का दमकता गौर वर्ण और बड़ी-बड़ी मोहक आँखें किसी को भी आकर्षित कर सकती थीं। अपने सरल स्वभाव के कारण वह बहुत जल्दी ही दूसरों से घुल-मिल जाती। उसका परिचय क्षेत्र दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। अक्सर ही वह तृष्णा को अपने परिचय के लोगों के बारे में विस्तार से बताती। लेखन और कला का तो चोली-दामन का साथ होता है। कला के क्षेत्र में होने के कारण तृष्णा शिमला और आस-पास के लेखकों में से बहुत से लोगों को जानती थी और जानती थी कि सरिता के इर्द-गिर्द जो लोग मण्डरा रहे हैं, उनमें से अधिकतर भंवरे ही हैं, फिर भी वह उसे यह बता नहीं सकती थी। बस एक-दो बार ही उसने कुछ कहने की कोशिश की थी लेकिन सरिता ने उसकी बात को सुना-अनसुना
कर दिया। उसे लगता हो सकता है कि सरिता भी उसी सुगम मार्ग की तलाश में हो, जिस पर चलकर शीघ्र ही शिखर छुआ जा सके, किन्तु यह मार्ग कितना घातक होता है, यह तृष्णा अपने अनुभव से जान चुकी थी। वय की परिपक्वता ने उसे इतना तो सिखा ही दिया था।
फिर एक दिन सरिता ने कन्हैया जी का सम्मान पूर्वक नाम लिया और उनसे अपनी घनिष्टता की बात कही। तृष्णा कन्हैया को अच्छी तरह जानती थी और वह इस बात को भी जानती थी कि कन्हैया से टक्कर लेने का मतलब है बदनामी मोल लेना। यही कारण था कि उससे एक निश्चित दूरी के उसके स्वयं के सम्पर्क भी थे। वह जानती थी कि ऐसे लोगों से न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी। इसीलिए वह नहीं चाहती थी कि सरिता कन्हैया से सम्पर्क बढ़ाए, पर वह उसे कुछ कह भी नहीं पायी।
उसे डर था कि यदि सरिता के कन्हैया से सम्पर्क घनिष्ठ हुए, या लेखन-जगत में उसकी सफल घुसपैठ के पीछे कन्हैया का हाथ हो और कन्हैया को पता चल जाए कि वह सरिता को उससे दूर रहने के लिए कहती है, तो यह बात स्वयं तृष्णा के लिए घातक हो सकती है। यही सोचकर वह चुप लगा गई, फिर भी सरिता के लिए उसके मन में एक भय तो था ही। सरिता का अपना परिवार था, बच्चे थे,
पति और सास-ससुर भी थे। तृष्णा नहीं चाहती थी कि कन्हैया के कारण सरिता की गृहस्थी चौपट हो जाए, सम्भवतया यही उसकी उलझन का कारण था। पर वह आखिर ऐसा क्यों चाहती थी? क्या लेना-देना था उसका सरिता से? वह लगती क्या थी उसकी? क्या माँ कह देने से ही कोई स्त्री किसी की माँ हो जाती है?
और फिर एक दिन वही हुआ, जिसका उसे डर था। उस दिन सरिता अचानक ही उसे मिलने शिमला आ गई, ‘‘प्रणाम माँ।’’ सरिता ने उसके पाँव छुए तो वह आशीर्वाद देते हुए बोल उठी, ‘‘तुम! अचानक?’’
‘‘हाँ माँ! वह दरअसल कन्हैया जी ने मुझे आकाशवाणी में कार्यक्रम दिलवा दिया है। कल मेरी रिकार्डिंग है।’’
‘‘चलो, ठीक है पर तुम्हारा सामान कहाँ है?’’ स्वाभाविक था कि वह तृष्णा के पास ही रुकेगी, क्योंकि उसके मामा चन्दन का तो स्थानान्तरण हमीरपुर के लिए हो चुका था।
‘‘वह तो लेखक आवास में है, रात को रिहर्सल भी तो करनी है न। पहला प्रोग्राम है, इसलिए।’’
‘‘और शायद रिहर्सल कन्हैया जी कराएँगे?’’
‘‘हाँ, माँ। वह बहुत अच्छे हैं।’’
‘‘हूँ! जिसका डर था वही हुआ….’’ वह बुदबुदाई।
‘‘क्या माँ?’’
‘‘नहीं, कुछ नहीं, पर तुम घर जाकर यह मत कहना कि तुम लेखक आवास में रुकी थीं। यह तुम्हारे हित में नहीं होगा। हाँ! घर वापस जाने से पहले मुझसे मिल जरूर लेना।’’
दूसरे दिन सरिता उससे मिलने तो नहीं आई, परन्तु उसने आकाशवाणी भवन से ही उसे फोन किया, वह बहुत प्रसन्न लग रही थी। कहीं उसके स्वर में म्लानता नहीं थी। जब तृष्णा ने उससे पूछा कि वह मिलने क्यों नहीं आई तो पीछे से उसने कन्हैया को कहते सुना, ‘‘बाप रे, कहीं चली मत जाना। वह सब समझ जाऐगी। पक्की घाघ है।’’ और सरिता वहीं से वापस चली गई। वही अनुत्तरित प्रश्न छोड़कर, आखिर क्या चाहती है तृष्णा? तृष्णा ने सिर को झटका दिया, ‘सरिता जिस भी सीढ़ी का प्रयोग करे, उसे क्या? वह कौन होती है उसे कुछ कहने वाली या उसका भला-बुरा सोचने वाली?’
अचानक ही तृष्णा को लगा, कहीं उसे ईर्ष्या तो नहीं हो रही? वह झटके से उठकर खड़ी हो गयी। घर को ताला लगाया और चल पड़ी रंजना के घर की ओर। उसे यूँ अचानक अपने सामने देखकर रंजना ने प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखा, ‘‘इस तरह अचानक? क्या हुआ?’’
‘‘रंजना, मैंने तुमसे सरिता के बारे में बात की थी न?’’
‘‘हाँ! क्यों क्या हुआ, सरिता को?’’
‘‘नहीं, हुआ तो कुछ नहीं। पर मुझे लगता है, मुझे मेरी परेशानी का कारण समझ में आ गया है।’’
‘‘तो बता दीजिए न तृष्णा मैडम। हम भी तो सुने कि आपको आखिर क्या परेशानी है और इस परेशानी में सरिता कहाँ से आ गयी?’’
‘‘रंजना, क्या मैं सरिता से जलन रखती हूँ?’’
‘‘ये कैसा सवाल है?’’
‘‘बताओ न?’’
‘‘पर आखिर हुआ क्या है? यह भी तो पता चले, तभी निर्णय लिया जा सकेगा।’’
‘‘हुआ यह कि सरिता कन्हैया के चंगुल में फँस गई है।’’
‘‘हाँ……. क्या कह रही हो तुम?’’
‘‘हाँ, पर मुझे क्यों बुरा लग रहा है, इस बात से? वह मेरी कौन लगती है? आखिर मैं क्यों परेशान हूँ इस बात से? कहीं ऐसा तो नहीं कि यदि मैंने भी ऐसे किसी सहारे को तलाशा होता तो आज मेरी स्थिति कुछ और ही होती?’’ तृष्णा बोलती ही जा रही थी।
‘‘बस..बस…बस! शान्त हो जाओ तृशि, शान्त! लो पानी पियो पहले।’’ रंजना ने पास ही रखे गिलास को उठाकर तृष्णा की तरफ बढ़ा दिया, ‘‘हूँ! तो तुम्हारी परेशानी का कारण तुम्हें समझ में आ गया, ठीक! पर अब मेरे एक सवाल का जवाब पूरी ईमानदारी से देना। क्या तुम अपनी प्रगति, आई मीन प्रोग्रेस से असन्तुष्ट हो?’’
‘‘नहीं, बिल्कुल नहीं। एक रत्ती भर भी नहीं।’’
‘‘फिर तुम क्यों जलोगी सरिता की प्रगति से?’’
‘‘फिर यह बेचैनी, घबराहट……?’’
‘‘तृशि! तुम्हारी सरलता ही तुम्हारे लिए परेशानी का कारण है। तुम समझती हो कि तुमने सरिता को वह स्थान नहीं दिया, जो देना चाहिए था या वह तुम्हें दे रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि उसने तुम्हें भी इस्तेमाल किया है और कन्हैया को भी यानी कन्हैया को उसने अपनी सीढ़ी बनाया है। इस खेल में न तो कन्हैया को मलाल होगा और न ही सरिता को, क्योंकि दोनों का स्वार्थ हल हो गया। जो कन्हैया चाहता था, वह उसे मिल गया और जो सरिता चाहती थी वह उसे मिल गया। तुम क्यों परेशान हो रही हो? आजकल अधिकतर लेखक बनाए जा रहे हैं। तो बनाने दो न। हम तुम अपनी ही चाल चलने वालों में से हैं। सबसे बड़ी बात जो है वह है आत्मतोष। भूल जाओ सरिता को और अपने काम पर ध्यान दो। कल गेयटी थियेटर में तुम्हारा नया नाटक होने जा रहा है न? उसकी तैयारी करो। मैं भी समय पर आ जाऊँगी नाटक देखने।’’
‘‘तुम सच कह रही हो रंजना?’’
‘‘बिल्कुल सच। अब अच्छे बच्चों की तरह मुझे काम करने दो। ज़रूरी नहीं कि तुम्हारी कोई बेटी भी होती। भूल जाओ उसे।’’
– आशा शैली