विमर्श
कविता संग्रह ‘इस समय तक’ में प्रकृति निरूपण
– के. पी. अनमोल
हिन्दी कविता और प्रकृति का बहुत पुराना संबंध रहा है। यह संबंध मानव इतिहास के लगभग प्राचीन संबंधों में एक होना चाहिए क्योंकि मानव-बोध ने जब आरम्भ में आँखें खोली होंगी तो सबसे पहले प्रकृति को ही अपने आसपास पाया होगा। जिस प्रकार नवजात शिशु आँखें खोलने पर पहली बार अपनी माँ को ही अपने पास पाता है। प्रकृति और मानव, मानव ही नहीं हर एक जीव का संबंध माता और संतान जैसा ही रहा है। वह समस्त जीवों को शरण देने से लेकर उनके लालन-पालन तक सभी कर्तव्य एक माँ की तरह ही निभाती आयी है।
मानव-मन ने संभवतः पहली बार जब कुछ गुनगुनाया होगा तो उसमें प्रकृति अवश्य शामिल रही होगी। प्रकृति हमारी दिनचर्या के तमाम क्रियाकलापों से लेकर संगीत तथा लोकगीतों में एक मुख्य हिस्से की तरह रही है। आरम्भ से लेकर अब तक हमारे जीवन का यह महत्वपूर्ण पक्ष हमेशा हमारे साथ जीता आया है। साहित्य की समस्त विधाओं में प्राचीन समय से लेकर अब तक प्रकृति किसी न किसी रूप में मौजूद रही है। हिन्दी के प्रथम कवि सरहपा का कोसी (नदी) से संबंध हो, कालिदास के मेघदूत हों, जायसी का बारहमासा हो, पन्त का बूढा चाँद हो, महादेवी की दीपशिखा हो या केदारनाथ अग्रवाल का बूढा पेड़, प्रकृति हमेशा हिन्दी काव्य में अपनी तमाम विशेषताओं के साथ उपस्थित रही है।
वर्तमान हिन्दी कविता में भी हमें भरपूर प्रकृति दर्शन होते हैं। ऐसे समय में जब मानव प्रकृति से दूर, बहुत दूर होकर अपने विकास के आयाम गढ़ने में मग्न है तब भी कविता में प्रकृति की दूरी नहीं देखी जाती बल्कि ऐसे विकट समय में कविता और प्रकृति का साथ और ज़रूरी हो जाता है। आज की कविता संवेदनहीन होते मानव-मन में संवेदनाओं का पुनर्रोपण कर उसे सचेत करती है कि बिना प्रकृति की सार-सम्हाल के मानव जीवन की प्रगति संभव नहीं। यानी वर्तमान में प्रकृति निरूपण को लेकर कविता की ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ गयी है।
कविता संग्रह ‘इस समय तक’ में भी इसके रचनाकार धर्मपाल महेन्द्र जैन द्वारा दो अलग-अलग शीर्षकों के माध्यम से अपनी कृति में प्रकृति को शामिल किया है। इसके अलावा कई अन्य कविताओं में भी यदा-कदा प्रकृति किसी न किसी रूप में मौजूद है। संग्रह ‘इस समय तक’ शिवना प्रकाशन, सीहोर से वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ है। इसके रचनाकार धर्मपाल महेन्द्र जैन एक प्रवासी भारतीय हैं, जो भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश पर बराबर नज़र रखते हैं।
संग्रह ‘इस समय तक’ कुल आठ उपशीर्षकों में बँटा है। प्रस्तुत लेख में हम इसके दो उपशीर्षकों ‘मेरा गाँव’ तथा ‘प्रकृति’ में प्रकृति निरूपण पर विमर्श कर रहे हैं। उपशीर्षक ‘मेरा गाँव’ में कुल 13 कविताएँ हैं, जिनमें से 10 कविताओं में सीधे-सीधे प्रकृति का समावेश है जबकि उपशीर्षक ‘प्रकृति’ की सभी 9 कविताओं में प्रकृति दर्शन मिलता है।
पुस्तक के इन दोनों उपशीर्षकों को पढ़ते हुए यह आभास होता है कि रचनाकार धर्मपाल महेन्द्र जैन के मन में कितना बड़ा प्रकृति-प्रेमी बसता है। इन कविताओं से गुज़रते हुए और इनकी संवेदनाओं को छूते हुए पाठक-मन का गद्गद हुए बिना रह पाना लगभग असम्भव है। कवि धर्मपाल जैन की कविताओं में आने वाले प्रकृति से जुड़े विभिन्न पात्रों पर ही नज़र डालें तो यह एहसास हो जाता है कि इन्होंने अपनी कविताओं ने इन पात्रों के ज़रिए किस तरह की सम्वेदनाओं को झंकृत किया होगा। उपरोक्त वर्णित कुल 16-17 कविताओं में ये पात्र जीवंत होकर आए हैं-
‘पत्थर काटती नदिया’, ‘गंभीर, अंतहीन, किनारे तोड़ता, ज्वार भाटा रचता, शतायु बूढ़े-सा समन्दर’, ‘कंधों पर बैठी धूप’, ‘अँगड़ाई लेती कलियाँ’, ‘धरती की गंध से बौरायी पवन’, ‘गाते हुए नाव खेता नाविक’, ‘सतरंगी असीम आकाश’, ‘गड़गड़ करते मेघ’, ‘धूल उड़ातीं, नाद बजातीं रम्भाती गायें’, ‘क्लोरोफ़िल को रंग देता सूरज’, ‘व्यस्क होते वृक्षों को छेड़ती हवा’, ‘सुनहरी किरणों की थाप पर झिलमिलाती जल तरंगें’, ‘बहुरंगी पंख फैलाये उन्मत्त मोर’, ‘खुरदरी बिवाइयों से बेख़बर तना’, ‘तस्वीर के पीछे घोंसला बनाती चिड़िया’, ‘अपने पसीने से धरती सींचता तीर-कमान धारी भील’।
कविता ‘भेड़ाघाट’ में कलकल बहती नर्मदा नदी और उसके आसपास के परिवेश का मनोहर दृश्यांकन करते हुए रचनाकार अपने मन से कहता है कि ‘ऐसे में मन! तुम्हारा हर शब्द कविता है’। यहाँ कवि से पूर्णत: सहमत होते हुए कहा जा सकता है कि प्रकृति द्वारा रचित ऐसे परिवेश स्वयं में कविता होते हैं, बस उन्हें महसूस किए जाने का हुनर आपके पास होना चाहिए। यहाँ रचनाकार इस प्राकृतिक दृश्य का शब्द-चित्र खींचता है-
समुद्र-सी बहती नर्मदा
काटती संगमरमर
गढ़ती धुआँ-धुआँ
वहाँ धुआँधार में
सूरज भरता चिंगारी धुएँ में
उठाता लपटें नदी में
नदी के कण-कण सौन्दर्य को
समर्पित कर देता अपनी अगन
बेख़बर नर्मदा बहती समुद्र-सी
काटती संगमरमर
कविता ‘समुद्र’ में रचनाकार समुद्र को शतायु बूढ़े की उपमा देकर उसके बाह्य तथा आन्तरिक परिवेश की थाह लेते हुए उसकी बेचैनी का वर्णन करता है। कविता ‘धूप एक बात बताओ’ में सर्दी और गर्मी में धूप के भेदभावपूर्ण व्यवहार के लिए उससे प्रश्न करते हुए संवाद स्थापित करता है और यह उद्घाटित करता है कि धूप सर्दी में सबसे पहले ऊँची अट्टालिकाओं पर पहुँचती है, जहाँ वह गुनगुनी लगकर सुहाती है लेकिन गर्मियों में वह सबसे पहले बस्तियों में झोंपड़ियों पर डंक मारती हुई पड़ती है। तब वह प्रश्न करता है कि ‘यह भेदभाव क्यों!’ रचनाकार यहाँ धूप को प्रतीक बनाकर समाज से गंभीर सवाल करता दिखता है।
कविता ‘आओ फ़ुहार’ में वर्षा के आगमनोपरांत धरती के परिवेश का मनोरम चित्र खींचते हुए रचनाकार वर्षा का आह्वान कुछ इस तरह करता है-
धरती की गंध लिए
बौराए पवन
कोयल की, हारिल की
गूँजे तान
हर कहीं स्फुरित हो जिजीविषा
चेतन हो गाँव-शहर
खेत-खलिहान
वासन्ती प्रातः-सा
गुनगुनाऊँ गीत
फिर एक बार, आओ फुहार।
जिन्होंने गाँवों-कस्बों में गोधुली को जिया है, वे यह अवश्य जानते होंगे कि गोधुली का चित्र प्रकृति द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले चित्रों में सर्वाधिक आकर्षक होता है। आकाश का नारंगी होता रंग, धुंधलाते दृश्य, बैलगाड़ियाँ खींचते बैलों के गले की घंटियों की रुनझुन, रम्भाती गायें, भागते बच्चे, लौटते पंछी और लोगों की चहल-पहल, ये सब घटक मिलकर एक ऐसा वातावरण रचते हैं कि मन ठहर-सा जाता है। ऐसे वातावरण को देख अन्तस झूम उठता है। कविता ‘गोधुली’ में ऐसे वातावरण में स्वयं प्रकृतिमय होता रचनाकार मन यह पंक्तियाँ रचता है-
सतरंगी असीम आकाश में
गड़गड़ करते ढोल इन्द्र के
टकटकी बाँध धरती की आँखें बाट जोहतीं
रम्भाती गायें, धूल उड़ातीं, नाद बजातीं
खलिहानों में,
ऐसे में कैसे रहता मैं ढेर रुई का?
कविता ‘नई पत्तियाँ आ रही हैं’ के माध्यम से वसन्त के आगमन पर प्रकृति में होने वाले बदलावों को इंगित करते हुए कवि विभिन्न बिम्ब प्रस्तुत करता है और वसन्त का स्वागत करता है।
नई पत्तियाँ आ रही हैं
सूरज, क्लोरोफ़िल को रंग दे रहा है
पूरा जंगल जो काठ-गोदाम सा दिखता था
आहिस्ता-आहिस्ता सँवर रहा है
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कोयल को सुनते हुए
वृक्ष व्यस्क होने लगे हैं
उन्हें छेड़ने लगी है हवा
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लौटने को है बया, भूरी-पीली मैना
कल दिखी थी रक्तिम नीली चिड़िया
घास-फूस के तिनके समेट रहे गर्माहट
कि अंडे सेने में कर सकें मदद
कल जीवन्त होने को है
आ रही हैं नई पत्तियाँ
‘टेसी, मेरी बिल्ली’ कविता में रचनाकार अपनी पालतू बिल्ली के बारे में वर्णन कर पालतुओं से जुड़ी अनेक बातों का उद्घाटन करता है। पालतू जानवरों के साथ उनके स्वामियों के ऐसे आत्मीय संबंध बन जाते हैं कि वे उन्हें अपने परिवार के सदस्यों की तरह लगने लगते हैं। इन बेज़ुबान जानवरों के साथ तार कुछ इस तरह जुड़ते हैं कि उनको समझने के लिए किसी भाषा अथवा शब्दों की ज़रूरत नहीं रहती। इसी सन्दर्भ में कवि कहता है-
प्यार की अलिखित भाषा
तुम्हारी तेज़ चमकती आँखों से तैरती
प्रकाश किरणों की तरह
सीधे दिल में चली आती है
कविता ‘ओ चिड़िया’ में कवि का संवेदनशील रूप उभरकर आया है। यह कविता संग्रह की कुछ बेहतरीन कविताओं में से एक कही जा सकती है। हमारे परिवेश से चिड़िया के कम होने पर चिंतन करते हुए रचनाकार हमें उनके प्रति दयालु होने का सन्देश देता है। यूँ तो यह छोटी-सी रचना है लेकिन इसकी गूँज बहुत दूर तक जाती है। प्रस्तुत है एक अंश-
ओ चिड़िया, पागल!
तुम नहीं जानतीं
मेरी तस्वीर के पीछे घोंसला बनाते हुए
तुम बनाती हो एक घोंसला मुझमें
मेरे होने के एहसास के लिए
कविता ‘धुँध में ऊँगली छूट गयी तो’ मैं कवि प्रकृति के बिगड़ते परिवेश पर चिंता व्यक्त कर रहा है। उसकी यह चिंता हमारे चिंतन और मनन का विषय होना चाहिए। रचनाकार कविता में पर्यावरण प्रदूषण और उससे उपजने वाले ख़तरों पर संकेतों में चर्चा करता है और बाक़ी कार्य हमारे लिए छोड़ देता है। पाठक को चाहिए कि वह इस व्यक्त चिंता पर खुले मन से मनन करे और अपने परिवेश के बिगड़ने से सुधरने तक के सफ़र पर चल दे। कवि कहता है कि अगर हम नहीं चेतते हैं तो एक दिन प्राणवायु भी सिलेण्डर में मिलने लगेगी। यह मात्र कल्पना नहीं है, एक ऐसा भावी सच है, जिसे सच होने से पहले ही झुठला देना चाहिए-
ओज़ोन की परतों में पड़ जाएँगी गहरी झुर्रियाँ
कार्बनडाई ऑक्साइड के माफ़िया
सिलेण्डरों में भर लेंगे प्राणवायु
कविता के अंत में मानव के निराशाजनक व्यवहार से आहत कवि एक और भयानक सत्य का उद्घाटन करता है-
कोई सिरफ़िरा कह रहा है यह सब
ऐसी बकवास के लिए
आदमी के पास वक़्त नहीं है मेरे बच्चे
कविता ‘ओ चरवाहे’ में चरवाहे के अप्रशिक्षित कंठ से निकलते गान में स्वर लहरियों पर कवि का मन तैरने लगता है। यह लोकजीवन की महक है कि वह अनगढ़ में भी ऐसी सुगढ़ता भर देती है कि अच्छे से अच्छा शिल्पी हैरान हो उठे। यहाँ कवि तमाम सुर, लय, ताल की जानकारियों के बावजूद चरवाहे के गान में ऐसे खो जाता है कि उसका ज्ञान बेमानी हो जाता है। प्रेम के सामने ज्ञान कब टिक सका है! चरवाहे के गान में अपने परिवेश से प्रेम की ध्वनि है। यह प्रेम रचनाकार के मन को बहा ले गया है।
कविता ‘अकाल में’ में अकाल के समय धरती की दारुण अवस्था का मार्मिक चित्र खींचकर कवि उन मुश्किलों की ओर ध्यान आकर्षित करता है, जो अकाल के समय यह धरती झेलती है। कविता से दो मार्मिक शब्द-चित्र देखिए-
कद्दावर बेटे-सा जवान बैल
दुधारी गाय, भेंस, बकरी
खा गया दुष्काल
या ले गये औने-पौने
बूचड़खाने के ज़मादार
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कैमरे की आँख
दुर्भिक्ष में देखती रही उत्सव
भागती रही जनता
सुखा दी अकाल ने
धरती और बेटे के रिश्ते की जड़ें
पहले चित्र में ईश्वर के बेरहम होने का वर्णन है तो दूसरे में इंसान के। यानी धरती दोनों तरफ से प्रहार झेलती आयी है।
संग्रह की कविता ‘मैंगनीज की खदान पर’ अद्भुत मार्मिक रचना है। इसमें मैंगनीज की खदान और पास के एक कच्चे घर के जीवन का वर्णन है। प्रकृति के सहअस्तित्व को समझाती यह कविता अपने मार्मिक प्रस्तुतीकरण से विशिष्ट बन पड़ी है। एक कच्चे घर में एक नवयुवती का घर थेपना और सपने बुनना तथा इन सबका अगले ही पल खदान में हुए विस्फ़ोट की भेंट चढ़ जाना; मन को हिलाकर रख देता है। यह पूरी कविता पठनीय और संग्रहणीय है।
चिड़िया के विलुप्त होने को लेकर एक और कविता है संग्रह में ‘परेशान है चिड़िया’। इस कविता में बदलते परिवेश में चिड़ियाँ के लिए उचित वातावरण न होने का कारण बताते हुए उसकी परेशानियों का वर्णन किया गया है। कविता का एक हिस्सा देखिए, जो एक कड़वा सच है-
बस्ती नहीं रही उसके लायक
न वह सीख पायी कंक्रीट में घोंसले बनाना
उसे चाहिए पेड़ बड़ा-सा
जो छुपा सके उसका बसेरा
छोड़ दी उसने बस्ती आदमी के लिए
यह अंतिम पंक्ति मन को झिंझोड़ने वाली है। यह हमारे मानव समाज के लिए लानत से क्या कम है कि हम इतने-से जीव को अपने परिवेश में रहने लायक जगह नहीं दे पा रहे। फिर हमारे विकास के क्या मायने!
कविता संग्रह ‘इस समय तक’ में निरूपित प्रकृति का चित्रण कई-कई अर्थों में विशिष्ट कहा जा सकता है। प्रथमत: आधुनिक होती कविता में इस तरह की ज़मीनी चिंताओं के लिए ‘स्पेस’ ही नहीं रह गया है। दूसरे व्यवस्था विरोध और नारेबाज़ी में रचनाकार यह भूल बैठे हैं कि साहित्य का अस्ल मक़सद संवेदनाओं का रोपण है। यदि मानव-हृदय में संवेदनाओं का रोपण ढंग से कर दिया जाए तो हमारे समाज की आधे से अधिक चिंताएँ स्वत: समाप्त हो जाएँगी। यहाँ इस संग्रह में रचनाकार धर्मपाल महेन्द्र जैन का सम्वेदनाओं पर विशेष ज़ोर देना प्रशंसनीय है।
प्रस्तुत संग्रह में प्रकृति के विभिन्न मनोरम चित्र खींचे गये हैं। उससे जुड़ी विभिन्न जानकारियों को प्रस्तुत गया है। अपने प्राकृतिक परिवेश की अनेक स्मृतियों का स्मरण किया गया है। प्रकृति से जुड़ी कई चिंताओं पर ध्यान खींचा गया है। परिवेश के बिगड़ने से उत्पन्न होने वाले ख़तरों के प्रति सचेत किया गया है। इन सभी ज़रूरी और उल्लेखनीय कार्यों के लिए रचनाकार श्री धर्मपाल महेन्द्र जैन को हार्दिक साधुवाद।
– के. पी. अनमोल