यादें
कविता मेरी मुक्ति की साधना है
बचपन में दादाजी हम चारों भाई बहनों को साथ ले सुबह और शाम अपने साथ बैठा प्रातः वंदना एवं संध्या वंदना सिखाते। उनके मुखड़े की मुस्कान, हमें निर्विवाद हो उन भजनों को अनायास ही याद रखने को प्रेरित करती।
‘पायोजी जी मैंने राम रतन धन….., करास्ते वसतु लक्ष्मी……इतना तो करना स्वामी जब प्राण…..’
न जाने कितने ही भजन और संस्कृत श्लोक बिना वाद-विवाद के ही हम रट गए और उन्हीं भजनों को गाना, भगवान की पूजा समझते। परन्तु वक्त हमेशा एक-सा नहीं होता। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, मन तो बदलता नहीं और प्रेम का साथ माँ ही बताया गया है, इसलिए प्रेम का स्थान भी बदलता नहीं और प्रेम सीमाओं का मोहताज नहीं होता, परन्तु समय के संग व्यक्ति का दिमाग जितना ही परिपक्व होने लगता है, न जाने कितने ही ख़याल ऊँचे-नीचे पनपने लगते हैं और शुरू होता है सवालों का सिलसिला। सवाल भी ऐसे-ऐसे जिनका तार्किक जवाब देना ज्यादातर समय असम्भव ही हो जाता है। ऐसे में बाबा-दादी, नाना-नानी का होना किसी वरदान से कम नहीं होता, जो अपने अनुभव की कसौटी पर कसे अनुभवों से हमें संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं।
भगवान में आसक्त प्राणी संतुष्ट भी हो जाते हैं पर इससे दीगर कुछ जो सटीक तर्कों को जानना चाहते हैं, उन्हें समय का इंतज़ार करना होता है।
मुझे आज भी याद है, बाबूजी से तो अनेकों सवाल सृष्टि की रचना को लेकर पूछ चुकी थी। उनके जवाब को सुनना भी मुझे अच्छा लगता था, परन्तु ये वो सवाल थे, जिन्हें समझना और समझाना, सृष्टि की संरचना या मानव मस्तिष्क को समझ लेने जैसी बात थी। उस ज़माने में बाबूजी ऐसे आस्तिक थे, जो हर अच्छी-बुरी बात को ईश्वर की ख़ुशी और खौफ़ ही मानते थे। और वात्सल्य मन ऐसा की वह जान जाता था कि कौन उसकी बात समझ सकता है, बर्दाश्त कर सकता है , खुश हो सकता है या किससे पिटाई लग सकती है या वो कौन है जो उसके जिज्ञासु मन की पिपाषा को सहिष्णुता से तृप्त कर सकता है। और यही कारण था कि इस सवाल को ले मैं बाबा के पास पहुँची।
“बाबा ऐसा क्यों होता है कि मेरा पूजा में ध्यान नहीं लगता? हमेशा दुनियादारी की बातें तत्काल ही क्यों याद आती हैं? क्यों किसी को किया दिया आहत याद आता है या की गई कानाफूसी तत्क्षण ही याद आ जाती है? हमेशा अंत में तंद्रावस्था ही क्यों?” बाबा मेरी बातों पर मुस्कुरा जाते पर मेरा बाल-बोध मन इस बात को समझ नहीं पाता।
एक दिन, बाबा शाम के वक्त बिल्कुल एकान्त जैसी ही अवस्था थे, माँ भी सांध्य ज्योति प्रज्ज्वलित कर चुकी थीं। मैं अकेले अपने अध्ययन की तैयारी में…।
“जानना चाहती हो कि क्यों पूजा के समय ही सारे उधेड़बुन तुम्हारे समक्ष होते हैं?”
और क्यों अंत में तुम्हें नींद आ जाती है?
चलो आज इस रहस्य को उद्घाटित किया जाए। ऐसा इसलिए होता है कि जब आप पूजा की अवस्था में आते हैं तो आप ख़ुद को दुनिया से अलग शांत एवं एकांत अवस्था को पाने की कोशिश करते हैं, ऐसे में आपका भगवान एक सांकेतिक माध्यम होता है, जिसे मूर्त या अमूर्त माध्यम बना उसके समक्ष अपने किये का आत्म मंथन करते हो और जब तक यह आत्म मंथन चलता रहता है, आपके मन के विकार खुद-ब-खुद आप से विलीन होते जाते हैं। यह प्रक्रिया तब तक चलते रहती है, जब तक आत्मसंतुष्टि और शांति न मिले। और जब तुष्टि की क्रिया सम्पूर्ण हो जाती है, ख़ुद में एक हल्कापन महसूस होता है और एक निश्छलता प्रतीत होती है और इस कारण हमें निद्रा का आभास होने लगता है और इसका अंत परिणाम यह होता है कि हमें अपनी दिनचर्या को करने के लिए अपने में एक स्फूर्ति बनी रहती है। इस प्रकार जीवन का पहिया चलता रहता है और सृष्टि अपनी क्रिया करते रहती है।”
फिर बाबा ने एक किस्सा वाल्मीकि जी का भी सुनाया था। यह क़िस्सा, वाल्मीकि जी का अपने जीवन में एक डाकू से तपस्वी में परिवर्तन का था। कैसे आरम्भ में वह भगवान राम का सुमिरन करना चाहते थे परंतु मुख से उनके राम के स्थान पर मरा का उच्चारण हो जाता। वाल्मीकि जी परेशान रहते कि कहीं फिर से एक और पाप इसलिये तो नहीं हो रहा कि वह राम को उच्चारित नहीं कर पा रहे पर उन्हें सलाह यह मिली कि अगर मन में भक्ति उन्हें उल्टा बोलने से भी हो रही हो तो उल्टा ही राम रटा करें, एक दिन ऐसा जरूर आयेगा, जब उनके मुख से ख़ुद ही राम उच्चारित हो जाएगा।
कालांतर वाल्मीकि जी द्वारा मन से की गई तपस्या ने उन्हें महर्षि बना दिया और इतना ही नहीं, उनके द्वारा रामायण जैसे महाग्रन्थ की रचना भी हो गई।
आज जब एक ऐसे विषय पर लिखने की बात हुई तो न जाने क्यूँ वो सारी बातें याद हो आईं। अगर मैं खुद पर इस बात को देखूं तो मुझे लगता है कि मैंने महसूस किया है कि सच में ‘कविता ही मेरी मुक्ति की साधना’ बनी हुई है। अध्ययन, नौकरी और उसके पश्चात ग्रहस्थ आश्रम में प्रवेश …..।
खुद को समझने का मौका ही नहीं दे पाई, कि मैं कौन हूँ, क्या चाहती हूँ, क्या करना चाहती हूँ और मेरा क्या औचित्य है! मेरे नौकरी छोड़ने पर क्यों कोई हैरान हो रहा है, अनेक प्रकार की सलाहों का अंबार….!
और मैं खुद में ही नहीं जानती कि क्यों लोग मुझे कुछ ऐसा कहते हैं, जिसका मेरे जीवन में कोई अस्तित्व ही नहीं। भौतिकता ने मुझे कभी लुभाया नहीं और मैं कभी इसके प्रलोभन के चंगुल में फँसी नहीं, खैर…।
15 साल, एक लंबे अंतराल के बाद, मेरे पति और बेटा मेरे लिए कलम थामने का बहाना बने। आरम्भ में जब मैंने कविता लिखना शुरू किया तो समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर मेरे शब्द इतने निराशावादी क्यों हैं, मेरी कोशिश होती कि किसी तरह कविता का अंत सकारात्मक रूप में करूँ। आज डेढ़ साल के अंतराल में कितनी ही कविताएँ लिख गई और कब निराशावादी कविताएँ, आशावादी कविताओं में परिवर्तित हो गईं, पता ही न चला!
परन्तु एक बात तो सच है कि तब भी अल्फ़ाज़ गढ़ने नहीं होते थे, वो मेरे अंतर्मन के किसी कोने से धारा-प्रवाह किसी निर्झरिणी की तरह बह निकलते, बस जरुरत होती थी एक कागज और कलम की, जिनसे मैं उन्हें कविता की शक्ल दे सकूँ और ऐसा न हो पाया तो बेचैनी-सी हो जाती, वह इसलिए कि उस कविता के शब्द रूपी मोती अगर बिखर गए तो उसे मेरे लिए दुबारा एक धागे में पिरो पाना मुश्किल होता। हालांकि यह आज तक कायम है। कविता लिखने का तब का सफर आज भी कायम है, जिसे मैं अपनी साधना मानती हूँ और हर एक कविता मुझे उस ख़ुशी का अहसास देती है, जिस इच्छा को लोग जीवनपर्यंत तलाशते रहते हैं, और मैं मानती हूँ की मुक्ति का अभिप्राय उस रास्ते से है, जिस पर चलना आपको आनन्द की अनुभूति देते हुए परमानंद के मार्ग पर ले जाता है। हाँ, कविता मेरे लिए मुक्ति की साधना है।
– अपर्णा झा