विमर्श
कविता की समकालीनता कुछ नोट्स-
1. कविता को लेकर धारणा की जाती रही है कि कविता मनुष्यता का स्वाभाविक लक्षण है। किन्तु जब हम कविता पर विचार करने लगते हैं तो कविता इस ‘स्वाभाविक कविता’ से किंचित भिन्न नज़र आती है। इसमें भाषा-प्रयोग, अभिव्यक्ति-शैली, सम्प्रेषण-योग्यता, विचार, तत्व आदि अनेक पक्ष महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं। अब, देखना यह है कि कविता करने वालों के लिए जो ‘स्थिति’ कविता है, क्या वही ‘स्थिति’ कविता के पाठक-श्रोता के लिए भी कविता है? या दोनों के लिए कविता भिन्न भिन्न ‘स्थितियां’ है? इसके अतिरिक्त, कवि ‘अ’ के लिए जो स्थिति कविता है, क्या कवि ‘ब’ या कवि ‘स’ अथवा अन्य कवियों के लिए वही स्थिति कविता है या इनमें भिन्नता है? प्रारम्भिक रूप से उत्तर दिया जा सकता है कि भिन्नता है और उन भिन्नताओं को नोट भी किया जा सकता है। तो फिर इन भिन्न स्थितियों में वह ‘सामान्य तत्व’ क्या है जो इन्हें एक संज्ञा ‘कविता’ के अंतर्गत ले आता है?
2. दमित इच्छा, अपूरित स्वप्न ही कुंठा है. इसका सबसे सुन्दर सृजनात्मक रूप कविता है। बहुत लोग कुंठा को मात्र नकारात्मक स्वरूप में ग्रहण करते हैं, पर मैं इसे कविता का उत्स मानता हूँ. इस बात को स्वीकार करते हुए कि कुंठा के भद्दा, वीभत्स और कुत्सित रूप न जाने कितने होते होंगे, जो आपराधिक मूल के होते हैं।
3. सत्य आदर्श है, जिसे हम चाहते हैं… जिसका मूर्त रूप हम देखना चाहते है, पर वह हमें कभी दिखता नहीं। हमें जब दिखता है यानि हमारा साक्षात्कार हमेशा तथ्य से होता है। तथ्य क्या है? तथ्य और कुछ नहीं, बल्कि वास्तविकता है। सत्य हमें प्रिय है और तथ्य हमारी विवशता है। सत्य को नहीं छोड़ते , प्रेम के कारण और तथ्य हमें नहीं छोड़ता। इन दोनों में अनवरत एक संघर्ष चलता रहता है, एक द्वंद्व मचा रहता है। इस द्वंद्व का , इस संघर्ष का अधिष्ठान कहाँ होता है, जहाँ ये युद्ध होते हैं? वह स्थान है, हमारा मन, अंतःकरण। व्यक्ति मन जब अपने आसपास की वास्तविकता से, अपनी यथार्थ परिस्थितियों से असहमत होता है, इसलिए असंतुष्ट होता है तो वह प्रतिक्रिया करता है, प्रतिक्रिया में वह विद्रोह कर बैठता है। इन प्रतिक्रियाओं में, लेकिन , एक सिसृक्षा भी अंतर्व्याप्त रहती है। इस कोटि की प्रतिक्रिया सहज प्रतिक्रिया नहीं होती, जैसा कि मच्छर काटने पर व्यक्ति करता है, बल्कि यह एक विशेष प्रकार की सृजनात्मक प्रतिक्रिया होती है। इसी सृजनात्मक प्रतिक्रिया को कला कहते हैं। कला प्रतिक्रिया है, इससे असहमत नहीं हुआ जा सकता। लेकिन प्रतिक्रियाओं की कतिपय सरणियाँ हैं – सहज और सुनियोजित। सुनियोजित प्रतिक्रिया की भी दो कोटियाँ हैं- सृजनात्मक और विध्वंसात्मक। विध्वंसात्मक सुनियोजित प्रतिक्रिया ही षड़यंत्र कहलाती है और सृजनात्मक कला । इन्हें सृजनात्मक और विध्वंसात्मक होना इस बात पर निर्भर करता है कि इनका उद्देश्य क्या है? किन्तु सुनियोजित प्रतिक्रयाएं हमारे आस-पास की वास्तविकता और हमारे अन्दर के मूल्य बोध के परस्पर द्वंद्व से उत्पन्न होती हैं और ये प्रतिक्रियाएं अनिवार्य हैं, इन्हें रोका भी नहीं जा सकता।
4. पुरानी काव्य भाषा का तात्पर्य बने-बनाए सिद्ध -प्रसिद्ध प्रतिमान और रूढियों के प्रयोग से है। ऐसी काव्यभाषा में अतिप्रसिद्ध प्रसंगों को कविता में जड़ दिया जाता है। इसे एक बने-बनाए रास्ते की तरह समझ सकते हैं, जिस पर चलने के लिए सिर्फ़ चलना ही होता है। दिशा निर्देश के संकेतक भी जगह-जगह लगे रहते हैं और भी बातें हैं। यह एक मुकम्मिल आलेख का मसला है। दो चार वाक्यों में निबटान किंचित कठिन है।
5. साहित्यिक कृतियों को जैसे ही पण्य वस्तु बनाकर उसका मूल्यांकन होगा, उसमें से उसकी ‘आत्मा’ गायब होगी। कहीं से भी आत्मा गायब होगी, हमारी पहचान शरीर है आत्मा नहीं! फिर उसका प्रोडक्शन होगा, कम्पीटीशन होगा। मेरी एक कविता, छोटी सी कविता मैंने पोस्ट की तो दस बारह लोगों ने पसन्द किया। उसी कविता को किसी स्त्री ने पोस्ट किया, यहीं फेसबुक पर तो लगभग सौ लोगों ने पसन्द किया। चीज वहीं पर बेचने वाले के बदलने से ग्राहकी बढ़ गई। कविता कहीं रह गई! ऐसे में सिर्फ़ उन्हीं बातों का ख्याल रखा जाएगा साहित्य में भी, जो बिके। तभी तो बुकर प्राइज़ पाने वाले प्रतिष्ठित कहे जाते हैं क्योंकि उन की किताब ‘बिकी’ बहुत है। गुणवत्ता बिकने के आधार पर तय होती है।
6. क्षण और क्षण के बीच भी अंतराल होता है। उस अंतराल को भी क्षण ही कहना होगा और इस तरह अंतराल को खोजते-खोजते हम एक तार्किक अनवस्था को प्राप्त होते हैं और निरुत्तर और अप्रतिभ हो उठते हैं। इस तार्किक नैराश्य और विवशता के विषण्ण क्षणों में काव्य का उदय होता है …. और संवेग का लास्य इस अंतराल को ढक देता है… हम दार्शनिकता का तिरस्कार कर कवि होने लगते हैं। कवि होना सहज नहीं, प्रत्युत एक विवशता है। दर्शन सभ्यता और संस्कृति को ढांचा और आकार देता है और कविता तन्यता और चिकनापन देती है। दर्शन ज्ञान की परम्परा है और कविता ज्ञान का संवेगात्मक विराम। धर्मवेत्ता लोग ज्ञानमूलक दर्शन से सत्य के स्वरूप को आच्छादित करते हैं… कवि लोग कविता के माध्यम से सत्य को अनावृत्त करते हैं। दर्शन और दार्शनिकता साधारण जन को भयभीत कर अपना स्थान बनाती है, कविता और साहित्य साधारण जन के रोजमर्रा में अपना स्थान बनाते हैं। असंबद्ध को संबद्ध करने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ प्रेम में है जो कविता का सनातन अवलंब है मैं क्षण और क्षण के बीच के अंतराल को समझना चाहता हूँ…. कविता बनकर समझाना भी चाहता हूँ।
7. मैं उन कविताओं या साहित्यिक कृतियों से साहित्य को बचाना नहीं मानूँगा…. जहाँ पुराने प्रसिद्ध भाव, विचार या जुमले… बस दुहराए भर जाते हैं। अधिकांशतः रचनाकार किसी प्रसिद्ध रचनाकार को पढते सुनते हुए… इतने जोश और उमंग से सराबोर हो जाते हैं कि वैसी कविता/रचना कर डालते है। कुछ ऐसे भी उत्साही हैं जो हरिऔध, दिनकर, प्रसाद, निराला, अज्ञेय, गालिब आदि के प्रभाव से ही बाहर नहीं निकल पाए हैं और कुछ इतने अधिक उन्मुक्त है जो कुछ भी कहने को कविता मानते हैं। उनका अपना प्रभाव-क्षेत्र है जहाँ वे विजेता है, रचनाकार हैं,. साहित्य के बौद्धिक और जिम्मेदार नेतृत्व प्रदान करने वालों को इन्हें हतोत्साहित भी करना चाहिए, यह साहित्य की सेवा ही होगी।
8. रबीन्द्रनाथ ठाकुर… निराला… प्रसाद स्तर के गहरे कवियों के आविर्भाव नहीं हो पाने का कारण यह है कि कवियों में आध्यात्मिक बोध और शिक्षा का अभाव होता है। मानवीय सरोकार तो दिखते हैं कविताओं में … पर वे रोजनामचा की तकरीरें अधिक प्रतीत होती हैं, जिनमें प्रतिक्रियात्मक
उद्वेग और खीझ अधिक होती हैं. बोध और संप्रेषण के स्थायित्व के लिए आध्यात्मिक अनुभूति आवश्यक है. यह परामनोवैज्ञानिक भूमि है, इससे ‘सेक्युलरिज्म’ भंग नहीं होता, प्रत्युत अनुभूति में एक ठहराव और पैनापन आता है।
9. सरलीकरण की प्रवृत्ति बौद्धिक विकलांगता है, जो एकांगी सोच वाले और भावुक लोगों में पाई जाती है इससे सामान्यीकरण की महामारी फैलती है। कविता में यह अधिक दिखती है।
10. किसी भी तरह की रचनात्मक यात्रा मूलतः एक निषेधपरक यात्रा होती है जहाँ किसी बड़ी सहमति के लिए छोटी-छोटी असहमतियाँ सुर्खरू रहती हैं। बिना प्रतिपक्ष के सृजनात्मक यात्रा किसी सरकारी बाबू की दिनचर्या जैसी होती है, जहाँ सब कुछ ढर्रे पे चलता चला जाता है। आप उसमें जी रहे हैं तो जी रहे हैं, यदि उसे देख रहे हैं तो वह एकरस और उबाऊ लगेगा। अभी हिन्दी साहित्य उस सरकारी बाबू की दिनचर्या वाले ढर्रे पर चल रहा है, समतल और एकरस; गोया सब कुछ तय-तय है।
11. जैसे मनुष्य की कोई परिभाषा नहीं होती वैसे ही कविता की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। कविता का रचा जाना और कविता पढा जाना, दोनों का माध्यम शब्द है। शब्दों का अर्थ निश्चित है हम सबसे पहले उस निश्चित अर्थ तक पहुँचते हैं और एक भाव ग्रहण करने का यत्न करते हैं। यदि वह अर्थों से ही मिल गया तो वह विवरणात्मक कविता होती है। उसके इंगित से कुछ मिलता है तो चित्र कविता होती है। किन्तु जब वह अर्थ अपने प्रस्तुत करता हुआ तिरोहित हो जाता है और पाठक को उद्वेलित कर जाता है जिसके सहारे पाठक अपने भाव संदर्भों की ओर चल पडता है तो वह ध्वनि कविता होती है, व्यञ्जना बोध की कविता होती है। उपर्युक्त कोटियों में पहली और दूसरी कोटियों की कविताएँ एक बात, एक विचार या बातों, विचारों को रखने के लिए, व्यक्त करने के लिए रची जाती हैं। इनमें तात्कालिकता अधिक प्रबल होती है इसलिए भी यह अपेक्षाकृत अधिक सरलता से संप्रेषित हो जाती हैं। ऐसी कविताएँ समय-परिवेश के बदल जाने से तिरस्कृत हो जाती हैं। किन्तु तीसरी कोटि की कविता के साथ ऐसा नहीं होता! ऐसा नहीं है कि ध्वनि कविता या व्यञ्जना बोध की कविताओं में बात या विचार नहीं होते/ हो सकते हैं अपितु होते भी हैं। किन्तु, चूँकि, यह शब्दार्थ के तिरोहित होने के बाद खिलती और खुलती है, इसलिए इसके पाठ के लिए पाठक के पास एक काव्य-संस्कार का होना अनिवार्य होता है और इसके न होने की दशा में इस कोटि की कविताओं का अधिकांश प्रच्छन्न रह जाता है।
यहाँ बताना लाजिमी है कि व्यञ्जना बोध के लिए अवचेतन की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, जिसे अनादि वासना भी कहा जाता है। ऐसी कविताओं में कवि के अवचेतन की यात्रा पाठक के अवचेतन तक होती है। वह अवचेतन ही है जो व्यक्ति का निजी मानस साम्राज्य होता है। अवचेतन कोई चेतनाशून्य या जड प्रदेश नहीं है, बल्कि वह एक सतत क्रियाशील और परिवर्तनशील होता है। कविता, जो कि रचने वाले और पढने वाले के लिए भौतिक रूप से शब्दमात्र हैं जो किसी भाव से प्रेरित होकर रची जाती है…और पढे जाने के बाद किसी भाव की उत्पत्ति को प्रेरित करती है। इस तरह यह माना जा सकता है कि कवि और उसके पाठक के अवचेतन में जितना अधिक सामरस्य होगा, व्यञ्जना बोध की कविता उतना अधिक संप्रेषित होगी।
12. साहित्य में बाज़ार का प्रवेश हो गया है, यह सुनकर आप दुखी हों, खुश हों, क्रुद्ध हों … कुछ भी होना चाहें हो लें लेकिन उससे पहले इस बात का मतलब समझ लें, बाज़ार का मतलब सिर्फ ग्राहकी या दुकानदारी नहीं है।
बाज़ार का मतलब बेचने और खरीदने की प्रबल आकांक्षा है। बाज़ार में बैठा या बाज़ार में घूम रहा हर कोई बिक या खरीद रहा हो, यह ज़रूरी नहीं, किन्तु उनकी आकांक्षा, महत्वाकांक्षा को महसूस करेंगे, अपनी महत्वाकांक्षा को समझेंगे तभी समझ में आएगा साहित्य में बाज़ार के प्रविष्ट होने का मतलब। आप देख सकते हैं, बहुत सतही और दोयम दरज़े के साहित्यकार अपने पब्लिक-रिलेशन और विज्ञापन की बदौलत साहित्यिक जगत के ‘सिरमौर’ बने फिरते हैं, जब इनके सच को समझेंगे तो साहित्य में बाज़ार का मतलब समझेंगे।
13. समय की पहली और आखिरी सच्चाई की सनद भाषा है और भाषा जहां सुरक्षित रहती है, वह कविता है। कविता को समझना भाषा को समझना है और भाषा को समझना समय को समझना है. ऊपरी तौर पे समय परिवर्तनशील है तो भाषा परिवर्तनशील है और इसलिए कविता परिवर्तनशील है. किन्तु तात्विक रूप से, कविता, भाषा और समय – सभी आपस में घनिष्ठ रूप आबद्ध भी है तो अन्योन्याश्रित भी! और कविता इन्सानी सरोकारों का, रिश्तों का, जरूरतों का, इच्छाओं, सीमाओं, मुक्तताओं आदि का दर्पण भी है। कविता मनुष्य के आगे भी है, पीछे भी है और साथ तो है ही। कविता समय है. कविता से रूबरू होना समय से रूबरू होना है। काल बोध दो तरह से होता है- ऐतिहासिक और अनैतिहासिक। ऐतिहासिक समय सबका साझा होता है, वह सबका होता है जो हमसे व्यवहार करवाता है, व्यापार करवाता है, कभी जीत तो कभी हार करवाता है। वह ऐतिहासिक समय ही है जो हमें लाचार करवाता है। इन्हें जब हम अनैतिहासिक समय में जीते और रचते हैं तो वह कविता होती है। यह अनैतिहासिक समय हमें मुक्ति का अवसर देता है। यह सबके पास है, इसे सभी जीते हैं कुछ लोग इसे रच पाते है, कुछ लोग नहीं रच पाते। कुछ लोग इसे पाकर आनन्दित होते है और कुछ लोग उन्मत्त और स्खलित। पर, चूँकि, ऐतिहासिक और अनैतिहासिक समय एक ही समय के दो अहसास है, इसीलिए उसके अनैतिहासिक समय के अहसास का अहसास इसे हो पाता है।
14. उनसे जिनके लिए साहित्यिक गतिविधि क्षणिक आवेग मात्र के लिए है! हिन्दी साहित्य से आलोचना धारा या तो लुप्त हो चुकी है या प्रशंसात्मक समीक्षा के रूप में कहीं कहीं दिखती है पर पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, यह स्थिति साहित्य के पक्ष में तो नहीं है। चाटुकारिता-प्रिय वे लोग जो बडे ओहदे पर हैं, बुलाए जाने पर गदगद हो जाते हैं और बुलाने वाले को अप्रतिम और अभूतपूर्व रचनाकार कह कर चले जाते हैं। …. उनके कह जाने के बाद वह श्रेष्ठ रचनाकार बौराया-सा ऐसे गायब हो जाता है कि धरती पर उनकी आवश्यकता समाप्त हो चली है। इसका भी कारण है। रचनाकार और उनके पाठक इतने करीब आ गए हैं कि मध्य से आलोचना का व्यापार अनपेक्षित
सा हो गया है। इस प्रत्यक्ष व्यवहार के बढने का परिणाम यह हुआ है कि प्रतिक्रिया का रूप प्यार या तकरार हो गया है, या तो प्रशंसक है या निन्दक, समीक्षक या आलोचक नहीं, फ़ास्टफ़ूड की तरह से साहित्य और साहित्यिक प्रतिक्रियाएँ, बोले तो एकदम इंस्टेन्ट. क्या साहित्यिक गतिविधि क्षणिक आवेग मात्र के लिए है!
15. दो प्रकार की कविताएं, मुख्य रूप से लिखी जा रही हैं :
क) कुछ में एक विचार [एजेंडा] को छद्म रूप से कविता की तरह लिखा जाता है, [कभी कभी तथ्यात्मकता बहुत अधिक और अकविताई दिखती है]। इनमें से विचार खींच लीजिए, थोथा और अनर्गल-सा कुछ बच जाता है।
ख) कुछ विचार शून्य स्थिति को अंगविशेष को अमूर्त बनाकर, उलझाकर कविता के रूप में प्रस्तावित किया जाता है। कभी कभी, संयोग से, कविता दिखती है जो प्रायः उपेक्षित-सी कहीं कोने में पडी रहती है … जिसमें विचार, अमूर्तन, वगैरह के साथ वह मृदुल तत्व भी होता है जो उसे कविता बनाता है।
16. एक डर, एक भीति, कि कहीं कोई चरित्रहीन न कह दे; कविताओं की आखिरी पंक्तियाँ, कविताओं को लील जाती हैं।
17. कविता या कोई रचना में एक विशिष्ट सामाजिक चेतना झांकती होती है … वह रचनाकार की सामाजिक चेतना होती है, वह उसकी वास्तविक रचनाभूमि होती है … जो अवचेतन में रह कर हर व्यक्ति को डायरेक्ट करती है। इसे पाठक को ठीक से समझना चाहिए, तभी रचनाओं का मुकम्मल पाठ हो पाता है।
18. कविता और कवि में फर्क होता है। यह बेसुरी बात मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अधिकांश लोग यह बात बिसरा चुके हैं। बल्कि बहुधा लोग यह मानते ही नहीं होंगे कि कविता का अपना वजूद होता है…. उसकी उपस्थिति का अपना एक अर्थ, एक उद्देश्य होता है। यह मान लिया जाता है कि अमुक कवि का एक स्टेटमेंट है… अटपटे गद्य में लिखा एक बयान है बस। ऐसा सिर्फ कविता पर ‘वाह-वाह’ करने वाले कर रहे होते तो बात कुछ और होती… कई कवियों से बात हुई… उनकी प्रति-प्रतिक्रिया देखी ….. तो अनुभव से बड़ा ही निराश हुआ… कवियों तक ने यह कह दिया … अरे रवीन्द्र जी…. या दास भाई… जो मन में आया लिख दिया … हम उतना नहीं सोचते। फिर भी उन्होंने कविता(?) लिख दी – यह बात काबिले-गौर है। जब इस तरह के मर्म-घातक अनुभव हुए तो कविता के प्रति सामाजिक रवैये में हुए क्षरण का कुछ-कुछ कारण समझ में आने लगा। कविता लिखने वालों से आप बात करके देखें…. तो पता चलेगा कि वो कविता पढ़ते नहीं… हाँ कुछ कवियों को पढ़ते हैं… और उनसे कविता पर बात करने की कोशिश कीजिये… तो सबसे पहले टालने की कोशिश करेंगे… बहुत जोर देने पर “कोई एक” चमकदार पंक्ति के आसपास कविता को फिक्स करने की या उसी पंक्ति में रिड्यूस करने की जुगत करते हैं। कविता को किसी खास चमकदार पंक्ति में फिक्स करने या उसी में रिड्यूस करने की चतुराई अनाड़ी ही नहीं … होशियार आलोचक भी करते हैं… यह पाठ की प्राविधि सी बन गई है … इसलिए जो फटाफट कवि हैं या जबरदस्ती के कवि हैं … कविता के नाम पर कुछ अटपटा गद्य … किन्तु बीच- बीच में एक – दो बहुप्रचलित सिद्धांतों के अनुकूल चमकदार पंक्ति डाल देते हैं… उनके अपने समीक्षक – आलोचक उसी भरोसे कविता को महान समयविद्ध रचना साबित कर देते हैं। लेकिन कविता है तो कविता है… कभी आपने कहीं सुना- पढ़ा है कि किसी बेतरतीब और अटपटे गद्य को देखकर कविता-विशेषज्ञ ने कहा हो कि यह कविता नहीं है… इस का तात्पर्य यह है कि कविता लिखना बहुत सुगम है… और कविता पढना एक नासमझी …. लेकिन कुछ लोग कवि को पढ़ते हैं… वाह-वाह करते हैं… इसका आधार लिंग-क्षेत्र-जाति प्रभृत कुछ प्रिय कारण होते हैं।
– रवीन्द्र के दास