कविताएँ
आज नहीं तो कल
आज नहीं तो कल
वे बना सकते हैं तुम्हें भी
दादरी और बनारस!
इतनी हैरत से मत देखो
तुमसे, हाँ, तुम्हीं से मुखातिब हूँ मैं
क्योंकि
मचानों पर बैठकर
देख लिया है उन्होंने तुम्हारा सिरफिरापन
किस आसानी से
बना लेते हो धूर्त पाखंडियों को
तुम अपना ईश्वर
भेंट स्वरुप अर्पित कर देते हो
उनके कदमों में
तुम अपना विवेक
जानते हैं वे
उनकी ‘हुआ-हुआ’ सुनते ही
तुम मुंह उठाये भाग उठोगे
लाठी और बल्लम लेकर
अपने ही साथियों के रक्त से
रंग डालोगे माटी को तुम
फूंक डालोगे अपने ही हाथों
एक रोज तुम अपना वतन
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राज सिंहासन पाने के लिए
वे दौड पड़े हैं उन्मत्त हाथियों की तरह
सुनहला राज सिंहासन पाने के लिए
न सिर्फ रौंदते हुए घास और उड़ाते हुए धूल
देखो वे सूंड में दबा कर गरदनें
पटक-पटक अधमरी कर रहे इंसानियत
वे रातो-रात निकलते हैं बिलों से
बड़ी-बड़ी पूँछ वाले चूहों की तरह
और चट कर रहे हैं बहुत होशियारी से
लहलहाती फसल के साथ तुम्हारा विवेक भी
सत्ता के इन पिपासुओं ने
ज़हरीले कर दिये हैं गिनती के रह गए मीठे सरोवर
घोल दिया है शरद की हवाओं में
जले हुए टायरों का दमघोंटू धुंआ
सभ्य से नज़र आते वे
मंच पर कस रहे हैं फब्तियां
विदूषकों की तरह खींच रहे हैं एक दूजे की टोपियां
पाने के लिए राज सिंहासन
वे शैतान से भी मिला रहे हैं हाथ
कर रहे हैं दागदार अपना स्वर्णिम इतिहास
– नीता पोरवाल