कविताएँ
तुम एक जुनून हो
कुछ खुशगवार लम्हों की महक
साँसों में समा सीने तक उतर गयी है
महफूज़ है वह अहसास जिसकी लहक
सुलगा कर बदन तर-बतर कर गयी है
शब्दों में बहुत ढाला प्यार को
फिर भी कविता नहीं बन पाई है
लगता है उस अधूरेपन की कसक को
खुदा ने भी खूब आजमाई है
आसमां की अरुणाई का नील रंग
मेरे अश्क को तुम में संजोया है
विलग कैसे हो सकता भला एक अंग
जब दो रूहों ने साथ-साथ साँसें बटोरी हैं
वो जिज्ञासा, पिपासा और तन्हाई की रात
बेतरतीब है आलम, तुम एक जुनून हो
सलवटें बता रहीं हैं करवटों की बात
मेरी नज्मों की तुम मज़मून हो
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मन
मन तू बड़ा बावला है
ज़माने के दस्तूर को कर दरकिनार
अपना ही आयाम रचता है
कभी आवारा बादल बन जाता है
कभी आँखों की कोर से बह जाता है
मन तू थोडा सरस भी है
समय की आँधियों में उड़ा नहीं है
रिश्तों के उपालंभों से मरा नहीं है
जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा नहीं है
अब भी वहाँ प्यार का अंकुर खिलता है
जो किसी को सँवार सकता है
किसी के लिए बिखर सकता है
मन तू कितना बेबस है
चाह कर भी हँस नहीं सकता
जज़्बातों की ज्वालामुखी में अंतर्धान
अपनी मर्ज़ी से फट भी नहीं सकता
और तो और, मुस्कुराने से पहले
आस-पास का जायजा लेता है
मन तू शातिर भी कम नहीं
भीड़ भरे रास्तों में गुदगुदाता है
एकांत में टीसें मारता तड़पाता है
बार-बार उनके ख्यालों से उकसाता है
और जो उठा लूँ कलम लिखने को ख़त
शब्दों में स्वयं ढल जाता है
मेरा हमराज, तू आजाद पंछी है
पिंजरबद्ध हो ही नहीं सकता
चलो, तुम में ही विलीन हो जाऊं
हर उस मुकाम तक पहुँच जाऊं
जहाँ सशरीर न जा पाऊं
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फलक पर
तुम्हें फलक पर ले जाऊँगा
चाँद-तारों के बीच बसाऊँगा
एक ऐसी दुनिया जहाँ तिरोहित होंगे
हर बाधा/प्रतिबन्ध
उस आकाशगंगा को इंगित करते
तुम्हारे शब्द अमृत घोल रहे थे
मैंने तो फलक पे अपना
ताजमहल भी देख लिया था
जो तुमने मेरे जीते जी बनाया था
तब क्या पता था प्यार की नींव
बलुवाही मिट्टी पे टिकी है
विश्वास को डगमगाते देर न लगी
और तमाम आरोप-प्रत्यारोपों की आँधी
ध्वस्त कर गयी वो ताजमहल
सब दफ़न हो गये वो वादे-इरादे
और प्यार करने वाली दो आत्माएँ
मेरी किताबों में रखी लाल गुलाब की पंखुड़ियाँ
सूखकर भी महकती हैं
शायद हमारे खुशनुमा पलों की एकमात्र निशानी
अब भी हमारे वजूद को जी रही है
– डॉ. कविता विकास