कविता-कानन
कविताएँ
बेचारी गालियाँ
एक विघटनकारी ने
एक उपद्रवी ने
एक आतंकवादी ने
एक फकीर को
एक महात्मा को
एक धर्मात्मा को
जमकर गाली दी।
वह फकीर
वह महात्मा
वह धर्मात्मा
कुछ नहीं बोला
क्योंकि वह शरीर नहीं था।
दुष्ट जब गालियाँ दे रहा था
तब उसके अन्दर की
शर्म. हया. लज्जा
लजाकर भाग खडी हुयीं
वे स्त्रियाँ जो थीं।
इस प्रकार अपनी भड़ास
निकालने के पश्चात्
शांत हुआ वह उपद्रवी
विजयी मुद्रा में
आदम-कद दर्पण का
समर्थन चाहा और
खड़ा हो गया उसके सम्मुख
गालियाँ उसके मुख पर चस्पा थीं।
दर्पण से पूछा –
ऐसा कैसे हो सकता है?
उत्तर मिला
मैं झूठ नहीं बोलता
तुम्हारी गालियॉ
उस महात्मा ने नहीं ली
बेचारी गालियाँ …!
कहॉ जातीं
अनजान जगह?
तुम उनके जन्मदाता थे
तुम्हारे साथ लौट आयीं …!
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माँ पहुँच से दूर
रोज की भांति
आज भी ;
मैं यह जानने के लिए
माँ के कमरे में नहीं गया कि;
वह कैसी है …
किस हालत में है…
समय पर उसे दवा दी जा रही है अथवा नहीं?
सुबह धूप में उसकी चटाई बिछायी जाती है अथवा नहीं
मुझे थोड़ा जल्दी थी
जैसा कि रोज ही होती है
बस पकड़ने की जल्दी!
मैं चौखट लॉघ ही रहा था
ठीक उसी समय
माँ की मद्धम आवाज
सुनायी दी
शायद!
उसे दवा ,पानी या धूप की
दरकार रही होगी
अथवा मुझसे बात करने की
जिज्ञासा जाग्रत हुई होगी
या जानना चाह रही होगी
मेरे काम की प्रगति
या जानना चाह रही होगी
मेरा कुशल क्षेम
आदि आदि…
पर… आज बस…!
अभी तक क्यों नहीं आयी?
इन्तजारी बढ़ती ही जा रही थी…
किसी ने मेरी बेचैनी भांप कर
कहा…
आप की बस छूट चुकी है
एक धक्का सा लगा मन को
परन्तु पता नहीं क्यों
बस के बहाने ही माँ की याद आ गयी
मेरे मन ने कहा
तुमने माँ की अपेक्षा जिस बस को तरजीह दी
आखिर
वह बस भी छूट गयी!
मुझसे दूसरी बस का इन्तजार
नहीं किया जा सका
और तेज कदमों से
जल्दी -जल्दी घर लौटा
माँ..!
माँ ..!
कहते हुए…
माँ के कमरे में
दाखिल हुआ…
देखा माँ बे-सुध पड़ी थी
हिलाया डुलाया कहीं कुछ नहीं
जोर जोर से चिल्लाया
माँ……माँ…!
पर माँ पहुँच से बहुत दूर
जा चुकी थी…
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एक सेतु
एक सेतु है बड़ा अजूबा
सीमेण्ट व कंकरीट से अलग
विचारों की बुनियाद पर बना हुआ
हमारे और पड़ोसी के बीच
विचारों के टूटते ही उसके दोनों पाट छिटक कर
हो जाते हैं बहुत दूर
तब वह टूट कर हो जाता है चकनाचूर
और कभी विचारों के मिलते ही
वह स्वतः उठकर हो जाता है खड़ा
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शब्दों के महाकर्षण में
उसके शब्दों के महाकर्षण में
जब खिचने लगा मेरा मन
सिकुड़ने लगीं तंत्रिकाएं तो
अंतिम जिज्ञासा के रुप में
एक प्रभा चमकी मेरे मन में
क्यों न उच्चरित शब्दों के सहारे
इसके दिल- दिमाग की यात्रा की जाय
जैसे जैसे दूरियॉ कम होने लगीं
वक्ता के शब्द अपने रंग और अर्थ
दोनों ही बदलने लगे…
– मोती प्रसाद साहू