विमर्श
‘कल्पना’ और उसका उर्वशी विवाद: एक विवेचन
– डॉ. निकिता जैन
भूमिका
‘उर्वशी’ दिनकर की सर्वोत्तम रचनाओं में से एक मानी जाती है लेकिन ये कम ही लोग जानते होंगे कि ‘उर्वशी’ जब प्रकाशित हुई तो कुछ विद्वानों ने इसे दिनकर की औसत दर्जे की रचना घोषित कर दिया था। इन विद्वानों के ‘उर्वशी’ को एक साधारण एवं अमौलिक रचना मानने के अपने ही कारण थे, जिस पर एक लम्बी चर्चा उस समय ‘कल्पना’ पत्रिका में चली थी। इस लेख में ‘उर्वशी’ पर चली उस लम्बी बहस का ही पुनर्मूल्यांकन प्रस्तुत किया जा रहा है–
कल्पना का उर्वशी विवाद
हिंदी साहित्य के विकास में ‘कल्पना’ के योगदान को नज़रअंदाज करना ऐसा है, जैसे व्यक्ति से उसकी आँखों की रोशनी छीन लेना। ‘कल्पना’ विशुद्ध साहित्य केन्द्रित पत्रिका थी, जिसमें समकालीन साहित्य का विवेचन एवं मूल्यांकन बारीकी से किया जाता था। हिंदी क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए ‘कल्पना’ विचार-विमर्श, वाद-विवाद का एक महत्वपूर्ण मंच साबित हुई। आये दिन नए-नए साहित्यिक मुद्दों को उठाकर उसको विभिन्न दृष्टियों द्वारा मूल्यांकित करना पत्रिका की विशेषता रही है। वैसे तो ‘कल्पना’ में न जाने कितनी ही रचनाओं, साहित्यकारों को लेकर बहसें और विवाद हुए हैं लेकिन इन सभी में एक विवाद बहुत चर्चा में रहा- वह था ‘उर्वशी’ विवाद। 1961 में प्रकाशित दिनकर की रचना ‘उर्वशी’ को लेकर ‘कल्पना’ में जो साहित्यिक चर्चा शुरू हुई, वह कई दिन तक हिंदी साहित्य के गलियारों में गूंजती रही। आरोप और प्रत्यारोप तो वाद-विवाद का मुख्य अंग हैं लेकिन ‘उर्वशी’ विवाद ने बड़े-बड़े रचनाकारों और साहित्यकारों को भी अलग-अलग श्रेणी में विभाजित कर दिया था। इसकी शुरुआत हुई ‘कल्पना’ में प्रकाशित भगवतशरण उपाध्याय की ‘उर्वशी’ पर लिखी एक लम्बी समीक्षा द्वारा, जिसमें उपाध्याय जी ने ‘उर्वशी’ को ‘दिनकर’ की औसत दर्जे से भी नीचे की रचना घोषित किया। उनका मानना था कि दिनकर की यह रचना कोई मौलिक कृति नहीं है, जिसमें उन्होंने अपनी कल्पना के आधार पर किसी नयी दृष्टि का सूत्रपात किया हो। उपाध्याय जी ने हिंदी की ‘उर्वशी’ को संस्कृत ‘विक्रमोर्वशी’ का कथानुवाद बताया। उनका मानना था कि “समूची कहानी कालिदास के उसी नाटक से उठायी हुई है, पोर-पोर, प्राय: अंत को छोड़। कहानी कालिदास ने भी उठायी है, ‘ऋग्वेद’ के दसवें मंडल के सूक्त 85 से, पर पोर-पोर नहीं, बीज मात्र और कहानी अपने ढंग से कही है, अत्यंत नए तथ्यों को गढ़ कर।”1
उपाध्याय जी ने ‘उर्वशी’ की समीक्षा द्वारा ‘दिनकर’ की दृष्टि, क्षमता एवं योग्यता पर सवालिया निशान खड़े किये। उनके हिसाब से उर्वशी कथानक, शब्द योजना, रूप हर दृष्टि से एक कमज़ोर रचना थी। ‘उर्वशी’ में प्रकाशित चित्रों और मूर्तियों की प्रतिकृतियों तथा काव्य की भाषा को विस्तार से विश्लेषित करते हुए उपाध्याय जी इन्हें दिशाहीन एवं व्यर्थ बताते हैं। उनकी समीक्षा से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं–
(क) उर्वशी के रूप-सज्जा पर– “तीसरा मौलिक चित्र रेखाजनित धूमायित मेघों में प्रछन्न तैरते शिशु का है, जो संभवत: उस नारी के निम्नांग से अभी बहिर्गत हुआ है, जो अपने शरीरयष्टि को ऊपर फेंक पुल बन गयी है, जिसकी नग्न स्तन चित्र के प्रतिवर्त बन गए हैं और जिसकी नग्न क्रिया की ओर ऊपर से मेघ-निर्मित मुष्टि की तर्जनी संकेत कर रही है। चित्र की नारी का यह धड़ मात्र है, जिसमें न सर है, न भुजाएं हैं, न नितम्ब से नीचे के अंग हैं, मात्र नग्नता है जिस सम्बन्ध में पुनरुत्थान अप्रतिम चित्रकार लियोनार्दो दा विन्ची ने कहा था कि यदि कामायित मिथुन का काम प्रबल न हो और उससे भी बढ़ कर, उनके रूप स्पृहणीय न हों, तो शेष अंग और काम क्रिया तो इतनी घिनौनी है कि परस्पर आकर्षण के अभाव में, कुछ अजब नहीं जो मानव सृष्टि का अंत ही हो जाए!”2
(ख) ‘दिनकर’ की शाब्दिक व्यंजना पर– “कवि की चुम्बन चेतना बड़ी सजग है। पृष्ठ 75 (उर्वशी के) पर चुम्बन की अरूप झंकृति ‘फुहार’ बन गयी है– ‘भरी चुम्बनों की फुहार’– फुहार से संभवत: कवि का आशय थूक की उन नीहारिकाओं से है, जो शायद कामदग्ध गवासीन पुंगव छोड़ता है, सभ्य मानव नहीं।….चुम्बन का एक रूप जो चुनौती के रूप में उछाल कर कवि सामने रखता है, वह इस प्रकार है–
ओ शून्य पवन में मुझे देख चुम्बन अर्पित करने वाले!
बेशक, ऐसा नहीं कि आज की यूरोपी संस्कृति के अधकचरे नौजवान स्टेशन पर जानी-अनजानी सुन्दरी को छूटती रेल के सामने होठों पर हाथ रख कर चुम्बन उछाल देते हों, उर्वशी के उस ऋग्वैदिक काल में भी अप्सराओं के प्रति चुम्बन उछाल देने की विधि से भारतीय छैला वंचित न था! आखिर आज की यूरोपी दाय का पुरुरवा इंडो-यूरोपीय संतति स्वयं पुरुरवा ही तो था।”3
उपर्युक्त उदाहरण में उपाध्याय जी कवि की चुम्बन चेतना से रुष्ट दिखाई पड़ते हैं। लेकिन यहाँ दिनकर ने प्रेम को जिन सन्दर्भों में व्यक्त करने की कोशिश की है, वो शायद उपाध्याय जी मूल्यांकित नहीं कर पाए। ‘भरी चुम्बनों की फुहार’ में थूक की नीहारकाएँ तो कहीं नहीं परिलक्षित होतीं लेकिन दो प्रेमियों के मिलन का चित्र अवश्य दिखाई देता है, जहाँ प्रेमी और प्रेमिका एक दूसरे को पाकर चुम्बनों की फुहार लगा देते हैं। कामावेश की स्थिति में यह स्वाभाविक है। अब उपाध्याय जी अगर इसे ‘कामवग्ध गवासीन पुंगव छोड़ता है’ मानें तो कोई इसमें क्या कह सकता है! यह बात समझ से परे है कि ‘फुहार’ शब्द कब से थूक का दृष्टांत बन गया, ‘फुहार’ केवल थूक की नीहारिकाओं की होती है? उपाध्याय जी का यह कहना की ‘चुम्बनों की फुहार’ लगाना सभ्य मानव का काम नहीं, बड़ी ही अटपटी लगती है। अगर ऐसा ही तो है प्रेम की अभिव्यक्ति करने वाला हर शख्स असभ्य है। फिर तो बिहारी का काव्य भी निरर्थक है, जिनके दोहों में प्रेम की अभिव्यक्ति न जाने किन-किन रूपों में हुई है और विद्यापति के दोहे भी असभ्य हैं क्योंकि न जाने कितनी बार उन पंक्तियों में प्रेमी-प्रेमिकाओं ने ‘चुम्बनों की फुहार’ बरसाई है। ऐसा लगता है कि उपाध्याय जी प्रेम के श्रृंगार पक्ष से सर्वथा अनजान थे तभी तो उन्होंने कवि की कल्पना को, उसके दृष्टान्त को, उसकी संवेदना को थूक की नीहारिकाओं में परिवर्तित कर दिया।
भगवतशरण उपाध्याय की समीक्षा ऐसे उदाहरणों से भरी हुई है, जिसमें वह पग-पग पर ‘उर्वशी’ का मखौल उड़ाते नज़र आ रहे हैं। ‘दिनकर’ की उर्वशी की भाषा संयत हो या/न हो पर इसमें कोई दो राय नहीं कि उपाध्याय जी ने अपनी समीक्षा में जिस भाषा का प्रयोग किया है, उसे देखकर यह प्रतीत होता है कि वह ‘उर्वशी’ की आलोचना पर एक महाकाव्य लिख देते, जो कि शायद आलोचना के क्षेत्र में एक क्रांति होती। दुर्भाग्यवश आलोचना इस क्रांति से वंचित रह गयी लेकिन उपाध्याय जी की इस समीक्षा में हिंदी साहित्य में विचारों की एक श्रृंखला की शुरुआत कर दी थी। इस समीक्षा पर ‘कल्पना’ पत्रिका में कई प्रतिक्रियाएँ आयीं हालाँकि पत्रिका ने शुरुआत में कुछ चुनिन्दा पत्रों को ही प्रकाशन योग्य समझा, जिनमें देवदत्त, गोपाल राय, शैलेन्द्र श्रीवास्तव, विष्णु किशोर बेचन एवं दुष्यंत कुमार4 के पत्र प्रमुख थे। अधिकतर पत्रों में भगवतशरण उपाध्याय की समीक्षा की कड़ी आलोचना की गयी। साथ ही लेखकों ने ऐसी समीक्षा को प्रकाशित करने के लिए ‘कल्पना’ के संपादकों के दृष्टिकोण पर भी सवाल उठाये– “अप्रैल 63 के अंक में डॉ. भगवतशरण उपाध्याय का ‘दिनकर की उर्वशी’ शीर्षक बेहूदगी से भरा निबन्ध पढ़ कर यह निश्चय हो गया कि ‘कल्पना’ के संपादक अपना उत्तरदायित्व नहीं समझते या कि उन्हें गालियों से विशेष प्रेम है। इस निबंध के प्रकाशन से ‘कल्पना’ अपने स्तर से नीचे गिरी है….इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।”5 हालाँकि कुछेक प्रतिक्रियाएँ ऐसी भी थीं, जिन्होंने उपाध्याय जी द्वारा की गयी समीक्षा का समर्थन किया तथा इसे प्रकाशित करने के लिए ‘कल्पना’ के साहस की तारीफ़ भी की। लेकिन बावजूद इसके ‘कल्पना’ के स्तर को लेकर कई बड़े-बड़े लेखक एवं संपादक प्रश्नचिह्न खड़े करने लगे थे। इन प्रश्नों के जवाब में ‘कल्पना’ के संपादक-मंडल ने ‘उर्वशी’ और उसकी समीक्षा पर व्यापक, चर्चा संपन्न कराने का निर्णय लेते हुए कहा कि– “भगवतशरण जी की समीक्षा प्रकाशित करने का निर्णय जल्दी में हुआ था। …किसी वजह से संपादक-मंडल के सभी सदस्यों ने प्रकाशन के पूर्व वह समीक्षा देखी नहीं थी। कारण जो भी रहे हों, समीक्षा जब प्रकाशित हो गई और उस पर सर्वथा प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ आनी शुरू हुईं तो संपादक-मंडल को अपने निर्णय पर पुनर्विचार की ज़रूरत महसूस हुई। इसी के साथ उसे यह भी लगा कि वह समीक्षा न तो दिनकर जैसे कवि की प्रतिष्ठा के अनुरूप है और न ‘उर्वशी’ के प्रति उसमें संतुलित दृष्टि है।…..सभी दबावों के बीच या स्वविवेक से संपादक-मंडल ने ‘उर्वशी’ और उसकी समीक्षा पर व्यापक चर्चा संपन्न कराने का निर्णय लिया है।”6
इसे ‘कल्पना’ के संपादकों की लापरवाही कहा जाए या अपने ऊपर लग रहे आरोपों को हटाने का प्रयास कि एक बयान जारी करके यह कहा जाता है कि प्रकाशित करने से पहले समीक्षा सभी सम्पादकों द्वारा देखी नहीं गयी बजाए इसके कि सम्पादक स्वयं इसकी ज़िम्मेदारी लेते हुए यह कहते कि एक पत्रिका का यह दायित्व है कि वह बिना किसी पक्षपात के हर व्यक्ति के दृष्टिकोण को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करे ताकि पाठक खुद यह फैसला ले सकें कि क्या सही है और क्या गलत और भगवतशरण जी कि समीक्षा प्रकाशित करने के पीछे भी पत्रिका का यह दृष्टिकोण था | लेकिन यहाँ कल्पना के संपादकों ने जो तथ्य प्रस्तुत किये वह पत्रिका पर और अधिक सवालिया निशान खड़े करते हैं |
‘कल्पना’ ने उर्वशी और उसकी समीक्षा पर एक परिचर्चा का आयोजन किया जिसके तहत हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों को पत्र भेजकर यह गुज़ारिश की गयी कि वह इस संदर्भ में अपनी राय प्रस्तुत करें | जनवरी 1964 के अंक में कुल 22 लेखकों की प्रतिक्रियाएं प्रकाशित हुईं इनमें –मुक्तिबोध, नेमिचंद्र जैन, रामविलास शर्मा, रघुवीर सहाय, सुमित्रानंदन पन्त, शिवप्रसाद सिंह, भारत भूषण अग्रवाल, धर्मवीर भारती, नगेन्द्र और कुंवर नारायण की समीक्षाएं प्रमुख हैं | इनमें से किसी ने उपाध्याय जी द्वारा दिए गए तर्कों का समर्थन किया तो किसी ने उनके द्वारा प्रस्तुत उदाहरणों पर सवाल खड़े किये लेकिन दो साहित्यकारों— रामविलास शर्मा और भारत भूषण अग्रवाल को छोड़कर किसी ने भी ‘उर्वशी’ को आधुनिक चेतना का काव्य मानने से साफ़ इनकार कर दिया | अधिकतर साहित्यकारों का यही कहना था कि ‘उर्वशी’ समसामयिक जीवन सम्बन्धी किसी मुद्दे को प्रतिपादित नहीं करती और न ही इसमें में नारी सम्बन्धी जो विचार प्रस्तुत किये गए हैं उनमें कोई मौलिकता प्रदर्शित होती है | हालांकि रामविलास शर्मा और भारत भूषण के विचार इन लेखकों से मेल नहीं खाते | रामविलास शर्मा के अनुसार- “उर्वशी में जीवन सम्बन्धी ऐसे अनेक प्रश्न प्रस्तुत किये गये हैं जिन्हें वर्तमान युग का कवि ही प्रस्तुत कर सकता था |”7. दरअसल ‘उर्वशी’ एक पौराणिक कथा को नए कलेवर के साथ प्रस्तुत करती है जिसका उद्देश्य पुरुरवा और उर्वशी के माध्यम जीवन के वास्तविक सत्य की खोज करना है |
उर्वशी’ के इसी सत्य पर प्रकाश डालते हुए भारत भूषण अग्रवाल लिखते हैं कि –“प्रेम-हीन तन का दान जैसी वेश्यावृति है, तनहीन प्रेम भी वैसी ही;दिनकर ने स्थान-स्थान पर इन दोनों अतियों के दोषों का साहसपूर्वक वर्णन किया है |”8. जिन लोगों ने ये आरोप लगाये कि ‘उर्वशी’ में नारी विमर्श की उपेक्षा हुई है उन लोगों से शायद उर्वशी का आंकलन करने में कहीं चूक अवश्य हुई है| अगर गौर से देखा जाए तो दिनकर ने ‘उर्वशी’ में स्त्री-पुरुष संबंधों की नयी व्याख्या प्रस्तुत की है | प्रस्तुत रचना में उर्वशी एक स्वतंत्र नारी आदर्श रूप है जो देवों के स्वर्गलोक से पृथ्वी पर अपनी प्रेम कामना की पूर्ति के लिए आती है तथा कामसाधना को लेकर पुरुरवा को सही मार्ग दिखाती है | वह अप्सरा से प्रेमिका और प्रेमिका से मातृत्व का सफ़र बिना किसी बंधन के पूरा करती है | आधुनिक युग में नारीवाद जिस स्वंत्रता की बात करता है ‘उर्वशी’ उसी स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करती नज़र आती है तो फिर कैसे यह आरोप लगाया कि दिनकर की यह रचना स्त्री की नवीन तस्वीर प्रस्तुत नहीं करती ? ‘उर्वशी’ न केवल नारी विमर्श के पहलुओं को उजागर करती है बल्कि सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर भी चोट करती है | अगर ‘उर्वशी’ आधुनिक चेतना का काव्य नहीं होता तो दिनकर चित्रलेखा के माध्यम से स्वर्गलोक की स्थिति को इस रूप में कैसे प्रतिपादित करते –
“सरल मानवी क्या जानो तुम कुटिल रूप देवों का ?
भस्म समूहों के भीतर चिनगियाँ अभी जीती हैं |
सिद्ध हुए, पर सतत-चारिणी तरी मीनकेतन की
अब भी मंद-मंद चलती है श्रमित रक्तधरा में |
कहते हैं, अप्सरा बचे यौवन हर प्रसव-व्यथा से;
और अप्सराएं इस सुख से बची भी रहती हैं |
क्योंकि कहीं बस गयीं भूमि पर वे माताएं बन कर,
रस-लोलुप दृष्टियाँ सिद्ध, तेजोनिधान देवों की,
लोटेंगी किनके कपोल, ग्रीवा,उर के तल्पों पर?
हम कुछ नहीं, रंजिकाएं हैं मात्र अभुक्त मदन की |” 9.
स्पष्ट है कि ऐसे जीवन में बंधकर उर्वशी एक सम्पूर्ण नारी नहीं बन सकती क्योंकि बंधन ही पूर्णता का विरोधी है | इसलिए वह इस स्वर्गिक जीवन के जाल से निकलकर वास्तविक सत्य को स्पर्श करना चाहती है और इसी के लिए वह भूमि पर आती है, अपने प्रिय का योग पाने | वह चित्रलेखा से कहती है –
“भला चाहती हो मेरा तो वसुधा पर जाने दो
मेरे हित जो भी संचित हो भाग्य मुझे पाने दो
स्वर्ग स्वपन का जाल, सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मैं |
नहीं कल्पना का सुख, जीवित हर्ष खोजती हूँ मैं |”10.
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि दिनकर की ‘उर्वशी’ कामसाधना का प्रतीक मात्र नहीं है | भले ही कथा के केंद्र में उर्वशी और पुरुरवा हों लेकिन इन पौराणिक पात्रों के माध्यम से दिनकर ने जीवन के सत्य को नए रूप में व्याख्यायित करने का प्रयास किया है | भारतभूषण अग्रवाल ने अपने आलेख “ ‘उर्वशी’ का आधुनिक परिप्रेक्ष्य”11. में अनगिनत उदाहरणों के माध्यम से यह प्रमाणित किया है कि दिनकर की ‘उर्वशी’ पर भगवतशरण उपाध्याय ने जो आरोप लगाये हैं वह निराधार हैं |
उपाध्याय जी का सबसे बड़ा आरोप दिनकर पर यह है कि उनकी इस कृति में कोई मौलिकता नहीं है जबकि भारतभूषण अग्रवाल ‘उर्वशी’ में चित्रित कामसिद्धांत की मौलिक व्याख्या के संदर्भ में कहते हैं –“प्राचीन परम्परा के अनुसार नर-नारी के काम-संबंधों का चरम लक्ष्य है : वंश रक्षा के लिए संतानोपत्ति | नारी के पतिव्रता धर्म के पीछे भी यही वंश-रक्षा का प्रयोजन है |………. ‘उर्वशी’ के तीसरे अंक में काम-सिद्धांत की जो व्याख्या है,वह इस परम्परा का ज़बरदस्त खंडन है | उर्वशी के प्रति प्रबल रूप से आकृष्ट होने पर भी पुरुरवा उस पाने के क्षण में हिचकिचाता है | …… वह ‘तन का अतिक्रमण’ कर ‘देवत्व चाहिए’ का नारा लगाता है | और तब उर्वशी अनायास कह उठती है :
यह मैं क्या सुन रही हूँ ? देवताओं के जग से चल कर
फिर मैं क्या फंस गयी किसी सुर के ही बाहुवलय में ?
स्वर्ग-लोक के जिस निराधार मानस-सुख से अतृप्त होकर और ऊब कर उर्वशी धरती पर उतरी है, यह पुरुरवा तो उसी के गीत गा रहा है ? और तब उर्वशी उसे अपने सत्य-स्वरुप का परिचय देती है, अपने उस सूक्ष्म-विराट रूप का जो उसे विश्व नारी का प्रतीक बनाता है |”12. अग्रवाल जी के इस कथन से स्पष्ट है कि ‘उर्वशी’ न केवल जीवन के वास्तविक सत्य से रूबरू कराती है बल्कि उसे सही रूप में अपनाने के लिए एक समझ भी विकसित करती है |
कल्पना के उर्वशी विवाद का विश्लेषण करने के पश्चात यह कहा जा सकता है कि भले ही विभिन्न लेखकों और आलोचकों की राय ‘उर्वशी’ के संदर्भ में अलग-अलग रही हो लेकिन पत्रिका ने जिस तरीके से इस मुद्दे पर साहित्यकारों और पाठकों को विचार-विमर्श का मंच प्रदान किया वह काबिले गौर है |
संदर्भ –
1. सिंह, गोपेश्वर, “कल्पना का उर्वशी विवाद’, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2010, पृष्ठ संख्या-25.
2. वही, पृष्ठ संख्या-24.
3. वही, पृष्ठ संख्या -28.
4. वही, पृष्ठ संख्या-43.
5. वही, पृष्ठ संख्या -46.
6. वही,पृष्ठ संख्या -57.
7. वही,पृष्ठ संख्या- 117.
8. वही, पृष्ठ संख्या -91
9. वही.
10. वही.
11. वही, पृष्ठ संख्या – 83.
12. वही, पृष्ठ संख्या – 92-93
– निकिता जैन