व्यंग्य
ऑटो शट फैसिलिटी
– विनय कुमार पाठक
ऑटोमैटिक शब्द सुनते ही कुछ विशेष यंत्र ध्यान में आ जाते हैं। साथ ही एक बात और ध्यान में आती है कि यह आधुनिक काल में ही संभव है। कलयुग तो युग ही है कल का और कल-पूर्जे का आविष्कार और प्रयोग विगत दो-ढाई सौ वर्षों में अधिक हुआ। और ऑटोमैटिक वस्तुओं का आविष्कार तो और बाद में ही हुआ है। एक चीज़ का कब आविष्कार हुआ; पता नहीं पर यह है ऑटोमैटिक और इतना ऑटोमैटिक है कि पता ही नहीं चलता कि कब बंद हुआ। खुलने का पता तो टी.वी. समाचार-पत्र आदि से चलता रहता है। समझ तो आप ज़रूर गये होंगे कि किस चीज़ की बात हो रही है। नहीं भी समझे होंगे तो यह कहना कि नहीं समझे, उचित नहीं है। चलिए यह मानते हुए कि आप सभी समझ चुके हैं पर बात आगे बढ़ाने के लिए मैं बताता हूँ कि यह है- ‘सरकार के दावों की पोल’। हमेशा सुनने में आता है कि सरकार के दावों की पोल खुल गयी। यह पोल इतने चुपके-से बंद होती है कि पता भी नहीं चलता कि कब बंद हुई। जैसे हरि अनंत हरि कथा अनंता वैसे ही पोल अनंत पोल कथा अनंता।
सबसे पहले पोल शब्द मुझे अचंभे में डाल देता था। यह पोल आख़िर क्या बला है, कैसे खुलता है और कैसे बंद होता है। हिंदुस्तान में हिंदी शब्द विदेशी संवर्ग के हो गये हैं। कोई भी शब्द सुनने पर पहले ध्यान में अंग्रेज़ी ही आता है। मैंने अभी तक बिजली के पोल के बारे में सुना था पर उसके खुलने की संभावना या औचित्य नज़र नहीं आया। फिर ध्यान ध्रुव पर आया नॉर्थ पोल और साउथ पोल। पर यहाँ भी इसके खुलने की कोई बात हमारे समझ में नहीं आयी। तब हमने सोचा कि हिंदी शब्दकोश का सहारा लिया जाए। हिंदी शब्दकोश को खोजना आजकल उतना ही मुश्किल है जितना बिना आपराधिक छवि के विधायक-सांसद खोजना। अंग्रेज़ी शब्दकोश तो फिर भी दो-चार मिल गये पर हिंदी शब्दकोश बहुत ढूँढे ही मिल पाया। शब्दकोश में देखा तो पाया कि पोल हिंदी का भी शब्द है और इसके कई अर्थ हैं और उनमें एक अर्थ है- ‘खोखलापन’। तब जाकर समझ में आया कि पोल क्या है।
पहली बारिश में सरकार-प्रशासन के दावों की खुली पोल। फलाने शहर में कई इलाकों में बाढ़ का पानी भर गया। अमुक सरकार के दावों की खुली पोल। अस्पताल में बेड को लेकर सरकार के दावे की पोल खुल गयी| प्रवासी मजदूरों को खाना खिलाने के दावे झूठे साबित हुए और सरकार की पोल खुल गयी।
ये दावे मौसमी भी होते हैं। जैसे बरसात में सरकार का दावा होता है कि उसने पूरी तैयारी कर रखी है। नालों की सफाई कर दी गयी है। जलभराव न हो इसके लिए व्यापक व्यवस्था की गयी है। आमजन को कोई परेशानी न हो इसका भरपूर ख़याल रखा गया है। लाखों-करोड़ों ख़र्च भी कर दिए जाते हैं। मतलब सरकारी ख़जाने से तो निकल ही जाते हैं, निकलकर कहाँ जाते हैं यह तो ज़रा शोध का विषय है। पर पोल बड़ी बेवफा होती है। जैसे ही बरसात की पहली फुहार आती है, यह खुल जाती है। सड़कें स्नान करने के लिए मचल जाती हैं और पानी को अपने से दूर नहीं जाने देतीं। मजबूर होकर विपक्ष को सड़क पर धान की रोपनी करनी पड़ती है।
इसी प्रकार सर्दी के मौसम में सरकार का सदाबहार दावा होता है कि रैन बसेरों में लोगों के रहने की पर्याप्त व्यवस्था है। ग़रीबों को कंबल वितरण की पूरी व्यवस्था है। जगह-जगह अलाव जलाने की व्यवस्था है ताकि ग़रीब, बेघर को सर्दी वैसे ही न सताए जैसे सत्ताधारी करदाताओं को कर या किसी जाँच एजेंसी के छापे की चिंता नहीं सताती है। पर इस मौसम में भी पोल सिकुड़ी सिमटी नहीं रहती और खुल जाती है।
गर्मी में तो पोल और भी चौड़ी होकर घुमती रहती है। आम जन के पीने के लिए पानी की व्यवस्था करने का दावा सरकार करती है। आम जन ही क्यों पक्षियों-जानवरों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था का दावा किया जाता है। पर दावे की पोल लू से, गर्मी से, उमस से नहीं डरती और खुल जाती है।
ये पोल बंद कब होती है पता ही नहीं चलता। ऑटो शट फैसिलिटी होती है इन दावों के पोल की। जैसे ही मौसम बदला, उस मौसम के दावों की पोल ऑटो शट हो जाती है। फिर जब वह मौसम आता है तो वह पोल खुल जाती है। वैसे सरकार नए-नए पोलयुक्त दावे करती रहती है और इन दावों की पोल भी बीच-बीच में खुलती रहती है। राहत की बात यह है कि इन दावों की पोलों के खुलने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। टीवी के एंकर को गला साफ करने का मौका मिल जाता है। समाचार पत्र के संवाददाताओं की लेखनी को थोड़ी गति मिल जाती है और जनता का क्या है! समय बिताने के लिए करना है कुछ काम तो बस पोल-पुराण देखती रहती है टीवी पर ब्रेक के बीच में, सुनती रहती है रेडियो पर जॉकी द्वारा भ्रष्ट किए गए भाषा में और पढ़ती रहती है विज्ञापनों के बाद बचे हुए अख़बार के पन्नों पर।
– विनय कुमार पाठक