कथा-कुसुम
एक चिन्दी सुख
जब सेठ गोपाल दास ने उसे मिल की कुंजियों का गुच्छा एवं रोकड़़ की सारी जिम्मेदारी सौंप दी तो एक चिराग उसके अन्दर जला और उसके आभा मण्डल में उसकी इच्छाएं वैसे ही मडराने लगीं जैसे दीप पर कीट-पतंगें।
सेठ गोपाल दास के यहाँ उसके बापू ही लिवा गये थे और कहा था यही समझो अपने सामाजिक मान-मर्यादा का मूल्य ही आज मैं वसूल रहा हूँ। क्या इसी के लिए लोगों ने प्रयास नहीं किया होगा। क्या सेठ का उन पर विश्वास नहीं था। हो सकता है तुम्हारी तकदीर ही यहाँ लड़ गयी हो। उसे लगा सेठ के साथ उसके बापू ने भी घर की सारी कुंजियाँ उसे सौंप दी हैं। मिल की ऊँची दूर तक फैली चहार दीवारियों, बड़ी-बड़ी प्रेत जैसी मशीनों, कोई तीस एक के जत्थे में क्रियाशील नौकरों, पल्लेदारों आदि का साथ सेठ की विश्वास सरिता में बहता हुआ दूर तक उसका मन चला गया था। पहली बार छुट्टी लेकर जब वह घर जायेगा तो बापू को समझा देगा। उन्हें गाँव-गिराँव जाकर जजमानी करने की अब जरुरत नहीं। उसके बदले मिलने वाला पारिश्रमिक भिक्षा ही तो कहलाती है। बदलते हुए समाज को इसकी उतनी आवश्यकता भी नहीं है। वह खुद अनुभव करता है कि बापू की जितनी प्रतिष्ठा पहले होती थी, वह वक्त की धूल से नित्य प्रति धूमिल होती जा रही है। वह चाहता तो यही काम गाँव -गिराँव की बजाय शहर में कर सकता था, सिद्धा की जगह कड़-कड़ाते नोट हासिल कर सकता था। टूटी-फूटी थुकही भाषा की जगह निर्बाध संस्कृत का पुट दे सकता था। खुद उसके बापू ने भी इसके लिए कभी सलाह नहीं दी। आधुनिक समाज को उस कर्मकांड की आवश्यकता क्यों नहीं है, इस बात को वह तर्क से हल नहीं कर सकता। हाँ; उसे चिढ़ इस बात की थी कि मित्र मण्डली बिरादरी के नाम पर उससे एक भौंडा मजाक कर बैठती। ‘वर मुंए या कन्या दक्षिणा से काम’।
आज वह स्वयं को इस स्थान पर पाता है कि जहाँ से न तो पीछे ही वापस आया जा सकता है और न ही आगे बढ़ा जा सकता है। उसे इतना ही सन्तोष है कि इस महँगाई एवं बेरोजगारी के दौर में एक जगह मिल गयी है।
वह परिवार के प्रति स्वयं के द्वारा किये गये सहयोग पर जब विचार करता है तो उसे यह ज्ञात होता है कि भावी पीढ़ी को देने के लिए उसके पास एक उपदेश भर है। वह अपने बच्चों को तालीम देते वक्त यही कहेगा, यदि कोई सेठ तुम्हें विश्वास में लेकर अपनी व्यवस्थाओं की सारी कुंजियाँ तुम्हें सौंपने लगे तथा अपनी फर्म के सर्वोच्च पद की कलम पकड़ाने लगे तो कुंजियों के गुच्छे को एक ठोकर लगा देना, कलम तोड़ कर उसकी स्याही उसके मुँह पर छिड़क देना और सड़क पर पड़ रही मिट्टियों से लदी खाँचियों को सर पर उठा लेना। और हाँ, एक बात याद कर लो नीचे से ऊपर चढ़ना जितना आसान होता है, उतना ऊपर से नीचे उतरना नहीं होता।
यदि मैं आपको उसकी यानी फूलचंद पाठक की कहानी सुनाऊँगा तो आप उबे मन हूँकारी भरते चले जायेंगे। जैसे एक राजा और एक थी रानी ”हूॅ”। और सुनते-सुनते आप या तो सो जायेंगे अथवा समाप्ति के बाद एक ऐसी ही दूसरी कहानी शुरु करने की जिद करने लगेगें। खैर, अब कहानियाँ सुनने और सुनाने का चलन बंद हो गया है। लोगों के पास अब समय ही कहाँ? शायद आप के पास भी नहीं?
मरुतुल्य उस प्लाट के बीच एक टीनशेड लगा है। धरती और आकाश के बीच में उस टिटिहरी की भाँति जो अपने पैरों पर आकाश को रोकने का दावा करती हुई उल्टी स्थिति में लटकी रहती है। यह टीन शेड भी सूर्य की तपती किरनों को रोक लेने का एक प्रपंच भर है। वह फूलचंद इसी टिनशेड के नीचे बैठकर जलती लू में झुलसता रहता है, शीतल समीर की चुभन सहता रहता है। सूरज उसके सामने ही पैदा होता है, जवान होता है और फिर बूढ़ा होकर आकाश में कहीं छिप जाता है। वह कान पर एक लम्बी कलम खोसे, बायें हाथ में एक पैड लिये, दायें हाथ में एक नालीदार परखी लिये हुये दौड़ रहा है, जिसके दोनों पाकेट बकरी की थन की तरह लटके हुए हैं, रुपये से भरे हैं। परखी से वह धान के रंग रुप की परख करता है। कागज पर वह उसका वजन नोट करता है। बाजार भाव तय कर हिसाब लगाता है। और यहाँ-वहाँ बोरों की छल्ली पर बैठ कर रुपया भुगतान करता है। मिल की चहारदीवारी ही उसकी आखिरी सीमा है। पल्लेदार ही उसके पड़ोसी हैं। व्यापारी ही उसके मेहमान हैं। जेब का रुपया ही उसका दुश्मन है और बाजार भाव ही उसका ज्ञानकोष है।
अभी-अभी सफेद कार से बगुले की पाँख की तरह सफेद वस्त्र धारण किये हुये जो व्यक्ति उतरा है। नाक भौं सिकोड़े उसी की तरफ बढ़ा चला जा रहा है। इस मिल का मालिक सेठ गोपालदास है। ये चुपके-से एक मुट्ठी धान ढाले से उठाते हैं और फेंक देते हैं।
“बैठे बैठे बबुआन बने हो और व्यापारी धूल पेले चले जा रहे हैं। पैसा देना है माटी के लिये नहीं। घर का होता तो समझ में आता।”
और वे जेब से नोटों की कुछ गड्डियाँ उसी ओर उछाल देते हैं। जैसे किसी नर्तिका के ऊपर रुपये बरसाये गये हों। क्या इसे आप एक अश्लील हरकत नहीं मानते ?
उन्होंने सिद्धान्त के नाम पर एक सूत्र रट रखा है। घोड़े को गति के लिये जितना दौड़ाना आवश्यक है, पान को फेरना जितना आवश्यक है नौकरों को क्रियाशील रखने खातिर यदा-कदा झिड़क देना भी उतना महत्वपूर्ण होता है। वे चले गये अब शाम को आयेंगे दिन भर का हिसाब लेने।
खुदरा व्यापारियों की श्रृंखला चींटियों की भाँति निरन्तर जारी है। खाना बन चुका होगा। पल्लेदारों ने खा भी लिया होगा। उसके हिस्से का भोजन कहीं निकालकर रख दिया गया होगा। रह-रह कर वह सूर्य की ओर देखता है, कभी कलाई पर बंधी घड़ी देखता है। व्यापारी पहले से अधिक सक्रिय हो जाते हैं। उन्हें सूचित करने का यही एक बहाना है। तभी एक पल्लेदार ने पुकारा-
“मुनीम जी, खाना नहीं खाओगे क्या! टांड़़ पर रख दिया है, खा लेना। सामने कल्लू बैठा है।”
उसने सूरज को देखा अधेड़ हो चुका था। तत्पश्चात उसकी निगाहें प्लाट से जुड़ने वाली सड़क पर टहलने लगीं। कितने व्यापारी होंगे! कितना समय लग सकता है इन्हें निपटाने में! यह क्रम तो अनवरत चलता ही रहेगा। तो क्या वह खाना भी नहीं खायेगा? भीतर किसी ने पूछा!
वह एक झटके से उठता है। तब तक एक व्यापारी अपनी भूख का भी अहसास कराने के लिए मटमैला कुर्ता उठाकर सिकुडा पेट दिखा देता है। जैसे-तैसे निपटाते हुए वह पल्लेदार रुम में दाखिल हुआ।
एक छोटा-सा मकान, जिसकी ईंटें कोढ़ की तरह नोने से गल रही हैं। नींव को दरेरते हुए मिल का उबला हुआ पानी बह रहा है। उबले पानी की सड़ांध निरन्तर उठ रही है। मक्खियों का दल उस पर भिन भिना रहा है। वहीं कल्लू बैठा था। उसे भी कुछ मिलने की सम्भावना थी। दरवाजे पर कसाई के टट्टी की तरह बोरे का एक झिलंगा परदा लटक रहा है। उसकी खोजी निगाहें छत पर टहलने लगीं। वर्षों पुराने गत्ते की जर्जर छतरी, कहीं-कहीं जंग की लालिमा और कहीं चूल्हे के धुँए की कालिमा जमी है। उस कालिमा के तह में कहीं प्रथम दिन का धुँआ भी सुरक्षित होगा। गर्मी से लाल काले धब्बे मिलकर चू रहे थे। थाली में रखे चावल पर भी दो-तीन बूंद यह टपक चुका था। जाहिर है सब्जी में भी गिरा होगा, जो उसके रंग में विलय हो जाने से अलग प्रतीत नहीं हो रहा था।
“क्यों भाई, मुनीम जी कहाँ गये?”
“अभी-अभी खाना खाने गये हैं।”
किसी ने बता दिया बाहर से।
“हो सकता है अभी बैठे न हों, थोड़ा जल्दी थी।”
कहता हुआ तेज कदमों से एक व्यापारी उसी रुम में घुस गया।
“बैठ गयें हैं; ठीक है खा लीजिए!”
“आप वहीं चलिये, मैं तुरंत आया।” फूलचंद ने कहा।
“कोइ्र्र बात नहीं, यहीं दो मिनट बैठ जाता हूँ।”
‘कितने बेहूदे हैं ये लोग। यही व्यवहार क्या इन्हें अपने लिए पसन्द आता? कत्तई नहीं, क्या इसी तरह सरकारी गैर-सरकारी जगहों पर भी ये लोग रसोई घर में घुसते होंगे? कभी नहीं? सुबह की लगी फाईल शाम को ही खुलती होगी, दूसरे दिन भी टरकाया जाता होगा। लोग चीं तक नहीं बोलते। यह उसकी उदारता है अथवा इस मिल की विशेषता? सरकारी अथवा नीजी फर्मो का मूलभूत अंतर क्या यही है? दोनो जगह आदमी ही तो खटता है। आदमी तो आदमी ही होता है। आदमी की सुविधाओं को सरकारी एवं निजी तौर पर विभाजित नहीं किया जाना चाहिए।’
वह बहुत कुछ सोचता है किंतु कुछ खोज नहीं पाता, समय भी नहीं मिलता। संकोची आदमी पूरा भोजन खा भी नहीं पाया और शेष भोजन कल्लू को परोस कर उठ जाता है। शाम को जब नीम अंधेरा उसके इर्द-गिर्द मिल की छतों पर छा जाता है तो वह दिन भर का हिसाब जोड़ता है। फर्क होने पर इधर-उधर ध्यान लगाता है और दुबारा-तिबारा जोड़-घटाव चेक करता है। कभी उसी छत को घूर कर ध्यानरत हो जाता है। आलमारी में रखे रजिस्टरों में कुछ डालता है। यही करते-धरते उसे रात के नौ-दस बज जाते हैं। सोते वक्त अपने को कुछ राहत महसूस करता है। सोने के पहले एक बार सविता पाठक की याद आती है। मन की इच्छा कल्पना के सहारे पूरी होती है। वह आती है और उसी के बगल में दुबक जाती है। एक अंतरंग होता है। मदिरा की मस्ती में थकावट को भूल जाने जैसा एक अहसास। किंतु वह आज उनको बुलायेगा नहीं। वह कहती नहीं होगी? तुम्हें सिर्फ मेरी ही चिंता रहती है। घर पर आकर भी कुछ देख-ताक जाया करो। घर में माँ हैं, बूढ़े पिता हैं, छोटे-छोटे बच्चे हैं। एक पूरी गृहस्थी है। तुम्हें पता है, माता जी का खाँसते-खाँसते क्या हाल हो गया है! उनकी दवा के लिए पैसे कहाँ से आते होंगे? बूढे पिता की पिण्डलियों का दर्द उन्हें चलने नहीं देता। स्मृतियों के कूड़ेदान में कुछ टटोला। घर गये हुए उसे चार महीने हो गये थे। पिता जी ने उतरा हुआ चेहरा देखकर पूछा था कोई तकलीफ है? खाना बनाने में दिक्कत होती होगी मैं जानता हूँ। चाहो तो सविता को भी अपने साथ ले जा सकते हो। उन्हें क्या मालूम वहाँ जो रोटियाँ मिलती हैं, उसमें माँ की ममता नहीं होती। भोजन की थाली वहाँ सविता पाठक नहीं परोसतीं। पुकारने वाले की बोली में उन जैसी मिठास नहीं होती। उसके सामने टंगे कलेण्डर पर कोई लाल-सा गोला नहीं बना था। बाहर निकल कर देखा, आकाश में बादल नहीं थे यानी बारिश की कोई उम्मींद नहीं। बाजार की मंदी उसके हाथ में नहीं। छुट्टी माँगने के तीनों तरीके उसके प्रतिकूल थे। कुछ भी हो वह आज घर जायेगा।
आँगन के बीचो-बीच वह चुपचाप खड़ा है। रसोईं में सविता पाठक रोटियाँ सेंक रही थीं। एक तो आग, दूजे गर्मी के दिन। माथे पर पसीना पसीज रहा था। सर का घूॅघट कब का सरक चुका था। लटें पसीने से चिपकी पड़ी थीं। कपोलों की चिकनाहट मन में गुदगुदी पैदा कर रही थी। सोचा पीछे से जाकर बाँहों में भींच ले, कपोलों पर चुम्बन के रुप में अपने आगमन की सूचना स्वरुप अनेक हस्ताक्षर बना दे। बगल में झाॅका बच्चे आपस में पेंसिल के लिए झगड़ रहे थे। माँ के खाँसने की आवाज भी किसी कमरे से आ रही थी। उस रात सविता पाठक ने भी पिता जी की बातों का समर्थन करते हुए साथ में रहने की सहमति जता दी थी। पुनः सोचा पत्नी व बच्चों को साथ रखने हेतु एक अलग कमरा लेना पड़ेगा। सबको यहाँ रखने का मतलब पूरी गृहस्थी जुटानी पड़ेगी। बच्चों की फीस, मकान का किराया, शाक-सब्जी दूध इत्यादि का खर्च। उसके बाद कुछ पैसे महीने में पिता जी की सूखी हथेलियों पर भी रखना आवश्यक होगा। थोड़ी देर में उसके सामने काँटा (भारतोलक) खड़ा था, जिसके एक पलड़े पर सारे खर्च जमीन पकड़े हुए थे तथा दूसरे पलड़े पर उसकी आमदनी के हजार रुपये थे। जो ऊपर उठे हुुए उपहास का पात्र बन रहे थे।
‘वह इन्हीं हाथों से प्रतिदिन पल्लेदारों का चार-चार सौ पाँच-पाँच सौ का हिसाब देता है किंतु वह कलम का पुजारी इस चावल मिल का एक मात्र बुद्धजीवी, शायद वह भी नहीं हो सकता? वह बुद्धि तो हो सकता है परन्तु जीवी कदापि नहीं। वह पल्लेदारों का काम क्यों नहीं अपना लेता। लोग क्या कहेंगे मनीजर से मजदूर! सोचते-सोचते उसे कब नींद आ गयी, उसे पता ही नहीं चला।’
मिल का बाहरी दरवाजा बंद था। मिल अपनी चाल चल रही थी। गाँव-घर सो रहा था। कोई स्वप्न सुंदरी से खेल रहा था। कोई भीषण दैत्य का आक्रमण झेलने को विवश था। सड़क भी दिन भर आवागमन करने वाले वाहनों के भार से कराह मुक्त थी। पदचाप बंद थे। रात्रि में आज चाँद आया अथवा नहीं किसने देखा? इसी बीच मिल के दरवाजे पर एक आधुनिक दैत्य अपने ऊपर सौ सवा सौ बोरे धान का बोझ लिए आकर रुका। परिचालक ने धीरे-से आवाज दी। क्योंकि, जोर से बोलने पर कोई सुन सकता था। कहीं किसी सरकारी अमले ने देख लिया तो समझो गयी भैंस पानी में।
जब फाटक खोलने कोई नहीं आया तो परिचालक ने चहारदीवारी फांदकर फूलचंद मुनीम के ऊपर टार्च मारा। बोरों की बिछावन पर मुनीम सोया था। उसके बगल में शुभ-लाभ लिखी एक पेटिका पड़ी थी। वहीं धान के कुछ नमूने बिखरे पड़े थे। परिचालक ने झकझोरा पर कोई प्रतिक्रिया नहीं। आखिर नींद भी तो अल्प कालिक मृत्यु ही होती है। तब परिचालक ने पानी के छींटे मुँह पर मारे, फूलचंद किसी तरह उठ बैठा। उसे याद आया- सेठ गोपाल दास शाम को जाते समय कह गये थे; रात में एक ट्रक धान आने वाला है, कांटा करा कर छोड़ देना।
खैर; जैसे-तैसे धान का कांटा हो गया। अब तो सोने का वक्त ही कहाँ था उसके पास। उसके जागने के साथ उसकी व्यवस्था के प्रति खीझ भी जग चुकी थी। वह लोगों के साथ जागता तो है, परंतु लोगों के साथ सो नहीं सकता। रात बीत गयी थी, किंतु शेष अंधेरा अब भी पूँछ की तरह पड़ा हुआ था। लोग मॉर्निंग वाक के लिए तैयार होने लग गये थे। मंदिरों के घंटे एक-एक कर बजने लग गये थे। कोने अंतरे का यही फुटकर समय उसके सुख का साथी है। थोड़ी हरारत दूर हो जाती है और क्या। सुबह होते ही चीटियों-सी व्यापारियों की श्रृंखला शुरु हो जायेगी। एक घायल सर्प की जान क्या चीटियाॅ नहीं ले लेतीं। फूलचंद एक बार फिर वहीं लुढ़क गया। उसने देखा मिल दिन-रात चल रही है। कर्मचारी तीन बार बदल रहे हैं। उसकी सहायता के लिए दो और कर्मचारी मालिक की ओर से नियुक्त हो चुकें हैं। मिल के खाली परिसर में उसके लिए आवास बनवा दिया गया है। उसमें कुछ आलमारियाँ कम्प्यूटर आदि व्यवस्थित कर दिये गये हैं। अब वह वहीं बैठकर मिल का ऑफिसियल काम करने लग गया है। उसके साथ आवास में सविता पाठक भी रहती हैं। साथ ही बच्चे भी।
बहुत पहले उसने सिंचाई विभाग में क्लर्क पद के लिये आवेदन किया था। आज उसका नियुक्ति पत्र आ गया था। अब वह सरकारी नियुक्ति पत्र पाकर उतना खुश नहीं है, जितना आवेदन देते वक्त था। भाग्य भी न जाने अब तक कहाँ सोया था। जब जगा तो हर जगह उसके काम बन रहे हैं। वह अब कैसे जाय? उसके कहने से ही गोपाल दास ने मिल में उसके लिए सभी सुविधाएं मुहैया करायीं हैं। अब वे क्या कहेंगे। तभी एक व्यापारी उसे झकझोरता है।
“मुनीम जी, मुनीम जी! अभी सोये ही हो, नौ बज गये हैं।”
वह झटके से उठता है। देखता है कि उसके बगल में वही कलम, पैड, परखी और कुछ धान के नमूने आदि पड़े हुये थे। फिर? वह सविता पाठक, बच्चे, वह क्लर्क की नौकरी का नियुक्तिपत्र? सब….?
सामने देखा तो एक व्यापारी धान तोलने के लिये जिद कर रहा है।
– मोती प्रसाद साहू