धारावाहिक
एकांकी संग्रह ‘चमत्कार’ की संवेदनात्मक विशेषताएँ
– डॉ. मुकेश कुमार
भूमिका
साहित्य समाज का दर्पण है। यह समाज की यथार्थ झाँकी प्रस्तुत करता है। साहित्य सामाजिक व मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ साहित्यकारों की संवेदनाओं का चित्रांकन है। प्रत्येक साहित्यिक रचना में संवेदना का केन्द्रीय और महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। संवेदना शब्द का तात्पर्य है- ज्ञानेन्द्रियों का अनुभव। मनोविज्ञान में इसका सीमित अर्थ है, जबकि साहित्य में इस शब्द का प्रयोग सीमित अर्थ में न होकर अथवा मात्र ज्ञानेन्द्रियों का अनुभव न रहकर मानव मन के अतल अन्तस् में छिपी करूणा, दया एवं सहानुभूति की उदात्त वृत्तियों तक हो जाता है। ये वृत्तियाँ ही मूलत: मनुष्य की अनुभूति है। इस प्रकार व्यापक और विस्तृत अर्थ में संवेदना अनुभूति का ही व्यंजक है। साहित्यकार में अद्भुत प्रेक्षण शक्ति होती है। उसके मानस दर्पण में मानव जीवन के विविध संदर्भ, विविध परिस्थितियाँ यथावत बिंबित हो जाती हैं। उसकी दृष्टि पारदर्शी होती है, जिसमें समाज के बाहरी चित्र ही नहीं; आंतरिक चित्र भी होते हैं। एकांकी के मूल में प्रामाणिक अनुभूतियाँ हैं, जो कल्पना से रंजित होकर अभिव्यक्त हुई हैं। जो लोक जीवन के प्रति आस्था भी प्रदान करती हैं। उत्तेजक वस्तु संवेदना का मूल आधार है।1
संवेदना: अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप
संवेदना शब्द की व्युत्पत्ति- सम्+विद्+ल्युट से हुई है, जिसका अर्थ है- “अनुभव या प्रतीति होना। बाहर की किसी वस्तु, घटना या व्यापार से मन में होने वाला तीव्र अनुभव, अनुभूति।”1
संवेदना शब्द ‘विद्’ धातु में ‘यु’ प्रत्यय जोड़ने पर ‘यु’ के स्थान पर ‘अन्’ आदेश हो गया है। ‘ई’ का गुण करने पर ‘वेदना’ शब्द निष्पन्न हुआ है। स्त्रीलिंग में ‘टाप’ प्रत्यय जोड़ने से ‘वेदना’ शब्द बना है। वेदना शब्द का सामान्य अर्थ कष्ट, पीड़ा और दर्द होता है। सम् का अर्थ समान से है। समान वेदना या पीड़ा ही संवेदना है।2
अन्य कोशों में भी संवेदना शब्द की व्युत्पत्ति तथा अर्थ सम्बन्धी यही विचार व्यक्त किये गये हैं।3
इस प्रकार ‘संवेदना’ शब्द सम् उपसर्ग विद् धातु तथा ल्युट (अन) प्रत्यय के मूल से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- प्रत्यक्ष ज्ञान, तीव्र अनुभूति, भोगना, ज्ञान, प्रकट करना, सहानुभूति आदि।
संवेदना: परिभाषा और स्वरूप
डाॅ. भोलानाथ तिवारी का कथन है कि “किसी वस्तु या घटना के असर से मन में अपनी भावनाओं एवं अनुभूतियों को संवेदना कहा जा सकता है।”1
दि न्यू डिक्शनरी ऑफ साइक्लोजी में लिखा है कि “चेतन की वह अवस्था, जो किसी एक इन्द्रिय के उत्तेजित होने पर उत्पन्न होती है और जिसका तात्विक विश्लेषण नहीं हो सकता, संवेदना है।”2
डाॅ. हरिचरण वर्मा के मत अनुसार, “कुछ ऐसे अनुभव; जो व्यक्ति में से घुलते हुए जब छनकर सामने आते हैं तो संवेदना के रूप में प्रकट होते हैं। रचनाकार तथ्यों को अपने बोध के अनुसार जब शब्द में बाँध देता है तो वे सत्य बन जाते हैं और सत्य का यह रूप अनुभूतियों से जुड़कर कुछ अधिक तीव्र एवं सूक्ष्म होकर संवेदना बनता है। संवेदना के लिए कवि के परिवेश को हलचल में शामिल व्यक्ति की स्थिति, परिस्थिति और मन:स्थिति आधार का काम करती है।”3
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने माना है कि “संवेदना सुख-दुखात्मक अनुभूति है।”4
डाॅ. देवी प्रसाद के अनुसार, “संवेदना का अभिप्राय अभाव की स्थिति या वेदना की निवृत्ति से न होकर साहित्यकार की चेतनानुभूति की उस मनोदशा से लेना चाहिए, जो उसे सृजन की प्रेरणा, निर्माण की शक्ति, रचना विधान की क्षमता और लोक जीवन के प्रति आस्थावान् बनाती है।”1
डाॅ. नीरज शर्मा के अनुसार, “संवेदना हमारे मन की चेतना की वह कूटस्थ अवस्था है, जिसमें हमें विश्व की वस्तु-विशेष का बोध न होकर उसके गुणों का बोध होता है।”2
मानविकी पारिभाषिक कोश के अनुसार- ‘संवेदना’ संवेही तंत्रिकाओं के माध्यम से वृहद मस्तिष्क के संवेदनात्मक केन्द्रों पर किसी उद्दीपन की तात्कालिक अनुक्रिया है। यह अनुक्रिया मस्तिष्क में किसी भी गत अनुभूति के जागृत होने के पूर्व घटित होती है। इसके द्वारा प्राणी को उत्तेजना का आभास होता है, उसका ज्ञान नहीं होता। वस्तुत: विशुद्ध संवेदना एक मनोवैज्ञानिक कल्पना मात्र है। व्यक्ति जब भी किसी उत्तेजना के सम्पर्क में आता है तो वह उसे किसी न किसी रूप में जान लेता है। यह रूप चाहे जितना भी अस्पष्ट क्यों न हो।”3
उपर्युक्त परिभाषाओं पर दृष्टिपात करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि बाहरी संसार सम्बन्धी वस्तुओं तथा अपने विषय का समस्त ज्ञान हमें ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है। ये इन्द्रियाँ ही हमें दृष्टि, ध्वनि, स्पर्श, स्वाद तथा गन्ध का भिन्न-भिन्न अनुभव कराती हैं। ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त प्रभाव ही ‘संवेदना’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में संवेदना का अर्थ है- ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभूत ज्ञान।
साहित्यकार कवि बाह्य जगत से अनुभव एकत्रित कर उन्हें आत्मीय चिंतन में अनुभूत कर अपनी कल्पना का जामा पहनाकर जो भाव अभिव्यक्त करता है उन्हें संवेदना की संज्ञा दी जाती है। काव्य के सम्बन्ध में संवेदना शब्द साहित्यकार की इस मनोदशा का द्योतक है, जो उसे सृजन की प्रेरणा एवं रचना विधि की सामर्थ्य शक्ति प्रदान करती है। संभवत: संवेदना मानव-मन की अंतश्चेतना की वह प्रक्रियात्मक शक्ति है, जो मानव की भावप्रवणता एवं बौद्धिक चेतना के मध्य सेतु का कार्य करती है। वह सहानुभूति दूसरों की पीड़ा को अनुभव करने तक सीमित रह गई है। जबकि संवेदना में अनेक भावों का समावेश होता है। जैसे- (1) सेंसेशन (2) सेन्सीबिलिटी (3) प्रेसेप्शन (4) नाॅलेज (5) समझदारी आदि।
सन्दर्भ:
भूमिका
1. शिवराम वामन आप्टे, हिन्दी संस्कृति शब्दकोश, पृष्ठ- 1018
संवेदना: अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप
1. संपा. कालिका प्रसाद, राजवल्लभ एवं मुकुन्दी लाल श्रीवास्तव, बृहत् हिन्दी कोश, पृष्ठ- 1130
2. संपा. भोलानाथ तिवारी, महेन्द्र चतुर्वेदी एवं ओ.पी. गाबा, व्यावहारिक हिन्दी कोश, पृष्ठ- 308
3. संपा. द्वारका प्रसाद शर्मा तथा तारिणीश झा, शब्दार्थ कौस्तुल, पृष्ठ- 367
4. डाॅ. शिवपाल सिंह, पंत का काव्य शिल्प, पृष्ठ- 17
संवेदना: परिभाषा और स्वरूप
1. डाॅ. कैलाश वाजपेयी, आधुनिक हिन्दी कविता में शिल्प, पृष्ठ- 7
2. डाॅ. नगेन्द्र, विचार और विवेचन, पृष्ठ- 120
3. डाॅ. जैनेन्द्र कुमार, हिन्दी उपन्यास की शिल्प विधि, पृष्ठ- 6
4. Leo Talostoy, Whats Arts, P.6
5. डाॅ. शिवपाल सिंह, पंत का काव्य-शिल्प, पृष्ठ- 26
– डाॅ. मुकेश कुमार