संस्मरण
ऋणानुबंध
वर्ष 2011, दिसम्बर का महीना। आज सत्रह तारीख है। अहमदाबाद का सेटेलाइट विस्तार। आनंदनगर रोड पर स्थित शुभकामना को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी की कोठी नम्बर 18, हमारा निवासस्थान। प्रातः छ्ह बजे हैं। चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अख़बार के पन्ने फेर रही हूँ। रोजमर्रा की ख़बरें अब कोई संवेदना पैदा नहीं करती। राजनीति के समाचारों में अब कोई रुचि नहीं रही, फिर भी आजकल मुझे अच्छा लगता है, सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे से जुड़ी खबरे सुनना। भ्रष्ट्राचार ने भारतीय अर्थतंत्र को दीमक की तरह खोखला कर दिया है। हर आम आदमी की तरह मैं भी भ्रष्टाचार के दैत्य से निजात पाना चाहती हूँ।। इस समस्या के निराकरण को नेतृत्व देने वाले श्री अन्ना हजारे के प्रति मुझे आदरभाव है। ‘दिव्य भास्कर’ की सिटी भास्कर पूर्ति के पन्नों पर नज़र फेरते हुए मेरी नज़र ठहर गई सिटी स्पेश्यल के एक समाचार पर। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी अहमदाबाद केनाइल क्लब द्वारा शहर के झेवियर्स केम्पस में 18 दिसम्बर यानि आगामी कल ‘डॉग शो’ का आयोजन किया गया है, जिस में देश भर से 28 विभिन्न जाति के भारतीय और विदेशी, कुल मिलाकर क़रीब 240 श्वान हिस्सा लेंगे। उन्हें अपने कद के अनुसार छः ग्रुप में बाँटा गया है। विभिन्न ग्रुप? मेरी दिलचस्पी बढ़ी। मैं पढने लगी – टॉय ग्रुप, यूटिलिटी ग्रुप, टेरियर ग्रुप, हाउंड ग्रुप, गन डॉग ग्रुप, वर्किंग ग्रुप, पेस्टोरिअल ग्रुप आदि। इन ग्रुप में पग, पोमेरेनियन, डालमेशियन, केन टेरियर, बिगल, अफगान हाउंड, लेब्राडोर रिट्रीविट, पोइन्टर, बोक्सर, ग्रेट डेन, डोबरमेन, जर्मन शेफर्ड आदि श्वान को उन के कद के अनुसार विभिन्न ग्रुपो में बाँटा गया है।
पढ़ते-पढ़ते मन अचानक विक्षिप्त-सा हो गया। मेरा पालतू स्वान जेकी भी अब नहीं रहा जो वर्किंग ग्रुप में आ सकता था। पर लाली? वह तो मिश्र प्रजाति की थी, किसी भी ग्रुप में नहीं आ सकती थी। नज़र के सामने मेरी प्यारी कुतिया ‘लाली’ का चेहरा तादृश होने लगा। मेरी नज़र बैठक खंड की काँच की दीवार से दिख रहे बगीचे में जैसे लाली को ढूँढने लगी। कहीं उसका सुंदर चेहरा दिख जाए! जो संभव नहीं वह चाहत कितनी पीड़ा देती है! आज से ठीक दो वर्ष, पाँच महीने और पंद्रह दिन पहले, दो जुलाई 2009 के दिन लाली इस दुनिया को छोड़ गई। इस बगीचे में ही हमने उसे दफ़नाया है। यही बगीचे की जमीं पर तो वह अपना आश्रय ढूँढ रही थी! जो जमीं प्रकृति ने हर जीव के लिए समान रूप से दी है उस पर इस मानव नामक जीव ने किस बेरहमी से कब्ज़ा किया है, इस बात का अहसास ही मुझे न हो पाता अगर लाली मेरे जीवन में न आती। गलती तो हर किसीसे होती है पर ऐसी गलती जो जीवन के प्रति सही अभिगम को नजरअंदाज कर जाए वह तो क्षम्य नहीं होनी चाहिए। उसकी आकुल आँखों में छिपी व्यथा जो मेरे बेटे सोहम ने देखी वह मुझे क्यों नहीं दिखाई दी? उसका मूक आर्तनाद जो सोहम ने सुना वह मुझे क्यों नहीं सुनाई दिया? एक सिहरन-सी दौड़ गई थी मेरे सारे बदन में जब मैंने पहली बार, आज से क़रीब ग्यारह वर्ष पहले उस कुतिया को देखा था। अपनी कोठी के कम्पाउंड की दीवार पर खड़ी थी। सारे बदन पर एक भी बाल नहीं। बिना बाल के नंगे बदन पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी। घाव से भरा बदन जैसे ज़िन्दा कंकाल! मुझे देखकर वह दीवार कूदकर भागी। दूसरे दिन मैंने देखा, वह आकर बगीचे के एक कोने में दुबकी बैठी थी। मैंने कोने में पड़ा डंडा उठाया, वह कम्पाउंड की दीवार कूदकर भागी। अब यह रोजमर्रा की मुश्किल होने लगी। दिन में कभी भी वह आती बगीचे की मिट्टी में छोटा-सा गड्ढा बनाकर बैठ जाती। मुझे लगता यह कुतिया मेरा बड़े शौक़ से बनाया बगीचा नष्ट कर देगी। बार-बार वह छोटे-छोटे गड्ढ़े बनाकर बैठ जाती। मेरी परेशानी बढ़ने लगी। अब मेरा ध्यान बगीचे में ही लगा रहता। जब भी वह दिख जाती, मैं उसे भगाती।
अचानक उसका दिखना कम हो गया। मैंने राहत का दम लिया। कुछ महीने बाद एक बार फिर वह दिखी, आश्चर्य! क्या यह वही कुतिया है जिसे मैं लगातार भगाया करती थी? हाँ… वही तो थी! अब उसके बदन पर नए बाल उग आए थे। सेहत भी कुछ ठीक लग रही थी। उसने एक नज़र मेरी तरफ़ डाली। उसकी आँखों में वही करुणा दिखी, जो पहले भी थी। मैंने अपने बेटे सोहम से पूछा, ‘देखो बेटे, इस कुतिया का रंग-रूप कितना बदल गया है!’ ‘मै उसे पिछले कुछ दिनों से पेडिग्री खिला रहा हूँ, आपने जो जेकी के लिए खरीदा था न? वही। जेकी तो नहीं खाता, मैंने सोचा इसे खिलाकर देखूँ।’ उसने दबी आवाज में कहा। मैंने सोहम की ओर देखा। उसके चेहरे पर ख़ुशी झलक रही थी। अपने आप पर मुझे बड़ी शर्म आई। यह अबोध जीव, जो कुपोषण की शिकार थी, उपर से बीमारी ने उसे परेशान कर रखा था। अब मुझे ध्यान आया कि सोहम शहर के ‘एनीमल हेल्थ फाउंडेशन’ नामक एक ग़ैर सरकारी संस्था में जाता रहता था, जो मुख्यतया श्वान के लिए काम करती है। हो सकता है वहाँ से कुछ दवाईयाँ भी लाया हो, हो सकता है चुपके-चुपके उसे दूध भी पिला रहा हो। मैंने अपनी झिझक छुपाते हुए कहा, ‘पर आजकल यह दिखती भी नहीं है, न बगीचे की मिट्टी ख़राब करती है, वह रहती कहाँ है?’ ‘माँ, उसे मेंज (mange) नामक बीमारी हुई थी, जिसमें सारे बदन में खुजली आती है, त्वचा में घाव होने लगते है। बाल झड़ जाते है। यह कुतिया किसी परिवार में पालिता थी, हो सकता है बिमार होने से उसे छोड़ दिया गया, इसे स्ट्रे डॉग की तरह रस्ते पर पड़े कूड़े-कचरे से खाना ढूँढना नहीं आता। यह भूख से मर रही थी उसकी प्रबल जिजीविषा ने ही उसे ज़िन्दा रखा है। अब वो हमारे घर की छत पर बैठी रहती है। मैंने एक बस्ता बिछा दिया है।’ ‘हे भगवान!’ मेरे मुँह से यही शब्द निकल पाए। कोठी की सीढ़ियाँ बाहर की ओर थी जहाँ से वह छत पर आ-जा सकती थी। ‘ठीक है, तुम उसका ख्याल रखना।’
मेरी बात से सोहम का हौसला बढ़ा। वह बोला, ‘माँ अहमदाबाद में ऐसे कई रइस परिवार हैं जो अपनी प्रतिष्ठा के हिसाब से ख़ूब कीमती, अच्छी प्रजाति का श्वान पाल तो लेते हैं लेकिन उसे रखने का सही तरीका नहीं जानते। अनजाने ही उस प्राणी पर अत्याचार होता रहता है और अगर वह बिमार हो जाए तो उस की चिकित्सा करने की बजाए उसे ऐसे ही मरने के लिए छोड़ देते हैं।’ मुझे लगा, जो लोग पालतू श्वान को छोड़ देते हैं और जो उसे सहारा भी नहीं दे पाते- दोनों ही तो एक जैसे गुनहगार है। हमारे घर में भी तो पालतू श्वान जेकी है। जेकी ने कभी इस कुतिया को अपने बगीचे से नहीं भगाया। प्राणियों में भी आपस में सहानुभति होती होगी क्या? इस सृष्टि में बहुत सी ऐसी बातें हैं जो किसी अचरज से कम नहीं। मानव की तरह अन्य जीव भी अपने मनोभाव व्यक्त कर सकते हैं, अपनी प्रसन्नता-पीड़ा व्यक्त कर सकते हैं। पारस्परिक सहयोग का यह किस्सा मुझे बहुत देर से ध्यान में आया। जेकी तब बीमार था। उसकी उम्र क़रीब अठारह साल की थी। डॉक्टर का कहना था कि हमारी सही देखभाल की वजह से ही वह इतनी लम्बी आयु तक ज़िन्दा था। उसे कोई विशेष बीमारी नहीं थी। उम्र का तकाज़ा था। मैंने यह नोटिस किया था कि किसी भी बहार के श्वान को हमारे बगीचे में आने से रोकने वाला जेकी, इस बीमार कुतिया को कुछ न करता, बल्कि कभी-कभी मैंने उसे उस बीमार कुतिया के क़रीब खड़ा पाया जैसे अपनी मूक सांकेतिक भाषा में कुछ कह रहा हो।
दूसरे दिन मैं छत पर गई, वह सो रही थी। उस के पास जाते ही वह अपनी पूँछ हिलाने लगी, मैंने धीरे से उस के सर पर हाथ रखा। स्पर्श की भी एक भाषा होती है। उसकी आँखों में मुझे अपार करुणा दिखी। मैं अक्सर उससे मिलने लगी। वह पूंछ हिलाकर अपनी ख़ुशी जताती। धीरे धीरे वह बिलकुल ठीक हो गई। दिनभर कहीं भी जाती पर उसका रहने का ठिकाना अब हमारी कोठी का कम्पाउंड ही था। समय बीतता चला। एक दिन मैं उसे खाना दे रही थी, मुझे लगा उसका का शरीर थोडा भारी दिख रहा है। वह गर्भवती थी। कुछ महीने बाद उसने कोठी के पिछवाड़े, सोसायटी के कोमन प्लॉट में जहाँ बिजली का सब-स्टेशन है, सीढियों के नीचे छः बच्चों को जनम दिया। मैं उसे देखने गई। बड़ी कमज़ोर लग रही थी। मैंने एक कटोरी में थोड़ा दूध और कुछ रोटियाँ ली और उसे दे आई। उसने तुरंत खा लिया। कुछ दिन इसी तरह मैं उसे खाना देती रही। पिल्लों ने अभी ऑंखें नहीं खोली थी। दिसम्बर का महिना था। कड़ाके की ठंड थी। एक रात, क़रीब तीन बजे मुझे अपने बगीचे में पिल्लों की आवाज सुनाई दी। मैंने अपने पति को जगाया। कुतूहलवश हम दोनों टॉर्च लेकर बाहर निकले। बगीचे के गेट के पास बोगनवेल के तने के पास एक गहरा गड्ढा दिखा। उस में वे सारे पिल्ले एक दूसरे से सटकर बैठे थे। ठण्ड से सिकुड़ रहे थे। कमरे में आकर सोने की कोशिश करने लगी पर नींद न आई। सुबह उठकर सोहम से यह बात कही, उसने कहा, ‘हाँ माँ, रात भर सीढ़ियाँ चढने-उतरने की आवाज आ रही थी।’ अब समझ में आया! हमारे कम्पाउन्ड की दीवार क़रीब चार फीट ऊँची थी। नवजात पिल्लों को मुँह में दबाकर उस ऊँची दीवार को कूदना मुश्किल था। हमारे पडोसी की कोठी के कम्पाउन्ड की दीवार सिर्फ़ ढाई फीट ऊँची थी। दोनों कोठियाँ कॉमन दीवार से जुड़ी होने के कारण उनकी कोठी की सीढियों से होकर, छत के रास्ते से हमारी सीढियों से उतरा जा सकता था। उसने वही किया। रातभर एक-एक करके अपने नवजात पिल्लों को अपने मुँह में दबाकर पडोसी की सीढियों के रास्ते हमारे बगीचे तक आई। इस धरती के सब से ख़तरनाक जीव मानव पर इतना भरोसा? मैंने ख़ुद को इतना बौना कभी न पाया था।
हमने एक छोटा-सा काष्ठ का बेंच जो बाहर ही पड़ा रहता था, उसे उठाकर घर की दीवाल से सटाकर रखा, उसके नीचे कुछ बस्ते बिछाए, तीन तरफ़ परदे लगाए। इस आवास में सभी पिल्लों को लाया गया। वे अब इसी में रहने लगे। क़रीब दस दिन बाद जब उनकी आँखे खुली, वे अपने इस छोटे-से घर से बाहर निकले। कभी-कभी बगीचे की हरी-हरी घास पर खेलते हुए शोर मचाते रहते। उनकी माँ उन्हें अपलक नेत्रों से निहारती रहती। प्राकृतिक काजल लगी हुई उसकी सुनहरी आखें अतिसुंदर दिख रही थी। उसके चेहरे पर लावण्य की ऐसी झलक मैंने कभी नहीं देखी। रातभर वह इस घर के सामने पहरा देती रहती। मूक प्राणी के मातृत्व का श्रेष्ठ उदहारण मेरे सामने था! पिल्लों को स्तनपान कराते हुए उसके चेहरे पर मुझे जो लालिमा नज़र आई, मैंने इस प्यारी दुलारी माँ का नाम रखा—‘लाली’। मुझे नहीं पता था, उसके मालिक उसे क्या कहकर पुकारते थे। साथ ही पिल्लों के नाम भी रखे गए। ‘मोटु’, ‘छोटु’, ‘महारानी’, ‘कालु’, ‘चीनी’ और ‘सुंदरी’।
कुछ दिन और बीत गए, पिल्लों को माँ का दूध कम पड़ने लगा। एक दिन मैंने एक बड़ी-सी थाली में दूध डाला और थाली उनके सामने रख दी। मैंने देखा लाली ने उठकर दूध पीना शुरू किया। कुछ ही पल में पिल्लों ने उसका अनुकरण करना शुरू किया। लाली तुरंत रुक गई। ओह! वह अपनी संतानों को थाली में से खाने का तरीका सिखा रही थी! अदभुत!
धीरे-धीरे वे रोटी और अन्य खाद्य खाना भी सीखने लगे। लाली और उसकी संतानें अब हमारे परिवार का हिस्सा बन चुके थे। दफ़्तर से लौटते ही मैं कोठी की सीढियों पर बैठ जाती। सभी पिल्ले आकर मुझे घिर लेते। मस्ती का एक माहौल बन जाता। मैं जैसे एक अलग ही दुनिया में पहुँच गई थी, जहाँ खुशियाँ ही खुशियाँ थी। पर खुशियाँ तो जीवन-सागर के किनारे लहरों की तरह आती-जाती रहती है, कहीं ठहरती नहीं। अचानक ‘छोटु’ और ‘सुंदरी’ बीमार हो गए। उनका खाना भी कम हो चला था। उन्हें डिस्टेम्पर नामक बीमारी हुई थी जो अक्सर पशु-पक्षियों में देखी जाती है। पिल्ले या चूज़ों के लिए यह घातक होती है। सोहम ने तुरंत ही उनका इलाज शुरू करवाया, पर होनी को कौन टाल सका है? कुछ ही दिनों में दोनों की मौत हो गई। मन जैसे रिक्त हो गया। मैं बार-बार लाली को देखती। उसके चेहरे पर मुझे विषाद की गहरी छायाएँ नज़र आती। एकाद सप्ताह के बाद ‘कालु’ और ‘चीनी’ अस्वस्थ हो गए। वे भी चल बसे। माहौल बड़ा गमगीन हो गया। मेरी खुशियाँ एक-एक क़दम दूर जाने लगी। सभी ने चुप्पी साध ली। अब बारी थी ‘महारानी’ की। मेरे पति महोदय, पार्थ ने यह नाम रखा था। क्योंकि वह सचमुच बड़ी ख़ूबसुरत थी। उसका सौंदर्य किसी राजकुमारी-सा था। कुछ ही दिनों में हमारी चहेती ‘महारानी’ भी हमें छोड़कर चल दी। हमारी आख़िरी उम्मीद थी ‘मोटु’। वह पहले से ही थोड़ी मोटी थी इसीलिए उसका नाम ‘मोटु’ रखा गया था। वह भी जब थोड़ी-सी अस्वस्थ दिखने लगी। सोहम ने कहा, ‘माँ, यह बस कुछ ही दिन की मेहमान है’। मैं ख़ुद को बड़ा असहाय महसूस करने लगी। मैंने सुना था कि ग़र अंतर्मन से प्रार्थना की जाए तो ज़रूर क़बूल होती है। ‘मोटु’ को दवा से ज्यादा दुआओं की ज़रूरत थी। सोहम चिकित्सा करवा रहा था। मैं कभी सोहम को कभी लाली के चेहरे को देखती रहती। दोनों के रंगहीन चेहरे मेरी अंतरात्मा को झकझोरने लगे। मैंने अंतर्मन से प्रार्थना की। जैसे चमत्कार हुआ, ‘मोटु’ स्वस्थ हो गई। हमारी लाडली माँ लाली की एक संतान को बचाने में हम कामयाब हुए।
समय अपने तरीके से बीत रहा था। मैं लाली और मोटु से सीख रही थी, माँ और बेटी के रिश्ते की गहराइयाँ। माँ का स्नेह अदभुत था या बेटी का प्यार निराला था यह तय करना मुश्किल था। समय बीतता चला। दोनों हमारे परिवार के सदस्य बन चुके थे। देखते ही देखते कब नौ वर्ष बीत गए, पता ही न चला। बेटा सोहम अपनी पढ़ाई पूर्ण होते ही चेन्नई स्थित मद्रास क्रोकोडिअल बेंक ट्रस्ट में कार्यरत हो गया। इक्कीस जून 2008 को उसका विवाह भी हो गया। कुछ ही दिनों में बहु आकांक्षा भी चेन्नई चली गई। घर में हम पति-पत्नी और मोटु-लाली रह गए। ये दोनों हमारे अकेलेपन का सहारा बन चुके थे। एक दिन अचानक मैंने देखा कि लाली खाना ठीक से नहीं खा रही थी। दो-तीन दिनों में ही उसने खाना बिल्कुल बंद कर दिया। हमने सोहम से बात की। हम उसे डॉक्टर टीना के पास ले गए। पता चला उसके दोनों गुर्दे खराब हो चुके थे। अब की बार जो बीमार हुई लाली, हम उसे बचा नहीं सके। मृत्यु एक प्राकृतिक घटना है। प्राणी हो या मानव सब को एक न एक दिन मौत के आगोश में समा जाना है, पर लाली से मेरा भावनात्मक लगाव इतना गहरा था कि मैं उसकी मौत को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। उसके साथ किए गए अन्याय का अपराधबोध इस कदर हावी हो रहा था कि मैं ख़ुद को क्षमा नहीं कर पा रही थी। मैं उसके सिरहाने बैठकर उसके सिर पर हाथ फेरने लगी। वो नज़र उठाकर कभी मुझे देखती फिर ऑंखें मूँद लेती। वही करुणा आज भी उसकी आँखों में दिखी। उस दिन मैं कितना रोई मुझे याद नहीं, पर याद है, रोते-रोते मैं अविरत एक ही पंक्ति दोहरा रही थी, ‘मुझे माफ़ कर दो लाली, मुझे माफ़ कर दो।’ उसी रात को वह हमें छोड़कर चली गई।
कोई मनुष्य जब किसीसे अपना गुस्सा जताने ‘कुत्ता’ कहकर संबोधित करता है तो मुझे उस मनुष्य से यह कहने को मन करता है, ‘हर मनुष्य में अगर में श्वान की वफ़ादारी होती तो यह धरती स्वर्ग न बन जाती?’ जाते जाते लाली मुझे जीवन का फ़लसफ़ा सिखाकर गई।
– मल्लिका मुखर्जी