संस्मरण
ईश्वर की इच्छा बिना, हिले न पत्ता एक: अमन चांदपुरी
यह संस्मरण है इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के दूसरे साल यानि सितम्बर 2012 का। उसी साल हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैंने ग्यारहवीं कक्षा में दाख़िला लिया था। उस दौरान मुझ पर एक अजीब-सा नशा चढ़ा था। मैं अपने जनपद की कुछ प्रसिद्ध एवं महान हस्तियों के बारे में जानने और उन पर लिखने के लिए अख़बारों तथा अन्य माध्यमों से जानकारी जुटाने में लगा था। डॉ. लोहिया, मेंहदी हसन, सैय्यद अहमद, जयराम वर्मा और ध्रुव जायसवाल जैसे बड़े और प्रसिद्ध नाम मेरी इस रुचि को और भी प्रखर करते गये।
मैं जिसके बारे में भी जानने का प्रयास प्रारम्भ करता था, जल्द ही दो-चार दिनों में भरपूर जानकारी सम्बन्धित व्यक्ति के बारे में जुटा लेता था। मुझे इस विषय में रुचि तब हुई जब मैंने श्रीकृष्ण तिवारी जी, जो कि मेरे क्षेत्र के प्रमुख साहित्यकार हैं, की पुस्तक ‘जिला अम्बेडकर नगर का आईना’ पढ़ी। जिसमें वर्तमान समय और पूर्व की कुछ प्रमुख हस्तियों का संक्षिप्त परिचय है, केवल एक महान शख़्सियत को छोड़कर, जिन पर उन्होंने एक पुस्तक उनकी जीवनी के रूप में लिखी है जिसका नाम है ‘पूर्वांचल के गांधी जयराम वर्मा’ यानि भूतपूर्व विधायक, सांसद, मंत्री एवं स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय जयराम वर्मा जी।
मैंने इनके बारे में काफ़ी कुछ सुना था। ये उत्तर प्रदेश के आधे से अधिक हिस्से में गांधी के नाम से जाने जाते हैं। जो सच्चाई, ईमानदारी और सादगी की मिसाल थे। ये प्रदेश सरकार में अनेक वर्षों तक मन्त्री भी रहे। इन्होंने राज्यपाल का पद जनता की सेवा में समर्पित रहने के लिए ठुकरा दिया। यह पुस्तक मुझे काफी प्रयास के बाद भी हासिल नहीं हो सकी। क्योंकि इसका एक मात्र संस्करण नब्बे के दशक में छपा था, जिसकी बमुश्किल 150 प्रतियाँ ही छपी थीं। तथा जिसे लेखक और प्रकाशक ने चुनिन्दा लोगों को ही नि:शुल्क वितरित किया था। यह पुस्तक बाज़ार में भी उपलब्ध नहीँ थी। इसे पाने का एक मात्र ज़रिया लेखक ही थे।
सितम्बर से लेकर नवम्बर के मध्य मैं हर दस-पन्द्रह दिनों में एक बार ज़रुर श्रीकृष्ण तिवारी जी के घर जाता था लेकिन उनके अस्वस्थ और लखनऊ में होने के कारण मुझे हर बार निराश होकर लौटना पड़ता था। एक बार उनके सबसे छोटे सुपुत्र ने बताया, जिनका नाम इस वक़्त याद नहीं आ रहा है, कि यह पुस्तक मुझे एक और व्यक्ति से प्राप्त हो सकती है और वो हैं श्रीराम अशीष वर्मा जी, जो जयराम वर्मा जी द्वारा ही स्थापित जयराम वर्मा बापू स्मारक इंटर कालेज, नाऊसांडा, अम्बेडकर नगर के प्रधानाचार्य और ‘पूर्वांचल के गांधी जयराम वर्मा’ पुस्तक के प्रकाशक भी हैं। मैं उनके पास भी गया और उस पुस्तक को पढ़ने के लिए अपनी उत्सुकता का ज़िक्र भी किया लेकिन परिणाम वही रहा ‘ढाक के तीन पात’। मुझे वहाँ से भी निराश लौटना पड़ा। उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया और कहा कि मेरे पास पुस्तक उपलब्ध नहीं है। जबकि उनके पास उस पुस्तक की पच्चीस से भी अधिक प्रतियाँ थीं (लेखक के पुत्र के अनुसार) फिर भी उन्होंने “मेरे पास नहीं है” कहकर मुझे टरका दिया।
उसके बाद मैंने भी निराश होकर उस पुस्तक को पढ़ने की मंशा छोड़ दी। मगर जब ईश्वर की कृपा से मुझ में काव्य प्रतिभा विकसित हुई तो यह पुस्तक मुझे ख़ुद ही ढूँढती हुई मेरे पास चली आई।
चार फ़रवरी को जयराम वर्मा जी की जयंती होती है। उस वर्ष उनकी 110 वीं जयंती थी। इल्तिफ़ातगंज में, जहाँ मैं रहता था, वहीं घर के एकदम बगल में ही जयराम वर्मा बापू स्मारक इंटर कालेज में इतिहास के लेक्चरर श्री राकेश वर्मा रहते थे। उन्हें मैं अपनी स्वरचित काव्य पक्तियाँ कभी-कभी सुनाया करता था। उन्होंने जयराम वर्मा जी पर उनके जन्मदिन के शुभ अवसर पर मेरे समक्ष एक कविता रचने का प्रस्ताव रखा। जिसे मैंने भी स्वीकार कर लिया। मगर समस्या यह थी कि मुझे जयराम वर्मा जी के बारे में कुछ मालूम तो था; पर उतना पर्याप्त नहीं था, जिससे उन पर अच्छी-सी कविता लिखी जा सके। उन्होंने मुझसे कहा “कालेज की लाइब्रेरी में जयराम वर्मा जी की जीवनी है, मैं कल कॉलेज से ले आऊगाँ, तुम उसको पढ़कर जयराम वर्मा जी पर कविता लिख देना।” और जब उन्होंने मुझे पुस्तक दी तो उसे पढ़कर मैंने जयराम वर्मा जी पर कविता भी लिखी। और जैसा कि मैं इसी लेख में पहले कह चुका हूँ, वही पुन: कह रहा हूँ कि जो पुस्तक मेरे लाख प्रयास के बाद भी मुझे नहीं मिली, वही जब ईश्वर ने चाहा तो मुझे ढूँढती हुई ख़ुद मेरे पास चली आई जिससे मेरे इस विश्वास को और भी बल मिला कि-
ईश्वर की इच्छा बिना, हिले न पत्ता एक।
जब होती उसकी कृपा, बनते काम अनेक।।
– अमन चाँदपुरी